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भीड़ के आदमी में आज भी मौजूद आदिम युग के आदमी पर चिंता और क्षोभ प्रकट करता काव्‍य संग्रह ‘’भीड़ का आदमी’’

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18 May 22
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भीड़ के आदमी में आज भी मौजूद आदिम युग के आदमी पर चिंता और क्षोभ प्रकट करता काव्‍य संग्रह ‘’भीड़ का आदमी’’

 होमोसेपियन मानव (आदिमानव का वैज्ञानिक नाम) की जिज्ञासा ने आज उसे इतना सबल बना दिया है कि उसने आकाश में छेद कर अंतरिक्ष तक पहुँच बनाई है, तो समुद्र के तल में छेद कर सागर में हलचल मचाई है। विकसित ज्ञान का केंद्रबिंदु ही जिज्ञासा है। आरंभ में यह मौखिक और आत्‍मचिंतन में ही संचित रहता था, बाद में इसके संरक्षित करने की जिज्ञासा ने सर्वप्रथम मानव में लालसा पैदा की और कुछ लोग बीहड़ों से निकल कर अपनी दुनिया बनाने लगे। जो जंगलों में लौट आए उन्‍होंने  लिपि का आविष्‍कार किया। हाथ में कलम ले कर उन्‍होंने ज्ञान को नाम दिए और अपनी संस्‍कृति का विकास किया। 
       लिपि के विकास के साथ ही इसे पुस्‍तकों का आकार मिला। पहले भोज पत्रों और बाद में इनकी छालों से बने आधुनिक कागज ने आज पुस्‍तकों को नए नए कलेवर दिए। ये पुस्‍तकें ही आज हमारी युगीन जानकारी का एक मात्र स्रोत हैं। आज हर भाषा, हर लिपि में अनगिनत पुस्‍तकों का भंडार हमें उपलब्‍ध है। इसीलिए हर देश, हर छोटे बड़े शहर में पुस्‍तकालयों, विद्यालयों आदि में इसे संरक्षित किया जाता है।
        मानव की जिज्ञासा एक भूख की तरह है, जो कभी नहीं मिटती। परिणाम आपके सामने हैं। आज मानव की जिज्ञासा ने उसके हाथों में कलम की जगह हथियार थमा दिए हैं। यही कारण था कि जिसने दृढ़ता से कलम को थामा उन्‍होंने इतिहास लिखा और जिसने हथियार थामे उन्‍होंने सभ्‍यताएँ बदलीं, संस्‍कृतियाँ नष्‍ट कीं और कई संहारक युगों का सूत्रपात किया, युग बदले। इन युगों को आश्रमों में रह रहे ऋषियों मुनियों ने कलम से लिपिबद्ध किया, पर हर युग के युगंधरों ने इन वृद्ध ऋषि मुनियों को हमेशा संरक्षण दिया और आज तक उनके ग्रंथ, उनका ज्ञान विज्ञान किसी न किसी रूप में संरक्षित है। उसी धारा को आज तक बाहर की दुनिया में भी कला, साहित्‍य और संस्‍कृति के माध्‍यम से हम जीवंत बनाए हुए हैं।
       लुप्‍तप्राय साहित्‍य, कला और संस्‍कृति के विभिन्‍न रूप समय-समय पर हमारे सामने आते रहते हैं। लोग जिज्ञासा के साथ हर क्षेत्र में सृजन कर रहे हैं। उसी क्रम में साहित्‍य के क्षेत्र में अनेक सर्जकों ने कीर्तिमान् स्‍थापित किए हैं। आए दिनों होने वाले पुस्‍तकों के लोकार्पण, विमोचनों के समारोह हम विभिन्‍न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं आदि के माध्‍यम से सुनते पढ़ते रहते हैं। ऐसा ही एक आयोजन जब मेरी लाइब्रेरी में मेरे ही वरेण्‍य पितृश्री डॉ कौशल कुमार श्रीवास्तव होमियो फीजीशीयन , भास्कर होमियो चिकित्सालय सपोटरा जिला करौली, राजस्थान की लिखित पुस्‍तक भीड़ का आदमी के लोकार्पण के रूप में हुआ तो स्‍वभावत: इस पुस्‍तक की समीक्षा करने का लोभ मैं संवरण नहीं कर पाया।
   लेखक के सम्‍पूर्ण जीवन का निष्‍कर्ष  इस पुस्‍तक की रचनाओं में है। आम आदमी से जुड़ कर जैसे उन्‍होंने जीवन का सच उजागर किया है। मोह माया ममता से परे आम आदमी का संपूर्ण जीवन केवल और केवल श्रमसाध्‍य रहा, इसके सिवा कुछ नहीं। उसके जीवन में श्रमविंदु से प्राप्‍त धन ही सुख की आधारिशिला रहा, गहरी नींद भविष्‍य की चिंता से मुक्‍त रही, घर में कभी न लगने वाला ताला जैसे राम राज्य की कल्‍पना के स्‍वप्‍न दिखाता रहा। आम आदमी ने कभी चुनौती के लिए पहल नहीं की, उसके अंदर कभी लालसा ने जन्‍म नहीं लिया। उसे कभी किसी से ईर्ष्‍या नहीं हुई। यही उस आदमी को श्रेष्‍ठ से श्रेष्‍ठतर बनाता रहा और यही प्रकृति पिताश्री को परिवार को सुद्ढ़ बनाने में संबल बनी।  कलम से लिखे हर शब्द को पढ़ कर पूरा परिवार उन्‍हें कभी मुनि के रूप में देखता, कभी ऋषि की तरह, कभी आदर्श के रूप में कभी नायक के रूप में और कभी गुरु के रूप में। एक लंबे समय के चिंतन और मंथन परिणामस्वरूप इस पुस्तका का स्वरूप गढा गया ।
   लेखक की हर रचना हमें ही नहीं हर वर्ग के व्‍यक्ति को उद्वेलित करेगी। एक कवि ही कह सकता है-
हम अपना ज़मीं अपना
आकाश पैदा करें,
मिटआभास पैदा करें,
समर्पण के लिए आत्‍मसमर्पण,
कर्तव्‍यों व उत्‍तरदायित्‍वों और
आशीर्वाद से उठेंगे गगन तक ‘कौशल’,
यह विश्‍वास पैदा करें ।। -पृ.62
यह सच है हम दुनिया में उसे ढूँढ़ते हैं जो आप से कमतर हो, ताकि इस बात का संतोष हो सके कि हम किसी से तो अच्‍छे हैं। यह अहं ही तो लोगों में स्‍वयं से अच्‍छा बुरा ढूँढ़ने को विवश करता है, किंतु स्‍वयं में कम ही ढूँढ़ते हैं कि हमारे अंदर क्‍या कमी है, इसका निराकरण, समाधान क्‍या हो सकता है, किससे मिलें, किससे मार्गदर्शन लें ? यही तो लिखा है कवि ने-
आदमी भले ही देखने में
आदमी होता है
आँख खुली मगर
उसके अंदर का
आदमी सोता है
खुद भी जगे और
बुराइयों से भगे
सच में वह ही
आदमी होता है । -पृ.52
आज एकल परिवारों ने बच्‍चों का बचपन छीन लिया है। राग द्वेष के बंधन ढीले नहीं हो पाते, वृद्धों के अभाव में बचपन, घर, आँगन सब निर्जन हैं। दड़बों की तरह दो कमरों के घर में जैसे जिंदगी घुट कर रह गई है। वे संदेश देते हैं कि कितने भी बड़े बन जाओ पर बच्‍चों की किलकारी मत मिटने देना-
आँगन अब कुरुक्षेत्र बन गया
होती शब्‍दों की बमबारी,
बच्‍चों का बचपन विलुप्‍त
क्‍यों लुप्‍त हुई किलकारी
अवशेषों में दीपमालिका
होली की पिचकारी
पिचकारी की हिचकी में
है बच्‍चों की सिसकारी
स्‍थापित नहीं विस्‍थापित कर
क्‍यों देते हो पीड़ा
नहीं सताओ बच्‍चों की खातिर
रखो संग उठालो बीड़ा
याद रखो मत मिटने देना
बच्‍चों की किलकारी । -पृ.49

