“वैदिक साहित्य के स्वाध्याय से ज्ञान वृद्धि सहित जीवन में सुसंस्कारों का उदय”

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Published on : 09 Feb, 18 10:02

-मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।
सभी प्राणियों में मनुष्य ही एक ऐसा प्राणी है जिसको परमात्मा ने बुद्धि प्रदान की है। इस बुद्धि से मनुष्य ज्ञान प्राप्त कर सत्यासत्य का विवेक कर सकता है। ज्ञान प्राप्ति के अनेक साधन हैं। जीवन के आरम्भ में माता-पिता व परिवारजनों से मातृभाषा सहित सामान्य बातों का ज्ञान होता है। साथ हि पारिवारिक परम्पराओं से परिचय होने के साथ उनके संस्कार भी पड़ते हैं। इसके बाद मनुष्य पाठशाला व विद्यालय जाने के साथ समाज के अनेक लोगों के सम्पर्क में आता है। दूरदर्शन व नाना प्रकार के टीवी चैनलों से भी मनुष्य पर कुछ प्रभाव होता है। विद्यालयी शिक्षा आजकल संस्कार उत्पन्न करने में विफल है। इसका एक कारण देश का धर्म निरपेक्ष स्वरूप है। हमें लगता है कि यह सद्ज्ञान सापेक्ष और मिथ्या-ज्ञान निरपेक्ष होना चाहिये। देश में अल्पसंख्यकों को अपने स्कूलों में धार्मिक शिक्षा देने की स्वतन्तत्रता है परन्तु बहुसंख्यकों की धार्मिक शिक्षा व संस्कारों से बच्चों व बड़ों को दूर रखा जाता है। कुछ पुस्तकें ऐसी भी होती हैं जिनका पढ़ना शायद आवश्यक नहीं होता परन्तु बहुसंख्यकों को परीक्षा उत्तीर्ण करने के लिए वह सब भी पढ़ना पड़ता है। इससे हानि यह हो रही है कि आर्य हिन्दू बच्चे अपने धर्म व संस्कृति के विषय में नहीं जान पाते। आज किसी छोटे या बड़ी आयु के व्यक्ति से ईश्वर व धर्म के स्वरूप की चर्चा करें तो इनका ज्ञान अधिकांश मनुष्यों को नहीं होता। इस विषय पर वह प्रामाणिक व सत्य सिद्धान्तों के अनुरूप कथन नहीं कर पाते। यही कारण है कि आज हिन्दू समाज में अनेक धर्म गुरु उत्पन्न हो गये हैं। वह अपने हित व अहित के अनुसार लोगों को उपदेश करते हैं और हमारे सभी बन्धु अविवेकपूर्वक उनकी सभी बातों को स्वीकार कर लेते हैं। कोई बालक मूलशंकर की तरह अपने पिता व आचार्य से यह नहीं पूछता कि यदि आप मूर्तिपूजा करते व कराते हैं तो इस जड़ पदार्थ से सर्वशक्तिमान, सर्वज्ञ, चेतन, निराकार, सर्वव्यापक, ज्ञान व आनन्दस्वरूप परमात्मा कैसे प्राप्त हो सकता है।किसी एक व्यक्ति को भी यदि जड़ पूजा से ईश्वर का सच्चा स्वरूप विदित व प्राप्त हुआ हो तो उदाहरण दें जिससे उसकी परीक्षा की जा सके।

