१२५ वर्षों में बदली परम्पराएं, रावण वध से लेकर रावण दहन तक

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Published on : 18 Oct, 18 08:10

पहले बनता था ८० मन वजन का रावण का सिर, अब बनता है १०१ फीट ऊँचा पुतला

१२५ वर्षों में बदली परम्पराएं, रावण वध से लेकर रावण दहन तक कोटा(डॉ. प्रभात कुमार सिंघल)| कोटा राज्य के इतिहास में दहरा पर्व के अवसर पर विभिन्न धार्मिक उत्सवों का प्रारम्भ मध्यकालीन हाडा षसक महाराव दुर्जनशाल सिंह के समय से होना पाया जाता है। महाराव दुर्जनशाल हाडा (सन् १७२३ से १७५६) इतिहास प्रसिद्ध मुगल बादषह मोहम्मद षह रंगीला के समकालीन थे। उनकी मुगल दरबार में काफी प्रतिष्ठा थी। महाराव दुर्जनशाल सिंह के षासन काल में कोटा का दषहरा पर्व बहुत ही हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता था। मंदिरों पर तथा विभिन्न धार्मिक स्थानों पर अर्चन पूजन के कार्यक्रम पूर्ण श्रद्धा के साथ आयोजित करवाये जाते थे। राजसी शान शोकत बढाने वाली विभिन्न प्रकार की सवारियां एवं दरीखाने के सुन्दर उत्सव महाराव दुर्जन शाल द्वारा ही कोटा में प्रारम्भ किये गए। कोटा इतिहास के जानकार फिरोज अहमद ने विस्तार से प्राचीन मेले की जानकारी प्रदान की।
महाराव दुर्जनशाल सिंह द्वारा डाली गई इन परम्पराओं का निर्वाह आगे के उत्तराधिकारी हाडा शासक भी बराबर करते रहे। परन्तु इस धार्मिक पर्व को अत्याधिक आकर्षक एवं रंगीन बनाने का सिलसिला लोक प्रिय नरेश महाराव उम्मेद सिंह द्वितीय (सन् १८८९ से १९४०) के शासन काल में शुरू हुआ। महाराव उम्मेद सिंह केवल एक कुशल प्रशासक ही नहीं एक श्रद्धालु भक्त भी थे। कोटा का राष्ट्रीय मेला दशहरा आपकी ही देने है। मेले दशहरे का प्रारम्भ सन् १८९२ ई. से माना जाता है। प्रारम्भ में यह मेला तीन दिवसीय लगता था। रावण वध के दिन अधिक चहल पहल हुआ करती थी। हाडौती के ग्रामीण लोग हजारों की संख्या में यहां आते थे। मेले में छोटी दुकानें तिरपालों में लगा करती थी। रावण वध के तीन दिन बाद गांव के लोग लोट जाया करते थे। उस समय एक बात प्रचलित थी, ’रावण जी तीसरी और कोटा बाहरे तीसरो‘ अर्थात् रावण मर गया और उसका तीसरा हो गया अब गांव के लोग लौट गये और मेले की भीड भी समाप्त हो गई। धीरे धीरे यह मेले एक सप्ताह का हुआ और दुकानों की संख्या बढने लगी। मेले में कोटा से बाहर की दुकानें और व्यापारी आने लगे। सन् १९२६-२८ तक कोटा में नल बिजली के लगने के कारण महाराव उम्मेद सिंह ने इस मेले को भव्य रूप प्रदान करने के लिए, भारत के बडे-बडे नगरों के व्यापारियों को मेले में आमंत्रित करने हेतु आदेश जारी किये क्योंकि सन् १९२१ में ही कोटा में नगर पालिका की स्थापना महाराव उम्मेद सिंह जी द्वारा कर दी गई थी। मेले की अधिकांश व्यवस्था का भार पालिका को सौंप दिया गया था। महाराव साहिब द्वारा व्यापारियों की अनेकानक सुविधाऐं प्रदान करने के कारण भारत के बडे-बडे शहरों हरियाणा, पंजाब, मद्रास, भागलपुर, दिल्ली, मथुरा, कानपुर, अहमदाबाद आदि में विभिन्न सामानों की दुकाने मेले में आने लगी। कई प्रसिद्ध मायावी की दुकाने मेले में आने लगी। सर्कस कंपनी आने से मेले की भव्यता में काफी वृद्धि हुई और यह मेला दिनों दिन आर्कशक बनता चला गया। सन् १९३०-३१ में यह मेला अपने पूर्ण यौवन पर आ चुका था।
