‘आर्यसमाज की महान विभूति पं. राजवीर शास्त्री की साहित्य साधना’

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Published on : 09 Aug, 16 11:08

-मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

आर्यसमाज के गगन मण्डल के जाज्वल्यमान नक्षत्र, महान वैदिक विद्वान कीर्तिशेश ऋषिभक्त पं. राजवीर शास्त्री जी के व्यक्तित्व व कृतित्व की कुछ बातें हमारे सामने हैं जिन्हें हम स्मरण कर रहे हैं। लगभग 45 वर्ष पूर्व हमारा परिचय एवं सम्बन्ध ‘दयानन्द सन्देश’ मासिक पत्रिका से एक पाठक व वार्षिक सदस्य के रूप में हुआ जिसके बाद हम उसके सम्पादक पं. राजवीर शास्त्री के लेखों व उनकी विद्वता से परिचित हुए। पं. राजवीर शास्त्री इस मासिक पत्रिका के अवैतनिक सम्पादक थे। इसमें उनके विभिन्न विशयों पर लेख व शंका समाधान आदि प्रकाशित होते रहते थे। आर्यसमाज के विरोधी पत्र पत्रिकाओं मुख्यतः सरिता व लोकालोक में प्रकाशित वैदिक सिद्धान्तों के विरुद्ध लेखों के खण्डनात्मक उत्तर भी वह अपनी पत्रिका के माध्यम से दिया करते थे। कुछ वर्ष बाद आर्य विद्वानों के लेख व ऋषि ग्रन्थों का अध्ययन कर हमारी भी कुछ लिखने की इच्छा होती थी। अन्य आर्य पत्र-पत्रिकाओं सहित ‘दयानन्द-सन्देश’ पत्रिका भी उन पत्रिकाओं में से एक है जिसमें हमारे पत्र, हमारी शंकाओं के समाधान व लेख आदि प्रकाशित हुए थे। सन् 1990 के एक अंक में हमारा एक लेख ‘सूर्य, चन्द्र आदि ग्रहों पर मनुष्य आदि सृष्टि और ऋषि दयानन्द’ छपा था। इससे पूर्व भी अनेक लेख आर्यजगत की इस विख्यात पत्रिका में छपे थे।

पं. राजवीर शास्त्री के सम्पादन काल में ‘दयानन्द-सन्देश’ ने अनेक विशयों के अनेक विशेषांक प्रकाशित किये। इस पत्रिका के यशस्वी, उदार एवं दानी स्वभाव वाले लाला दीपचन्द आर्य जी का पूर्ण सहयोग पं. राजवीर शास्त्री जी को प्राप्त रहा। धनाभाव जैसी स्थिति किसी अच्छे प्रकाशन में नहीं आई अन्यथा जो कार्य इन दोनों ऋषिभक्तों के जीवन काल में सम्पन्न हुए, वह कदापि नहीं हो सकते थे। लाला दीपचन्द आर्य द्वारा स्वार्जित पूंजी से स्थापित आर्ष साहित्य प्रचार ट्रस्ट, दिल्ली के पं. राजवीर शास्त्री एक महत्वपूर्ण अंग थे। लाला दीपचन्द आर्य जी की प्रेरणा से नये नये ग्रन्थों के प्रकाशन की जो भी योजनायें बनी, वह सभी शास्त्री जी के ही सहयोग से पूरी हुईं। इससे पूर्व कि हम दयानन्द-सन्देश के कुछ विशेषांकों की चर्चा करें हम इसके इतर प्रमुख प्रकाशनों पर एक दृष्टि डालना चाहते हैं।