 आज पुस्‍तकों का संसार बहुत सीमित हो गया है। एकल परिवारों के कारण छोटे घरों में पुस्‍तकों की जगह खत्‍म हो गई है। लोगों को जीवन यापन, आपा-धापी में पुस्‍तकें पढ़ने, पुस्‍तकालय जाने के लिए समय निकालना मुश्किल हो गया है। यह दर्द कवि ने अपनी क्षणिकाओं में दिया है-
कहाँ गए वे मेले ठेले
जहाँ पुस्‍तकें मिलती थीं
सफर में किसी मुसाफिर के
हाथों में पुस्‍तक दिखती थी। 
वक्‍त का पता नहीं चलता था
किताबों के साथ
कोई अपना अगर नहीं
होता था अपने साथ । पृ. 88
इसी तरह रिश्‍ते अब दर्द की तरह रिसते हैं। इसका दर्द भी कवि ने अपनी रचना में स्‍पष्‍ट किया है।
आदिम युग का बीज अभी भी मनुष्‍य के अंदर मौजूद है, तभी तो वह आदमी है। कवि कहता है-
धर्म में अधर्म में भी है आदमी
सुकर्म व दुष्‍कर्म में भी है आदमी
लाशों की भीड़ में भी आदमी
हताशों की भीड़ में भी आदमी
कयासों की भीड़ में भी आदमी
तमाशों की भीड़ में भी आदमी
डरने वाला भी है, आदमी तो
डराने वाला भी है आदमी
अब रोने वाला भी है आदमी तो
रुलाने वाला भी है आदमी
हँसने वाला भी है आदमी तो
हँसाने वाला भी है आदमी,
जब कभी आदमी, आदमी को पीटता है
तब बचाता तो कोई नहीं,
अपितु, फोटो खींचता है
क्‍या कभी आदमी सोचता कि
मैं भी एक आदमी हूँ।
      कवि ने अपने काव्‍य में नीति, सद्भाव, धर्म, अध्‍यात्‍म, राजनीति, राष्‍ट्रीयता, नारीविमर्श, पर्यावरण, बचपन आदि विषयों पर गहन विमर्श के साथ इनमें व्‍याप्‍त विसंगतियों पर मारक प्रहार किया है। औसत आदमी और तंत्र के बीच का फासला और इससे निपजी औसत जीवन की दुर्गति कवि के क्षोभ और चिन्‍ता का प्रमुख कारण है, जो उन्‍हें पीड़ि‍तों और दलितों के पैरोकार के रूप में पेश करता है। समय का दस्‍तावेज है भीड़ का आदमी । कवि की सृजन यात्रा यूँ ही शाश्‍वत बनी रहे, यही शुभाकांक्षा है।
      भीड का आदमी पुस्तक का प्रकाशन वी.एस.आर.डी प्रकाशन कानपुर द्वारा किया गया है। पुस्तक में लेखक की 100 कविताओं का संग्रह है। पुस्तक का मूल्य 125 रुपए है।


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