
कोटा से जयपुर मार्ग पर ३५ कि.मी स्थित बूंदी शहर पर्यटन के अनेक स्थल अपने हृदय में समेटे हैं। अरावली पहाडयों की गोद में बसा बूंदी राजस्थान का प्राकृतिक सौन्दर्य अद्भुत नजारा लिए है। यहाँ अनेक मंदिर होने से इसे ’छोटी काशी‘ के नाम से विभूशि त किया गया है। यह खूबसूरत शहर बूंदी जिले का मुख्यालय है। प्राचीन बूंदी रियासत के समय महलों से जुडी मजबूत चार दिवारी (परकोटे) से घिरी थी। इसमें पश्चिम में भैरोपोल, दक्षिण में चौगान गेट, पूर्व में पाटन पोल एवं उत्तर में शुल्क बावडी गेट बने हैं।
वर्षा एवं शरद ऋतु में विशेषकर बूंदी नगर का दृष्य अत्यंत मनोहारी होता है जब पर्वत हरियाली चादर ओढ लेते हैं, झील और तालाब पानी से लबालब भर जाते है, महल, छतरियों एवं मंदिरों का नया रूप नजर आने लगता है। बूंदी के आस पास के क्षेत्र में पहाडयों से गिरते झरनों पर पर्यटकों की चहल पहल बढ जाती है। नगर के मध्य स्थित आजाद पार्क एवं जैत सागर के किनारे बना रमणिक उद्यान की छंटा लुभावनी हो जाती है। रात्रि में बिजली की रोषनी में जगमगाते शहर की खूबसूरती तो कहना ही क्या। आज शहर ने परकोटे से बाहर निकल कर विस्तृत आकार लिया है। बूंदी में मोरडी की छतरी, छोटे महाराज की हवेली, कवि सूर्यमल्ल मिश्रण की हवेली, बडे महाराज की हवेली, मीरगेट स्कूल में बने पुराने चित्र एवं भालसिंह की बावडी भी दर्शनीय हैं। महाराव उम्मेदसिंह द्वारा १७७० ई. में निर्मित हनुमान जी की छतरी, चौथमाताजी का मंदिर, बाणगंगा में केदारेश्व महादेव एवं अन्य देव मंदिर, हंसादेवी माता जी का मंदिर, कल्याण जी का मंदिर एवं लक्ष्मीनाथ जी का मंदिर विशेष रूप से दर्शनीय हैं।
तारागढ
बूंदी शहर के उत्तर में पहाडी पर बना तारागढ किला बूंदी के सिर पर ताज जैसा लगता है। यह किला बूंदी शहर से ६०० फीट तथा समुद्रतल से १४०० फीट ऊँचाई पर है। राव रतन सिंह ने १३५४ ईस्वी में इसका निर्माण करवाया था। दुर्ग की बाहरी दीवारों का निर्माण १८ वीं सदी के पूर्वाद्ध में जयपुर द्वारा नियुक्त गर्वनर दलेल सिंह ने करवाया था। तिहरे परकोटे में बना दुर्ग करीब साढे चार किलोमीटर परिधि में है।
यह दुर्ग कई बार अनेक शत्रु ओं अल्लाउद्दीन खिलजी, मेवाड शासक क्षेत्रसिंह, मालवा के महमूद खिलजी, जयपुर शासक सवाई जयसिंह, कोटा नरेष भीमसिंह तथा दुर्जनशाल सिंह के अधिकार में चला गया परन्तु हर बार बूंदी के हाडा शासकों ने फिर से अपने अधिकार में ले लिया। दुर्ग में भीम बुर्ज, महल, पानी का तालाब, छतरी मंदिर आदि दर्शनीय हैं। जलाशयों में वर्षा जल संग्रहित होता था एवं वर्ष भर पेयजल के काम आता था। यही पर १२० फीट परिधि वाली १६ खंभों की सूरज छतरी दर्शनीय है।
राज प्रसाद