पं. राजवीर शास्त्री ने ‘‘वैदिक कोश” नाम का एक महत्वपूर्ण ग्रन्थ तैयार किया है। इस कोश में पंडित जी ने ऋषि दयानन्द के वेदभाष्य व अन्य सभी ग्रन्थों से वैदिक पदों के अर्थों का संग्रह कर उन्हें इस ग्रन्थ में एक स्थान पर प्रस्तुत किया है। इस विशय में पंडित जी ने स्वयं कहा है कि ‘महर्षि दयानन्द के वेद-भाष्य की (अनेक) विशेशताओं को ध्यान में रखकर चिरकाल से एक इच्छा बनी हुई थी कि महर्षिकृत अर्थों से युक्त वैदिक पदों का अकारादि क्रम से एक ऐसा कोश बनाना चाहिये, जिससे वेद के अध्येता तथा अनुसन्धानकर्ताओं को पदार्थ देखने में सरलता तथा सुगमता हो सके। प्रकरण-भेद से मन्त्रों में पठित पदों के विभिन्न अर्थों का एक सन्दर्भ में पूर्ण चित्र उपस्थित करने में यह कोश पाठकों को विशेश सहायक सिद्ध होगा। महर्षि के वेदभाष्य तथा उनके अन्य ग्रन्थों में जहां कहीं भी वैदिक पदों के अर्थ उपलब्ध होते हैं, उन सबका संग्रह इसमें किया गया है।’ पं. राजवीर शास्त्री जी का ‘वैदिक कोश’ की रचना का कार्य वेदों के अध्येताओं के लिए अनेक प्रकार से लाभकारी है। इस वैदिक कोश को देखकर उनके तप व पुरुषार्थ के दर्शन होते हैं। ऐसा महनीय व पुरुषार्थ साध्य कार्य करने वाले समाज में विरले ही लोग होते हैं। बिना किसी आर्थिक लाभ जीवन में सदा यश से दूर रहने वाले व्यक्ति का ऐसा कार्य करना निःसन्देह उन्हें असाधारण एवं श्रद्धास्पद मनुष्य बनाता है। इस कार्य को करने के कारण पं. राजवीर शास्त्री जी इतिहास में सदा अमर रहेंगे। इस ग्रन्थ के प्रकाशन के लिए स्वामी प्रणवानन्द जी व उनका न्यास ‘श्रीमद्दयानन्द वेदार्ष महाविद्यालय न्यास, दिल्ली’ भी प्रशंसा व बधाई का पात्र हैं।

पं. राजवीर शास्त्री जी का एक प्रसिद्ध कार्य ‘पातंजल योग-दर्शन-भाष्यम्’ ग्रन्थ का प्रणयन है। हमारे पास फरवरी, 2001 में आर्ष साहित्य प्रचार ट्रस्ट द्वारा प्रकाशित इसका तीसरा संस्करण है। इस ग्र्रन्थ की महत्ता के विशय में हम अपनी ओर से कुछ न लिख कर आर्य जगत के विख्यात विद्वान डा. भवानीलाल भारतीय जी के विचार दे रह हैं। वे लिखते हैं ‘यों तो आर्यसमाज के अनेक विद्वानों ने योगदर्शन की अनेक व्याख्यायें प्रस्तुत की हैं परन्तु पं. राजवीर शास्त्री द्वारा लिखित योग भाष्य का अपना महत्व है। विद्वान् भाष्यकार ने योग सूत्रों पर महर्षि व्यास के भाष्य को प्रस्तुत कर उसका भावानुवाद भी दे दिया है। एक अन्य विशेशता भी इस ग्रन्थ में दृष्टिगोचर होती है--योग के जिन सूत्रों पर महर्षि दयानन्द की व्ययाख्या उपलब्घ होती है उसे भी ग्रन्थ में सर्वत्र उद्धृत कर दिया है। इस प्रकार योगदर्शन का अध्येता सहज ही स्वामी दयानन्द द्वारा प्रतिपादित योग के आर्ष स्वरूप को समझ जाता है। ग्रन्थारम्भ में विस्तृत भूमिका लिखकर विद्वान् भाष्यकार ने वैदिक दर्शनों से सम्बद्ध अनेक प्रश्नों पर सतर्क दृष्टि से विचार किया है। निश्चय ही योगदर्शन की यह व्याख्या आर्यसमाज के दार्शनिक साहित्य में सम्मान का स्थान प्राप्त करेगी।’ 566 पृष्ठों के इस विस्तृत ग्रन्थ में ‘योग-दर्शन की विस्तृत-विशय-निर्देशिका’ नाम से 26 पृष्ठीय विस्तृत विशय-सूची भी दी गई है। पं. राजवीर शास्त्री जी के अन्य ग्रन्थों में भी हम इस प्रकार की विस्तृत सूचियां देखते हैं। न्यास द्वारा प्रकाशित ‘उपदेश-मंजरी’ का सम्पादन करते हुए भी पंडित जी ने उसमें विस्तृत विशय-सूची दी है जो अन्य प्रकाशकों के ग्रन्थों में दृष्टिगोचर नहीं होती। अन्य कई विशेशताएं भी इस ग्रन्थ में हैं जिसका ज्ञान पाठक इसका अध्ययन कर ही जान सकते हैं।

