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और धर्म की रक्षा के लिए ही आर्यसमाज बनाया”

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22 Aug 18
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और धर्म की रक्षा के लिए ही आर्यसमाज बनाया” -मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।ऋषि दयानन्द ने 10 अप्रैल, 1875 ई. को मुम्बई में आर्यसमाज की स्थापना की थी। आर्यसमाज की स्थापना का कारण वैदिक धर्म एवं संस्कृति सहित देश की रक्षा करना था। यह सुविदित है कि प्राचीन वैदिक सनातन धर्म में महाभारत व उसके बाद विकृतियां आनी आरम्भ हो गईं थीं। इसका कारण महाभारत का विनाशकारी युद्ध था। इसके बाद देश में ऋषि मुनियों की परम्परा क्षीण होने लगी व कुछ काल बाद बन्द ही हो गई। लोगों के आलस्य प्रमाद से वेदों का ज्ञान अपने यथार्थ रूप में सुरक्षित नहीं रह सका। देश के गुरुकुलों में भी योग्य विद्वान मिलना बन्द हो गये थे। स्त्रियों व शूद्रों के लिए वेद का पढ़ना व पढ़ाना निषिद्ध कर दिया गया था। इन दिनों वर्ण व्यवस्था का आधार मनुष्य के गुण, कर्म व स्वभाव न होकर जन्मना जातियां बन गई थी। योग्य गुरुओं व विद्वानों के न होने के कारण वेदों के सिद्धान्त भी अपने यथार्थ स्वरूप में प्रचलित न रह सके और इसके स्थान पर ईश्वर के स्वरूप, आत्मा के स्वरूप व गुण, कर्म व स्वभाव सहित कर्म फल सिद्धान्त, प्रारब्ध, ईश्वरोपासना, दैनिक यज्ञ, पितृ यज्ञ व माता-पिता की सेवा, समी मनुष्यों के प्रति न्यायपूर्ण सामाजिक व शिक्षा व्यवस्था आदि सभी प्रमुख कार्य व व्यवस्थाओं में विकृतियां व बिगाड़ उत्पन्न हो गया था। अज्ञान व अंधविश्वास समाज में बढ़ते जा रहे थे। आठवीं शताब्दी में देश के कुछ भाग यवनों के गुलाम हो गये और यह सिलसिला बढ़ता ही गया जिससे आर्य हिन्दू जाति की भारी क्षति हुई। आठवीं शताब्दी के बाद भारत में आर्य हिन्दुओं का बड़े पैमाने पर धर्मान्तरण हुआ जिससे देश व आर्यजाति की बहुत हानि हुई। यवनों के बाद अंग्रेज भारत में आये और इन्होंने भी लगभग 200 वर्षों तक भारत के अनेक क्षेत्रों पर राज किया। देश व आर्य जाति की ऐसी शोचनीय अवस्था में ऋषि दयानन्द (1825-1883) का जन्म वा आविर्भाव हुआ और उन्होंने सन् 1863 से आर्य हिन्दू जाति व देश को बचाने के लिए अज्ञान का नाश व ज्ञान का प्रचार करने के लिए गुरु विरजानन्द व स्वयं के प्रयासों से अर्जित विद्या से देश भर में वेद प्रचार का शंखनाद वा कार्य आरम्भ किया।

