“सृष्टि में क्रमबद्धता तथा कार्य-कारण-श्रृंखला का बने रहना प्रभुसत्ता-सम्पन्न विश्वात्मा के बिना सम्भव नहीं”

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Published on : 10 Nov, 18 05:11

मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून

“सृष्टि में क्रमबद्धता तथा कार्य-कारण-श्रृंखला का बने रहना प्रभुसत्ता-सम्पन्न विश्वात्मा के बिना सम्भव नहीं” स्वामी विद्यानन्द सरस्वती आर्यसमाज के उच्च कोटि के विद्वान थे। आपका जीवन अनुकरणीय था। आपने अपनी आत्मकथा ‘‘खट्टी मीठी यादें” सहित अन्य अनेक उच्च कोटि के ग्रन्थ लिखे हैं। आपसे जुड़ी हुई हमारी अनेक स्मृतियां हैं। आपके प्रमुख ग्रन्थों में से एक “तत्वमसि” ग्रन्थ है। इसी पुस्तक से आज ईश्वर विषयक प्रमाणों से सम्बन्धित आपके विचार प्रस्तुत कर रहे हैं।

स्वामी विद्यानन्द सरस्वती जी लिखते हैं कि समस्त जगत आदि से अन्त तक सुव्यवस्थित है और सब वस्तुओं में विधान तथा युक्तियुक्तता की मांग को पूरा करता है। सृष्टि का संचालन किन्हीं नियमों के आधार पर हो रहा है। नियमबद्धता प्रकृति में परमात्मा का प्रकटीकरण है। प्रकृति की सूक्ष्म शक्तियों तथा नियमबद्धता से अनुशासित विश्व परमात्मा के अस्तित्व का साक्षी है। विश्व के बृहत् आकार, ग्रह-नक्षत्रों की अगणित संख्या और उन सब पर शासन करने वाले नियमों के वैविध्य को देखकर बुद्धिपूर्वक नियोजन करने वाले कुशल रचयिता पर विश्वास करना ही पड़ता है। यह सारी व्यवस्था इतनी सूक्ष्म और यथार्थ है कि उसकी संगति को प्रकट करने के लिए नियम खोजने पड़ते है। इन नियमों की खोज करना ही विज्ञान का लक्ष्य है।

नियम क्या हैं?--ज्ञात तथ्यों का साधारणीकरण। जो नियम आज सत्य हैं, वे कल भी सत्य रहेंगे और परसों भी--जब तक यह विश्व रहेगा तब तक सत्य रहेंगे। यदि ऐसा न हो--इस प्रकार का विश्वास न हो तो गवेषणा करना व्यर्थ हो जाए और सारी वैज्ञानिक प्रगति ठप्प हो जाए। सृष्टि के रहस्यों को जानने में मन की असमर्थता का उल्लेख करते हुए प्रो. आइंस्टीन ने अपने समय के प्रसिद्ध वैज्ञानिक मैक्स प्लांक की पुस्तक “Where is Science going” की भूमिका में लिखा है--भौतिकी विज्ञानी का मुख्य उद्देश्य उन मूलभूत सामान्य नियमों की खोज करना है जिनसे सृष्टिरचना का तर्कशास्त्रीय ज्ञान प्राप्त हो सके, किन्तु इन नियमों को जानने के लिए कोई तर्क-शास्त्रीय मार्ग है नहीं। यह तो अन्तर्ज्ञान (intuition) के द्वारा ही सम्भव है।

प्रत्येक विज्ञान बताता है कि संसार की स्थिति नियमों पर है। इन नियमों का संग्रहभूत विज्ञान (science) है। इन्हीं नियमों के आश्रय से सब कलाओं, धन्धों का व्यवहार चलता है। यदि कृषक पृथिवी में बीज डाले जाने के पश्चात् उसके विशेष सिंचन आदि संस्कारों के अनन्तर उसके फलस्वरूप में परिणत होने में शंकित हो तो कृषिकर्म में कभी प्रवृत्त न हो। इन्हीं नियमों का समुच्चय कृषिविज्ञान (Science of Agriculture) कहाता है। यही अवस्था अन्य विज्ञानों की है। विज्ञान नाम ही नियमों का है। ब्रह्माण्ड भौतिक पदार्थों से और फिर सारा भौतिक प्रपंच प्राणिजगत् से एक सूत्र में बंधा हुआ है। सूक्ष्म दृष्टि से देखें तो प्रत्येक क्षेत्र की रचना निराली प्रतीत होती है। इन सब रचनाओं की फिर एक व्यापक रचना है। यह रचना सर्वज्ञ रचयिता के सिवा और किसकी हो सकती है? जो प्रत्येक विज्ञान के क्षेत्र में फैले हुए उस सूत्र को जानता है और फिर उस सूत्र के सूत्र को जानता है, वह परमात्मा को जानता है।