पंडित राजवीर शास्त्री जी ने उपनिशद-भाष्य ग्रन्थ का प्रणयन भी किया जो आज से 36 वर्ष पूर्व सन् 1980 में आर्ष साहित्य प्रचार ट्रस्ट से प्रकाशित हुआ था। इस ग्रन्थ में तीन उपनिशदों ईश, केन व कठ का भाष्य प्रस्तुत किया गया है। जिन उपनिशद मन्त्रों, वचनों व पाठों पर ऋषि दयानन्द का भाष्य व निर्देश उपलब्ध थे, उन्हें भी इस भाष्य में यथास्थान प्रस्तुत किया गया है और यत्र-तत्र आवश्यकतानुसार स्वामी शंकराचार्य जी के भाष्य को भी देकर तथा उसकी समीक्षा कर ऋषि के सत्यार्थ का सप्रमाण पोशण किया गया है। अनेक अन्य विशेशतायें भी इस उपनिशद भाष्य की हैं। इस भाष्य के सम्बन्ध में हम पंडित राजवीर शास्त्री द्वारा लिखित शब्दों को प्रस्तुत कर रहे हैं। वह लिखते हैं कि ‘महर्षि के अनुयायी महर्षि के भाष्य को पढ़ जाते हैं, और दूसरे शांकरभाष्यादि को श्रद्धा से पढ़ जाते हैं। सूक्ष्म विवेक शक्ति न होने से सत्यासत्य का निर्णय नहीं कर पाते। इन उपनिशद् अंकों को निकालने का हमारा उद्देश्य यह है कि पाठक समीक्षात्मक ढंग से सभी व्याख्याकारों के विचारों से परिचित हो सकें ओर ऊहापोह के द्वारा सत्यासत्य का निर्णय कर सकें। हमने इन उपनिशद् अंकों में महर्षि दयानन्द कृत उपनिशद् भाष्य को रक्खा है। यद्यपि महर्षि ने समस्त उपनिशदों का भाष्य नहीं किया है पुनरपि उन के ग्रन्थों में उपनिशदों के जो प्रमाण विद्यमान हैं, उन्हीं का यहां क्रमशः संग्रह किया है। हमें इस बात की प्रसन्नता है कि ईशावास्योपनिशद् सब उपनिशदों का आधार तथा प्रमुख है। और इसका ही अधिक पाठन-पाठन भी है। साथ ही मिथ्या मान्यताओं का अधिक प्रचार भी इसी के द्वारा किया गया है। क्योंकि यह उपनिशद् यजुर्वेद का 40 वां ही अध्याय है, केवल कहीं-कहीं पाठभेद है, महर्षि दयानन्द का इस पर पूर्ण भाष्य उपलब्ध है। यद्यपि ईशावास्योपनिशद् तथा यजुर्वेद के 40 वे अध्याय में कुछ मन्त्रों में क्रम-भेद भी हैं। हमने इसमें यजुर्वेद के अनुसार ही मन्त्रों का क्रम रक्खा है। क्यों कि महर्षि दयानन्द का यजुर्वेद मन्त्रों पर ही भाष्य है। हमने उस क्रम को भंग करना उचित नहीं समझा। और जहां जहां इनमें पाठभेद हैं, वहां वहां उनके विशय में लिखा जाएगा। और महर्षि कृत समस्त उपनिशद् प्रमाणों का क्रमशः प्रकाशन किया जायेगा। आशा है कि पाठक उपनिशदों से फैले मिथ्या प्रचार से बचकर इनके महत्व को समझेंगे ओर अपने जीवन को उत्कृष्ट बना सकेंगे।’ उपनिशद भाष्य में शास्त्री जी ने तीनों उपनिशदों के आरम्भ में प्राक्कथन भी दिये हैं जिनमें उस-उस उपनिशद की महत्ता पर प्रकाश डाला है। तीनों उपनिशदों के व्याख्यात मन्त्र वा श्लोकों की विशय सूचियां भी इस ग्रन्थ के भाष्यकार शास्त्री जी ने प्रस्तुत की हैं। इस उपनिशद-भाष्य की महत्ता को भी पाठक स्वयं पढ़कर ही जान सकेंगे। इस महत्वपवूर्ण कार्य को करने के कारण भी शास्त्री जी वैदिक विद्वानों में सदा अमर रहेंगे।