धर्म गुरुओं के अनुयायियों में विवेक न होने पर वह अपने गुरुओं की हर उचित व अनुचित बात पर विश्वास कर लेते हैं जिससे उनके अपने जीवन के लिए परिणाम अच्छे नहीं होते। इससे अविद्या व अज्ञान का विस्तार होता है और देश व समाज कमजोर होता है। इसका निराकरण वैदिक ग्रन्थों के स्वाध्याय से होता है। प्राचीन काल में हमारे यहां परम्परा थी कि मनुष्य को मृत्यु पर्यन्त वेद और वैदिक साहित्य का स्वाध्याय वा अध्ययन करना है। इससे मनुष्य को ईश्वर, जीवात्मा व अपने सभी कर्तव्यों का ज्ञान हो जाता था और वह भ्रान्तियों में नहीं फंसता था। हमारे देश में सृष्टि के आरम्भ से महाभारत पर्यन्त और उसके सहस्रों वर्षों बाद तक गुरुकुलीय शिक्षा पद्धति रही है। गुरुकुल में विद्याध्ययन पूरा होने पर समावर्तन संस्कार किया जाता था। उस अवसर पर गुरुकुल का आचार्य ब्रह्मचारी को जो शिक्षा देता था उसमें सत्य बोलने, धर्म का आचरण करने के साथ अन्य बातों में नित्य प्रति स्वाध्याय करने की प्रेरणा भी होती थी। स्वाध्याय संन्ध्या व देवयज्ञ की भांति ही प्रतिदिन आचरणीय कर्तव्य है। अष्टांग योग में पांच नियमों में भी स्वाध्याय को सम्मिलित किया गया है। इसका अर्थ है कि यदि मनुष्य ईश्वर का ध्यान व समाधि का अभ्यास करता है तो उसे यम व नियमों का पालन करते हुए स्वाध्याय पर भी विशेष ध्यान देना होगा। स्वाध्यायहीन व्यक्ति यदि योग करता है तो हमें लगता है कि वह ध्यान की क्रिया में उतना सफल नहीं हो सकता जितना की वेदों का स्वाध्याय करने वाला हो सकता है। स्वाध्याय की महिमा बताते हुए यहां तक कहा जाता है कि जो व्यक्ति पृथिवी को रत्नों से ढक कर दान कर दे, उसको जो पुण्य मिलता है उससे अधिक पुण्य सुविधापूर्वक स्थिति और अपने बिस्तर पर बैठ व लेटकर स्वाध्याय करने वाले व्यक्ति को मिलता है। यह बात स्वाध्याय के महत्व को दर्शाने के लिए कही गई है। महर्षि दयानन्द व अन्य आर्य विद्वानों के जीवनों पर जब दृष्टि डालते हैं तो ज्ञात होता है कि वह अपने जीवन में महानता को इस कारण प्राप्त कर सके कि उनका जीवन शिक्षा प्राप्ति, स्वाध्याय व साधना को समर्पित रहा है। यह भी आवश्यक है कि हम वेदों व वैदिक साहित्य का जो स्वाध्याय करते हैं उसके अनुरूप हमारा आचरण भी होना चाहिये। ज्ञान जब तक मनुष्य के आचरण में न आये तब तक उसका कोई विशेष महत्व नहीं होता है। हमारा जीवन स्वाध्याय के अनुसार जो सत्य व विवेकपूर्ण हो, उसके अनुरूप ही होना चाहिये।