तारागढ दुर्ग के चरण पखारता बूंदी का राजमहल का अपना विशिष्ठ स्थान है। इसके निर्माण में अनेक शासकों का हाथ रहा। चौगान गेट से आगे चल कर महलों में जाते हैं तो महल की चढाई शुरू होने से पहले राजा उम्मेद सिंह के घोडे हंजा की प्रतिमा नजर आती है। समीप ही जरा सा आगे चलने पर शिव प्रसाद नामक हाथी की प्रतिमा बनी है। इसे महाराज छत्रसाल ने बनवाया था। यहाँ से आगे चलने पर एक के बाद दूसरा दो दरवाजे आते हैं। दूसरे दरवाजे पर १७ वीं षताब्दी में राजा रतनसिंह द्वारा बनवाया युग्म हाथियों के द्वार को हाथी पोल कहा जाता है। इस दरवाजे के दूसरी ओर रतन दौलत दरी खाना है। यहाँ बूंदी शासकों का राजतिलक किया जाता था। इसके आगे चलने पर छत्रमहल चौक के एक भवन में रामसिंह के समय के खगोल एवं ज्योतिष विधा के यंत्र रखे हैं। पास के कक्ष में बने सुन्दर भित्ती चित्र धुमिल हो गये है। छत्रमहल चौक के एक ओर हस्थिशाला बनी है।
आगे दरीखाना और दूसरी तरफ रंग विलास है। यहीं सुन्दर उद्यान एवं चित्रशाला तथा अनिरूद्ध महल बने हैं। जिसे उन्होने १६७९ ई. में बनवाया था और आगे चल कर इसे जनाना महल बना दिया गया। चित्रशाला को कलादीर्घा कहें तो अतिष्योक्ति नहीं होगी। यहां सम्पूर्ण दीवारों पर १८ वीं सदी पूर्वाद्ध के बूंदी शैली के चित्रों की ख्याति विश्व स्तर पर है। चित्रों को बचाये रखने के लिए सुरक्षित कर दिया गया है। दिन-रात पुरातत्व विभाग की निगरानी रहती है। गढ महल राजपूत शैली का दुर्लभ नमूना है।
जैत सागर
बूंदी में ही बस स्टेण्ड से करीब दो कि.मी. पर पहाडयों की गोद में बना जैत सागर अपनी लुभावनी छटा लिए है। पहाडी नदी पर बांध बनाकर इसका निर्माण किया गया है। इसके किनारे बना सुख महल एवं सुंदर उद्यान बने हैं। जैत सागर में सैलानियों के लिए बोटिंग की व्यवस्था है। बूंदी के अंतिम मीणा शासक जैता ने इसका निर्माण १४ वीं सदी में करवाया था। सुख महल का निर्माण राजा विष्णुसिंह ने १७७३ ई. में करवाया था। सुख महल परिसर ने नया संग्रहालय स्थापित किया गया है। जैत सागर के एक किनारे पर नगर परिषद् द्वारा पहाडी पर आकर्षक उद्यान विकसित किया गया है। जैत सागर में जब कमल के फूल अपनी रंगत बिखरते हैं तो शोभा निराली हो जाती है। जैतसागर के समीप बने सुख महल में भूतल पर एक बडा और दो छोटे कक्ष है। प्रथम तल पर दो कमरे आमने सामने हैं। छत गुम्बद युक्त, शि खरनुमा हैं। दोनों कक्षों के मध्य जैत सागर की पाल की ओर एक आठ स्तंभों पर आधारित छतरी भी है।
राजकीय संग्रहालय
संग्रह संबंधी गतिविधियां बूंदी में २० वीं शती के मध्य से शुरू हुई जब स्थानीय लोगों ने बिखरी हुई कलात्मक सामग्री को इकटठा कर उन्हें सुरक्षित करने के उद्देष्य से विद्वत परिषद की स्थापना की। इसका नाम ’नेशनल हेरिटेज प्रिजरवेषन सोसायटी‘ बूंदी रखा गया।
इस सोसायटी ने एक संग्रहालय की शुरूआत की, जिसका उद्घाटन महाराजा बहादुर सिंह जी ने १९४८ में किया, यह संग्रह सुखमहल में प्रदर्षित किया गया था। विद्वत परिषद इसकी प्रशासनिक व्यवस्था देखती थी, तब इसमें लगभग १०० प्रस्तर प्रतिमाएं और कुछ चित्र थे। संग्रहालय प्रातः ८ से १० तक और सांय ४ से ६ तक खुलता था, यहां एक संग्रहाध्यक्ष तथा अंषकालीन परिचारक थे। प्रतिदिन लगभग १०० दर्षक संग्रहालय देखते थे, जो उन दिनों के हिसाब से बहुत अच्छी संख्या थी। बून्दी का नया संग्रहालय इसी परिसर में बनाया गया है।
