“पंजाब में प्रमुख ऋषि भक्तों के प्रेरक आदर्श लाला सांईदास”

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Published on : 10 Nov, 18 05:11

मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून

“पंजाब में प्रमुख ऋषि भक्तों के प्रेरक आदर्श लाला सांईदास” स्वामी श्रद्धानन्द जी (पूर्व आश्रम का नाम महात्मा मुंशीराम व इससे पूर्व मुंशीराम जी) की पं. सत्यदेव विद्यालंकार कृत जीवनी की स्वाध्याय करते हुए इसमें आज पं. गुरुदत्त विद्यार्थी एवं लाला सांईदास जी की मृत्यु का उल्लेख पढ़ा तो मन में आया कि इस प्रकरण को हम लेख के माध्यम से प्रस्तुत करे। लाला सांईदास जी की मृत्यु 13 जून सन् 1890 को लाहौर में हुई थी। लाला सांईदास जी से पूर्व महात्मा मुंशीराम जी के अनन्य मित्र एवं सहयोगी पं. गुरुदत्त विद्यार्थी जी का भी दिनांक 19 मार्च सन् 1890 को देहावसान हुआ था। इससे कुछ ही माह पूर्व महात्मा जी के बड़े साले श्री बालकराम जी (स्वामी श्रद्धानन्द जी की धर्मपत्नी माता शिवदेवी जी के बड़े भाई) की जालन्धर में फैले हैजे से दिनांक 14-8-1889 को आकस्मिक मृत्यु हुई थी। बालक राम जी माता शिवदेवी जी से बहुत स्नेह करते थे। शिवदेवी जी का भी अपने बड़े भ्राता से अत्यधिक प्रेम था। इस घटना से शिवदेवी जी बहुत व्यथित थीं, अतः महात्मा मुंशी राम जी अपने पूरे परिवार को हरिद्वार घूमाने लाये थे। पुस्तक में लाला सांईदास जी की मृत्यु से सम्बन्धित पूरा विवरण निम्नानुसार हैः

‘‘पंडित गुरुदत्त जी के इस वियोग की वेदना ने बालकराम जी के देहान्त से हुए घाव पर नमक छिड़कने का काम किया था, तो सांईदास जी के देहावसान ने मानो उस पर लाल मिर्च छिड़क दी। 30 ज्येष्ठ सम्वत् 1947 (13 जून 1890 ई.) को वे भी इस संसार से चल दिये। सांईदास जी के पास न तो कोई बहुत धन-सम्पत्ति थी और न यूनिवर्सिटी की कोई डिग्री ही। फिर भी आर्यसमाज के वे माने हुए नेता थे। न केवल लाहौर, किन्तु समस्त पंजाब के आर्य पुरुष उनके अनुभव से लाभ उठाया करते थे। उनमें सादगी, सच्चरित्रता और मिलनसार स्वभाव आदि ऐसे सद्गुण थे कि उनके कारण वे दूसरों को अपनी ओर सहसा आकर्षित कर लेते थे। आर्यसमाज में उनकी निष्ठा बहुत गहरी थी। हंसराज जी और लाजपतराय जी सरीखों को घेर कर ब्रह्मसमाज से आर्यसमाज में लाने तथा पंडित गुरुदत्त जी और मुंशीराम जी सरीखों को नास्तिकता के गहरे अन्धकारमय गढ़ में से उभार कर आस्तिकता की चोटी पर पहुंचाने वाले सांईदास जी ही थे। ऐसे पथ-प्रदर्शक का उठ जाना भी मुंशीराम जी के लिए कुछ कम दुःखजनक नही था। ऐसे साथियों को खोकर साधारण मनुष्य का हृदय टूट जाता है, किन्तु मुंशी राम जी ने इस समय असीम साहस का परिचय दिया। आर्यसमाज के सब काम की जिम्मेवारी को उन्होंने अपने ऊपर उठा लिया और पूरे उत्साह के साथ उसको निभाया। मुंशीराम जी की इस कर्तव्यपरायणता का ही यह स्वाभाविक परिणाम हुआ कि आर्यवमाज में जिस गृह-कलह का सूत्रपात लाहौर में हुआ था, उसमें जालन्धर के आर्य-पुरुषों का मुख्य हाथ रहा और जिसको महात्मा-पार्टी या घास-पार्टी कहा गया, उस प्रमुख दल के नेतृत्व की बागडोर सहज में ही मुंशीराम जी के हाथों में ऐसे चली आई, जैसे ही पंडित गुरुदत्त जी के बाद नेता के अभाव की पूर्ति करने के लिए ही उनको आर्यसमाज में प्रवेश करने के लिए कोई दैवी प्रेरणा हुई थी।”