ऋषि दयानन्द की अनेक विशेषतायें थी जो उनके समय व उनसे पूर्व के महापुरुषों में नहीं थीं। प्रथम तो वह सच्चे योगी थे जिन्होंने योग दर्शन को पढ़कर व समझकर योग्य गुरुओं से सभी आसन व प्राणायाम आदि क्रियायें सीख कर सफल अभ्यास किया था। योग दर्शन की अन्तिम सीढ़ी समाधि होती है। ऋषि दयानन्द को सम्प्रज्ञात और असम्प्रज्ञात दोनो ंप्रकार की समाधियों का अभ्यास था। शास्त्रकार कहते है कि जिस योगी को समाधि अवस्था प्राप्त होकर ईश्वर का साक्षात्कार हो जाता है वह जीवनमुक्त हो जाता है और मृत्यु होने पर उसकी मुक्ति हो जाती है। ऋषि दयानन्द को यह दोनों समाधियां प्राप्त थीं। ऋषि दयानन्द की दूसरी बड़ी विशेषता यह थी कि वह वेदों के महाभारत के बाद अपूर्व विद्वान थे। उन्होंने आर्ष अष्टाध्यायी-महाभाष्य व्याकरण का निरुक्त व निघण्टु व अनेक अन्य व्याकरण ग्रन्थों सहित अध्ययन किया था। वह व्याकरण के मर्मज्ञ एवं मूर्धन्य विद्वान थे। वह व्याकरण के देश के योग्यतम गुरु प्रज्ञाचक्षु स्वामी विरजानन्द सरस्वती, मथुरा के योग्य शिष्य थे। ऋषि दयानन्द जी में योग्यता थी कि वह वेदों के शास्त्रनुकूल, व्यवहारिक व उपयोगी सत्य अर्थ कर सकें और उन्होंने यह कार्य किया भी। ऋषि दयानन्द जी की अन्य विशेषताओं में यह विशेषता भी थी कि उनका व्यक्तित्व आकर्षक था, वह पूर्ण स्वस्थ थे और उनमें प्रभावशाली व्याख्यान देने की अद्भुद क्षमता थी। वह संस्कृत व हिन्दी भाषा के सुयोग्य व अपूर्व लेखक भी थे। उनके सभी सिद्धान्त वा मान्यतायें वेदों के सत्य ज्ञान पर आधारित थीं जो तर्क व युक्ति से सत्य सिद्ध होने के साथ देश व समाज के लिए हितकारी व उन्नति को प्राप्त कराने वाली थीं। महाभारत युद्ध के बाद ऋषि दयानन्द जैसा वेद, वैदिक साहित्य का अन्य दूसरा विद्वान नहीं हुआ जिसकी हर बात व मान्यता तर्क, युक्ति से सिद्ध होने सहित वेदानुकूल भी थी। वह भारत देश की सभी दुर्बलताओं व उनके कारणों से परिचित थे और उसका उपचार व औषधि ‘वेदों का ज्ञान व उसका आचरण’ भी उन्हें विदित था। उन्होंने अपने गुरु स्वामी विरजानन्द सरस्वती की आज्ञा, प्रेरणा, अपनी क्षमता व विवेक से अज्ञान को हटा कर वैदिक ज्ञान को प्रतिष्ठित करने का निर्णय लिया क्योंकि देश व समाज सहित वैदिक धर्म की रक्षा करने का यही एकमात्र उपाय था।