रानी जी की बावडी
बूंदी शहर की कलात्मक बावडयों एवं कुंडो में राव राजा अनिरूद्ध सिंह की विधवा रानी नाथावत द्वारा १६९९ ई. में निर्मित शहर के मध्य स्थित रानी जी की बावडी सिरमौर है। बावडी में ऊपर से नीचे की ओर जाते हुए करीब १५० सीढयों के बाद जल कुण्ड आता है। स्थापत्य, मूर्ति, शिल्प बनावट सीढयां मध्य में बना हाथियों का तोरण द्वार, ऊपर बनी छतरियों तथा दीवारों में बने देवी देवताओं की मूर्तियां बावडी की विशेष ताएं हैं।
शहर की दूसरी महत्वपूर्ण बावडी गुल्ला जी की कुण्डली आकार की बावडी है। इसे गुलाब बावडी भी कहा जाता है। इसके आगे एल आकार की भिस्तियों की बावडी, श्याम बावडी तथा व्यास बावडी भी दर्शनीय हैं। शहर में और भी कई बावडयां बनी हैं।
नागर सागर कुण्ड
रानी जी की बावडी के समीप ही नागर-सागर नामक दो कुंड अपनी स्थापत्य एवं सीढयों की संरचना की दृष्टि से बेजोड हैं। यहां संगमरमर की प्राचीन छतरियां बनी हैं तथा आस-पास उद्यान बना है। कुडों में गजलक्ष्मी, सरस्वती एवं गणेश आदि धार्मिक मूर्तियां बनी हैं। रामसिंह की रानी चन्द्रभान कंवर ने इन्हें बनवाया था।
नवल सागर
करीब ४०० वर्ष प्राचीन सुन्दर नवल सागर शहर के मध्य वार्ड सं. २ में आकर्षण का केन्द्र है। महल के नीचे बने इस सरोवर से महल एवं तारागढ का संयुक्त दृष्य अत्यंत मनभावन लगता है। इससे शहर में जलापूर्ति भी की जाती है।
सागर के किनारे बने मंदिर में गजलक्ष्मी की अद्वितीय मूर्ति स्थापित है। इसमें हाथी लक्ष्मी का घटाभिषेक करते नजर आते हैं। देवी के बालों से गिरते पानी को हंस अपनी चोंच में ले रहे हैं। देवी का नचे का भाग श्रीयंत्र के रूप में है। बताया जाता है कि पुराने समय में तांत्रिकों द्वारा इसकी पूजा की जाती थी। नवल सागर के किनारे पर राजा विष्णु सिंह की रक्षिता सुंदर षोभराज जी ने १८ वीं सदी के उत्तर्राध में सुंदर घाट एवं महलों का निर्माण कराया था। प्रथम मंजिल पर खडी मुद्रा में हनुमान जी की प्रतिमा है।
शिकार बुर्ज
बूंदी में बनी शिकार बुर्ज राजाओं के शिकार के लिए बना सुंदर भवन है। इसे १७७० ई. में महाराव उम्मेद सिंह ने रहने के लिए बनवाया था और वे प्रायः यहाँ विश्राम करने आते थे। बाद में इस भवन को शिकारगाह के रूप में उपयोग में लिया जाने लगा। इसी के पास हनुमान छतरी बनी है। यह कभी खूबसूरत पिकनिक स्थल रहा।
खूबसूरत झरने
बूंदी से ९ कि.मी. दूरी पर प्रकृति की गोद में रामेश्वम् खूबसूरत जगह है। यह २०० फीट से ऊँचाई से गिरता झरना देखना रोमांचक लगता है। यह झरना जहाँ गिरता है वहां षिंवलिंग स्थापित है। यहीं एक गुफा में पांच सौ वर्ष पुराने शिव लिंग की पूजा की जाती है। चट्टान की प्राकृतिक सुंदरता को मध्य गुफा से बाहर यहाँ शिव रात्रि पर मेला भरता है।
बूंदी से १५ कि.मी. दूर भीमलत नामक सुंदर झरना अद्वितीय है। बताया जाता है बनवास के दौरान पाण्डव यहाँ आये थे। इस स्थल पर बना शिव मंदिर पूज्य है। बरसात के दिनों में इन दोनों जलप्रपातों पर सैलानियों का जमघट लगा रहता है।