कीर्तिशेश पंडित राजवीर शास्त्री जी की एक अन्य महत्वपूर्ण रचना ‘महर्षि-दयानन्द-वेदार्थप्रकाश’ है जिसमें ऋषि दयानन्द द्वारा वेदभाष्य से इतर उनके समस्त ग्रन्थों में व्याख्यात वेदमन्त्रों का विशयानुसार संग्रह किया गया है। इस ग्रन्थ का प्रथम संस्करण सन् 1980 में प्रकाशित हुआ था। अनेक वर्षों से यह अप्राप्त है। इसका नया संस्करण प्रकाशित होना चाहिये जिससे आर्यसमाज की नई पीढ़ी इससे लाभान्वित हो सके। अनेक विशेषाताओं को समेटे हुए यह ग्रन्थ वैदिक साहित्य की एक अमूल्य निधि है। हम अनुभव करते हैं कि इस ग्रन्थ का प्रणयन कर भी शास्त्री जी ने वैदिक साहित्य की अभिवृद्धि कर अमरता को प्राप्त किया है। उनके इस कार्य में उनके सहायक लाला दीपचन्द आर्य भी अमरता को प्राप्त हैं। विस्तृत विशय सूची सहित ग्रन्थ में प्रस्तुत वेद मन्त्रों की वर्णानुक्रम-सूची भी ग्रन्थ की शोभा में वृद्धि कर रही हैं। इस ग्रन्थ में प्रस्तुत प्रमाणों व उद्धरणों के संग्रह में शास्त्री जी ने कितना तप किया होगा, इसका अनुमान लगाना कठिन है। हम यह भी अनुभव करते हैं कि यदि इस ग्रन्थ व अन्य ग्रन्थों का प्रणयन शास्त्री जी न करते तो वैदिक साहित्य की इस अपूर्णता को भरा नहीं जा सकता था।

‘विशुद्ध मनुस्मृति’ ट्रस्ट का एक मुख्य प्रकाशन रहा है जिसका प्रथम संस्करण लाला दीपचन्द आर्य जी के जीवन काल में प्रकाशित हुआ था। इस संस्करण में लाला दीपचन्द आर्य जी का प्रकाशकीय भी है जो इस ग्रन्थ के निर्माण में अनेक तथ्यों को प्रस्तुत करता है। पं. राजवीर शास्त्री जी इसके मुख्य सम्पादक व शोधार्थी थे जिनका नाम व विवरण इस ग्रन्थ में प्रस्तुत किया गया है। हमारा यह सौभाग्य रहा कि जब यह प्रथमवार प्रकाशित हुआ तो हमने इसे प्राप्त कर लिया और पढ़ा था और आज भी यह हमारे संग्रह में सुरक्षित है। इस ग्रन्थ का प्रकाशन धार्मिक जगत की एक महत्वपूर्ण ऐतिहासिक घटना थी जिसका श्रेय लाला दीपचन्द आर्य, पं. राजवीर शास्त्री और डा. सुरेन्द्र कुमार जी को है। यद्यपि अनेक आर्य विद्वानों की टीकायें इससे पूर्व प्रकाशित र्हुइं थी परन्तु मनुस्मृति में प्रक्षिप्त श्लोकों की पहचान व उन्हें ग्रन्थ से हटाने विशयक जो नियम व सिद्धान्त निर्धारित किये गये थे उन्हीं के अनुसार इस अनुसंधान कार्य को मिलकर सम्पन्न किया गया। यह कार्य भी पं. राजवीर शास्त्री जी के जीवन का एक महत्वपूर्ण स्मरणीय कार्य था जिसमें न्यास सहित लाला दीपचन्द आर्य जी की महत्वूपर्ण एवं प्रशंसनीय भूमिका थी।

