
पर्यटन उद्योग के विकास में राजस्थान का विशिष्ठ स्थान है। आज भी भारत आने वाले विदेशी सैलानी राजस्थान आने की ललक मन में लिये आते हैं। यहां की सम्पूर्ण, सांस्कृतिक परम्परायें, महलों और मन्दिरों की स्थापत्य कलां, मूर्तिकला, शौर्य गाथायें समेटे दुर्ग, वन्य जीवन तथा हस्तशिल्प सब मिलकर एक सम्मोहन की सृष्टि करते हैं। राजस्थान के सम्मोहन से बंधे चले आते हैं सैलानी।
राजस्थान में पर्यटन को बढावा देने के लिये हैरिटेज होटल और पेईंग गेस्ट आदि योजना आरम्भ की गई हैं। ऐतिहासिक पर्यटन स्थलों के रख-रखाव एवं सौन्दर्यकरण पर ध्यान दिया जाकर पर्यटन उद्योग को पुष्ट किया जाता है। पर्यटन विभाग वर्ष भर अपने मेहमानों के मनोरंजन के लिए अनेक सांस्कृतिक मेलों का आयोजन भी करता है।
राजस्थान का हाडौती अंचल अभी भी पर्यटन उद्योग में उस बचत बैंक की तरह है जहाँ व्यापक सम्भावनायें मौजूद हैं। खासकर यहाँ पर ग्रामीण परिवेश को पर्यटन विकास का आधार बनाया जाये तो निष्चित ही पर्यटकों के आकर्षण का राजस्थान में एक नया सुदृढ आधार तैयार हो सकता है।
हाडौती के ग्रामीण अचलों में बिखरा पुरातत्व, वन्यजीव, स्थापत्य, किले, मन्दिर, मेले उत्सव, गुफाएं तथा लोकजीवन राजस्थान में पर्यटन विकास की अनेक सम्भावनाएं समेटे हैं। यदि हाडौती में ग्राम पर्यटन विकास के आधार पर एक नई सोच के साथ पहल की जाती है तो यह क्षेत्र पयर्टन विकास के नये द्वार खोल सकेगा। इसके लिये मजबूत राजनैतिक इच्छा शक्ति के साथ प्रयास करने की महत्ती आवष्यकता है। ग्रामीण अंचलों में स्थानीय संस्कृति के अनुरूप कम खर्च पर परिवेश आधारित रिर्सोट एवं अल्पाहार स्थल बनाये जा सकते हैं। जो स्थान अभी तक सडकों से नहीं जुडे हैं उन्हें संपर्क सडको से जोडना भी जरूरी है। दर्शनीय स्थलों के पास विशेशकर महिला पर्यटकों के लिये जन सुविधा का निर्माण करना होगा। ऐसी सुविधाओं का विकास ग्राम विकास योजनाओं से किया जा सकता है। यदि ग्राम आधारित पर्यटक विकास पर काम किया जाता है तो इससे पंचायतों की आमदनी भी बढाई जा सकती हैं इसके लिये निजी क्षेत्र को भी प्रोत्साहित किया जा सकता है।
हाडौती में पर्यटन विकास हेतु ध्यान नहीं दिया गया हो ऐसा भी नहीं है। अभेडा महलों के रख-रखाव, कोटा में संग्रहालय विकास, किशोर सागर का सौन्दर्यकरण, सेवन वंडर्स पार्क, गणेश उद्यान विकास, सीमलिया के समीप-कैथून रोड-जयपुर रोड पर वाटर्स पार्क, आकर्शक चौराहों का विकास आदि कार्य किये गये हैं। बारां में हाडौती पैनोरमा विकसित किया जा जा रहा है। कोटा में पर्यटन विकास को दृष्टिगत रखकर वैलकम समूह ने उम्मेद पैलेस में अपना होटल प्रारम्भ किया है।
एक जानकारी के अनुसार हाडौती में करीब तीन हजार विदेशी पर्यटक एक वर्ष में आते हैं। अंचल में छुपी हमारी कला, प्राकृतिक परिवेश, लोक संस्कृति सब कुछ पर्यटकों की नजरों से अछूता रह जाता हैं। अतः पर्यटन विकास का बचत बैंक हाडौती की ग्राम्य आधारित पर्यटन विकास की तर्ज पर विकसित करने की सम्भावनाओं का दोहन किया जाना चाहिए जिसकी अनेक सम्भावानाएं हैं।
चम्बल नदी
हाडौती अंचल में कोटा से होकर बहने वाली चम्बल नदी पर्यटन विकास का महत्वपूर्ण आधार बन सकती है। यूं तो इस नदी पर बना कोटा बैराज, जवाहर सागर बांध एवं राणा प्रताप सागर बांध और इनके आस-पास का प्राकृतिक दृष्य अत्यन्त मनोरम है तथा नदी के मार्ग में अनेक ऐसे रमणीक स्थल हैं जहाँ पर्यटकों की लाया जा सकता हैं।
कोटा से करीब २० किलोमीटर पर गडरिया महादेव नामक स्थान पर चम्बल नदी नयनाभिराम दृष्य का सृजन करती है। रावतभाटा में चम्बल के किनारे भैंसरोडगढ का किला ऐसा लगता है जैसे नदी पर तैर रहा हो। यह दृष्य भी अत्यन्त लुभावना है। इस स्थान पर एवं ऐसे ही कुछ अन्य स्थानों का सर्वेक्षण किया जाकर वाटर स्पोट्र्स पर आधारित गतिविधियां आरम्भ कर पर्यटन विकास को हाडौती में बढावा दिय जा सकता है।
कोटा के समीप १० किलोमीटर पर रंगपुर गांव को छू कर बहती चम्बल नदी के उस पार केशवराय पाटन का प्रसिद्ध मन्दिर चम्बल में अपने प्रतिबिम्ब के साथ आकर्षित करता है। कार्तिक पूर्णिमा पर यहां लगने वाले मलें में पर्यटकों को लाने पर विचार किया जाना चाहिए। इसके साथ ही चम्बल के किनारे कोटा में भीतरिया कुण्ड उद्यान, गोदावरी धाम, चम्बल उद्यान, यातायात एवं जुरासिक पार्क पर्यटकों का स्वागत करते नजर आते हैं।
वन्यजीव अभ्यारण्य
हाडौती के पर्यटन विकास में वन्यजीव अभ्यारण भी अपना विशिष्ठ स्थान रखते हैं। जवाहर सागर से कोटा बैराज तक चट्टानों के मध्य गहरी खाई के बीच बहती चम्बल नदी का आनन्द जीप द्वारा तटों पर यात्रा करते हुये अथवा नाव द्वारा यात्रा कर लिया जा सकता है। चट्टानों पर प्रजननरत गद्ध एवं अन्य पक्षी देखे जा सकते हैं। कन्दराओं में रीछ एवं बघेरे भी दिखाई देते हैं। लंगूरों की अठखेलियां लुभावनी होती हैं। राजस्थान एवं मध्यप्रदेश में जहां नदी वर्षा के उपरान्त बहती है वहां पर मगरमच्छ, ऊदबिलाव, जंगली सुअर, लोमडी, गीदड, जरख रीछ, सेही, गोह तथा सर्प देखे जा सकते हैं।
दरा राष्ट्रीय अभ्यारण्य
दरा राष्ट्रीय अभ्यारण कोटा को वर्ष १९९५ में राज्य के ५ क्षेत्रों के साथ वन्यजीव सरक्षण क्षेत्र घोशित किया गया। बाद में १९८४-८५ में इसे वन्यजीव सरक्षण स्थलों की सूची में शा मिल किया गया। यह कोटा से ५५ किलोमीटर दूर कोटा-जबलपुर मार्ग पर है तथा दिल्ली-मुंबई रेलमार्ग से दरा स्टेशन रूप से जुडा है। वहंा वन विभाग का विश्राम गृह बना रखा हैं। माह अक्टूबर से जून तक बरसात के समय को छोडकर भ्रमण उपयुक्त समय है। रात्रि भ्रमण निषेध है यहां बघेरा, भेडया, सियार, जंगली बिल्ली, लकडबग्घा, रीछ, चीतल, नीलगाय, सहेली, मोर, मगरमच्छ, घडयाल, बन्दर, साम्भर मुख्य वन्यजीव हैं। वर्ष १९८२ तक यहां बाघ पाये जाते थे। अब इसे पुनः बाघ सरक्षण क्षेत्र घोशित कर २०१८ में बाघ छोडा गया है। इससे यहाँ पर्यटन विकास की संभावानाएं बढी हैं।
कोटा का परकोटा
कोटा नगर के परकोटे के दरवाजे, प्रस्तर शिल्प और स्थापत्य कला के उत्कृष्ट नमूने ह। कोटा नगर के शासकोने समय-समय पर परकोटे का विस्तार किया, साथ ही दरवाजों का निर्माण भी हुआ। आजादी के बाद जहां परकोटे में विभिन्न स्थानों पर तोडफोड हुई वहंीं दरवाजों को नहीं बख्षा गया। कोटा के परकोटे के साथ कुल ११ दरवाजे भी बने थे। इनमें से सात दरवाजे अब सुरक्षित रह पाये हैं। जो कोटा राज्य के इतिहास के साक्षी हैं।
कोटा राज्य के संस्थापक राव माधोसिंह ने ही गढ के साथ पहली बार परकोटे का निर्माण कराया। इसके अन्तर्गत पाटलपोल, भीलवाडी पोल और कैथूनीपोल दरवाजे बनाये गये। इसे शहर पनाह कहा जाता था। यदि गढ को एक कोण माना जाये तो उस समय कोटा नगर की बसावट त्रिभुजाकार थी। राव किशोर सिंह के कार्यकाल के दौरान भीलवाडीपोल के पास बस्ती बनी। इसका नाम किशोरपुरा रखा गया। भीलवाडी पोल का नाम भी बदलकर किशोरपुरा दरवाजा रखा गया।
