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“क्यों हम आर्य व वेदानुयायी बने और दूसरों को बनाना चाहते हैं?”

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15 Feb 19
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“क्यों हम आर्य व वेदानुयायी बने और दूसरों को बनाना चाहते हैं?”

-मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।/आर्य शब्द का सबसे पहले उल्लेख व प्रयोग वेदों में हुआ है। आर्य शब्द का अर्थ श्रेष्ठ गुण, कर्म व स्वभाव वाला मनुष्य होता है। वेद ईश्वरीय ज्ञान है जो सृष्टि के आरम्भ में ईश्वर से सीधे 4 ऋषियों को प्राप्त हुआ था। वेदों का आदेश है कि विश्व को आर्य बनाओ। आर्य बनाने का अर्थ यह नहीं है कि किसी सम्प्रदाय का अनुयायी बनाना है अपितु आर्य से अभिप्राय मनुष्य को दुरितों वा बुराईयों से छुड़ाकर उसके स्थान पर उसमें श्रेष्ठ व उत्तम गुण, कर्म व स्वभाव को उत्पन्न व प्रतिष्ठित करना है। आर्य शब्द पर विचार करें तो इसका तात्पर्य श्रेष्ठ नैतिक एवं चारित्रिक गुणों की मनुष्य जीवन में प्रतिष्ठा करना है। आर्यत्व की प्रतिष्ठा जीवन को ऋषित्व प्राप्त कराने में होती है। ऋषि को वेदमन्त्रों का द्रष्टा कहा जाता है। मन्त्र वेदों के श्लोकों व पद्यों को कहते हैं। वेदमन्त्रों के यथार्थ अर्थों को जानना व उनके सत्य अभिप्राय का साक्षात्कार करने सहित उनके अनुरूप आचरण से ऋषित्व की प्राप्ति होती है। हमारे देश में ब्रह्मा से लेकर जैमिनी मुनि पर्यन्त ऋषि परम्परा चली है। जैमिनी मुनि के शिष्य ऋषि नहीं बन सके और उनके बाद यह परम्परा ऋषि दयानन्द से पूर्व तक टूटी रही है। टंकारा के एक जिज्ञासु बालक मूलशंकर ने आयु के 22वें वर्ष में गृह त्याग कर देश भर में धार्मिक विद्वानों की खोज की व उनकी संगति कर उनसे ईश्वर, जीवात्मा, प्रकृति, मृत्यु का स्वरूप और उससे बचने के उपाय, मोक्ष और उसकी प्राप्ति के साधन आदि पर चर्चा की। उन्होंने उनसे इस विषय को जाना और स्वयं भी सभी विषयों की समीक्षा व विश्लेषण कर उन्हें तात्विक रूप में समझने का प्रयास किया। ऋषि दयानन्द को अनेक योगियों का सान्निध्य प्राप्त हुआ जिनसे उन्होंने योग सीखा और इस योग-विद्या को समाधि प्राप्त कर सफल किया। विद्या के क्षेत्र में उनकी तृप्ति प्रज्ञाचक्षु दण्डी गुरु स्वामी विरजानन्द सरस्वती जी से ढाई वर्ष अध्ययन करने पर पूरी हुई। यहां उन्होंने मुख्यतः अष्टाध्यायी-महाभाष्य आर्ष व्याकरण का अध्ययन किया जिससे उनमें वेदों सहित समस्त वैदिक साहित्य के सत्य-अर्थ जानने व उन्हें तर्क से सिद्ध करने की योग्यता प्राप्त हुई। मूलशंकर संन्यास लेकर स्वामी दयानन्द बने थे। उन्होंने वेदों को प्राप्त किया और उसका गहन अध्ययन किया। अपने अध्ययन, योग व समाधि के अनुभवों के आधार पर उन्हें वेद के सत्य अर्थ वा रहस्यों को जानने में सफलता प्राप्त हुई। उन्होंने पंचमहायज्ञ विधि, आर्याभिविनय, स्तुति-प्रार्थना-उपासना के आठ मंत्रों सहित वेदभाष्य में जो पदार्थ एवं भावार्थ किये हैं, उससे वह ऋषि बने। उनके द्वारा किया गया वेदभाष्य समस्त वैदिक वांग्मय में अनुपम व महनीय है। ऐसा प्रतीत होता है कि उनसे पूर्व यजुर्वेद एवं ऋग्वेद का उनके समान संस्कृत व लोकभाषा हिन्दी में सरल व सुबोध भाष्य किसी अन्य विद्वान ने नहीं किया। यदि महाभारत व उसके बाद वेदों व वैदिक वांग्मय के प्रमुख ग्रन्थों पर संस्कृत व जनभाषाओं में ऋषि दयानन्द की योग्यता के समान विद्वानों के भाष्य होते तो आर्य जाति का वैसा पतन कदापि नहीं होता जैसा विगत पांच हजार वर्षों के इतिहास में वर्णित है। अतः आर्य शब्द श्रेष्ठ गुणों वाले मनुष्यों के लिये प्रयोग होता है और ऋषियों में श्रेष्ठ गुणों की पराकाष्ठा होने से वह भी उत्तम आर्य पुरुष वा महापुरुष होते हैं।