फूल सागर
बूंदी शहर के उत्तर पश्चिम में करीब ५ कि.मी. दूरी पर फूलसागर दर्शनीय स्थल है। इसके किनारे एक बडा पानी का कुण्ड, मध्य में छतरी तथा दो छोटे महल बने है। इस सागर का निर्माण राजा भोज सिंह की उप रानी फूललता द्वारा १७ वीं सदी के पूर्वाद्ध में कराने से उनके नाम पर फूल सागर रख दिया गया। महल रायल परिवार की निजी सम्पत्ति है। सरोवर निर्माण के ७० साल बाद उद्यान एवं झरना बनाया गया।
केशरबाग
बूंदी से करीब साढे चार कि.मी. दूर शिकार बुर्ज के समीप ऊँची दिवारों से घिरी ६६ छतरियां (जो राजाओं, रानियों, राजकुमारों की समाधि स्वरूप बनाई गई) स्थान को केशरबाग कहा जाता है। इनमें कतिपय छतरियां अपनी स्थापत्य एवं मूर्ति शिल्प कला में अद्वितीय हैं। सबसे पुरानी छतरी राव सुरजन के पुत्र महाराज कुमार दूधा की है। वह १५८१ ई. में मुगलों से युद्ध करता हुआ मारा गया था। आखरी छतरी महाराव विष्णु सिंह की है जिसकी १८२१ ई. में मृत्यु हो गई थी। यह स्थल उपेक्षित स्थिती में है।
चौरासी खंबो की छतरी
बूंदी के पर्यटक स्थलों में चौरासी खम्बों की छतरी स्मारक दर्शनीय है। बूंदी में ही देवपुरा के समीप स्थित कलात्मक छतरी का निर्माण१६८४ ईस्वीं में धाबाई देवा की समृति में करवाया गया था। देवा राव राजा अनिरुद्ध सिह का धाबाई था। तीन मंजल की छतरी चौरासी ख्ाबो पर बनी है एवम् स्थापत्य कला दर्शनीय है।
केशवराय पाटन
धार्मिक पर्यटन स्थल की छंटा चम्बल नदी के उत्तरी किनारे होने से लुभावनी है। यह स्थल जिला मुख्यालय बूंदी से ३८ कि.मी. है परन्तु कोटा से २० कि.मी. है। सदानीरा चम्बल नदी के किनारे बून्दी जिले के केशवराय पाटन कस्बे में स्थित केशवराय (भगवान विष्णु) को समर्पित मंदिर न केवल हाडौती क्षेत्र वरन् राजस्थान में विख्यात है। यह मंदिर एक ऊंची जगती पर स्थित है तथा कला-शिल्प का बेहतरीन नमूना है। करीब ६० फीट ऊंचा शि खरबंद इस मंदिर के चारों ओर देवी-देवताओं, अप्सराओं, पशु-पक्षियों आदि की सुंदर प्रतिमाएं बनाई गई हैं। मंदिर में कुछ सीढयां चढकर सभागृह (अंतराल) कारीगरीपूर्ण खंभों पर स्थित है। सभागृह से गर्भगृह जुडा है, जहां एक चबूतरे पर केशवराय जी की खडी मुद्रा में प्रतिमा विराजित है। प्रतिमा की सुंदरता और कारीगरी देखते ही बनती है। मंदिर के सामने ऊंचाई लिए एक जगती पर गरूड जी की प्रतिमा स्थापित है। मंदिर परिसर में महत्वपूर्ण मृत्युंजय महादेव का मंदिर भी दर्शनीय है।
केशवराय जी का यह मंदिर अत्यन्त प्राचीन बताया जाता है। इस क्षेत्र को किसी समय जम्बू मार्ग और कस्बे को रंतिदेव पाटन कहा जाता था। बताया जाता है कि यहां चम्बल के तट पर रंतिदेव ने तपस्या की थी। यहां सती स्मारक के शि लालेख से मंदिर के बारे में इसके प्राचीन होने की जानकारी मिलती है। कहा जाता है कि परषुराम ने जम्बू मार्गेश्व अथवा केशवेश्व मंदिर का निर्माण कराया था। मंदिर का पुनः निर्माण