महाराव रामंसंह के कार्यकाल में संवत् १७५४ में परकोटे का विस्तार हुआ। महाराव रामसिंह ने कोट के साथ सूरजपोल तथा रामपुरा दरवाजा बनवाया। रामपुरा दरवाजे की प्राचीर आर्य समाज भवन से होकर वर्तमान यातायात पुलिस के पास स्थित एक अन्य दरवाजे से मिलती थी। इसी दरवाजे की प्राचीर शुरू होकर सूरजपोल दरवाजे पर मिलती थी। लाडपुरा दरवाजा और इसका परकोटा महाराव उम्मेदंसंह प्रथम के काल में कोटा रियासत के प्रधानमंत्री झाला जालिम ंसंह ने अपने मित्र सरदार दलेलखां पठान की देखरेख में करवाया।
नगर के दरवाजों में सूरजपोल दरवाजा तत्कालीन समय के शिल्प और स्थापत्य की गूढता को दर्षाता है। इस दरवाजे की पोल की दीवारें इतनी चौडी है कि उसमें दोनों और बैठकें बनी हैं। यह बैठकें दुमंजली हैं तथा सम्भवतः नगर प्रहरियों के बैठने के काम आती थी। इन बैठकों की दीवारों को आधा बन्द कर लोगों ने उपयोग में लेना शुरू कर दिया है। इन कोठरीनुमा बैठाकों पर लोगों ने अतिक्रमण कर रखा हैं अथवा इन्हें रहने की अनुमति दी गई है इस बारे में पता नहीं चल पाया। सूरजपोल की ऊपर की कोठरी से धुंआ भी उठता दिखाई दे जाता है। सम्भवतः इसे रसोईघर के रूप में उपयोग में लिया जा रहा है।
सूरजपोल में दो दरवाजे हैं। इनमें पहला दरवाजा महाराव रामसिंह ने संवत् १७५४ में तथा दूसरा दरवाजा रियासत के प्रधानमंत्री जालिम सिंह ने बनवाया था। सूरजपोल में लकडी के विशा लकाय और मजबूत दरवाजे हैं। दरवाजों को हमला सह सकने जितना शक्षम बनया गया था। दरवाजों को लगाने के लिए पत्थर के बडे-बडे कुन्दे हैं, गोल पत्थर में बडा छेद कर यह कुन्दे बनाये जाते थे। दरवाजे कलात्मक हैं। सुरक्षा के लिये इन पर कीलें लगी हुई हैं। सूरजपोल के दरवाजे का मुंह पूर्व दिशा की ओर है। सूर्य की पहली किरण इस पर पडती थी इससे इसका नाम सूरजपोल रखा गया।
बताया जाता है कि किशोरपुरा दरवाजा भी सूरजपोल की तरह था। आजादी के बाद इसका एक दरवाजा हटा दिया गया। किशोरपुरा दरवाजे में भी बैठकें बनी हैं। किशोरपुरा और लाडपुरा दरवाजे में भिक्ति चित्रण भी हैं। बेल बूंटे तथा कृष्ण विशयक चित्र बने हैं। दोनों दरवाजों में यह चित्रण अस्पष्ट हो गया है, चित्रों पर धूल आदि चिपक जाने से कुछ स्पष्ट दिखाई नहीं पडता हैं।
लाडपुरा दरवाजे में छत के अन्दरूनी भाग पर बेलबूटें स्पष्ट दिखाई देते हैं यहाँ रंगों की चमक भी बरकरार हैं। दरवाजे में महालक्ष्मी का मंदिर भी बना है। लाडपुरा में दो दरवाजे बने हुए हैं।
कैथूनीपोल और पाटनपोल अन्य ऐतिहासिक घटनाओं के साथ-साथ १८५७ की क्रान्ति के भी मूक साक्षी रहे हैं। कैथूनीपोल दरवाजा पुलिस थाने के पास था, बताया जाता है कि रावतभाटा परमाणु ऊर्जा संयंत्र की स्थापना के समय भारी भरकम जंगी मषीनें और उपकरण ले जाने के लिये इसे तोडा गया पाटनपोल दरवाजा सुरक्षित है।
इतिहासकार डॉ. मथुरालाल शर्मा की पुस्तक “कोटा राज्य का इतिहास” के अनुसार महाराव रामसिंह के शासनकाल में १८५७ की क्रान्ति हुई। इसमें छह माह तक गतिविधियों के केन्द्र कैथूनीपोल और पाटनपोल रहे। दोनों दरवाजों पर छह माह तक क्रान्तिकारियों का ही कब्जा रहा। मेजर बर्टन के वध के बाद क्रान्तिकारियों का उत्साह बढ गया और उन्होंने पूरे शहर पनाह पर कब्जा कर लिया। दरवाजों पर भी क्रान्तिकारियों के जाब्ते तैनात कर दिये गये। तब कोटा के महाराव का शासन सिमट कर गढ में रह गया। दरवाजे बन्द होने से दूसरे राजपूत दूसरे राजपूत सरकार भी उनकी सहायता नहीं कर सकते थे। कोटा नरेश का गढ में काफी अर्सा हो जाने के बाद १५०० राजपूत सैनिकों ने ”शहर पनाह“ को मुक्त कराने का संकल्प लिया और दो हिस्सों में बंटकर आगे बढे। एक हिस्सा कैथूनीपोल तथा एक ने पाटनपोल की ओर कूच किया। एक दिन की लडाई में राजपूतों ने पाटनपोल और कैथूनीपोल से क्रान्तिकारियों को हटा दिया। कैथूनीपोल पर भीशण संघर्श हुआ, आखिरकार क्रान्तिकारियों को भगाकर दरवाजे बन्द कर दिये गये।
इसके बावजूद क्रान्तिकारियों का जोर बना रहा। क्योंकि बारूदखाना और तोपखाना उनके कब्जे में था। उन्होंने बुर्जों पर लगी तोप का रूख गढ की ओर कर गोले बरसाने शुरू कर दिया। पाटनपोल और कैथूनीपोल को मुक्त कराने में पांच सैनिक मारे गये थे। गोलो की वर्षा से सैनिकों को गढ की स्थिती नाजुक लगी अतः उन्होंने दोनों मोर्चे छोड दिये। राजपूत वापस गढ में चले गये तथा क्रान्तिकारियों का पुनः कब्जा हो गया।
कोटा की रक्षा के लिये अंग्रेजों ने जनरल राबर्ट्स के नेतृत्व में सेना भेजी। अंग्रेजी सेना चम्बल नदी पार कर चार भागों में गढ की ओर से कोटा में प्रवेश किया। राबट््र्स और साथियों ने गढ से क्रान्तिकारियों का बारूदखाना उडा दिया गया। इससे उनकी स्थिति कमजोर हुई। अंग्रेजों सेना में इंजीनियर थे उन्होंने परकोटे की दीवार का निरीक्षणकिया तथा कहा कि कैथूनीपोल दरवाजे में बारूद के थैले में भरकर आग लगादी गई। दरवाजा उड गया तथा अंग्रजी सेना की एक टुकडी वहां से सूरजपोल की ओर बढी। दो टुकडियां कोटा दीवार तोडकर रवाना हुई। एक दिन के संघर्श के बाद अंग्रेजी सेना कैथूनीपोल पाटनपोल के अलावा सूरजपोल और रापमुरा दरवाजा भी मुक्त करा लिया।
रामपुरा का दरवाजा वर्तमान में खादी भवन के पास था। वहीं गणेश मंदिर अब भी है। रामपुरा दरवाजा तोडने के कारणों की जानकारी नहीं मिलती। सम्भवतः यह भी यातायात व्यवस्था सुधारने के प्रयास में तोडा गया। रामपरा गणेश मंदिर की दीवार से लगा आधा टूटा हुआ कुन्दा इस बात की गवाही देता है। यहां दरवाजा लगा हुआ था। यातायात पुलिस के कार्यालय के पास स्थित दरवाजे को तोडकर तिराहा बनाया गया।
लक्खी बुर्ज से नीचे भी दरवाजा है। मैंग्नीज स्कूल का मैदान पार कर इस दरवाजे से क्षार बाग तक पहुंचा जा सकता है। यह दरवाजा बहुत छोटा है तथा आम रास्ता नहीं रहा। इस समय लोग इसे “खोडला” दरवाजे के नाम पुकारते हैं। इस समय दरवाजे को बन्द कर रखा है उधर से कोई नहीं जाता। बताया जाता है कि इस दरवाजे से होकर शव ले जाये जाते थे इसलिये इसे खोडला दरवाजा कहा जाने लगा।
राव माधोसिंह संग्रहालय-महल
कोटा नगर एवं हाडौती सम्भाग की कला, संस्कृति एवं इतिहास के दिग्दर्शन के लिये राव माधोसिंह ट्रस्ट संग्रहालय की स्थापना २० मार्च १९७० को कोटा के महाराव भीमसिंह द्वितीय द्वारा की गई थी। यह संग्रहालय कोटा के टिपटा स्थित प्राचीन गढ में स्थित है। संग्रहालय के साथ ही साथ हम कोटा के इस गढ को तथा इसमें समय निर्मित होने वाले विविध प्रकार के भव्य निर्माणों एंव महलों का भी अवलोकन कर सकते हैं।