महर्षि दयानन्द वेदों के प्रामाणिक विद्वान थे। उनका कथन है कि वेद सब सत्य विद्याओं का पुस्तक है। वेद का पढ़ना पढ़ाना और सुनना सुनाना सब आर्यों का परम धर्म है। हमें इसका यह अर्थ व अभिप्राय लगता है कि ईश्वर सर्वज्ञ अर्थात् सभी विद्याओं का ज्ञाता है व वह उसको मनुष्यों को प्रदान करने वाला है। हमारे विद्वानों, ऋषियों व अन्यों ने जिन विद्याओं का विस्तार किया है उसमें ईश्वर उनका सहायक रहा है। यदि ऐसा न होता तो वह ज्ञान व विज्ञान का विस्तार नहीं कर सकते थे। अतः सर्वज्ञ ईश्वर की ज्ञानमयी कृति वेद सब सत्य विद्याओं की पुस्तक होना सिद्ध होता है। यह हमारी योग्यता पर निर्भर करता है कि हम वेदों से किन किन विद्याओं वा ज्ञान का दोहन कर पाते हैं। सृष्टि के आरम्भ में मनुष्य को भाषा और वेदों का ज्ञान ईश्वर से ही प्राप्त हुआ था। आरम्भ में ऋषियों ने ईश्वरोपासना को अपना प्रमुख कर्तव्य माना और सभी ईश्वरोपासना करते थे। ईश्वरोपासना का ही एक अंग वेदों का स्वाध्याय व अध्ययन भी रहा है और आज भी है। वेदों का अध्ययन कर व उससे उत्पन्न विचारों व प्रेरणाओं का गहन चिन्तन कर हम विद्याओं का विस्तार करते हैं। गायत्री मन्त्र में ईश्वर से बुद्धि को सन्मार्ग व सद्ज्ञान में प्रेरित करने की प्रार्थना है। इसी प्रकार से हमारे सभी ज्ञानी पुरुषों व विज्ञानियों ने विज्ञान का विस्तार किया है। यह सब सर्वव्यापक और सर्वान्तर्यामी ईश्वर की प्रेरणा का ही परिणाम है। विज्ञान व ज्ञान की प्राप्ति के लिए जिन्होंने अपने मन व इन्द्रियों को इन विषयों पर लगाया, उनको उस विषय का ज्ञान प्राप्त हुआ। जिन्होंने ऐसा नहीं किया वह उससे वंचित रहे। कुछ लोगों ने ईश्वर व पदार्थ विद्या को जानने व विस्तार करने का प्रयत्न नहीं किया, उनकी बुद्धि जड़वत रही। यदि वह भी जड़ पूजा न कर वैज्ञानिकों की तरह अध्ययन अध्यापन को महत्व देते तो वह भी वह सब कुछ कर सकते थे जो हमारे यूरोप आदि के वैज्ञानिकों ने कर दिखाया है। इस सबमें स्वाध्याय, अध्ययन-अध्यापन, चिन्तन व मनन, प्रयोग व परीक्षण सहित ध्यान का अत्यधिक महत्व होता है। स्वाध्याय रूपी तप से मनुष्य अपनी सभी इच्छाओं व कामनाओं को पूरा कर सकता है। स्वाध्याय का महत्व निर्विवाद है।

यह निर्विवाद है कि सद्ग्रन्थों के स्वाध्याय से मनुष्य की ज्ञान वृद्धि होती है। ज्ञान वृद्धि का अर्थ होता है कि आत्मा में ज्ञान ग्रहण करने का जो गुण है उसको ज्ञान लाभ होता है व ज्ञान प्राप्ति में आत्मा की सामर्थ्य व शक्ति में वृद्धि होती है। वैदिक मान्यता है कि संसार में ज्ञान से बढ़कर अन्य कोई महत्वपूर्ण पदार्थ है। ज्ञान मनुष्य के लिए न केवल आवश्यक है अपितु इसके बिना मनुष्य पशु के समान ही रहता है। बहुत से लोग वेद ज्ञान विहीन उच्च शिक्षा प्राप्त कर लेते हैं परन्तु तब भी उनका जीवन मिथ्याचार से लिप्त व प्रभावित रहता है। उनके आचरण में भ्रष्टाचार जैसी कुत्सित प्रवृत्ति रहती है। आजकल भ्रष्टाचार के अनेक प्रकरण देश के लोगों को ज्ञात हैं जिसमें वह लोग सम्मिलित हैं जो आधुनिक ज्ञान विज्ञान में शिक्षित, दीक्षित एवं सामाजिक दृष्टि से अत्यधिक प्रभावशाली कहे जाते हैं। इसका कारण उनका स्वार्थ व प्रलोभन में फंसना है। वह भ्रष्ट आचरण करते हुए भूल जाते हैं कि जिस धन दौलत के लिए वह असत्य का आचरण कर रहे हैं वह साथ नहीं जायेगी। इससे उनका अपयश हो सकता है। सर्वव्यापक और सर्वान्तर्यामी परमात्मा हर पल और हर क्षण प्रत्येक जीव के कर्मों का साक्षी होता है और कर्ता के कर्मों का फल देता है। कोई भी व्यक्ति अच्छा व बुरा कर्म करे तो वह उसके फल से बच नहीं सकता। मनुष्य की मृत्यु का भी किसी को पता नहीं होता। ऐसे उदाहरण सामने आते हैं कि रात्रि में एक स्वस्थ मनुष्य सोता है और प्रातः जब नहीं उठता तो लोग आपस में कहते हैं कि इसकी अचानक मृत्यु होने का तो किसी को अनुमान ही नहीं था। इस पर भी लोग भ्रष्ट आचरण करते हैं तो वह वेदादि सद्ग्रन्थों के स्वाध्याय न करने व मिथ्या ज्ञान व प्रलोभन आदि के कारण ही होता है। हमें यह याद रखना चाहिये मृत्यु का कोई निश्चित समय नहीं होता। यह किसी को कभी भी आ सकती है। हमने जीवन में अच्छे व बुरे कर्मों से जो धन कमाया है, सम्पत्ति बनाई है, वह सब यहीं रह जायेगी। जीवात्मा के साथ कुछ नहीं जायेगा। मनुष्य के साथ उसका धर्म अर्थात् सद्कर्म व संस्कार ही जाते हैं। इन सद्कर्मों व संस्कारों की पूंजी के अनुसार ही दिवंगत मनुष्य का जन्म होता है। नित्य प्रति स्वाध्याय और ईश्वरोपासना से हम काफी हद तक बुरे कार्यों से बच सकते हैं। ईश्वर इसमें हमारा सहायक और पथ प्रदर्शक बनता है।