महाराव के शासन काल में मेले दशहरे की चहल पहल पंचमी के दिन से ही प्रारम्भ हो जाया करती थी। उस समय कोटा का मेला दशहरा शहरपनाह के बाहर किशोरपुरा में विशाल मैदान में आयोजित होता था। परन्तु छोटी दुकानों का जमावडा गढ के सामने से ही प्रारम्भ हो जाता था। दशहरा मेले के अवसर पर महाराव यहां पर विशाल पशु मेला भी आयोजित होता था। यह मेला रावण वध के पूर्व प्रारम्भ होता था। आज भी दशहरे के अवसर पर पशु मेला भव्य रूप में लगता है। इस मेले में हाडौती ग्रामीणों के अलावा राजस्थान के तथा मध्यप्रदेश तक के व्यापारी पशु बेचने आते हैं। पशु मेले में गाय, भैंस, सांड, भेड-बकरी, खच्चर, मुर्ग-मुर्गिया, ऊंट, घोडे आदि पशुओं का क्रय विक्रय होता है। पशु मेला भी दशहरे मेले का एक मुख्य आकर्षक हिस्सा है। इसमें ग्रामीण अंचलों की सुन्दर झांकी देखने को मिलती हैं, वर्तमान में पर्यटकों के लिए यह मेला अत्याधिक आकर्षक है।
महाराव उम्मेद सिंह द्वितीय के शासन काल में दशहरे पर्व के अवसर पर विभिन्न धार्मिक कार्यक्रम आयोजित करवाये जाते थे। नवरात्रा स्थापना के प्रथम दिन आशापुरा देवी, डाढदेवी माता, मनोरथ बालाजी (कोटा) कृष्ण अन्नपूर्णा (रामगढ) कालभैरव (नान्ता) आदि के मंदिरों पर ब्राह्माणों को भेजकर पूजन व पाठ कराया जाता था, इन्हीं विचारों के अनुरूप क्षेत्रपाल जी व घांस भैरू का पूजन भी होता था। यह अर्चन पूजन महाराव द्वारा अपनी प्रजा की सुख शांति की कामना के लिए करवाया जाता था।
पंचमी की सवारी
महाराव उम्मेद सिंह पंचमी के दिन पूरे लवाज में सवारी के साथ डाढदेवी के मंदिर पर पूजन के लिए जाते थे। यहां पर महाराव की ओर से भैंसा और बकरा बलिदान किया जाता था। परन्तु बाद में महाराव द्वारा बलिदान ठीक प्रकार एक ही झटके में ना होने के कारण यह प्रथा बंद कर दी गई।
सप्तमी की सवारी
सप्तमी के दिन महाराव कालभैरव (नान्ता) और करणीमाता (अभेडा) मंदिरों पूजन हेतु सवारी के साथ जाते थे। नावडे से नदी पार करके महायान में बैठकर जाया करते थे। यहां पर भी महाराव द्वारा बकरे का बलिदान किया जाता था।
अष्ठमी पूजन की रस्म
इस दिन महाराव गढ में स्थित अपनी कुल देवी आशापुरा मंदिर पर पूजन करते थे। पुरोहित द्वारा पूजन रस्म को पूर्ण कराया जाता था। यह पूजन प्रातः सांय दोनों समय होता था। शाम के समय बृजनाथ जी मंदिर में भी पूजन व हवन की रस्म पूर्ण की जाती थी। दिन सांयकाल ६ बजे एक छोटा दरीखाना पोल दरवाजे के बाहर छोटे चबूतरे पर था। इसे डोडा का दरीखाना कहते थे। इसमें अहलकार और भाई बंधु बैठक के अनुसार महाराव साहिब और सभी लोग प्रचलित परिधानों को धारण किये होते थे। इस दिन बुर्ज पर तोप चलायी जाती थी और आतिशबाजी हुआ करती थी।
आशापुरा माताजी की सवारी