पंडित राजवीर शास्त्री जी बहुत लम्बी अवधि तक दयानन्द-सन्देश के सम्पादक रहे। आपके सम्पादन में इस पत्रिका के अनेक महत्वपूर्ण विशेषांक समय-समय पर निकलते रहे जिससे पाठक प्रफुल्लित रहते थे। ‘‘जीवात्म-ज्योति विशेषांक” (प्रथम दो संयुक्तांकों सहित जनवरी से मई, 1981 के तीन अंक, कुल 229 पृष्ठ), ‘‘वैदिक मनोविज्ञान विशेषांक” (फरवरी-अप्रैल, 1978, पृष्ठ 164) और ‘‘विशय-सूची विशेषांक” (मई-जून, 1977, कुल पृष्ठ 183) कहने के लिए तो विशेषांक हैं परन्तु इनमें जो सामग्री है, उसके अनुसार यह तीनों विशेषांक अपने-अपने विशय के स्वतन्त्र व अति महत्वपूर्ण ग्रन्थ होने के साथ वैदिक साहित्य के प्रमुख अंग हैं। इनकी महत्ता का अनुमान तो पाठक स्वयं इन्हें देखकर व पढ़कर ही लगा सकते हैं। इन ग्रन्थों के संकलन व सम्पादन में पं. राजवीर शास्त्री जी ने कितना मानसिक व बौद्धिक कार्य किया होगा, इसका अनुमान वही व्यक्ति लगा सकते हंै जिसने इस प्रकार के कार्य किये हों। शास्त्री जी ने इन विशेषांकों में विभिन्न ग्रन्थों से जो सामग्री प्रस्तुत की है वह उन उनके ग्रन्थों में यत्र-तत्र विद्यमान वा बिखरी हुई थी, उसे उन्होंने संग्रहित किया। इस प्रकार संग्रहित सामग्री में से आवश्यक उद्धरणों का चयन कर उसे इन ग्रन्थों वा विशेषांकों में प्रस्तुत किया। यह कार्य महान परिश्रम व धैर्य की अपेक्षा करता है जिसे शास्त्री जी ने कर दिखाया है। अब उनके इस पुरुषार्थ से सभी अध्येता लाभान्वित हो सकते हैं वा हुवे हैं। हम अनुभव करते हैं कि इन तीनों ग्रन्थों का स्वतन्त्र अथवा एक ही जिल्द में पुनः भव्य प्रकाशन होना चाहिये। यह कार्य हमारे आर्य प्रकाशक श्री अजयकुमार जी, दिल्ली, श्री प्रभाकरदेव आर्य, हिण्डोनसिटी या आर्यप्रकाशन, दिल्ली द्वारा किया जा सकता है।