पृथक से कोटा राज्य की स्थापना १६३२ ई. से मानी जाती है। राज्य निर्माण पश्चात गढ में पुराने भवनों के साथ ही साथ प्रथम शा सक राव माधोंसंह ने एक भव्य राजमहल का निर्माण कराया। माधोसिंह द्वारा प्रारंभ में निर्मित इसी राजमहल में यह संग्रहालय स्थित है। संग्राहालय के मुख्य कक्श अखाडे के महल या दरबार हॉल, सिलहखाना एवं उसके बरामदे, अर्जुन महल, छत्र महल, बडा महल, भीम महल तथा आनन्द महल इसी राजमहल में स्थित हैं।
संग्रहालय में प्रवेश हम हथियापोल से करते हैं जो कि राजमहल का मुख्य प्रवेश द्वार है। प्रवेश द्वार की बाहरी दीवार पर दरवाजे के दोनों ओर कोटा चित्र शैली में दो सुन्दर द्वार रक्षिकायें चित्रित हैं। इन्हें कोटा के प्रसिद्व चित्रकार स्वर्गीय प्रेमचन्द शर्मा ने अपने भाई के साथ मिलकर बनाया था। नये दौर के इन दोनों चित्रों के कुछ ऊपर विशा ल आकार के पत्थर के दो भव्य एवं आकर्शक हाथी दीवार पर लगे हुए हैं। पहले ये हाथी बून्दी के ऐतिहासिक किले के आन्तरिक प्रवेश द्वार पर लगे हुए थे तथा कोटा के प्रतापी नरेश महाराव भीमसिंह प्रथम एक आक्रमण के दौरान अपनी पैतृक भूमि बून्दी से इन्हें यहां ले आये और इस दरवाजे पर स्थापित कराया।
संग्रहालय में प्रदर्षित सामग्री विविध कक्षों में अवस्थित है जो कि इस प्रकार है ः-
१. दरबार हॉल, विविध राजसी वस्तुओं का कक्श २. शस्त्र कक्श ३. वन्य पशु कक्श ४. फोटो गैलरी ५. चित्र कक्श ६. चित्रित एवं अलंकृत राजमहल ७. अर्जुन महल के भित्ति चित्र ८. दीवाने-ए-खास या भीम महल ९. बडा महल-भित्ति चित्र एवं जडाई का काम १०. छत्र महल के भित्ती चित्र। इन कक्षों में से प्रथम छह पहली मंजिल, दसवां कक्श तीसरी मंजिल तथा बाकी सब दूसरी मंजिल पर अवस्थित हैं। प्रथम छह कक्श सभी आगन्तुकों के लिये खुले रहते हैं। परन्तु अन्य कक्श विशिष्ट प्रयोजन से विशेश अनुमति प्राप्त कर ही देखे जा सकते हैं।
दरबार हॉल में राजसी सामान दर्शाये गये हैं। ये सामान सोने-चांदी, पीतल तथा अष्टधातु, हाथी दांत, काष्ठ तथा वस्त्राभूशण आदि अनके प्रकार के हैं। इनमें से अधिकांश वस्तुएं वे हैं जिनका उपयोग कोटा राजाओं और महारानियों ने व्यक्तिगत तौर पर किया था। मुख्य रूप से ये वस्तुएं पूजा कार्य मनोरंजन या आराम के साधन एवं सवारी आदि से सम्बन्धित हैं। इनमें से कुछ प्रमुख आकर्शक वाद्य यंत्र, गंजफा खेल, चौपड-चौसर, राजसी परिधान, सवारी सामग्री, कलात्मक वस्तुएं आदि का प्रदर्शन किया गया है।
यह दरबार हॉल इनके अतिरिक्त इतने प्रकार के विविध संग्रहों से परिपूर्ण हैं कि सभी का ब्यौरा काफी विस्तार चाहता है। इनमें कुछ प्रमुख सामग्री है - श्रीनाथजी का चांदी का ंसिंहासन व बाजोट, सुनहरी, हाथीदांत और चांदी की जडाई की कुर्सियां, हाथीदांत के ढोलण के पाये, चांदी की पिचकारियां, जडाऊ पालना, प्राचीन सिक्के, कागज पर लगने वाली रियासत की ९५ मोहरें, रूईदार सदरी सुनहरी, चांदी तथा हाथीदांत के बने पंखों की डंडियां, सोने चांदी के जडे नारियल, तीन शो केसों में रखे प्राचीन हस्तलिखित ग्रन्थ, केरोसीन से चलने वाला प्राचीन पंखा, पुराने जमाने के विविध किस्म के ताले और चाबियां हैं। तैरने का तख्ता जिसमें ४ तुम्बे लगे हए हैं, भी यहां प्रदर्षित हैं। इनका उपयोग पहले राजमहल के चौक के हौज में तैरने के लिये किया जाता था तथा झाला जालिम सिंह के नहाने का २० सेर का पीतल का चरा भी यहां है। दरबार हॉल के बाहर के बरामदे में खगोल यंत्र, जलघडी, धूपघडी, काष्ठ घोडा तथा नौबते वस्तुएं प्रदर्षित की गई हैं।
राजकीय संग्रहालय
कोटा परिक्षेत्र की सांस्कृातिक एवं पुरातत्व संपदा को सहेजे कोटा का राजकीय संग्रहालय दर्शकों को अब नये रूप मे नजर आयेगा। सामग्री को नये स्वरूप में सजाया गया है। मूर्तियों को सिलसिलेवार प्रदर्षित किया गया है। प्रागेतिहासिक पुरातत्व, शैव , वैष्णव, अस्त्र-शस्त्र, परिधान, चित्रकला, लोकजीवन एवं जैन प्रतिमा दीर्धाएं बनाई गई हैं। लोक जीवन के प्रतीक सृष्टि के सृजन कर्ता ब्रह्मा से शुरू कर मात्रिकांए लक्ष्मी, कुबेर, कामक्रीडा, मृत्यु वादन से संगीत नव गृह आदि को क्रमवार दर्षाते हुए मृत्यु के देवता यम की प्रतिमा तक ले जाया गया है। जहॉ यमराज को हाथ कपाल लिऐ हुए दिखाया गया है। इन प्रतिमाओं में तत्कालीन समाज के लोकजीवन की झलक देखने को मिलती है। इस दीर्घा को संग्राहलय अधीक्शक उमराव सिंह विशिष्ठ उपलब्धी मानते हैं और बताते हैं कि इस प्रकार की प्रदर्शनी (द बाडी इन इंडियन आर्ट) वर्ष २०१४ ब्रिटिश इंडियन मे लगी थी। ऐसी दीर्घा प्रदेश के १९ संग्रहालयों मे से केवल कोटा में बनाई गई है। उन्होंने बताया कि संग्रहालय का करीब २ करोड रूपये से नवीनीकरण कार्य किया गया हैं। नवीनीकरण के अन्तर्गत मूर्तियों के पैडस्टल बनाने के ,मार्बल का फर्श लगाने के ,न्यू लुक शो केस बनाने के, कलात्मक जालियां लगाने, ग्लास वर्क, एलईडी लाईट तथा सीसीटी कैमरे लगाने के तथा परिसर एवं भवन का सौन्दर्यकरण कार्य किया गया।
उत्तरी भारत में मथुरा संग्रहालय के पश्चात मूर्तिकला की दृष्टि से सर्वाधिक सम्पन्न है। कोटा का राजकीय संग्रहालय छत्रविलास उद्यान के बृजविलास महल में अवस्थित हैं। प्राचीनता की दृष्टि से मथुरा संग्रहालय अग्रगण्य हैं तो मूर्तिकला की विविधता की दृष्टि से कोटा के राजकीय संग्रहालय का अपना विशेश महत्व हैं। चित्रकला की दृष्टि से कोटा का राव माधोसिंह संग्रहालय अनुपम है तो उसके पूरक के रूप में कोटा का यह राजकीय संग्रहालय चित्रकला का अद्भुत खजाना है।
कोटा के राजकीय संग्रहालय की स्थापना का श्रीगणेश १९३६ में हुआ जबकि बनारस हिन्दु विश्व विद्यालय के प्रोफेसर ए. एस. अल्लेकर को कोटा के पुरातात्विक महल के स्थानों के सर्वेक्षण के लिये आमंत्रित किया गया था। उन्होंने अपनी सर्वेक्षण रिपोर्ट में इस भू भाग के ऐतिहासिक व सांस्कृतिक महत्व को बतलाते हुए १४ स्थानों का जिक्र करते हुए उनकी सुरक्षा एवं मरम्मत की ओर ध्यान दिलाया। इनकी मरम्मत के कार्य को देखते हुए पुरातत्व विभाग के डायरेक्टर जनरल रायबहादुर के. एन.दीक्षित जब कोटा आये तो उन्हें यह काम बडे घटिया स्तर का लगा और उन्होंने इस कार्य को सम्पन्न करने के लिये कोटा राज्य में एक अलग से पुरातत्व विभाग स्थापित करने की राय दी।
दीक्षित के इसी सुझाव पर १९४३ ई. में कोटा के महाराव भीमसिंह ने स्टेट हिस्टोरियन तथा उपाचार्य हर्बट कॉलेज डॉ. मथुरालाल शर्मा को राज्य में बिखरे पडे शिलालेख एवं मूर्तियों को संग्रह करने को कहा। डॉ. शर्मा ने प्रयास करके लगभग सौ मूर्तियों का संग्रह कर लिया तब १९४५.४६ में कोटा में एक संग्रहालय की स्थापना बृजविलास महल में की गई। प्रारम्भ में इस संग्रहालय में केवल पुरातात्विक महत्व की सामग्री ही रखी गई। वर्ष १९५१ में राजस्थान सरकार के पुरातत्व एवं संग्रहालय विभाग ने कोटा संग्रहालय को अपने हाथ में लेकर बृजविलास से कोटा गढ के प्रवेश द्वार के ऊपर बने हवामहल में स्थानान्तरित कर दिया । इस समय महाराव भीमसिंह ने संग्रहालय को स्थान देने के साथ ही साथ विविध प्रकार की सांस्कृतिक एवं ऐतिहासिक महत्व की अनेक वस्तुएं भी प्रदान की। कालान्तर में संग्रहालय में शनै कर शनै ः अनेक वस्तुएं जुडती रही और यह सभी दृष्टियों से परिपूर्ण हो गया। हवामहल में स्थान की कमी को देखते हुये संग्रहालय को १९९४-९५ में पुन ः बृजविलास महल में स्थानान्तरित दिया गया। अब यहां गढ से सभी सामग्री आ चुकी है और उसे व्यवस्थित रूप से सजा दिया गया है।