नवमी को सांयकाल लगभग पांच बजे महाराव उम्मेद सिंह अपने महल में स्थित कुल देवी आशापुरा जी का पूजन करते थे। उसके पष्चात् महाराव किशोरपुरा स्थित आशापुरा देवी के मन्दिर पर सवारी के साथ खांडा रखने जाते थे। खाँडा एक प्रकार का तलवार की तरह लम्बा होता है उससे पूजा होती है। सवारी में पूरे समय महाराव खांडा हाथ में रहते थे। मंदिर में पहुंचकर यहां माता जी की दरीखाने में हिस्सा लेते थे। यह दरीखाना एक प्रकार से पंचों की सलाह मशविरे से सम्बन्धित होता था जिसमें रावण पर युद्ध करने पर विचार किया जाता था। दरीखाना समाप्त होने पर मंदिर से एक मशालची द्वारा गढ के बुर्जो पर खडे होकर तोपचियों को संकेत दिया जाता था तब तोपें चलायी जाती थी। यह तोपें गढ की बुर्जो एवं परकोटे की बुर्जो पर चलायी जाती थी। दरीखाने की समाप्ति के बाद सवारी गढ लौट आती थी। यहां आकर महाराव द्वारा हाथियापोल के बाहर चौक में हाथी घोडों के पूजन की रस्म पूरी करते थे। इसके पष्चात् राजमहल के चौक में शास्त्रों का पूजन होता था। इस अवसर पर भी ३ तोपें चलायी जाती थी। इस दिन महाराव भीमसिंह प्रथम के शास्त्रों का पूजन भी महाराव द्वारा किया जाता था। कडक बिजली और धूलधाणी तोपों का पूजन पुराहितों द्वारा किया जाता था। तोपें कोटा राजस्व को बूंदी विजय के उपरांत प्राप्त हुई थी। रावण वध के समय दशहरा स्थल पर चलायी जाने वाली तोपों का भी इसी दिन पूजन होता था।
रंगबाडी के बालाजी की सवारी
मिती आसोज सुदी दशमी को प्रभात में महाराव उम्मेदसिंह गढ में पधार भगवान बृजनाथ जी के दर्शन करते थे उसके पष्चात् सलहखाने में अपने वीर पूर्वज महाराव भीमसिंह प्रथम के चित्र का व कोटा राज्य चिन्ह गरूण जी का दर्शन करते थे। इस समय गढ के बाहर जलेब चौक में काफी चहल पहल हुआ करती थी। लगभग दस बजे गढ की सवारी का प्रस्थान होता था। इस सवारी को देखने काफी लोग उमडते थे। सवारी के रंगबाडी पहुंचने पर महाराव बालाजी का पूजन करते थे। उसके पष्चात् रंगबाडी स्थित भवानीशंकर बहमीं की बगीची में चौगान्या का आयोजन होता था। इस कार्यक्रम के तहत एक ताकतवर भैंसे को मदिरा पिलाकर तथा उसके शरीर पर चीरा देकर उसमें नमक भरकर मैदान में छोड दिया जाता था। इसके चारों और महाराव एवं उनके भाई बंधु अन्य राजपूत सरदार बैठक तथा सवारी में शामिल अन्य लोग खडे रहकर इस कार्यक्रम का आनंद लेते थे। महाराव का इशारा जिस सरदार को होता था। उसे भैंस की गरदन एक ही बार में काटने हेतु भैसें के पीछे दौडना पडता था। यह कार्यक्रम एक प्रकार से क्षत्रियों के शक्ति परीक्षण का कार्यक्रम था। चौगन्य की समाप्ति के पश्चात् सवारी गढ की लौट आती थी। यह प्रथा महाराव शत्रुशाल द्वितीय के समय में भी प्रचालित थी।
विजय दशमी की रावण वध सवारी
विजय दशमी के दिन सांयकाल रावण वध की सवारी निकलती थी। यह सवारी सभी सवारियों से अधिक भव्य और आकर्षक होती थी। दोपहर तीन बजे से ही गढ में इस सवारी की तैयारी प्रारम्भ हो जाती थी। गढ महल में स्थित जलेब चौक में कोटा की फौजी पलटनों और सवारी में निकलने वाले लवाजमें की जमावत दर्शनीय होती थी। रावण वध के सुन्दर कार्यक्रम और इस आकर्षक सवारी को देखने के लिए कोटा नगर की ही नहीं वरन् समस्त हाडौती की जनता इसे देखने के लिए उमडती थी। गढ के आस पास तथा दशहरा स्थल तक दर्शकों की इतनी भीड रहती थी कि पैर रखने तक की जगह नहीं मिलती थी। उस समय के कुछ प्रत्यक्ष दर्षिर्यों का कहना है कि अब विजय दशमी के दिन रावण वध की सवारी में पहले जैसी भीड नहीं रहती।
