’ईष्वर मनुश्यादि प्राणियों के सभी शुभाशुभ

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Published on : 28 Feb, 18 11:02

-मनमोहन कुमार आर्य,

यह समस्त दृष्यमान जगत ईष्वर ने बनाया है और वही इसका पालन कर रहा है। इस सृश्टि का इसकी अवधि पूरी होने पर प्रलय भी वही करता है। यह एक तथ्य है कि इससे पूर्व भी असंख्य बार सृजित हुई है व असंख्य बार ही इसका प्रलय भी हुआ है। यह सृश्टि ईष्वर ने जीवात्माओं को कर्म करने व उसके अनुकूल फल पाने के लिए बनाई है। इसके लिए ईष्वर जीवों को उनके कर्मानुसार जाति, आयु व भोग देता है। जाति का अर्थ मनुश्य, पशु, पक्षी, कीट व पतंग आदि अनेक व असंख्य जातियों से है। जिनका प्रसव समान होता है उनकी एक ही जाति होती है। सभी मनुश्यों की जाति एक ही है और वह है मनुश्य जाति। इसकी दो उपजातियां स्त्री व पुरुश होती हैं। मनुश्य की बाल, किषोर, युवा, प्रौढ व वृद्ध आदि कई अवस्थायें होती हैं। ईष्वर सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकार, सर्वषक्तिमान, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी आदि अनेक व अगणित गुणों वाला है। सर्वव्यापक व सर्वान्तर्यामी होने से यह जीवों के भीतर भी विद्यमान वा उपस्थित है। अतः जीवों की आत्मा में उठने वाले सभी विचारों व कर्मों को ईष्वर वहां उपस्थित होने से साक्षी होता है और उसे उसी समय उसका ज्ञान हो जाता है। मनुश्यों व अन्य सभी प्राणियों के सभी कर्मों को ईष्वर जानता है और उसके अनुसार उन्हें सुख व दुःख प्रदान करता है। मनुश्य जीवन में जो कर्म करता है वह उसकी मृत्यु होने से पूर्व कुछ का भोग कर लेता है तथा कुछ कर्मों का भोग नहीं हो पाता। जिन कर्मों का भोग नहीं हो पाता, उन कर्मों का भोग जीवात्मा मृत्यु के बाद कर्मानुसार जन्म मिलने पर ईष्वर की व्यवस्था से करता है। हम इस जन्म में मनुश्य बने हैं तो इसका कारण हमारे पूर्व जन्म के कर्म व प्रारब्ध था। अन्य मनुश्यों को भी इसी नियम के अनुसार जन्म मिला है। अन्य पषु आदि प्राणियों को भी उनके पूर्व जन्म व जन्मों के कर्मों के अनुसार ही जन्म मिला है जिसे वह इस जन्म में भोग रहे हैं। जिन कर्मों का फल भोग लिया जाता है, उन कर्मों के भोग व फल समाप्त हो जाते हैं। उसके बाद बचे हुए, बिना भोगे गये व नये कर्मों का फल मनुश्यों को मिलता जाता है। ईष्वर, जीवात्मा और प्रकृति अनादि, अमर, नित्य, अविनाषी है अतः सृश्टि उत्पत्ति, स्थिति व प्रलय सहित जीवात्मा के जन्म व मरण का क्रम अनादि काल से चलता आया है और अनन्त काल तक इसी प्रकार से चलता रहेगा।
ईष्वर जीवात्माओं के कर्मों का द्रश्टा वा साक्षी होता है। इसी को ईष्वर मनुश्यादि सभी प्राणियों के कर्मों को जानने वाला है, ऐसा भी कहा जाता है। सर्वज्ञ होना उसका अनादि काल से नित्य गुण चला आ रहा है। अपनी सर्वज्ञता से ही वह सभी जीवों के सभी कर्मों, छोटे व बडे, को जानता है। रात्रि के अन्धेरे में भी हम जो कार्य करते हैं वह सब ईष्वर के समक्ष निर्भ्रान्त रूप से उपस्थित रहते हैं। ईष्वर में मनुश्यों व अन्य प्राणियों की तरह विस्मृति का गुण वा अवगुण नहीं है। वह जिस बात को जानता है उसको कभी भूलता नहीं है। इसी कारण वह न्यायाधीष की तरह सभी जीवों को उनके सभी कर्मों का फल अपने विधि विधान के अनुसार यथासमय देता है। कर्मों में भिन्नता व अन्तर होने के कारण ही मनुश्यादि प्राणियों की भिन्न भिन्न योनियां हैं। मनुश्य जो षुभ कर्म करता है, उसके परिणाम के अनुसार ईष्वर उसके स्थान पर सुख प्रदान करता है और जो अषुभ कर्म किये जाते हैं उसका मनुश्य आदि प्राणियों को दुःख के रूप में फल मिलता है। यह व्यवस्था अनादि काल से निरपवाद रूप से भली भांति चली आ रही है। मनुश्य कर्म करने में स्वतन्त्र है परन्तु उन कर्मों का फल भोगने में वह ईष्वर की व्यवस्था में परतन्त्र व ईष्वर के अधीन है। कर्म फल व्यवस्था के इस रहस्य को जानकर किसी भी मनुश्य को, चाहे वह वैदिक धर्मी है या नहीं, अषुभ, पाप व बुरे कर्मों को नहीं करना चाहिये। किसी मनुश्य या पषु-पक्षी आदि को पीडा नहीं देनी चाहिये। मांसाहार तो कदापि नहीं करना चाहिये। सबके प्रति, प्रेम, दया, न्याय व करूणा के भाव रखने चाहियें। कोई मनुश्य अपने जीवन में दुःख नहीं चाहता। अतः किसी भी मनुश्य को अषुभ कर्म कदापि नहीं करने चाहिये तभी वह दुःखों से बच सकते हैं।