संग्रहालय के पुरातत्व विभाग में मुख्यतः पुरानी मूर्तियां, शिलालेख और सिक्के हैं। हाडौती के लगभग सभी पुरातात्विक महत्व के स्मारकों की मूर्तियां यहां संग्रहित हैं । इनमें बाडौली, दरा, अटरू, रामगढ, विलास, काकोनी, शाहबाद , आगर, औघाड, मन्दरगढ, बारां और गांगोभी की मूर्तियां प्रमुख हैं। संग्रहालय में १५० से भी अधिक चुनिन्दा मूर्तियों का संग्रह हैं। यहां वैष्णव, शैव और जैन तीन सम्प्रदायों की मूर्तियाँ में मुख्य रूप से विष्णु, शिव, त्रिविक्रम, नारायाण, हयग्रीव, वराह, कुबेर, वायु, शिव-पार्वती, कार्तिकेय, ब्रह्या, हरिहर महेश, अग्नि, क्षेत्रपाल, वरूण, यम, एन्द्री, वराही, अम्बिका, ब्रह्याणी चन्द्र, पार्ष्वनाथ, गजलक्ष्मी, रति-कामदेव आदि देवी देवताओं की प्रतिमाएं शांमिले हैं। संग्रहालय में रखी हुई कुछ प्रतिमाऐ तो अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति की हैं जिनमें से दरा की झल्लरी वादक तथा बाडौली की शेशा यी विष्णु की प्रतिमाएं तो विश्व के कई देषों में प्रदर्षित हो चुकी हैं। अपनी धुन में तल्लीन झाल्लरी वादक की प्रतिमा अपने आप में अनूठी और एकाकी हैं। बादामी रंग की विष्णु की खडी प्रतिमाओं में काफी बारीक कटाई का काम हैं। बाडौली से लाई गई पालिश की हुई शेशा यी की मूर्ति में अद्भुत आकर्षण है तथा भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू भी इसके सामने आकर इसे कुछ क्षणतक अचम्भे से निहारते रहे। गांगोभी की प्रतिमाऐ सफेद पत्थर की हैं तथा महीन कारीगरी की दृष्टि से बेजोड हैं। विलास की यमराज की मूर्ति में अद्भुत आकर्षण है तथा रामगढ की ९ वीं सदी की वाद्य और नृत्य में रत एक युगल की मूर्ति जीवन्त सी प्रतीत होती है।
संग्रहालय में जो शिलालेख प्रदर्षित किये गये हैं उनमें से कुछ तो अति प्राचीन एवं ऐतिहसिक होने के साथ-साथ भारतीय इतिहास के स्त्रोत की दृष्टि से अत्यन्त ही महत्वपूर्ण हैं। यहा चार लेख चार यूपों पर उत्कीर्ण हैं। जिन्हें अन्ता के समीप बडवा ग्राम से लाया गया हैं यूप प्रस्तर के वे स्तम्भ हैं जिनसे यज्ञ के समय के अश्व बांधे जाते थे। वैदिक परम्परा के अनुसार बडवा के ये यूप आधार में चौकोर और मध्य में अष्टाकार और शीर्ष पर मुडे हुए हैं।
यूप पीले रंग के बलुआ पत्थर के हैं। इन यूपों पर ब्राह्यी लिपि में कुशा ण कालीन १९५ विकम्र (२३८ ई.) की है। इससे ज्ञात होता है कि इन यूपों के निर्माणकर्ता मौखरी वंश के बल के पुत्र बलर्धन सोमदेव और बलसिंह थे, जिन्होंने यहां त्रिराज एवं ज्योतिषेम यज्ञ करके इन्हें स्थापित किया था। यह एक आष्चर्य की बात है कि सातवीं शताब्दी में कन्नौज में राज्य करने वाले वर्धन वंश के प्रतापी नरेश हर्षवर्धन से काफी पहले इस भू-भाग पर इस वंश का अधिकार था। ये चारों यूप तथा इन पर लिखे शिलालेख इस संग्रहालय की अमूल्य निधि हैं।
इन प्रसिद्ध शिलालेखों के अतिरिक्त हाडौती में अन्य कई स्थानों से प्राप्त शिलालेखों की देवनागरी में प्रतिलिपि भी इस संग्रहालय में रखी गई है। जिनमें चार चौमा का गुप्त शिलालेख, कंसुआ का ८वीं शताब्दी का लेख, षेरगढ में भण्डदेवरा का १३वीं शताब्दी व १२वीं विक्रम का लेख तथा चांदखेडी का १७४६ विक्रम का लेख प्रमुख हैं।
संग्रहालय में कई ताम्रपत्रों के मूल लेख तथा कुछ के अनुवाद भी उपलब्ध हैं। संग्रहालय में शाहबाद और दरा से लाये गये भी कुछ शिलालेख भी उपलब्ध हैं। शिलालेखों के साथ ही साथ खरीतों पर लगाये जाने वाली चपडी की सील के कुछ लेख भी मौजूद हैं जिनमें प्रमुख रूप से राव माधोसिंह , महाराव रामसिह, वजीरखान नसरतजंग, बलवन्तसिंह, जार्ज रसेल आदि के हैं। इसी प्रकार कोर्ट स्टेम्प की मोहर के लेख भी यहाँ पर प्रदर्षित हैं।
संग्रहालय में कुछ पुराने समय के सिक्के भी प्रदर्षित किये गये हैं। इनमें अधिकांश सिक्के वे हैं जो कि कोटा राज्य के विभिन्न स्थानों से समय-समय पर प्राप्त हुए थे। सिक्कों में सर्वाधिक प्राचीन पंचमार्क सिक्का है जो कि चांदी का चौकोर हैं तथा जिस पर फूल बने हुए हैं। इस प्रकार के सिक्कों का चलन ईसा से तीसरी शताब्दी पूर्व था। कोटा, मेवाड, बून्दी, झालावाड, जयपुर, जोधपुर, बीकानेर, जैसलमेर, किशनगढ, करौली, भरतपुर और टोंक आदि रियासतों के सिक्के भी यहां प्रदर्षित हैं जो कि कोटा राज्य के रानीहेडा गांव में मिले थे। ये सिक्के मुगल बादशाह अकबर, जहांगीर, शा हजहां, औरंगजेब और मोहम्मदशाह के समय के हैं।
संग्रहालय से जुडे हुए सरस्वती भण्डार में पहले ५००० हस्तलिखित ग्रंथ थे। अब सरस्वती भण्डार के अलग हो जाने के कारण कतिपय चुने हुए विशिष्ठि हस्तलिखित ग्रंथ ही यहां रह गये हैं। जिनमें अधिकांश चित्रित हैं। ये ग्रंथ चित्र तथा चार्ट स्वर्ण अक्षररी, चित्र काव्य, भोजपत्री एवं नक्काशी द्वारा अलंकृत हैं। चित्रित ग्रंथों में प्रमुख हैं-भागवत जो कि ११९० पृष्ठों की है इसमें कुल ४७६० चित्र हैं । दूसरी भागवत सूक्ष्म अक्षररी है जिसका आकार ६ण्९ग् ३ इंच है। इसमें सुनहरी रेखांकन का काम है तथा इसमें १८वीं शताब्दी में बने दशावतार के चित्र हैं। यहां एक गीता भी सूक्ष्म अक्षररी है जिसमें इतने बारीक अक्षरर है कि इसे सूक्ष्मदर्षी यंत्र से भी पढने में कठिनाई आती है तथा इसका आकार साढे ८ण्५ ग् ५ण्५ इंच है।
संग्रहालय में एक चावल पर उत्कीर्ण गायत्री मंत्र भी इस संग्रहालय की महत्वपूर्ण वस्तु है। इसमें २६८ अक्षरर हैं। यह उत्कीर्ण चावल ११ सितम्बर १९३९ को महाराव उम्मेदसिंह की सालगिरह पर दिल्ली के फतह संग्रहालय द्वारा तैयार कर भेंट किया गया । यहां एक अन्य गीता सप्त ष्लोकी कर्त्तारित अक्षररी है। गीता पंचरत्न नामक ग्रंथ में २३६ पृष्ठ एवं २३ चित्र हैं तथा कई जगह अक्षरर स्वर्ण में लिखे गये हैं। स्वर्ण अक्षररों युक्त एक अन्य ग्रंथ में शत्रुशल्य स्त्रोत है। दुर्जन शल्य स्त्रोत काले रंग के पृष्ठ पर सफेद स्याही से लिखा गया है। इसी प्रकार के अन्य ग्रन्थ आषीर्वचन तथा सिद्धान्त रहस्य है। अन्य प्रमुख ग्रन्थ हैं- कल्पसूत्र, यक्रसार, वल्लभोत्सव चन्दि्रका, सर्वोत्तम नवरत्न, पृथ्वीराजयुद्ध, डूंग सिंह की वीरगाथा, अश्व परीक्षा, ज्ञान चौपड आदि। यहां के ग्रन्थों में उम्मेदसिंह चरित काव्य में कोटा के पुराने इतिहास का जिक्र हैं। कुरान मजीद ग्रन्थ जिसका आकार ७ ग् ४ इंच है। इसमें ७६४ पृष्ठ हैं, अरबी में लिखा है तथा इसमें सुन्दर कारीगरी का काम है। संग्रहालय प्रातः ९.३० बजे से सायं ६.०० बजे तक दर्शकों के लिए खुला रहता है। सोमवार को साप्ताहिक अवकाश के साथ-साथ राष्ट्रीय पर्वों के दिन बंन्द रहता है।