रावण वध की सवारी के पूर्व गढ में खेजडी (वृक्ष) पूजन की रस्म पूर्ण की जाती थी। मुरतबी निशानों का भी पूजन होता था। गोबर के रावण जी को खासा घोडे से गोंदा जाता था। सायं ६ बजे के लगभग गढ से सवारी का प्रस्थान होता था महाराव हाथिया पोल बाहर पधारकर खासा हाथी पर सोने की तीतरी वाले हौदे में विराजते थे। पीछे कवासी में उनके भाई बंधु महाराज को चंवर ढुलाते थे बैठते थे। उस समय तीन तोपों के फायर होते थे। सवारी का पूरे लवाजमें के साथ प्रस्थान होता था। महाराज के प्रारम्भिक शासन के वर्षो में यह सवारी सैलारगाजी दरवाजे के होकर गुजरती थी, परन्तु बाद में महाराव उम्मेदसिंह द्वारा हवामहल में नये विशाल दरवाजे का निर्माण कराने के बाद सवारियां यहां से निकलने लगी और सैलारगाजीं दरवाजे की तरफ दीवार बना दी गई। जैसे ही सवारी गढ के बाहर चौक में आती थी उस समय कुछ देर तक महाराव सवारी के साथ यहां ठहरते थे और हरकारों द्वारा यह बात सिद्ध करवायी जाती थी कि रावण समझ जा, मान रहा है या नहीं। रावण के हठ की औपचारिकता पूर्ण होने के पष्चात् फिर सवारी प्रस्थान करती थी। सवारी जैसे-जैसे आगे बढती थी तब कई तोपें गढ की बुर्जो पर चलायी जाती थी।
इतिहास कार डॉ. जगत नारायण श्रीवास्तव जी ने उनकी पुस्तक ’’महाराव उम्मेदसिंह द्वितीय और उनका समय‘‘ में विजयदशमी की रावणवध वाली सवारी की जमावत का इस प्रकार वर्णन किया है। सबसे आगे निशान का हाथी, जिस पर नेगी कोटा राज्य के निशान वाला झंडा (गरूड) लिए बैठा हुआ होता था व साथ का सरदार। इसके पीछे मक्कारे का घोडा, फिर निशान का दूसरा हाथी जिस पर साथ का सरदार, इसके पीछे गढ जापता के जवान, फिर डोर की हथनी, जमना का निशान का खासा घोडा फिर उम्मेद इन्फेन्ट्री (सेना के जवान) खासा घोडा सुनहरी साज का। इसके पीछे जाँगढ, भाँड, धोला, हरकारा, चौबदार, मिरधा, नकीब, चंवर बरदार, सलहरवान का बांस जलूसी, संख्या - ४, बल्लभ फरेरा लिए हुए जेठी, संख्या-४, खांसा बन्दूकाँ-२, चँवर-२, मोरछल-२, तरवार-१, छतरी-१, अडाणी करणी-१, पासवान साथ का सरदार, जमींदार आगे पैदल, उसके पष्चात् श्री जी हजूर बहादुर महायान, पर आठ व्यक्ति उठाते थे। यहां उल्लेखनीय है कि महाराव साहिब वृद्धाअवस्था के कारण अपने शासन के वर्षो में महायान में बैठकर आने लगे। पहले हाथी पर आते थे। महायान के साथ जाप्ता के पीछे भाले सरदार, गंगा जल की, गंगा जल वाला व पहरा का सिपाही, तामझाम-२, मरातिब के हाथी-२, नौबत (बजने वाला ...)-२ इस सवारी में जम्बूर खाना के सवार ... शामिल होते थे। रेतवाली में कुछ समय के लिए विश्राम करती थी तब तोपे चलायी जाती थी। कोगबाण चलाये जाते थे। जैसे ही सवारी रावण वध स्थल पर पहुंचती थी तब लंका के बाहर लगे तोरण पर कोरडा मारते थे उसके पष्चात् महाराव महाराज कुमार को साथ लेकर पुरोहित राम-सीता जी के पाने व शमी पूजन करायी जाती थी एवं पष्चात् महाराव साहिब और महाराजा कुमार को तीर चलाने की रस्म पूरी करते थे। उमराव भी रावण पर तीर चलाते थे।
उस समय मैदान पर रावण व उसके परिवार के सदस्यों की प्रतिमाऐं बनी हुई थी। ये प्रतिमाएं रावण, कुम्भकरण, मेघनाथ, सूर्पणनका एवं खरदूषण की होती थी। इन सभी प्रतिमाओं के सिर लकडी व मिट्टी बनाये जाते थे। जिन पर चितेरों द्वारा चित्रों से इनको सजाया जाता था। पंचमी के लिए झंडा लगाया जाता था।