लाला सांईदास जी का आर्यसमाज के इतिहास में अविस्मरणीय योगदान है। वर्तमान पीढ़ी उनके विषय में बहुत कम या प्रायः नहीं जानती। इसका एक कारण आर्य साहित्य में उनके जीवन चरित्र आदि का उपलब्ध न होना भी है। हमें लगा कि उनके जीवन की कुछ चर्चा भी की जाये। अतः हम डॉ. भवानीलाल भारतीय की पुस्तक ‘आर्य लेखक कोष’ से उनका परिचय प्रस्तुत कर रहे हैं।

डॉ. भवानीलाल भारतीय जी लिखते हैं कि पंजाब में आर्यसमाज के प्रारम्भिक कर्णधारों में लाला सांईदास का नाम सर्वप्रमुख है। उनका जन्म जालंधर जिले की फिल्लौर तहसील के लस्साड़ा ग्राम में सन् 1841 में हुआ। मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण करने के पश्चात् वे सरकारी सेवा में प्रविष्ट हुए। प्रारम्भ में सांईदास ब्रह्मसमाज में प्रविष्ट हुए किन्तु जब इन्होंने अनुभव किया कि इस संस्था के द्वारा वे अपनी देश सेवा और समाज सुधार की आकांक्षाओं को पूरा नही ंकर सकते तो उन्होंने आर्यसमाज लाहौर की स्थापना के समय ही उसकी सदस्यता स्वीकार कर ली। स्वामी दयानन्द की विचारधारा ने सांईदास को प्रभावित किया था। वे आर्यसमाज लाहौर के प्रथम मंत्री थे। पंजाब की आर्य प्रतिनिधि सभा की स्थापना के साथ ही वे इस संस्था के प्रधान निर्वाचित हुए और आजीवन इस पर रहे।

लाला सांईदास में स्वदेश हित का भाव अत्यन्त प्रबल था। यद्यपि वे पंजाब सरकार की सेवा में ट्रान्सलेटर के पद से उन्नति कर 1890 में प्रान्त के गवर्नर के कार्यालय में मीर मुन्शी के पद तक पहुंच गये थे किन्तु देश और हिन्दू समाज को उन्नत बनाने के लिये उनके जैसी धुन उस युग के सरकारी कर्मचारियों में सर्वथा दुलभ ही थी। लालाजी की आर्यसमाज के प्रति अनन्य निष्ठा थी। कहते हैं कि महीने के पहले दिन वेतन मिलते ही वे सीधे अपने दफ्तर से आर्यसमाज मंदिर जाते और अपने वेतन का 10 प्रतिशत (उन दिनों उन्हें 130 रुपये वेतन मिलता था) आर्यसमाज के मासिक चंदे के रूप में जमा कराने के पश्चात् ही घर लौटते। यह थी आर्यसमाज के प्रति सांईदास की आस्था। नव युवक वर्ग को आर्यसमाज में प्रविष्ट होते देखकर उन्हें विशेष प्रसन्नता अनुभव होती थी। हंसराज, लाजपतराय, गुरुदत्त तथा मुन्शीराम जैसे नौजवानों को आर्यसमाज का कार्य करते देख कर सांईदास का रोम रोम प्रफुल्लित होता था। जून 1890 में लाला सांईदास का देहान्त हो गया। 12 फरवरी 1881 को जब कलकत्ता में पौराणिक पण्डितों ने आर्य सन्मार्ग संदर्शिनी सभा के नाम से एक बैठक बुला कर स्वामी दयानन्द के सिद्धान्तों के प्रतिकूल व्यवस्थायें दीं, तो उसके उत्तर में लाला सांईदास ने ‘रसाला एक आर्य’ पुस्तक उर्दू में लिखी तथा पौराणिक विद्वानों की धारणाओं का तीव्र प्रतिवाद किया। यह पुस्तक ही लाला सांईदास की एक मात्र साहित्यिक कृति कही जा सकती है।

यहां पर डॉ. भारतीय जी लिखित विवरण समाप्त होता है। हम आशा करते हैं कि पाठकों के लिये उपर्युक्त जानकारी लाभप्रद होगी। हमारा यह अनुमान है कि जब लाहौर में महर्षि दयानन्द जी ने आर्यसमाज की स्थापना की थी और लाला सांईदास जी उसके प्रथम मंत्री बने थे, तो उस अवसर, उससे पूर्व व बाद में भी लाला सांईदास जी को ऋषि दयानन्द जी के दर्शन हुए होंगे और उन्होंने उनके उपदेश भी श्रवण किये होंगे। लाला सांईदास जी ने ‘रसाला एक आर्य’ जो उर्दू पुस्तक लिखी है वह उनके आर्यसमाज के सिद्धान्तों के गहन ज्ञान एवं निष्ठा का उदाहरण व प्रमाण है। यदि वह कुछ ग्रन्थ और लिख देते तो इससे लोगों को अधिक लाभ होता। ग्रन्थ न लिखने का एक कारण यह भी रहा हो सकता है कि वह सरकारी नौकरी में थे जहां इस तरह के कार्य उनकी नौकरी को हानि पहुंचा सकते थे। ओ३म् शम्।
-मनमोहन कुमार आर्य
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