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आपको ले चलते हैं वैभवशाली प्राचीन मंदिरों के दर्शन के लिए पत्तदकल

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13 Jul 20
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आपको ले चलते हैं वैभवशाली प्राचीन मंदिरों के दर्शन के लिए पत्तदकल

 कारीगरी में बेमिसाल प्राचीन मंदिर समूह को देखना हो तो आप को ले चलते हैं कर्नाटक राज्य के  खूबसूरत स्थान पत्तदकल। चालुक्य शासन काल के शासकों द्वारा 7 वीं-8 वीं शताब्दी में यहां तराशे गए वैभवशाली मंदिर कर्नाटक राज्य की वास्तु कला का उदय और स्वर्ण काल कहा जाता है। राज्य के बागलकोट जिले में  मालयप्रभा नदी के उत्तर की ओर स्थित पत्तदकल के 65 हेक्टेयर क्षेत्रफल में छोटे-बड़े करीब 150 मंदिर देखने को मिलते हैं, जिन्हें  घेरे हुए ढेरों चैत्य, पूजा स्थल एवं अपूर्ण शिलाएं दिखाई देती हैं। जिनमें से शिल्प और वास्तुकला में अद्भुत 10 मंदिरों की निर्माण शैली की श्रेष्ठता की वजह से इन्हें 1987 ई. में यूनेस्को की विश्व विरासत में शामिल कर इनके महत्व को दुनिया के सामने प्रकाशमान किया। इनकी प्रमुख विशेषता थी स्थापत्य के क्षेत्र में बेसर शैली का उदय। इस शैली का उदय उत्तर भारत की नागर शैली और दक्षिण भारत की द्रविड़ शैली के मिश्रित निर्माण से हुआ। यह मंदिरों के वास्तुकला के विकास का अनूठा प्रयोग था। भारत में यह वास्तु शैली केवल पत्तदकल के मंदिरों में ही देखी जा सकती हैं। विशेषता यह भी है कि सभी मंदिर अलग-अलग देवताओं के न होकर केवल भगवान शिव को ही समर्पित हैं।  यहां का पूरा परिवेश नदी, पहाड़ और बड़े-बड़े हरे भरे लॉन होने से प्राकृतिक आभा से अत्यंत लुभाना है।