जैसे मकान की एक ईंट दूसरी से जुड़ी होती है, वैसे ही सूर्य चन्द्रमा से, चन्द्रमा पृथिवी से, पृथिवी वनस्पति से और वनस्पति जीव-जन्तुओं से जुड़ी है। बड़ी-से-बड़ी वस्तु से लेकर छोटी-से-छोटी वस्तु में नियम काम कर रहे हैं। सूक्ष्मतम परमाणु भी सौरमण्डल का छोटा रूप है। किसी सर्वोच्च चेतना और मस्तिष्क के बिना नियमों पर आधारित व्यवस्था नहीं बन सकती। सृष्टि का संचालन कर रहे नियमों में से ज्यों ही किसी नियम का पता चलता है त्यों ही वह नियम चिल्लाकर कहाता है--‘‘मेरा निर्माता ईश्वर है, तुमने तो बस मुझे खोज निकाला है।” विश्व के चमत्कारों ने निष्पक्ष ज्योतिर्विदों को किसी ऐसी अज्ञात और कदाचित् अज्ञेय शक्ति पर विश्वास करने को विवश कर दिया है जो विश्व की विशालता और नियमबद्धता के लिए जिम्मेदार है। परमात्मा की सत्ता से शून्य विश्व के ढांचे में व्यवस्था की कल्पना करना ऐसा विरोधाभास है जिसका कोई अर्थ नहीं बनता। व्यवस्थापक की सत्ता को नकारना ऐसा ही है जैसे बगीचे की शोभा और उसके सौन्दर्य को सराहना, परन्तु माली के अस्तित्व को स्वीकार न करना।

सृष्टि में असंख्य ग्रह-उपग्रह हैं जो अपनी धुरी और परिधि में गति कर रहे हैं। परन्तु लाखों-करोड़ों वर्ष बीत जाने पर भी एक-दूसरे के मार्ग में आकर नहीं टकराए। इसी कारण सूर्यग्रहण और चन्द्रग्रहण की भविष्यवाणी सैकड़ों वर्ष पहले की जा सकती है। संसार के विविधि पदार्थ एक-दूसरे की आकर्षण आदि शक्तियों से स्थिर हैं। परन्तु वह आकर्षण भी तो बुद्धिपूर्वक कार्य कर रहा है। ग्रहों-उपग्रहों ने आकर्षण करना भी किसी की नियामकता से स्वीकार किया है। ज्वारभाटे के निश्चित समय की पहले से जानकारी रहने के कारण ही यथासमय जहाज चलाये जाते हैं। चक्रवर्ती राजा के कार्यालय में कार्यरत कर्मचारी भी कभी-कभी देर से पहुंच पाते हैं। परन्तु सूर्य और चन्द्रमा के उदयास्त के क्रम में कभी एक पल भी इधर-उधर नहीं हो पाता। दिन के बाद रात और रात के बाद दिन का क्रम निरन्तर चलता रहता है। इसी प्रकार नियत क्रम के अनुसार ऋतुओं का चक्र घूमता रहता है। पहले फूल खिलता है, फिर फल आता है। ऐसा कभी नहीं हो सकता कि पहले फल आ जाए और फिर फूल खिलें। गुलाब के बीज से गुलाब और गेंदे के बीज से गेंदा ही पैदा होता है। जो आधारभूत नियम भारत में चलते हैं, वही अन्य देशों में भी। इस प्रकार की क्रमबद्धता तथा कार्य-कारण-श्रृंखला का बने रहना प्रभुसत्तासम्पन्न विश्वात्मा के बिना सम्भव नहीं।

हमने उपर्युक्त जो विचार व शब्द लिखे हैं वह स्वामी विद्यानन्द सरस्वती जी के शब्द हैं। संसार नियमों में बंधा हुआ है जो सृष्टि के आदि काल से चल रहे हैं। यह नियम सृष्टि में सर्वत्र विद्यमान एक चेतन सत्ता की उपस्थिति की ओर संकेत करते हैं। इससे सृष्टि में ईश्वर नामी ज्ञानस्वरूप व सर्वशक्तिमान सत्ता का अस्तित्व सिद्ध होता है। हम आशा करते हैं कि पाठक स्वामी विद्यानन्द जी के विचारों को पढ़कर उनके विश्लेषण व निष्कर्ष से पूर्ण सहमत होंगे। ओ३म् शम्।

-मनमोहन कुमार आर्य

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