दयानन्द सन्देश के अन्य विशेषांकों में ‘वेद विशेषांक’ भाग-3 (श्रावणी पर्व माह सितम्बर-अक्तूबर, 1996, अगस्त, 1998 एवं अगस्त, 2008 में प्रकाशित), वेद और महर्षि दयानन्द (मई, 1978, 84 पृष्ठ), यथार्थ वेदान्त (नवम्बर, 1977), वेदों में अनित्य इतिहास नहीं (अक्तूबर 1977, पृष्ठ 61) मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम (अप्रैल, 1990), योगेश्वर श्री कृष्ण (सितम्बर, 1989), सरल योग से ईश्वर साक्षात्कार (लेखक-स्वामी सत्यपति परिव्राजक, मई, 1992), आर्य मान्यताएं (अप्रैल, 1994), सत्यार्थ प्रकाश समीक्षा विशेषांक (समीक्षक डा. रामनाथ वेदालंकार, अक्तूबर, 1995), सत्यार्थ प्रकाश विशेषांक (नवम्बर, 2002), सत्यार्थ प्रकाश विशेषांक (कविवर श्री प्रकाशवीर व्याकुल की सत्यार्थ प्रकाश के प्रथम दश समुल्लासों की काव्यबद्ध रचना, नवम्बर, 1987), संस्कार भास्कर विशेषांक (नवम्बर, 1994), मानव-शरीर में जीवात्मा-स्थान अर्थात् हृदय-मीमांसा विशेषांक (जनवरी, 1991), गोपाष्टमी विशेषांक (नवम्बर, 1997), पारस्कर गृह्यसूत्रम् (प्रथमं काण्डम्, जनवरी, 1993), आर्य ‘मरुत’ गीत विशेषांक (मई, 2001), पण्डित लेखराम जन्मशताब्दी विशेषांक (जुलाई, 1997), आर्य बलिदान-संयुक्त विशेषांक (अक्तूबर, 1999) और सुख-दुःख मीमांसा विशेषांक आदि। इन विशेषांकों में जो सामग्री है, वह अब विलुप्ति के कगार पर है जिसे प्रकाश में लाया जाना चाहिये। धन का अभाव ही इन ग्रन्थों के प्रकाशन में बाधक बनता है। यदि आर्यजनता में जागृति होती तो यह स्थिति उत्पन्न न होती। इस कारण जो ग्रन्थ विलुप्त हो गये हैं उसके लिए जहां हमारी सम्पन्न आर्यसमाजें व सभायें उत्तरदायीं हैं वहीं आर्यों में स्वाध्याय व साहित्य के क्रयण में उदासीनता भी एक बड़ा कारण है। शास्त्री जी ने दयानन्द सन्देश के वेदार्थ-समीक्षा एवं सृष्टि संबंत् विशेषांक भी पुस्तकाकार निकाले थे जिनका वैदिक साहित्य में अपना महत्वपूर्ण स्थान है।