इतिहास में वर्णित विश्व के सर्वश्रेष्ठ महापुरुष राम व कृष्ण आर्य कहलाते थे। इनकी पत्नियां इन्हें आर्य-पुत्र कह कर सम्बोधित करती थीं। आर्य का विलोम शब्द अनार्य होता है जो श्रेष्ठ गुणों वाला न होकर निन्दनीय गुण, कर्म व स्वभाव वाला होता है। रामायण में राम व रावण का उल्लेख मिलता है। राम सुचरित के धनी थे तो रावण दुरितों वा दुर्गुणों से युक्त था। यदि रावण ने आर्यत्व को ग्रहण किया होता तो वह श्री राम की धर्मपत्नी माता सीता जी का अपहरण कदापि न करता। रावण का परस्त्री और वह भी एक श्रेष्ठ आदर्श और सज्जन पुरुष राम की धर्म पत्नी का अपहरण वस्तुतः घोर निन्दनीय कुकर्म था। ऐसा व इसके समान कर्म कोई भी व्यक्ति करे वह निन्दनीय होता है और वह मनुष्य अनार्य मनुष्य की श्रेणी में आता है। योगेश्वर कृष्ण और दुर्योधन की चर्चा करें तो कृष्ण जी सच्चे आर्य महापुरुष सिद्ध होते हैं क्योंकि उनके गुण, कर्म व स्वभाव वेद व समस्त शास्त्रानुकूल थे। दुर्याधन के गुण, कर्म व स्वभाव वेद विरुद्ध व निन्दित थे। महर्षि दयानन्द, आचार्य चाणक्य, आर्य पुरुष स्वामी श्रद्धानन्द, पं. लेखराम, पं. गुरुदत्त विद्यार्थी, महात्मा हंसराज, स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती, स्वामी विद्यानन्द सरस्वती, आचार्य डॉ. रामनाथ वेदालंकार आदि के जीवन चरितों पर दृष्टि डालते हैं तो यह सब आर्य महापुरुषों की कोटि के पुरुष दृष्टिगोचर होते हैं। ऐसे महनीय गुणों वाले लोगों से मिलकर जो समाज व समूह बनता है उसी को आर्यसमाज कहते हैं। आर्यसमाज में सभी सदस्यों को वेदों का अध्ययन करना व वेदों के अनुकूल मानवीय गुण, कर्म व स्वभाव को धारण करना अनिवार्य है। जो ऐसा नहीं करता वह आर्य व मनुष्य कहलाने का अधिकारी नहीं होता। यह दुर्भाग्य है कि वर्तमान समय में आर्यसमाज में भी वह मर्यादायें व श्रेष्ठ मानवीय वैदिक गुण नहीं पाये जाते जिनका कि वेदों में विधान है। अतः वर्तमान में आर्यों व आर्यसमाजियों के जीवन व चरित्रों में सुधार की आवश्यकता है तथापि अन्य संस्थाओं की तुलना में आर्यसमाज में ऐसे लोग बड़ी संख्या में हैं जो वेदानुकूल गुणों से युक्त हैं। ऐसे आर्य स्वभाव के लोगों के कारण ही आज भी आर्यसमाज जीवित है और वह नास्तिकता के निवारण, समाज सुधार, देशोत्थान, शिक्षा का प्रसार करने सहित अन्धविश्वासों का खण्डन व उनका उन्मूलन करने में सक्रिय है। आर्यसमाज का उद्देश्य समस्त विश्व को श्रेष्ठ विचारों व उत्तम चरित्र सहित उत्तम गुण, कर्म व स्वभाव वाला बनाना है। ऐसा समाज व देश जहां के सभी मनुष्य वेदों का अध्ययन करते हों, अपने दुर्गुणों का त्याग करने वाले हों तथा देश हित के लिये समर्पित हों। यह ऐसी बातें हैं जिसके कारण आर्यसमाज सृष्टि में सदैव प्रासंगिक रहेगा और इसकी आवश्यकता बनी रहेगी।