स्वाध्याय से ही मनुष्य के संस्कार बनते हैं। स्वाध्याय से विद्या की प्राप्ति होती है। विद्या से अज्ञान का अन्धकार दूर हो जाता है। स्वाध्याय करने वाले मनुष्य को अपने कर्तव्यों का ज्ञान होता है। किससे कैसा व्यवहार करना है यह वह भलीभांति जानता है। अच्छे संस्कार जो कि स्वाध्याय की देन होते हैं, उससे मनुष्य की प्रतिष्ठा में वृद्धि सहित यश व कीर्ति में वृद्धि होती है। उसका जीवन प्रायः सुख व शान्ति से युक्त होता है। वह ईश्वर पर भरोसा कर अच्छे व बुरे समय में भी सन्तोष करता है। ऋषि दयानन्द जी ने लिखा भी है कि ईश्वरोपासना, स्वाध्याय जिसका महत्वपूर्ण अंग है, से मनुष्य के सद्गुणों में वृद्धि होती है और बुराईयां दूर होती है। जिस प्रकार जल को प्राप्त होने पर शीतलता और अग्नि के समीप जाने पर उष्णता उत्पन्न होती है, इसी प्रकार ईश्वरोपासना और स्वाध्याय से मनुष्य के सद्गुणों की वृद्धि होती है। इससे आत्मा का बल इतना बढ़ता है कि पहाड़ के समान दुःख आने पर भी ईश्वरोपासक मनुष्य घबराता नहीं है। क्या यह छोटी बात है? नहीं, यह कोई छोटी बात नहीं है अपितु बहुत बड़ी बात है। इससे यह भी निष्कर्ष निकलता है कि मृत्यु रूपी दुःख से बचने के लिए ईश्वरोपासना आवश्यक है।

अतः स्वाध्याय व इससे उत्पन्न संस्कारों से मनुष्य जीवन को लाभ ही लाभ होता है, हानि कुछ नहीं होती। हमें नित्य स्वाध्याय करने का व्रत लेना चाहिये। सत्यार्थप्रकाश, आर्याभिविनय, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका व व्यवहारभानु से आरम्भ कर वेदभाष्य, उपनिषद व दर्शन सहित ज्ञान की सभी पुस्तकों को पढ़ा जा सकता है। यदि हम व आप ऐसा करेंगे तो इससे दूसरे भी प्रेरणा प्राप्त कर सकते हैं। ऋषियों की आज्ञा भी स्वाध्याय करने व इसमें प्रमाद न करने की है। हमने स्वाध्याय के विषय में कुछ विचार प्रस्तुत किये हैं। इस विषय में और बहुत कुछ कहा जा सकता है। स्वाध्याय की बहुत अच्छी पुस्तकें भी उपलब्ध हैं। आर्याभिविनय, वेद मंजरी, स्वाध्याय सन्दोह, वैदिक विनय, सोम सरोवर, श्रुति सौरभ आदि। हमने आज अपने कुछ क्षण इस लेख में लगाये हैं। हो सकता है किसी को यह अच्छे लगें। ओ३म् शम्।

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