उस समय रावण का सिर ८० मन लकडयों को गूंथ कर व अन्य प्रतिमाओं के सिर ४०-२० मन लकडयों के बनाये जाते थे। रावण की नाक इतनी बडी बनायी जाती थी कि उनमें एक बकरा या कुत्ता आसानी से घुस सकता था। रावण पर तीर चलाने से पूर्व रावण को एक बार फिर समझाया जाता था कि वे युद्ध ना करे, समझ जाये, परन्तु रावण की प्रतिमा के पीछे बैठा व्यक्ति रावण की ओर से ना मानू, ना मानू कहता था तब तीर चलाये जाते थे जिससे रावण के पेट में रखा अमृत रूपी लाल रंग का घडा फूट जाता था और रावण मरने लगता था। उसके पष्चात् रावण व अन्य प्रतिमाओं के सिर धीरे-धीरे हाथी से खिंचवा कर नीचे गिरा दिये जाते थे। जैसे ही रावण मरता था तब रावण के पीछे मैदान में १९ तोपें चलायी जाती थी जिससे सारा नगर गूंज उठता था। रावण का एवं अन्य प्रतिमाओं के सिर गिरते ही निम्न वर्ग के लोग लकडयों के लिए छिना झपटी करते थे ये दृष्य बडा ही मनोरंजक होता था। उस समय रावण के पीछे जो तोपें चलायी जाती थी वे नो दुर्गो, नारायण बाण, नगीना, बलमदेज, ढाईसेरी, ऊनधरी - सूंधरी, सो कण्डे, कीनाले आदि थी। महाराव उम्मेद सिंह के शासन काल में भाई बंधुओं उमरावों सरदारों तथा गणमान्य लोगों को रावण वध का दृष्य देखने हेतु इस स्थल पर कलात्मक तिबारियां बनी हुई थी जो रियासत समाप्त होने के पष्चात् नगर पालिका कोटा द्वारा हटा दी गई। उसके पष्चात् नगर पालिका कोटा द्वारा रावण जी के स्थान पर लोगों को रावण वध देखने हेतु पत्थर की सीढयों का निर्माण दायें व बांयी और करवाया गया था। उनको सन् ७६ के पष्चात् शहर की बढती जनसंख्या और भीड बढने के कारण तुडवा दिया गया।
रावण वध के पष्चात् सवारी वापस गढ लौट जाती थी। उस समय गढ में महाराज की ओर से पान के बीडों का एक छोटा सुन्दर दरीखाना आयोजित होता था, जिसमें महाराणा के भाई बंधु सरदार व जागीरदार शिरकत करते थे। महाराव उम्मेद सिंह काल में विजयदशमी की सवारी के विशेष आकर्षणों में जयपुर राज्य का पंचरंगा झंडा भी हुआ करता था जो इस सवारी में निकाला जाता था। इसे एक व्यक्ति हाथ में लेकर हाथी पर बैठकर चलता था। यह झंडा ’जंग भटवाडा‘ में कोटा द्वारा जयपुर को हराकर छीना गया था। उसके अतिरिक्त सवारी में महाराव के हाथी के आगे आगे चलने वाली एक सुन्दर गाय हुआ करती थी, जिस पर लाल मखमल का सलमे सितारों का काम किया दुशाला पडा रहता था। यह गाय महाराज दुर्जन शाल हाडा द्वारा दिल्ली से से लायी गई गायों की नस्ल में से थी। जिन्हें कसाई लोग बूचड खाने काटने हेतु ले ला रहे थे। इन गायों को बचाने हेतु महाराव दुर्जनशाल के कडे विरोध का सामना करते हुए इस झगडे से दुर्जनशाल हाडा की दिल्ली के कोतवाल का वध करना पडा था।
मोयला की सवारी
आसोज सुदी ग्यारस की लगभग ५ बजे तक सवारी किशोर पुरा स्थित आशापुरा माताजी के मंदिर पर जाती थी, इस दिन महाराव माता जी के मन्दिर पर खांडा ले जाते थे। इसे मोयला की सवारी कहा जाता था। यह सवारी भी अन्य सवारियों के समान ही होती थी। इस दिन भी मंदिर के चौक में दरीखाना होता था। जब यह सवारी गढ महल को लौटकर जाती थी उस समय चार तोपें चलायी जाती थी। महाराज गढ को लौटकर घोडी पूजन करते थे।