राव राजा छत्रसाल के समय किया गया। सम्पूर्ण मंदिर परिसर एक किलेनुमा रचना की तरह दूर से नजर आता है। यहां एक मुक्त आकाशीय स्टेडियम भी बनाया गया है। यह मंदिर विशेष रूप से हाडौती क्षेत्र के श्रद्धालुओं का प्रमुख आस्था स्थल है। केशवराय जी के मंदिर पर यूं तो वर्षभर दर्षनार्थी आते हैं, परंतु कार्तिक पूर्णिमा के अवसर यहां श्रृद्धालु चम्बल में स्थान कर दर्षन करते हैं। इस अवसर पर एक बडे मेले का आयोजन भी किया जाता है, जिसमें पर्यटन विभाग भी अपनी महत्वपूर्ण भागीदारी निभाता है।
मुनिसुव्रतनाथ जैन मंदिर
श्री मुनि सुव्रतनाथ दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र, केशवरायपाटन, जिला बून्दी में जिला मुख्यालय से ४५ किमी पर स्थित चम्बल नदी के किनारे स्थित है। केशवराय पाटन अतिशय क्षेत्र प्रसिद्ध हिन्दू तीर्थ भी है। यहां मंदिर के तलघर में भगवान मुनि सुव्रतनाथ की प्रतिमा पदमासन मुद्रा में स्थापित की गई है। यह प्रतिमा गहरे हरे पाशाण से निर्मित है तथा इसकी ऊंचाई ४.५ फीट है। यह तलघर १६ कारीगरी पूर्ण स्तम्भों पर बना है तथा मूल वेदी पर शिखर बनाया गया है। यहीं पर १३वीं शताब्दी की ६ अन्य प्रतिमाएं भी स्थापित की गई हैं। इनमें भगवान पदमप्रभु की सुंदर प्रतिमा भी है।
कहा जाता है कि मोहम्मद गौरी ने इस मंदिर को भी तोडने का प्रयास किया तथा जब प्रतिमा के पैरों पर हथौडी व छैनी से प्रहार किया गया तो दूध की धारा बह निकली। इससे वे वापस लौटने को मजबूर हो गए। बहती हुई चम्बल नदी का प्राकृतिक दृश्य मंदिर से अत्यन्त मनोरम प्रतीत होता है। श्री मुनी सुव्रतनाथ दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र प्रबंधन समिति द्वारा यहां की व्यवस्थाओं का संचालन किया जाता है। यहां धर्मशाला में ठहरने व भोजन की व्यवस्था है। यह क्षेत्र कोटा से रंगपुर होते हुए नदी र्माग से १० किमी तथा सडक र्माग से २० किमी है।
बीजासन माता जी, इन्द्रगढ (७० कि.मी.)
राजस्थान में देवी माँ के अनेक मंदिरों में इन्द्रगढ में पर्वत के शि खर पर विराजित बीजासन माता का पूरे हाडौती क्षेत्र में धार्मिक दृष्टि से अपना विशेष स्थान है। बीजासन माता जनमानस में लोकप्रिय है। बीजासन माता के करीब २००० साल प्राचीन मंदिर का निर्माण विक्रम संवत् १००३ में देवी दुर्गा भक्त कमलनाथ द्वारा करवाया गया था। गर्भगृह में बीजासन माता दानव रक्तबीज की मूर्ति पर बैठी नजर आती है। दुर्गा सप्तसती अनुसार दुर्गा अपना आकार बढाकर दानव रक्तबीज के विरूद्ध संघर्ष किया था। दानव को वरदान मिला था कि उसके षरीर से गिरी हर बून्द से एक रक्तबीज बन जायेगा। देवी ने रक्तबीज राक्षसों का रक्त पृथ्वी पर नहीं गिरने का फैसला लिया। उसने जलती मशालों से या ता घावों का जला दिया या रक्त की बून्दों को एक कटोरी में एकत्रित कर पी लिया और उसने दानव पर काबू पाया। इसलिए देवी को बीजासन माता का नाम दिया गया। वे तब से इस पर्वत पर पूजनीय है।