कलादीर्घा
राजकीय संग्रहालय के नजदीक ही ३५ लाख रूपये की लागत से आधुनिक कलादीर्घा का निर्माण भी सांसद कोश से कराया गया है। इसका रख-रखाव राजस्थान ललित कला अकादमी, जयपुर द्वारा किया जा रहा है। समय-समय पर ख्यातिनाम कलाकारों की कलाकृतियों की प्रदर्शनियों का आयोजन कलादीर्घा में किया जाता है। इस दीर्घा के निर्माण से हाडौती अंचल के कलाकारों को अपनी कलाकृतियाँ प्रदर्षित करने के लिए एक अच्छा स्थान उपलब्ध हुआ हैं।
क्षारबाग
राजस्थान के रजवाडों के समय शासकोकी मृत्यु के बाद उनकी याद में उत्तराधिकारी कलापूर्ण छतरियों का निर्माण करवाते थे। ऐसी ही अनुपम कलात्मक छतरियां कोटा नगर में छत्रविलास उद्यान में स्थित है जिन्हें क्षारबाग की छतरियों के नाम से जाना जाता है।
स्थापत्य कला की दृष्टि से सभी छतरियों की शैली राजपूत निर्माण कला का प्रतिबिम्ब है। विशेश प्रकार के पुष्प कलाकार की अनुभूति है। छतरियों पर हाथियों का युद्ध, घुडदौड के दृष्यों को तक्शणकारों ने अपनी हथौडी व छैनी से जीवन्त रूप प्रदान किया है। बडे-बडे हाथियों पर बैठे महावत हाडौती शैली का प्रतीक हैं, छतरियों के सामने दोनों ओर पहरेदार से खडे हैं। कहीं ये हाथी बूढे हैं तो कही बच्चे हाथियों के गले में रस्सा, कमर पर पडी झूल तथा उस पर रस्सों को बारिकी से तराशा गया है।
छतरियों की छतें गोल शिखरनुमा तथा विभिन्न आकृतियों से परिपूर्ण हैं। आकृतियों में कृष्ण, ढोल-वीणा-सितारवादन, गीत गाते व नृत्य करती आकृतियां बहुत खूबसूरती से तराषी गई हैं। छतरियों के निर्माण सफेद संगमरमर और भूरे व लाल रंग के पत्थर का उपयोग किया गया है। कुछ छतरियों की स्थापत्य कला पर समय के विकराल पंजो की छाप साफ नजर आती है। हाथी युद्ध दृष्य में कहीं महावत का चेहरा तो कहीं कोई अंग खंडित नजर आता है। बरसों से यह छतरियां उपेक्षा का शिकार हैं। यहां पर सबसे प्राचीन छतरी राव माधोसिंह प्रथम की सबसे नई छतरी महराव उम्मेद सिंह प्रथम की है। शिल्प कला सौन्दर्य के दर्शन राव रामसिंह प्रथम, छत्रसाल प्रथम एवं महाराव उम्मेदसिंह प्रथम की छतरियों में होते हैं।
शिल्प कला में बेजोड महाराव छत्रसाल प्रथम की छतरी सबसे अन्त में परकोटे के पास है। इसका चबूतरा लगभग १० फीट (तीन मीटर से कुछ अधिक) ऊँचा है। मुख्य छतरी चबूतरे से करीब ५० फुट ऊँची है। १४वीं सीढी से मुख्य छतरी का आधार आरम्भ होता है। छतरी गोलाकार में तराषी गई है। मुख्य छतरी का आधार १०५ सेन्टीमीटर ऊँचा है। मुख्य छतरी दोहरे रूप से अन्दर खुली बनी है। यह नीचे की छतरी पर बाहरी ओर ७५ से.मी. गोलाई तथा २८४ सेन्टीमीटर लम्बाई के २४ खम्भों पर टिकी है। अन्दर की ओर इस नाप के आठ खम्भे बनकर छतरी का निर्माण किया गया है। छतरी पर तराशे गये गज युद्ध में हाथी के पैर जंजीर से बंधे हैं, हाथियों पर बैठे महावत गिरने की मुद्रा में हैं।
महाराव उम्मेदसिंह प्रथम की संगमरमर की छतरी सबसे बडी है। मुख्य छतरी ११० सेन्टीमीटर मोटे १६ खम्भों पर टिकी है। छतरी के चारों ओर छोटी-छोटी छतरियां बनी हैं। महाराव रावसिंह, राव जगत सिंह, महाराव दुर्जनसाल सिंह की कलात्मक छतरियां स्थापत्य कला की धरोहर हैं। कला विशेशज्ञों की दृष्टि से साधारण होने पर भी महाराव भीमसिंह प्रथम (१७५२ से १७६४ संवत) की छतरी भी किसी से कम नहीं है। ये कलात्मक छतरियां जो वर्षो से उपेक्षित थी। पर्यटन की दृष्टि से इनकों उभारने का प्रयास किया गया है। अब इसे ऊँची दीवार बना कर संरक्षित कर दिया गया है। इसी के समीप लक्की बुर्ज एवं जयपुर गोल्डन बुर्ज पर रमणिक उद्यान भी दर्शनीय हैं।
शान-ए-कोटा, सेवन वंडर्स पार्क
चम्बल नदी के किनारे राजस्थान एतिहासिक कोटा शहर की विश्व के सेवन वंडर्स पार्क से नई पहचान बन गई है। पार्क की खूबसूरत लोकेशन की वजह से ही अब इस और फिल्मकारों का ध्यान आकर्शित हुआ है। हाडोती में अनेक आकर्शक लोकेशन है। पार्क में “बद्रीनाथ की दुल्हनिया“ शूटिग की गई जो खासी लोकप्रिय हुई। आप ने कहीँ नई जगह घूमने का कार्यक्रम बना रहे तो चले आइये कोटा एक ऐसे अनूठे पार्क को देखने जहाँ विश्व के सात आश्चर्यो की अनुति एक ही स्थान पर सुंदरता के साथ देखने को मिलती है।
शहर के मध्य बने किशोर सागर के किनारे पानी मे पार्क का झिलमिलाते प्रतिबिम्ब की आभा से उभरता खूबसूरत नजारा देखते ही बनता है। शाम होते-होते यह पार्क देखने वालों की चहल कदमी से आबाद हो जाता है। पार्क के नजारों एवम् खूबसूरती को कैद करने के लिए मोबाईल चमक उठते हैं। पार्क में हरे भरे लॉन एवम् पैदल चलने के लिए सुन्दर परिपथ बनाये गए हैं।
पार्क में प्रवेश करने पर नजर ठहरती है एक बडी सी गोल संरचना पर जिसे “कॉलेसियम“ कहते है। यह रोम् में बने विशाल खेल स्टेडियम की अनुकृति है। इसे रोम में १९७० के दशक में बनवाया गया था जिसमें ५० हजार लोगों के लिए जगह थी। जब आगे बढते है तो मिश्र में काहिरा के उप नगर गीजा के तीन पिरामिडों में एक“ ग्रेट पिरामिड“ जो विश्व के सात आश्चर्यो में है की पतिक्रति बनाई गई है। इसे मिश्र के शासक खुफु के चौथे वंश द्वारा अपनी कब्र के रूप में २५६० ईसा पूर्व बनवाया था। करीब ४५० फीट ऊँचे एवम् ४३ सीढयों वाले पिरामिड को बनाने में २३ वर्ष का समय लगा। पिरामिड का आधार १३ एकड क्षेत्रफल में बना है।
समीप ही बनाया गया है दुनिया में प्रेम की निशानी के रूप में प्रसिद्ध भारत में आगरा स्थित “ताजमहल“ का नमूना। मुगल बादशाह शाहजहाँ ने इसे अपनी प्रिय बेगम मुमताज महल की याद में बनवाया था। सफेद संगममर से बने खूबसूरत स्मारक का निर्माण कार्य १६३२ ई.में शुरू किया गया जिसे पूरा करने में १५ वर्ष लगे। इस विश्व प्रसिद्ध भवन के पीछे यमुना नदी बहती है एवं चारो तरफ आकर्शक उद्यान एवम् फव्वारें इसे और भी न्याभिराम बना देते हैं।
इसी के पास नजर आता है न्यूयार्क के “स्टेच्यू ऑफ लिबर्टी“ की सुंदर मूर्ति का साकार रूप। यह मूर्ति न्यूयार्क के हार्बर टापू पर ताम्बे से बनी है। मूर्ति १५१ फीट ऊँची है तथा चौकी एवम् आधार को मिला कर ३०५ फीट है। मूर्ति के ताज तक पहुचने के लिए ३५४ सीढयां बनाई गई हैं। मूर्ति एक हाथ को ऊँचा कर जलती मशाल लिए है तथा दूसरे हाथ में किताब लिए है। मूर्ति अमेरिकन क्रन्ति के समय दोस्ती की यादगार के रूप में फ्रांस ने १८८६ ई.में अमेरिका को दी थी। प्रतिमा का कुल वजन २२५ टन है। ताज में ७ कीलें लगी हैं। प्रत्येक कील की लम्बाई ९ फीट एवम् वजन ८६ किलो हैं। इस का पूरा नाम “लिबर्टी एनलाइटिनिग द वर्ल्ड अर्थात स्वतंत्र संसार को शिक्षा प्रदान करती है“ है। यहीं से सामने नजर आती है लम्बाई लिए इटली की झुकी हुई “पीसा की मीनार“ जो रात्रि में रौशनी में अत्यंत सुंदर लगती है। इटली में जहां यह मीनार बनी है सात मंजिल की है। जमीन से जिस तरफ झुकी है ५५.८६ मीटर तथा ऊपर की तरफ से ५६.७० मीटर है। दीवारों की चौडाई आधार पर ४.०९ मीटर एवम् टॉप पर २.४८ मीटर है। इसका वजन १४,५०० मेट्रिक टन है। मीनार का निर्माण १४ अगस्त ११७३ ई. में प्रारम्भ हुआ एवम् १९९ वर्ष में तीन चरणों में पूरा हुआ।