आर्ष साहित्य प्रचार ट्रस्ट द्वारा ऋषि ग्रन्थों संस्कारविधि, आर्याभिविनय और उपदेश्-मंजरी आदि का प्रकाशन भी किया जाता रहा है। संस्कार विधि का प्रकाशन पंडित राजवीर शास्त्री जी के विस्तृत 30 पृष्ठीय महत्वपूर्ण प्राक्कथन से युक्त है। ट्रस्ट ने ऋषि के ग्रन्थ आर्याभिविनयः का प्रकाशन सन् 1973 में श्री युतपण्डित सुदर्शन देवाचार्य की टीका सहित किया था। इस ग्रन्थ में ट्रस्ट ने आर्याभिविनय मे व्याख्यात सभी मन्त्रों का पदार्थ भी प्रथमवार पाद टिप्पणी में प्रस्तुत किया था। इस ग्रन्थ में मन्त्रों के अन्वयः नही दिये गये हैं। हमारे पास इस आर्याभिविनय ग्रन्थ का ट्रस्ट द्वारा सन् 1988 में प्रकाशित अन्य संस्करण भी है। इस संस्करण में पडित सुदर्शन देव जी के साथ इसमें अन्वय-पदार्थ-प्रदीप टीका प्रस्तुत करने वाले अन्य विद्वान पं. राजवीर शास्त्री जी का नाम भी दिया गया है। इस संस्करण की प्रमुख विशेशतायें बताते हुए कहा गया है कि इस संस्मरण का परोपकारिणी सभा के सभी प्रामाणिक तथा प्राचीनतम संस्करणों के पाठों का मिलान कर प्रकाशित किया गया है, उपासकों एवं स्वाध्यायशील पुरुषों को मन्त्रार्थ हृदयंगम कराने के लिए महर्षि-व्याख्यानुसार ‘पदार्थ-प्रदीप’ टीका सहित होने से अपूर्व संस्करण, समस्त वेद-मन्त्रों का सस्वर तथा शुद्ध प्रकाशन तथा पुस्तक में सम्मिलित समस्त वेद-मन्त्रों का महर्षि के भाष्य से और महर्षि की व्याख्या के अनुसार अन्वय-सहित प्रकाशन आदि अनेक विशेशताओं से युक्त है। हमें लगता है कि इस संस्करण में मन्त्रों का जो अन्वय महर्षि के वेदभाष्य व उनके अपने अन्य ग्रन्थों की व्याख्याओं के आधार पर तैयार किया गया है, वह पं. राजवीर शास्त्री जी का किया हुआ है। इस संस्करण में लाला दीपचन्द आर्य जी का दिनंाक 23-2-1979 का लिखा हुआ प्रकाशकीय भी दिया गया है जिसमें उन्होंने कहा है कि श्री राजवीर शास्त्री ने प्रत्येक मन्त्र का अन्वय महर्षि की व्याख्यानुसार किया है जिसके लिए हम उनके अत्यन्त आभारी हैं। इस कारण पं. सुदर्शन देव व पं. राजवीर शास्त्री जी के योगदान से यह अपूर्व संस्करण आर्ष साहित्य प्रचार ट्रस्ट ने प्रकाशित किया था। शास्त्री जी ने ट्रस्ट द्वारा प्रकाशित उपदेश-मंजरी ग्रन्थ का भी सम्पादन किया है। इस लघु आकार वाले ग्रन्थ में भी शास्त्री जी ने 15 पृष्ठों की विस्तृत विशय-सूची देकर पाठकों को इसके अध्ययन व इनसे सन्दर्भ ढूंढने में सहायता की है। इस ग्रन्थ का प्राक्कथन भी पं. राजवीर शास्त्री जी ने लिखा है जिसमें इस पुस्तक से जुड़े सभी तथ्यों व महत्ता का प्रकाश किया गया है। हमें यह संस्करण ही अन्य सभी प्रकाशकों के संस्करणों से अच्छा व उपादेय प्रतीत होता है।

हम लगभग 16 वर्षों से गुरुकुल गौतमनगर, दिल्ली और गुरुकुल पौंधा, देहरादून से जुड़े हैं। गुरुकुल पौंधा शास्त्री जी प्रायः आते रहते थे। यहां बच्चों को पढ़ाते भी थे और उपनयन संस्कार आदि में आचार्यात्व भी करते थे। प्रायः प्रत्येक वार्षिकोत्सव पर उनका यहाँ आगमन होता था जिसमें वह कुछ सम्मेलनों की अक्ष्यक्षता भी करते थे। वेद पारायणों यज्ञों में भी उनकी गौरवमय उपस्थिति होती थी। उनके साथ वार्तालाप करने का अवसर भी हमें मिलता था। गुरुकुल गौतम नगर, दिल्ली के उत्सवों पर उनके दर्शन कर भी हम कृतार्थ होते थे। आज पंडित जी हमारे मध्य नहीं है परन्तु उन्होंने जो विशाल वैदिक साहित्य की सृष्टि की है उसके कारण वह अमर हैं। हमें उनके साहित्य से मार्गदर्शन प्राप्त होता रहता है। इस लेख को समाप्त करते हुए हम उन्हें कृतज्ञतापूर्वक अपनी श्रद्धाजंलि देते हैं। उन्होंने अपने कार्यों से देश व समाज को उपकृत किया और ऋषि ऋण से उऋण होने का आदर्श उदाहरण प्रस्तुत किया है। हम शास्त्री जी के सभी ग्रन्थों, दयानन्द सन्देश में उनके सभी लेखों तथा शंका समाधानों आदि के संकलन के प्रकाशन की आवश्यकता अनुभव करते हैं। ईश्वर हमारे विद्वानों व प्रकाशकों को इसके लिए प्रेरणा करें जिससे उनके साहित्य की रक्षा हो सके। इसी के साथ लेख को विराम देते हैं।
-मनमोहन कुमार आर्य
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