अब ना राजे रहे ना महाराजा ना वो शान-शौकत। अब नया जमाना और नया दौर है। गुजरा हुआ जमाना केवल यादों के दायरें में ढल कर रह गया है। वर्तमान में कोटा का राष्ट्रीय मेला दशहरा पूर्ण हर्षोल्लास के साथ सम्पन्न होता है जिसका सारा प्रबंध नगर निगम कोटा द्वारा किया जाता है। इस मेले में भारत के बडे शहरों से विभिन्न प्रकार के सामानों की दुकाने आती हैं। नगर निगम द्वारा रंग बिरंगी विद्युत सज्जा करवाकर दषहरा मेला स्थल को सजाया जाता है। शहर की प्रमुख इमारतों पर भी निगम की ओर से आकर्षक विद्युत सज्जा करायी जाती है। मेले को भलि भांति सम्पन्न कराने हेतु नगर निगम विभिन्न संस्थानों का सहयोग प्राप्त करती है। तरह तरह की प्रदर्शनियां भी मेले को आकर्षक बनाती हैं। बडे-बडे विद्युत चक्कर चकरियां मनोरंजन हेतु मेले में आते हैं। रियासत काल से दुकानें छप्परों और तिरपाल की लगा करती थी, वर्तमान में नगर निगम द्वारा निर्मित पक्की दुकानों में दुकान लगती है। इसके अतिरिक्त तिरपाल वाली दुकानें भी काफी संख्या में अब भी लगती है। मेले में अब मिष्ठान वालों की दुकानें, पकौडी वालों की दुकानें काफी संख्या में लगने लगी हैं।
वर्तमान स्वरूप
अब रियासत कालीन राजसी ठाट-बाट की संवारियों तो नहीं निकलती, उनके स्थान पर रामबारात की सुन्दर झांकियां नगर निगम द्वारा निकाली जाती हैं। रियासतों के समय तक कोटा महाराव विजयदशमी के दिन सवारी के साथ रावण वध के लिए जाया करते थे परन्तु स्वतंन्त्रता प्राप्ति के पष्चात् से महाराव साहिब के स्थान पर भगवान लक्ष्मीनारायण जी का विमान गढ से सवारी के साथ जाता है। रावण स्थल पर तीर चलाने की रस्म की जाती है। वर्तमान में विजयादशमी के दिन गढ के बडे चबूतरे पर महाराव बृजराज सिंह की ओर से दरीखाना व खेजडी पूजन का आयोजन होता हैं, जिसमें कोटा शहर के प्रशासनिक अधिकारी, नगर निगम के अधिकारी, कर्मचारी, महाराव के भाई व राजपूत सरदार, पुरोहित पाठक, और नगर के गणमान्य नागरिक भाग लेते हैं।
महाराव विजयादशमी की सवारी साथ गढ के बाहर चौक तक आते हैं। उसके पष्चात् कार से अपने निवास स्थान बृजराज भवन लौट आते हैं। रियासत काल में समस्त हाडौती से रावण व उसके परिवार के सदस्यों की पक्की प्रतिमाएं बनाई जाती थी जिनके सिर लकडी ओर कागज के बनाये जाते थे परन्तु समय परिवर्तन के अनुरूप अब इनका स्थान अतिशबाजी से बने रावण के पुतलों ने ले लिया। नगर परिषद् वर्तमान में नगर निगम कोटा द्वारा १९६४ से अतिशबाजी से बना रावण का पुतला बनाया जाता है जिसकी लम्बाई ७० फुट के लगभग होती है। विजयादशमी के दिन इस रावण के पुतले को जलाकर मारा जाता है। नगर निगम द्वारा आकर्षक आतिशबाजी भी करवायी जाती है। वर्तमान में शहर को गुंजाने वाली तोपों का प्रचलन समाप्त हो गया। इनके स्थान पर कोगबांण चलाये जाते हैं। नगर निगम के श्रीरामरंग मंच पर प्रतिवर्ष मथुरा की प्रसिद्ध मंडलियों द्वारा रामलीला का सुन्दर प्रस्तुतीकरण किया जाता है। निगर की ओर से जनता के मनोरंजन के लिये विभिन्न प्रकार के सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित किये जाते हैं। अखिल भारतीय कवि सम्मेलन एवं मुशायरा भी सम्पन्न होता है। कोटा का यह मेला अपनी भव्यता के साथ लगभग २५ दिन से अधिक तक चलता है। अब दशहरा मैदान को दिल्ली के प्रगति मैदान की तर्ज पर विकसित किया जा रहा है।


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