आगे चलने पर एक और क्राइस्ट द रिडीमर एवम् दूसरी ओर एफिल टावर की अनुकृति दिखाई पडती है। क्राइस्ट द रिडीमर (उद्धार कर ने वाले) की प्रतिमा ब्राजील में एक पहाडी के ऊपर बनाई गई है। सीमेंट एवम् पत्थर से बनी यह मूर्ति दुनियां की दूसरी सबसे बडी मूर्ति मानी जाती है। मूर्ति की उचाई १३० फीट है एवम् इसे १९२२ से १९३१ ई. के मध्य बनवाया गया। पार्क में १३० वर्ष पुराना पेरिस के एफिल टावर की नीव २६ जनवरी २८८७ को शौदे मार्स ने रक्खी थी। लोहे से बना होने से इसे “आयरन लेडी“ कहा जाता है। एफिल टावर ३०० मीटर ऊँची होने से दुनिया की सबसे ऊँची रचना का ख्ाताब प्राप्त है। इस के निर्माण में ७ हजार ३०० टन लोहे का उपयोग किया गया है। विश्व की इस लोकप्रिय साईट पर अनेक फिल्मों की शूटिग की जा चुकी है। विश्व के इन सभी लोकप्रिय आश्चर्यो को एक ही स्थान पर कोटा शहर में एक पार्क में देखने के साथ इस से जुडे किशोर का सौंदर्य आकर्षण का केंद्र है।
इस के दूसरे छोर पर खूबसूरत बारादरी और घाटों के साथ शाम को ७.०० बजे आयोजित होने वाला फ्लोटिंग “म्यूजिकल फाउंटेन“ शो की आभा के आकर्षण जुडे हैं। समीप ही छत्रविलास उधान, चिडयाघर, राजकीय संग्रहालय, कला दीर्घा एवम क्षारबाग की कलात्मक छतरियाँ जिन्हें कोटा के शासको की याद में बनाया गया हैं, पर्यटकों के लिए दर्शनीय स्थल हैं। तालाब के मध्य जगमंदिर को देखने के लिए नोकायन का भी अलग मजा है। किशोर सागर की खूबसूरत झील का निर्माण १४ वीं सदी में बूंदी के राजकुमार धीर देव ने कराया था। किशोर सागर का सम्पूर्ण परिक्षेत्र आज “शान-ए-कोटा“ बन गया है। इस परिक्षेत्र में कई धार्मिक स्थल भी आस्था के केंद्र हैं। बिजली की रोशनी में जगमगाता किशोर सागर का सीन पेरिस से कम नहीं लगता। इसे कोटा का मेरीन ड्राइव भी कहे तो अतिश्योक्ति नहीं होगी। यहीं पर एक चौपाटी भी बनाई गई है।
हाडौती यातायाता पार्क
चम्बल नदी के किनारे बच्चों के मनोरंजन एवं मानसिक विकास के लिये बनाया गया हाडौती यातायात पार्क वर्ष १९९० में बनाया गया। पहले से बने चम्बल गार्डन एवं गांधी उद्यान के विस्तार के रूप में बच्चों को समर्पित यातायात पार्क राजस्थान में अपनी तरह का पहला बालोद्यान है। मिनी फ्लाई ओवर, मिनी टाउनशिप, एयरपोर्ट, पोस्ट चौराह, तिराहा, चिडयाघर, चिकित्सालय मॉडल तथा यातायात संकेत ट्रैफिक पार्क की विषेशताएं हैं। बच्चों में बचपन से यातायात की सजगता को उत्पन्न करने के लिये इस तरह का यह अनोखा प्रयास है। भारत में अभी तक इस तरह के पार्क इने-गिने शहरों में हैं। बच्चों को समूह के रूप में यातायात सम्बन्धी जानकारी देने की व्यवस्था की गई है।
उद्यान का सर्वाधिक पहलू रंग बिरंगे लुभावने मनोरंजन उपकरण हैं। मून राकेट, मैजिक कारपेट, जिंगडा, डिजनीलैण्ड पब्लिक मॉडल, टाइम क्लाइम्बर, ग्रीन, बिल्ली गोट गल्फ एवं लूनर लैंडर मॉडल अत्याधिक लुभावने मनोरंजन के साधन हैं। इस उद्यान के रास्तों के नाम सभी धर्मों के महापुरूषों के नाम पर रखे गये हैं। बचपन से कौमी एकता की भावना का उदय हो, यही इसका उदेष्य हैं। लगभग १६ एकड में बने इस उद्यान पर २५ लाख रूपया व्यय कर नगर निगम कोटा ने बच्चों को मनोरंजन का अच्छा माध्यम उपलब्ध कराया है। समीप ही जुरासिक पार्क भी दर्शनीय है।
चम्बल उद्यान
कोटा में चम्बल नदी के तट पर दस एकड की भूमि में स्थित यह उद्यान राजस्थान कें श्रेश्ठतम उद्यानों में से एक है जो १९७६ में पूर्णतया विकसित हुआ। चट्टानी भूमि पर विकसित किये इस उद्यान के लिये भूतल को समतल कर स्थान को प्राकृतिक एवं मौलिक रूप में विकसित किया गया है। उद्यान में एक बडा फव्वारा व कई आकर्शक फव्वारों से युक्त मूर्तियां विद्यमान हैं। चम्बल नदी में नौका विहार की सुविधा इसी उद्यान से उपलब्ध हैं। यह उद्यान सभी आयु वर्ग के लोगों को आकर्षित करता है। बच्चों के मनोरंजन के हेतु अनके झूले लगाये गये हैं। इसी उद्यान से लगता हुआ महात्मा गांधी पार्क गुलाब के फूलों के लिए अपनी पहचान बनाता है।
चारचौमा शिवालय
कोटा से २५ किलोमीटर दूर चौमा गांव में गुप्तकालीन चारचौमा शिवालय भगवान शिव को समर्पित है। गुप्तकालीन होने से इस मंदिर को चौथी या पांचवीं सदी का माना जाता है। कोटा राज्य के इतिहासकार डॉ. मथुरा लाल शर्मा ने इस मंदिर को कोटा का सबसे प्राचीन शिवालय बताया है।
बाहर से देखने पर मंदिर साधारण शिखरबंद है तथा मंदिर में स्थित चतुर्मुख शिव प्रतिमा श्याम पाशा ण से निर्मित है। यह प्रतिमा अत्यन्त ही आकर्शक है तथा इसकी विशेशता चारों मुखों के केशविन्यास में नजर आती है। वेदी से चोटी तक प्रतिमा की ऊंचाई करीब ३ फुट है। कंठ से ऊपर के चारों मुख काले और चमकीले हैं। यहां प्रतिदिन आरती होती है तथा महाशिवरात्रि पर भव्य मेले का आयोजन किया जाता है, जिसमें हजारों श्रद्धालु पहुंचते हैं और भगवान शिव के दर्शन कर पुण्य प्राप्त करते हैं।
चन्द्रेसल मठ
कोटा के समीप चन्द्रेसल गाँव में दसवीं शताब्दी का प्राचीन चन्द्रसल मठ एवं शिव मंदिर ऊँची दीवारो से घिरा है। मठ एक ऊँची टेकरी पर बना है जहां पहुँचने के लिए ३२ सीढियाँ चढनी होती है। प्रवेश करने पर एक बडा से परिसर के बाई और मध्य में भूरे पत्थरो से निर्मित शिव मंदिर प्रमुख है। मंदिर में गर्भग्रह, अंतराल एवम् आराधना मंडप बने हुए है। खडे रूप में देखने पर पाद, गर्भगृह की दीवारें,छज्जा एवम् सुच्याकार शिखर नजर आते हैं।
गर्भगृह का अंदर के अंदर का भाग आयताकार विन्यास पर बना है जो कि लिगम का निरूपम करता है। पाद भाग सरल अलंकरणों से सज्जित है तथा इसके स्तम्भों पर खडी प्रतिमा नजर आती है। छत एवं छज्जों के अलंकरण देखते ही बनते हैं। शिखर के आधार की वास्तु-योजना, गर्भगृह के आंतरिक विन्यास पर ही आधारित है तथा आमलक और कलश के श्रृंगों से युक्त है।
गर्भगृह का द्वार त्रिशाखा प्रकार का है, इसके ऊपर ललितासन में चतुर्मुखी शिव दंपत्तियों के दोनों किनारों पर चतुर्मुखी ब्रह्मा एवं विष्णु की प्रतिमाएं बनाई गई हैं। आयताकार अन्तरालय के दोनों ओर की दीवारों पर साधारण ताख निर्मित हैं। अंतरालय की समतल छत पर उथले कमल-पुष्प की आकृति तथा आस-पास संगीतज्ञों एवं प्रणयरत प्रतिमाएं उत्कीर्ण की गई हैं। कलात्मक दृष्टि से मंदिर का यह हिस्सा महत्वपूर्ण है। मंदिर की बाहरी दीवारों पर कभी ३० देव एवं १० दिक्पाल प्रतिमाएं थी, जिनमें से अब कुछ ही दिखाई देती हैं। ज्यादातर प्रतिमाएं गायब हो गई है, कुछ पास में पडी हैं।