वेदों का महत्व क्या है? यह जानना भी आवश्यक है। वेद ज्ञान के पुस्तक हैं। वेद सृष्टि के आरम्भ में इस सृष्टि के रचयिता सच्चिदानन्दस्वरूप, सर्वव्यापक, सर्वज्ञ व सर्वशक्तिमान परमात्मा से उत्पन्न हुए हैं। परमात्मा ने वेदों का ज्ञान चार युवा ऋषियों अग्नि, वायु, आदित्य और अंगिरा को उनके अन्तःकरणों में प्रेरणा के द्वारा दिया। इन्होंने ही ब्रह्मा ऋषि को ज्ञान देकर अन्य मनुष्यों में वेदों का प्रचार किया। वेद सब सत्य विद्याओं की पुस्तक है। वेद सृष्टि के आरम्भ में अब से 1,96,08,53,118 वर्ष पूर्व उत्पन्न हुए थे और आज भी पूर्ण शुद्ध अवस्था में विद्यमान है। इसकी पुष्टि कुछ विदेशी विद्वान भी पुष्ट प्रमाणों से करते हैं। वेद सुख व उन्नति पूर्वक मनुष्य जीवन जीने का सर्वोत्कृष्ट दर्शन व आचार शास्त्र है जिसे धर्म ग्रन्थ भी कहा जाता है। वेद ही परमात्मा प्रदत्त धर्म ग्रन्थ वा आचार शास्त्र हैं। अन्य सभी ग्रन्थ मानव निर्मित व रचित हैं जिनमें सत्यासत्य दोनों विद्यमान है। वेद की तुलना में सभी ग्रन्थ उसी सीमा तक स्वीकार्य होते हैं जहां तक वह वेद के अनुरूप कथन करते हैं। सभी मत, पंथ व सम्प्रदायों के साम्प्रदायिक धर्म ग्रन्थों में असत्य व भ्रामक बातें भी भरी पड़ी हैं। इनका दिग्दर्शन ऋषि दयानन्द ने अपने ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश के अन्तिम चार समुल्लासों में कराया है। सत्यार्थप्रकाश स्वयं अपने आप में अन्य मत, पन्थ के धर्म ग्रन्थों की तुलना में सर्वश्रेष्ठ धर्म ग्रन्थ है। इसका अध्ययन व पाठ सभी मनुष्यों को करना चाहिये। इसके अध्ययन से सत्य व असत्य का विवेक उत्पन्न होता है और मनुष्य का यह जीवन और मृत्योपरान्त का जीवन भी सुधरता व उन्नत होता है। सामाजिक संरचना भी यदि वेदों पर आधारित होगी, तो उसी से सभी मनुष्यों को सुख व शान्ति मिलती है। विश्व की सभी समस्याओं के समाधान भी वेद में विद्यमान हैं। वेद ‘मनुर्भव’, मनुष्य बनने का सन्देश देते हैं। यदि वेद के अनुसार मानव का निर्माण हो जाये तो संसार से सभी प्रकार की बुराईयां और विकृतियां दूर हो सकती हैं।

ऋषि दयानन्द के समय में देश और समाज सहित वैदिक धर्म की अवस्था अत्यन्त सोचनीय वा चिन्ताजनक थी। देश में ईश्वर व आत्मा का सच्चा स्वरूप सामान्यजनों को तो क्या, मत-मतान्तरों के आचार्यों तक को भली प्रकार से विदित नहीं था। ईश्वर की उपासना की सत्य विधि क्या है, इसे भी लोग भूल चुके थे। मूर्तिपूजा, अवतारवाद, मृतक श्राद्ध, फलित ज्योतिष तथा सामाजिक असमानता, छुआछूत, बाल विवाह, विधवाओं का उत्पीड़न, बहुविवाह, दुराचार आदि जैसे रोग समाज को रसातल में पहुंचा चुके थे व पहुंचा रहे थे। देश अंग्रेजों के अधीन परतन्त्र था। इन सब रोगों का एक ही उपचार था कि लोगों की अविद्या का नाश कर उन्हें सत्य ज्ञान, विद्या वा वैदिक ज्ञान से देदीप्यमान व उदीप्त किया जाये। ऋषि दयानन्द में ज्ञान व क्षमता दोनों थीं। उन्होंने देश व धर्म की रक्षा के लिये सन् 1863 में वेद प्रचार करना आरम्भ कर दिया था।