मनुश्य का कर्तव्य है कि वह ईष्वर का सृश्टि उत्पन्न करने, उसे चलाने, हमें मनुश्य का जन्म देने व सुख प्रदान करने के लिए उसका प्रातः व सायं अच्छी प्रकार से धन्यवाद करें। इसी को सन्ध्या का नाम दिया जाता है। ऋशि दयानन्द ने सन्ध्या की एक आदर्ष विधि भी लिखी है। सबको उसका अध्ययन कर उसके अनुसार प्रातः व सायं यथासमय सन्ध्या अर्थात् ईष्वर का ध्यान करते हुए उसका धन्यवाद अवष्य करना चाहिये। हमारे जीवन व अन्य प्राणियों के लिए प्राण वायु अर्थात् षुद्ध हवा की आवष्यकता होती है। हमारा कर्तव्य है कि हम ऐसा कोई काम न करें जिससे वायु अषुद्ध हो। न चाहते हुए भी भोजन आदि पकाने, वस्त्र आदि धोने, गेहूं आदि पीसने, चूल्हा व चौका आदि से जल व वायु आदि की अषुद्धि होती है और इसके साथ वायु व जल के किटाणु भी नश्ट हो जाते हैं। इसके लिए वेद की आज्ञानुसार हमारे ऋशियों ने दैनिक अग्निहोत्र का विधान किया है। इस यज्ञ प्रातः व सायं, सूर्योदय के समय व सूर्यास्त से पूर्व, करने का विधान है। इसका भी सभी मनुश्यों को पालन करना चाहिये। जो करेगा उसे इसका लाभ मिलेगा और जो नहीं करेगा वह इससे होने वाले लाभों से वंचित रहेगा। इसी प्रकार से सभी मनुश्य अपने माता-पिता व आचार्यों के ऋणी होते हैं। हर सन्तान व षिश्य का कर्तव्य व धर्म है कि वह अपने माता-पिता व आचार्यों की सेवा भली प्रकार से अवष्य करें। यदि नहीं करेंगे तो वह उनके ऋणी रहेंगे और जन्म जन्मान्तर में उन्हें इनका ऋण चुकाना ही होगा। अतः मनुश्यों को वेदाध्ययन कर अपने इन कर्तव्यों सहित अपने अन्य कर्तव्यों जो परिवार, समाज, देष व मानवता के प्रति हैं, उनका ज्ञान प्राप्त करना चाहिये व उन्हें यथाषक्ति करना चाहिये।
ऋशि दयानन्द जी नेएक अद्भुद ग्रन्थ ’’सत्यार्थप्रकाश‘‘ लिखा है। इस ग्रन्थ को पढने से मनुश्य को आध्यात्मिक व पारमार्थिक सभी प्रकार का यथार्थ ज्ञान होता है। इसके समान संसार में अन्य कोई ग्रन्थ नहीं है जिसमें सभी विशयों का यथार्थ ज्ञान हो। वस्तुतः सत्यार्थप्रकाष सभी मनुश्यों का धर्म ग्रन्थ है जिसमें मनुश्यों के सभी कर्तव्यों सहित सभी विशयों का ज्ञान दिया गया है। ईष्वर व जीवात्मा का यथार्थ ज्ञान भी सत्यार्थप्रकाष को पढकर हो जाता है। अतः सभी मनुश्यों को सभी प्रकार की धारणाओं व विष्वासों से ऊपर उठकर सत्यार्थप्रकाष का अध्ययन करना चाहिये और वेदमत को स्वीकार करना चाहिये। वेदमत स्वीकार करने व इसका आचरण करने से मनुश्य का वर्तमान जीवन व परजन्म सुधरता है। मनुश्यों को यह जन्म एक सुअवसर है अपने इस जन्म व भावी जन्मों के दुःखों को दूर कर उसे सुखों से भरने का। इस अवसर को खोना नहीं चाहिये। यदि वह मत-मतान्तरों की मिथ्या मान्यताओं में फंसे रहेंगे तो उनका कल्याण नहीं हो सकता। इस पर उन्हें अवष्य विचार करना चाहिये और ज्ञानी व्यक्तियों की सलाह लेनी चाहिये।
ईष्वर सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकार, दृश्टि से अगोचर, सर्वव्यापक एवं सर्वान्तर्यामी सत्ता है। वह हमारे हृदय व जीवात्मा में कूटस्थ रूप से विद्यमान है। हमारे सभी कर्मो का साक्षी व द्रश्टा है। इसलिए हमें कभी भी अषुभ व पाप कर्मों को नहीं करना चाहिये। यदि करेंगे तो उसका फल हमें जन्म जन्मान्तरों में अवष्य ही भोगना पडेगा। इसी के साथ इस लेख को विराम देते हैं। ओ३म् षम्।








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