मुख्य मंदिर के पीछे का मंदिर जीर्ण-शीर्ण हो चुका हैं। मंदिर के सामने पेड के नीचे चबूतरे पर गणेश जी की प्रतिमा स्थापित की गई है तथा चबूतरे के नीचे बडी नंदी प्रतिमा है। मंदिर के आगे चलने पर दांई एवं बांई और दो भग्न मंदिरों की शिल्प कला भी दर्शनीय है। दो मंदिरों के मध्य एक टीन शेड में हनुमान जी की प्रतिमा पधराई गई है जिसकी पूजा की जाती है। इसके समीप ही एक रास्ता चरदिवारी के उस पर जाता है जहां कई प्रतिमाएं एवं मंदिरों के कला खंड बिखरे हैं। यहां एक वीरान एवं खंडित मंदिर भी है जिस के स्तंभों का अलंकरण एवं दीवारों पर कुछ कलात्मक मूर्तियां दिखाई देती हैं।
मुख्य मंदिर के सामने के पेड के पीछे बनी तिबारियों में साधुओं ने डेरा बना रखा है। ये ही लोग मंदिर की देखरेख करते हैं। मठ एवं मंदिरों को राजस्थान के पुरातत्व विभाग के अधीन संरक्षित स्मारक घोशित किया गया है। मठ के सामने बहती चंदलोई नदी का दृश्य एवं धूप सकते व पानी में तैरते मगरमच्छ को देखने का भी आनद लिया जा सकता हैं। नदी किनारे नहाने के पक्के घाट बना दिए गए हैं। प्रति वर्ष महाशिवरात्रि के पावन पर्व पर यहां मेले का आयोजन किया जाता है। श्रद्धालु स्नान कर भगवान शिव की पूजा अर्चना कर पुण्य कमाते हैं।
स्थानीय पुरातत्व एवम् संग्रहालय विभाग के प्रभारी को अपनी धरोहर सम्भालने का विचार आया तो उन्होंने ने इसके रेस्टोरेशन के लिए सरकार से पाँच करोड रुपये की मांग की। फिलाल ५० लाख रुपये उपलब्ध कराये गए हैं। संग्रहालय अधीक्शक उमराव सिंह के मुताबिक रेस्टोरेशन का कार्य प्रारम्भ कर दिया गया है। जैसे-जैसे राशि मिलती जायेगी कार्य आगे बढाया जायेगा। अभी मंदिर के जर्जर हिस्से को हटा दिया गया है। मुख्य मंदिर के सामने वहीं पडे मंदिर के पाशा ण खंडो से सभामंडप का निर्माण प्रारम्भ किया है। लेन्टल लेवल तक कार्य हो चुका है। मंदिरों की जिस प्रकार भग्न स्तिथि है रेस्टोर करने में बडी धनराशी की जरुरत है तथा बडे पैमाने पर काम करने की दरकार है। करीब १.८० लाख की स्वीकृति प्रक्रियाधीन है। करीब ११००० वर्ष प्राचीन मंदिर धरोहर को सम्भालने के लिए स्थानीय स्तर पर दृढ राजनितिक इच्छा शक्ति की जरुरत है।
भीम चौरी (५० कि.मी.)
कोटा से करीब ५० किलोमीटर दूर दरा नामक स्थान पर मुकुन्दरा की पहाडियों के सौन्दर्य के मध्य स्थित भीम चौरी को भी चौथी शताब्दी का बताया जाता है। यहां कभी भव्य शिवमंदिर था, परन्तु आज उसके स्तम्भों के रूप में अवशेश शेश रह गए हैं। एक लम्बे-चौडे पत्थर के दो स्तरीय चबूतरे पर कुछ खम्भों वाला एक ध्वस्त मंदिर को ही भीम चौरी अथवा भीव चंवरी कहा जाता है। यहां पर ४४ फुट चौडे और ७४ फुट लम्बे चबूतरे पर बने इन स्तम्भों को भीम का मण्डप भी कहा जाता है। इस चबूतरे पर ही मूल मंदिर स्थापित था। यहां से प्राप्त झल्लरी वादक की एक नायाब और सुन्दर प्रतिमा कोटा के छत्रविलास स्थित राजकीय संग्रहालय में सुशोभित है। इस तांत्रिक पट्टिका को पूरे अंचल में अनूठा माना जाता है। इसमें मकरमुख से अलंत एक व्यक्ति को वाद्य यंत्र बजाते हुए दर्शाया गया है। यह मूर्ति विदेशों में भी कई बार प्रदर्शन के लिए भेजी गई है।
बूढादीत का सूर्य मंदिर (५५ कि.मी.)
राजस्थान के गिने-चुने सूर्य मंदिरों में कोटा से करीब ५५ किलोमीटर दूर बूढादीत गांव में बना सूर्य मंदिर पुरातत्व की अमूल्य धरोहर है। पूर्वाभिमुख मंदिर शिखरबंद है। छोटे-छोटे उपशिखरों की श्रृंखला मंदिर की शोभा में चार चांद लगाती है। यह निरंधार शैली में निर्मित है। गर्भगृह के बाहर पूजागृह या सभा मण्डप निर्मित है, जो गर्भगृह से जुडा है। करीब ५० फुट ऊंचा मंदिर नवीं शताब्दी का माना जाता है। मूर्तियां अनेक स्थानों पर खंडित होने पर भी उनका आकर्षण बरकरार है।
मंदिर के गर्भगृह के बाहर सामने से बांयी ओर रथ पर सवार सूर्यदेव की प्रतिमा है। गर्भगृह में संगमरमर से बनी सूर्य प्रतिमा आकर्शक है। मंदिर की परिधि में दीवारों पर बनी करीब २-२ फीट की मूर्तियां अत्यन्त लुभावनी है तथा इनके ऊपर मध्य में करीब ढाई फुट की प्रतिमाएं ऊंकेरी गई हैं। चेहरे को दर्पण में निहारती नायिका और पैरों से कांटा निकालती नायिका आदि की प्रतिमाएं खजुराहो एवं कोणार्क मंदिरों की मूर्तिकला के समकक्श है। सात घोडों के रथ पर सवार सूर्यदेव की प्रतिमा मंदिर की दीवार में पार्श्वभाग में ऊंकेरी गई हैं। घोडे दौडती मुद्रा में हैं। यहां विष्णु-लक्ष्मी एवं शिव-पार्वती सहित अनेक देवमूर्तियां भी तराशी गई हैं। मंदिर के चारों ओर पक्का चबूतरा बना दिया गया है। यह मंदिर तालाब के किनारे स्थित होने से अत्यन्त मनोरम प्रतीत होता है। सूर्य पूजा के पर्व मकर सक्रांति पर यहां विशेश रूप से पूजा-अर्चना की जाती है।
पोपा बाई का मंदिर (३५ कि.मी.)
कोटा से ३५ किलोमीटर दूर आवां गांव में ऐतिहासिक पोपा बाई का मंदिर भी पुरातत्व की दृष्टि से महत्वपूर्ण है, जिसे आठवीं सदी का माना जाता है। स्थापत्य कला और मूर्तिकला के सौन्दर्य से परिपूर्ण यह मंदिर भगवान शिव को समर्पित है। अपने युग की वास्तुकला के वैभव को दर्शाने वाला मंदिर आज खण्डहर बनता जा रहा है।
मंदिर ऊंचे चबूतरे पर बना है। शिखर धराशायी हो गया है। गर्भगृह से जुडा पूजागृह अत्यन्त कलात्मक स्तम्भों पर टिका है। चतुर्मुखी शिवलिग अत्यन्त लघु रूप में तराशा गया है। अप्सराओं की मूर्तियां भी विविध भाव-भंगिमा में ऊंकेरी गई हैं। मूर्तियों में तत्कालीन समाज में प्रचलित आभूशणों के विशय में जानकारी मिलती है। आवां गांव में प्रवेश करते समय सडक के दांयी ओर समीप ही कच्चा रास्ता पार कर मंदिर तक पहचा जा सकता है। गांव में बद्रीनाथ, महाकालेश्वर एवं द्वारकाधीश के मंदिर भी दर्शनीय हैं।
गेपरनाथ (२२ कि.मी.)
चम्बल के तट पर स्थित महत्वपूर्ण देवालयों में गेपरनाथ देवालय अपनी प्राकृतिक सुशमा के कारण विशेश रूप से दर्शनीय है। यहां भक्ति और प्रकृति का अनूठा मेल नजर आता है। विशाल शिलाखण्डों के मध्य स्थित इस मंदिर को पांचवीं से ग्यारहवीं सदी के मध्य का माना जाता है। आसपास बिखरे अवशेषों से प्रमाण मिलता है कि कभी इस क्षेत्र में मौर्य, शुंग, कुशाण, परमार एवं गुप्तवंशीय राजाओं का शासन था।
कोटा से २२ किलोमीटर दूर कोटा-रावतभाटा मार्ग पर रथकांकरा गांव के समीप चम्बल घाटी से ३०० से ३५० फुट गहराई में स्थित गेपरनाथ महादेव का मंदिर अपने अनुपम प्राकृतिक वातावरण, चट्टानों से निकलते हुए झरनों की लय के मध्य अपनी उन्मुक्तता के साथ श्रद्धालुओं को आकर्षित करता है। रमणिक स्थल होने से यह सैलानियों के आकर्षण का महत्वपूर्ण स्थल है। यहां हर वर्ष महाशिवरात्रि के अवसर पर मेले का आयोजन किया जाता है। बरसात ऋतु में इस स्थान का आकर्षण दुगुनित हो जाता है।
विभिशण मंदिर (१५ कि.मी.)