आर्य श्रेष्ठ गुणों वाले मनुष्यों को कहते हैं। आर्य बनने के लिये मनुष्य को 16 संस्कारों का वरण व धारण करना होता है। यह संस्कार वेदों की शिक्षाओं के अनुरुप होते हैं। इन संस्कारों में से कुछ संस्कार जन्म से पूर्व होते हैं और कुछ जन्म के समय व उसके बाद। गुरुकुल व विद्यालय जाने तक बालक बालिकाओं को अपने घर पर अपने विद्वान माता-पिता से सद्गुणों की शिक्षा लेनी होती है। इसके बाद वह गुरुकुल व विद्यालय में वहां के आचार्यों से संस्कृत, हिन्दी, अंग्रेजी व अन्य भाषाओं सहित विविध विषयों का ज्ञान-विज्ञान, गणित आदि का अध्ययन करते हैं। घर और गुरुकुलों में प्रातः 4.00 बजे शय्या त्याग, प्रातःकाल के मन्त्रों से ईश-प्रार्थना, शौच, आसन, प्राणायाम व पुस्तकीय अध्ययन सहित सन्ध्या व यज्ञ आदि करते हैं। आचार्यां व गुरुजनों को सम्मान व आदर देने की परम्परा भी आर्यों की ही देन है। आर्य व वैदिक परिवारों के बच्चे अन्धविश्वासों से सर्वथा दूर रहते हैं। वह ईश्वर, जीवात्मा व जड़ प्रकृति के सत्यस्वरूप व गुणों आदि को जानते हैं और उसी के अनुसार ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना व उपासना करते हैं। आर्य सन्तानों, विद्यार्थियों व गृहस्थियों में मुख्य विशेषता वेदानुकूल नैतिक व चारित्रिक गुणों का धारण व पालन होता है जिसमें अज्ञान व अंधविश्वासरहित सामाजिक नियमों के पालन को सर्वाधिक महत्व दिया जाता है। इस प्रकार का जीवन एक आर्य व्यक्ति का होता है।

महर्षि दयानन्द ने वेद के सर्वोच्च महत्व के कारण ही वेदों का प्रचार व प्रसार किया। उन्होंने वेदों की मान्यताओं के आधार पर सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, आर्याभिविनय, संस्कारविधि, पंच-महायज्ञविधि, व्यवहारभानु, गोकरुणानिधि आदि अनेक ग्रन्थों सहित वेदभाष्य की रचना की। ऋषि दयानन्द ने अवैदिक मान्यताओं पर विभिन्न मतों के आचार्यों से शास्त्रार्थ किये व उनकी शंकाओं के समाधान भी किये। ऋषि दयानन्द के विपक्षी विद्वानों से संवाद में वेद की मान्यतायें अखण्डनीय सिद्ध हुईं और मत-मतान्तरों की मान्यतायें खण्डित व मिथ्या सिद्ध हुई। आर्य जीवन पद्धति अपनाकर श्रेष्ठ कर्मों को करने से मनुष्य इहलोक और परलोक में सुख, उन्नति व मुक्ति को प्राप्त होता है। आर्य विद्याव्यसनी मनुष्यों का समूह होता है जबकि मत-मतान्तरों के अनुयायी व आचार्य सत्य व ज्ञान प्राप्ति पर बल नहीं देते और न ही अपने मत की मान्यताओं के सत्यासत्य की समीक्षा ही करते हैं। आर्यसमाज एक ऐसी संस्था है जहां अनेक विषयों पर विद्वान आपस में चर्चा व शास्त्रार्थ भी कर लेते हैं। ऐसे कुछ विषय हैं काल-अकाल मृत्यु, वृक्षों में जीव है या नहीं, जीवात्मा का स्थान वक्ष स्थित हृदय है या सिर में आदि। इन विषयों पर आर्य विद्वानों में परस्पर अनेक बार चर्चायें हुईं हैं। आर्य ज्ञान विज्ञान से युक्त, सच्चरित्र, ईश्वर विश्वासी, पूर्ण शाकाहारी, अभक्ष्य पदार्थो का सेवन न करने वाले, दूसरों के प्रति अन्याय व शोषण की भावना से मुक्त, अज्ञान व अन्धविश्वासों से सर्वथा रहित, ंमिथ्या परम्पराओं को न मानने वाले व्यक्ति होते हैं। ऐसे व्यक्ति ही श्रेष्ठ समाज व देश के निर्माण में सहायक होते हैं। अन्धविश्वासों, कुपरम्पराओं, मिथ्या धार्मिक विश्वासों व मान्यताओं के आचरण से देश कमजोर होता है। वेद को मानने वाले आर्यों में यह बुराईयां नहीं होती। अतः आर्य और आर्यसमाज श्रेष्ठ जीवन, श्रेष्ठ समाज व उत्तम देश के पर्याय हैं। इसी कारण सभी आर्य कहलाने वाले बन्धु आर्यत्व से युक्त होते हैं और दूसरे बन्धुओं के जन्म-जन्मान्तर में हित व कल्याण के लिये उन्हें आर्यसमाज का सदस्य व अनुयायी बनाकर सच्चा आर्य बनने की प्रेरणा करते हैं। इस विश्व में पूर्ण सुख व शान्ति तभी सम्भव है कि जब सब लोग आर्य बनें और वेदानुकूल आचरण करना स्वीकार करें। इसी के साथ इस चर्चा को विराम देते हैं। ओ३म् शम्।


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