पहाडी पर स्थल तक पहुंचने के लिए ७५० सीढयों का रास्ता पार करना होता है। देवी की मूर्ति पत्थर में खुदाई कर बनाई गई है। मंदिर नागर वास्तुशैली में तथा चौकोर आकार में निर्मित है। मंदिर के दक्षिण में एक रसोई बनी है। मंदिर प्रातः ५ बजे से सायं ७ बजे तक दर्षनार्थियों के खुला रहता है। यहां दुर्गा पूजा विस्तार से की जाती है तथा सप्तसती का पाठ होता है। दिन में चार बार मंगला, भोग, संध्या एवं षयन आरती की जाती है। नव विवाहित जोडों को जात दिलवाने, पुत्र जन्म, बच्चों के उपनयन संस्कार तथा अन्य मांगलिक अवसरों पर लोग देवी को शीष नवाने आते हैं। बैसाख षुक्ला पूर्णिमा विशेष कर आश्विन तथा चैत्र के नवरात्रा अवसर पर यहां भक्तों का भारी जमावडा रहता है और मेले जैसा दृष्य उपस्थित होकर सारा वातावरण धार्मिक हो जाता है। इन्द्रगढ तहसील मुख्यालय होने के साथ ऐतिहासिक महत्व का कस्बा है। कोटा-दिल्ली रेलमार्ग पर इन्द्रगढ स्टेशनआता है, यहां से पश्चिम दिशा में इन्द्रगढ कस्बा स्थित है जिसकी पहाडी पर स्थित बीजासन माता का मंदिर दूर से ही नजर आता है। इन्द्रगढ में एक दुर्ग भी बना है, जिसे १६६२ वि.सं. में राजा इन्द्रसाल सिंह ने बनवाया था। गढ के महलों में भित्ति चित्र बने हैं। यहां बिहारी जी का मंदिर, जालेश्व मंदिर, चन्द्र बिहारी मंदिर, राईजी की बावडी, एवं बडा जैन मंदिर भी दर्शनीय हैं।
कमलेश्वर महादेव (९० कि.मी.)
बून्दी से करीब ९० किलोमीटर दूर ऐतिहासिक इन्द्रगढ कस्बे के समीप कमलेश्व (क्वांलजी) का प्राचीन शिव मंदिर दर्शनीय है। मंदिर एक जगती पर ४० फीट ऊंचा है। मंदिर के अन्दर और शि खर पर मूर्तियां खुदी हैं। शिखर का आकार पिरामिड की तरह है जो ऊपर की ओर गोलाकार हो जाता है। मंदिर में लाल रंग के पत्थर का शिव लिंग विराजित है। जिसके सामने एक नंदी प्रतिमा भी स्थापित है। मंदिर में दैनिक पूजा और अनुष्ठान पूजा नाथ पंथ के नागा साधुओं द्वारा की जाती है। पश्चिम की दिशा में एक ओर मंदिर बना है।
मंदिर का निर्माण सातवीं एवं नवमी सदी के मध्य का माना जाता है। बताया जाता है कि पाण्डवों ने यहां अज्ञातवास बिताया था और उन्होंने ही इस मंदिर का निर्माण कराया। आगे चलकर बून्दी के राजा जैतसिंह ने १३४५ ईस्वी में इसकी मरम्मत व पुनर्निमाण कराया। यहां दो पवित्र कुण्ड भी बने हैं। मान्यता है कि इन कुण्डों में स्नान करने से चर्म व कुष्ठ रोग दूर हो जाते हैं। यह मंदिर दर्षनों के लिए प्रातः ५ बजे सायं ८.३० बजे तक खुला रहता है। यहां महाशिव रात्रि मुख्य पर्व के रूप में मनाया जाता है। इस अवसर पर महाशिव रात्रि का मेला भी भरता है। इसके अतिरिक्त कार्तिक पूर्णिमा, बसन्त पंचमी, गुरूपूर्णिमा एंव नवरात्रा पर भी बडी संख्या में श्रद्धालु यहां आते हैं।
उत्सव
बूंदी में कजली तीज का मेला, बूंदी स्थापना दिवस एवं हाडौती उत्सव प्रमुख उत्सव है। इनमें विदेशी सैलानी भी रूचि पूर्वक हिस्सा लेते हैं तथा विभिन्न प्रतियोगिताओं में शामिल होते हैं।
साभार :
© CopyRight Pressnote.in | A Avid Web Solutions Venture.