संभवतः भारत में कोटा जिले के कैथून में स्थित विभिशण का अकेला मंदिर है। कोटा से १६ किलोमीटर दूर स्थित यह मंदिर तीसरी से पांचवीं शताब्दी के मध्य का बताया जाता है। प्रारंभ में यहां एक छतरी में विभिशण की धड से ऊपर तक की भव्य प्रतिमा विराजित थी, जिसे आज भव्य मंदिर का स्वरूप दे दिया गया है। होली के अवसर पर यहां विशेश रूप से मेले का आयोजन किया जाता है। सुनार समाज के लोग विभिशण के प्रमुख भक्त हैं और वे यहां नियमित पूजा करते हैं।
फलौदी माता (८० कि.मी.)
कोटा जिले में जिला मुख्यालय से ८० किलोमीटर दूर खैराबाद में फलौदी माता का मंदिर दर्शनीय है। यहां फलौदी माता की श्यामवर्णीय प्रतिमा स्थापित है। बताया जाता है कि यह मूर्ति मेडता के समीप फलौदी गांव में प्रकट हुई थी, जिसे वहां से लाकर यहां स्थापित कर दिया गया। मंदिर में की गई कांच की कारीगरी अत्यन्त मोहक है। इस मंदिर के साथ यहां अन्य मंदिर व कलात्मक जलकुण्ड बने हैं। परिसर में ही श्रद्धालुओं के लिए एक धर्मशाला भी बनाई गई है। बसंत पंचमी पर यहां विशाल मेले का आयोजन किया जाता है तथा प्रति १२ वर्ष में कुम्भ की भांति यहां एक माह तक कुम्भ का आयोजन किया जाता है।
हांडी पालेष्वर शिवालय (७० कि.मी.)
राजस्थान का हाडौती अंचल प्राकृतिक एवं पुरातत्व सौन्दर्य से भरपूर है। इस अंचल में ८ वीं शताब्दी से शैव साधना का पता चलता है, क्योंकि इस शताब्दी से करीब १२ वीं शताब्दी तक कई शिव मंदिर बनाए गए, जहां शिव की पूजा की जाती थी। इन्हीं में एक मंदिर हांडी पालेष्वर शिवालय कोटा जिले की इटावा पंचायत समिति की लक्ष्मीपुरा ग्राम पंचायत के अर्न्तगत हरिपुरा गांव से एक किलोमीटर दूर बाणगंगा नदी के किनारे पर स्थित है, जिसे पाण्डवों के समय का बताया जाता है। किवंदती है कि केवल पत्थरों से बने इस मंदिर का निर्माण पाण्डवों ने एक ही रात में करवाया था। पहले यहां हांडी पाली नामक गांव था और उसी के नाम पर इसका नाम हांडी पालेष्वर हो गया।
मंदिर शिखरबंद है, जिसका गगनचुंबी शिखर दूर से ही नजर आता है। मंदिर दक्षिणी भारतीय निर्माण शैली में बना है तथा कई उपशिखर भी बनाए गए हैं। मंदिर की दीवारों व ताकों में नक्काशी दार मूर्तियां बनी हैं। मंदिर का स्थापत्य एवं मूर्तिशिल्प देखते ही बनता है। मंदिर के गर्भगृह, द्वार, सभा मंडप व बाहरी द्वार पर भी सुंदर आकर्शक प्रतिमाएं बनी हैं।
मंदिर के गर्भगृह में दो शिवलिंगों की पूजा की जाती है, जिससे यह मंदिर विलक्षणबन गया है। यहीं पर एक ऊंची जगती पर शिव-पार्वती की युगल प्रतिमा प्रतिष्ठित है, गर्भगृह के कोने में काले रंग की नन्दी की प्राचीन प्रतिमा है। इसी प्रकार सभा मण्डप के एक कोने में दो शिवलिंग स्थापित हैं। एक शिवलिंग पर छोटी मंदरी बनी है, जबकि दूसरा शिवलिंग इसके बाहर है। सभा मंडप में ही एक पुराना धूणी स्थल बना है। यहां बाणगंगा के जल से अभिषेक किया जाता है।
मंदिर को मूर्तिशिल्प का खजाना कहें तो अतिष्योक्ति नहीं होगी। मंदिर के पूरे परिक्रमा स्थल में देवी-देवताओं, नर्तकियों, वादकों आदि की मूर्तियां तथा सूक्ष्म कारीगरीयुक्त स्तंभ बने हैं। मंदिर के बाहर भैरव और हनुमान जी की मूर्तियों के साथ-साथ अस्पष्ट लिपि का शिलालेख भी है। मंदिर की छत भी अत्यंत कारीगरीपूर्ण है। आसपास के समूचे क्षेत्र में प्राचीन मूर्तियों बिखरी पडी हैं, जिनमें अनेक भग्नप्रायः हैं। मंदिर के निकट एक संत की समाधि है। यह मंदिर पुरातत्व विभाग के संरक्षित स्मारकों में शा मिल है। मंदिर के समीप बाणगंगा नदी के तट पर एक पवित्र जलकुण्ड बना है। कहा जाता है कि इसमें पूरे वर्ष पानी भरा रहता है और यह कुण्ड कभी सूखता नहीं है। मान्यता है कि इस कुण्ड में स्नान करने से चर्म रोग से मुक्ति मिलती है। शिव भक्तों की इस मंदिर के प्रति प्रगाढ श्रद्धा है।
बाडोली मंदिर (५१ कि.मी.)
पुरातात्विक महत्व के बाडोली के मंदिर अपनी स्थापत्य कला एवं मूर्तिकला की दृष्टि से विशेश महत्व रखते है। बाडोली का मंदिर समूह कोटा शहर से रावतभाटा मार्ग पर करीब ५१ किलोमीटर दूर चित्तोडगढ जिले की सीमा में आता है।
आठवीं से ग्यारवीं शताब्दी के मध्य निर्मित यह मंदिर स्पष्ट करते हैं कि यहां कभी शैव मत का केन्द्र रहा होगा। इन मंदिरों को कर्नल टॉड सर्वप्रथम १८२१ ई. में प्रकाश में लाये। कर्नल टॉड को यहां से प्राप्त एक अभिलेख जो संवत् ९८३ चैत्र सुदी ५ का है में शिव मंदिर के निर्माण होने का उल्लेख मिलता है। अभिलेख में शिव को झरेष्वर कहा गया है क्यों कि मंदिर समीप ही इस नाम से एक झरना बहता है।
बाडोली मंदिर समूह परिसर में कुल ९ मंदिर स्थापित हैं। इनमें एक और आठ संख्या के मंदिर नवीं शताब्दी, ४,५,६ और ७ नम्बर के मंदिर दसवीं शताब्दी तथा मंदिर संख्या २,३ व ९ दसवीं से ग्यारवीं शताब्दी के प्रारंभ की हैं। समूह में आठ मंदिर दो समूह में तथा एक से तीन मंदिर जलाशय के पास हैं। कोई भी मंदिर जगती पर नहीं बना है और न ही कोई प्रदक्षिणा पथ या घेरा है। तीन छोटे मंदिरों के अतिरिक्त सभी के गर्भगृह पंचरथ हैं और पीठ में तीन सादी गढनें हैं जिनमें वास्तुशा स्त्र की दृष्टि से कलश, कपोत व कुंभ निर्मित हैं। कपोत पर चैत्य गवाक्श उत्र्कीण है।
बाडोली मंदिर समूह में सबसे महत्वपूर्ण एवं सुरक्षित मंदिर घटेष्वर महादेव का है। मंदिर के गर्भगृह से जुडा अन्तराल अर्थात अर्धमण्डप तथा इसके आगे रंगमण्डप (श्रृंगार चंवरी) बना है। गर्भगृह में पंचायतन परम्परा में पांच लिंग योनि पर बने हैं। गर्भगृह के ललाट बिम्ब पर शिव नटराज तथा शाखाओं पर द्वारपाल के उत्र्कीण एवं बाहरी ताखों में त्रिपुरान्तक मूर्ति, नटराज व चामुण्डा की मूर्तियां बनी हैं। गर्भग्रह पंचरथ प्रकार का है।
गर्भगृह के प्रवेशद्वार के आधार एवं शीर्ष पर कलात्मक प्रतिमाएं उत्र्कीण हैं। आधार पर गंगा, यमुना एवं शैव द्वारपाल बनाये गये हैं। अर्धमण्डप भी अत्यन्त कलात्मक है जो छः अलंकृत स्तंभो पर निर्मित है। यह एक खुले मण्डप के रूप में है जिसमें चारों तरफ से आयत बाहर निकले हैं। सभा मण्डप के एक भाग पर अलंकृत तोरण द्वार कला में विशिष्ट महत्व का है। सभा मण्डप के अष्टकोणीय स्तंभों पर घंटियों एवं प्रत्येक दिशा में विभिन्न मुद्रा में एक-एक अप्सरा की मूर्तियां आर्कशक रूप में तराषी गयी हैं। स्तंभों, मकर तोरण एवं अप्सराओं के अंकन की शैली खजुराहों के मंदिर के समान है। मंदिर का स्थापत्य भी कोणार्क एवं खजुराहों मंदिरों के सदृष्य है। सभा मण्डप से आगे रंगमण्डप अर्थात श्रृंगार चंवरी २४ कलात्मक स्तंभों पर बनाई गयी है। इस पर यक्श, किन्नर, देवी-देवता की प्रतिमाओं के साथ महिला-पुरूश की युग्म प्रतिमाएं तथा रंगमण्डप की बाहरी कला देखते ही बनती हैं। मंदिर परिसर में गणेश मंदिर, महिशमर्दिणी, वामन, शिव आदि के मंदिरों के अवशेष भी दर्शनीय हैं। बाडोली मंदिर समूह की स्थापत्य एवं मूर्ति कला के वैशिष्ठय के कारण ही अनके विदेशी सैलानी भी मंदिर को देखने पहुंचते हैं।
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