ऋषि दयानन्द वेद प्रचार के अन्तर्गत प्रवचन, व्याख्यान व उपदेश करते थे। उन्होंने आरम्भ में सन्ध्या पद्धति व भागवत-खण्डन आदि ग्रन्थ लिखे। मूर्तिपूजा, फलित ज्येतिष व वेदों की अप्रवृत्ति सभी समस्याओं की जड़ थी। इसके लिये उन्होंने काशी पहुंच कर वहां के विद्वानों को चुनौती दी और मूर्तिपूजा को वेदों से सिद्ध करने को कहा। 16, नवम्बर 1869 को काशी में शास्त्रार्थ हुआ परन्तु सनातन धर्मी पौराणिक विद्वान मूर्तिपूजा को वेदों से सिद्ध नहीं कर सके। इसका अर्थ यह हुआ मूर्ति पूजा अज्ञान से युक्त कर्म है और ईश्वर की आज्ञा के विपरीत होने से वह उपासना न होकर वेद विरुद्ध त्याज्य कोटि का कार्य है। कालान्तर में ऋषि दयानन्द जी ने अनेक मत-मतान्तरों के आचार्यों से शास्त्रार्थ व शंका समाधान किये और अपनी मान्यताओं को सत्य सिद्ध किया। कालान्तर में अपने शिष्यों व सहयोगियों की सम्मति से उन्होंने अपनी सभी मान्यताओं व विचारों का ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश तैयार किया जो सन् 1875 में वाराणसी के डिप्टी कलेक्टर राजा जयकृष्ण दास जी के आर्थिक सहयोग से प्रकाशित हुआ। इसका दूसरा संस्करण ऋषि दयानन्द ने सन् 1883 में मृत्यु से पूर्व तैयार किया जो सन् 1884 में प्रकाशित हुआ। विश्व के धार्मिक साहित्य में वेद, सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, आर्याभिविनय, दर्शन व उपनिषदों की तुलना में कोई ग्रन्थ नहीं है जिनमें इन ग्रन्थों की सभी विशेषतायें विद्यमान हों। वैदिक धर्म ही सर्वश्रेष्ठ मानव धर्म है। वैदिक धर्म के अनुयायियों का सर्वांगीण विकास होता है। वह सच्चे ईश्वर उपासक होने के साथ, ज्ञानी, देशभक्त, अन्धविश्वासों से मुक्त, अन्यों के शोषण, अन्याय व अत्याचार से मुक्त तथा देश व समाज का कल्याण करने वाले होते हैं। ऋषि दयानन्द ने अपने शिष्यों वा भक्तों की प्रार्थना पर मुम्बई में 10 अप्रैल, सन् 1875 को आर्यसमाज की स्थापना की। आर्यसमाज के 10 स्वर्णिम नियम हैं। यह सभी तर्कसंगत है। इसमें कोई बात ईश्वर, देश व समाज की दृष्टि से अनुचित व हानिकारक नहीं है। ऋषि दयानन्द वेदोद्धारक, समाजसुधारक, ईश्वर-जीव-प्रकृति के सिद्धान्त के उद्गाता व आचार्य थे। उन्होंने समाज में व्याप्त सभी अन्धविश्वासों व बुराईयों का तीक्ष्णता से खण्डन किया। वह सबसे प्रीतिपूर्वक, धर्मानुसार तथा यथायोग्य व्यवहार के उद्गाता भी थे। दुष्ट प्रकृति व प्रवृत्ति के लोगों को दण्डित किये बिना देश व समाज में सुधार व सुव्यवस्था नहीं हो सकती।

ऋषि दयानन्द ने प्रायः समस्त देश में अपने वैदिक सिद्धान्तों का प्रचार व प्रसार किया। जितना देश व समाज ने उनकी मान्यताओं को अपनाया है उतनी ही मात्रा में देश व समाज का कल्याण हुआ है। धर्म की रक्षा भी हुई है। हम कल्पना भी नहीं कर सकते कि यदि ऋषि दयानन्द न आते और वेद प्रचार न करते तो हमारा धर्म सुरक्षित रह पाता। उन्होंने हमारे धर्म की विधर्मियों के कुचक्रों से रक्षा कर इसे सुदृण किया है। देश के प्रसिद्ध क्रान्तिकारी वीर विनायक दामोदर सावरकर जी ने कहा है कि जब तक सत्यार्थप्रकाश विद्यमान है, तब तक कोई मत, सम्प्रदाय वा धर्म अपने मत की शेखी नहीं बघार सकता। यह बात सर्वथा सही है। इसी के साथ इस लेख को विराम देते हैं। ओ३म् शम्।
-मनमोहन कुमार आर्य

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