       पत्तदकल के मंदिर शासकों की धर्म के प्रति रुचि और उनके धार्मिक विचारों का प्रतिबिंब हैं। उन्होंने किलेबंदी निर्माण के विपरीत अपनी धनदौलत का उपयोग मंदिरों का निर्माण करा कर ईश्वरीय वंदना और धर्म  के विकास में किया । चालुक्य वंश के राजा विक्रमादित्य प्रथम ने 659 ई. में शैव मत अपना लिया तब से  इस वंश के आगे के शासक  भी शैव धर्म के पाशुपत मत के अनुयायी बन गए जो शारीरिक रूप से शक्ति शाली बने रहने की कामना के लिए आलोकिक क्रियाकलापों को महत्व प्रदान कर आलौकिक शक्ति की उपासना करते थे। इससे पूर्व 650 ई. तक के चालुक्य राजा वैष्णव मत को मान कर विष्णु को आराध्य मानते थे।
         बताया जाता है यहां एक शिला पर पट्टाडाकिसोबुलाल नामक राजा का राज्याभिषेक किया गया था और तब से ही इस स्थान का नाम पत्तदकल पड़ गया। मध्यकाल में चालुक्यों की राजधानी यहां से 22 किलोमीटर दूर बादामी में थी और पत्तदकल सांस्कृतिक राजधानी थी। यहाँ राज्याभिषेक एवं सांस्कृतिक कार्यक्रम किये जाते थे। मालप्रभा नदी यहाँ से उत्तर की और मुड़ती है। इसे शुभ मानकर यहाँ मंदिरों का निर्माण कराया गया। मंदिरों के उत्तर में ही छोटी सी जगह पत्तदकल मध्य काल में एक समृद्ध नगर था। इस का प्राचीन नाम किसुअडल बताया जाता है। इसका अर्थ था लाल शहर। चूंकि यहाँ आस-पास लाल -पीले पत्थरों के बड़े-बड़े पहाड़ हैं, शायद इसी लिए इस का नाम लाल शहर अर्थात किसुअडल था। अट्ठारवीं शताब्दी के ग्रन्थों में इसका नाम पत्तदकल मिलता है। बादामी को मंदिरों की वजह से वास्तुकला का महाविद्यालय एवं पत्तदकल को विश्वविद्यालय की उपाधि प्रदान की गई है।
 मणी माला का मोती
       पत्तदकल मंदिर समूह के प्रमुख 10 मंदिरों में  मल्लिकार्जुन एवं विरुपाक्ष मंदिरों को विक्रमादित्य द्वितीय की दो रानियों ने पल्लवों पर चालुक्यों की विजय के फलस्वरूप बनवाया था। विरुपाक्ष मंदिर इस समूह में वास्तुकला की दृष्टि से श्रेष्ठ और आदर्श प्रतीक है। रानी लोक महादेवी द्वारा बनवाये गए इस मंदिर का विशाल प्रवेश द्वार और वृहद क्षेत्र है। अनेक शिलालेखों युक्त मंदिर का निर्माण एलोरा के कैलाश मंदिर के समान कलात्मक रूप से करवाया गया है। 
        विरुपाक्ष मंदिर पत्तदकल मंदिर समूह में बृहद क्षेत्र में विशाल मंदिर है जो मंदिरों की मणी माला का प्रमुख मोती है । यह मंदिर विरुपक्ष एवं उनकी पत्नी देवी पम्पा को समर्पित है।  विरुपक्ष भगवान शिव का ही एक स्वरूप है। यहां आज भी शिव की पूजा की जाती है। इस मंदिर को विरूपक्ष विक्रमादित्य द्वितीय की रानी लोकमहादेवी ने 745 ई. में कांचीपुरम पल्लवों के राज्य की विजय के उपलक्ष्य में बनवाया था। मंदिर नो स्तरों में बना है एवं जिसका गोपुरम आधार से 50 मीटर ऊँचा है। द्रविड़ शैली में निर्मित मंदिर अत्यंत कारीगरी पूर्ण है। मंदिर का वास्तुशिल्प कांची एवं राष्ट्रकूट के एलोरा के कैलाशनाथ मंदिरों से काफी समानता रखता है। मंदिर की शिल्पकृतियों में लिंगोद्भव, नटराज, रावनानुग्रह एवं  उग्रनृसिंह प्रमुख हैं। त्रिपुरारी,वराह,त्रिविक्रम, छत पर की गई शिल्पकारी,रामायण,महाभारत,भगवत गीता एवं पंच तंत्र के कुछ कथानकों का शिल्पांकन भी देखते ही बनता हैं। मल्लिकार्जुन मंदिर की बनावट भी विरुपाक्ष मंदिर से मिलती-जुलती है। इसके समीप एक प्राचीन गौरी मंदिर भी दर्शनीय है।
अन्य मंदिर
        यहाँ मंदिर समूह में चार द्रविड़ शैली, चार नागर शैली और एक मिश्रित शैली के मंदिर हैं। विरुपाक्ष,मल्लिकार्जुन,संगमेश्वर एवं गलगनाथ श्रेष्ठ चालुक्य वास्तु कला के प्रमुख मंदिर हैं। विजयादित्य द्वारा 697 से 733 ई. के मध्य बनवाया गया संगमेश्वर यहाँ बने मंदिरों में सब से प्राचीन मंदिर है। गलगनाथ पिरामिड आकर में बनाया इस काल का आखिरी मंदिर माना जाता है जो बहुत सुंदर होने से सैलानियों को खूब पसंद आता हैं। इसमें शिव को अन्धकासुर का मर्दन करते हुए दिखाया गया है और मंदिर के हाल में विशाल शिवलिंग बनाया गया है। 
         कदासिधेश्वर मंदिर चौकोर आकर के गर्भगृह के आसपास बना है। इसकी बाहरी दीवारों पर अर्धनारीश्वर की प्रतिमाएं बनाई गई हैं तथा शिव,नन्दी एवं पार्वती का अंकन भी किया गया हैं। जम्बू लिंगेश्वर मंदिर वर्गाकार गर्भगृह में पीठ पर शिवलिंग स्थित है। गर्भगृह के सामने अंतराल और मंडप बनाये गये हैं। इस मंदिर को भी दर्शक रुचिपूर्वक देखते हैं और काफी पसंद करते हैं। चंद्रशेखर मंदिर के गर्भगृह में शिवलिंग एवं एक बंद हाल है। इसकी छत का समतल होना इसका आकर्षण है। मंदिर की दीवारें और स्तम्भों पर की गई शिल्पकारी लुभावनी है। विरुपाक्ष मंदिर के दक्षिण में स्थित पापनाथ मंदिर की विशेषता उसकी छत के मध्य वाले भाग में शिव नटराज की सज्जा और बेसरा शैली में बना होना है।पहले यह नागर शैली में बनना शुरू हुआ और बाद में द्रविड़ शैली में बदल गया। मिश्रित शैली को ही वेसरा शैली कहा गया। मंडप लंबाई में है जिसमें एक मंडप में 16 और दूसरे मंडप में 4 स्तम्भ हैं। मंदिर में रामायण और महाभारत के कथानकों का अंकन किया गया है। काशी विशवनाथ का गर्भगृह वर्गाकार है। यह भी प्राचीन मंदिरों में एक है। परिसर में एक तिमंजिला जैन नारायण नामक जैन मंदिर भी है। यह मंदिर भी यहाँ आने वालों के आकर्षण का केंद्र है। 
        यहाँ कई स्मारकों में शिलालेख भी देखे जा सकते हैं। बहुत  शिल्प अवशेषों को यहाँ एक संग्रहालय का निर्माण कर प्रदर्शित किया गया हैं। वर्ष के प्रारंभिक त्रैमास में  संगीत एवं नृत्य का उत्सव " चालुक्य उत्सव" के नाम से पत्तदकल के साथ-साथ ऐहोल एवं बादामी में आयोजित किया जाता है। 
       पत्तदकल एवं ऐहोल से 10 किलोमीटर कर्नाटक राजमार्ग-14 पर बादामी से 22 किलामीटर ,गोवा से 265 किमी., बेलगाम से 165 किमी. दूरी पर है। निकटतम हवाई अड्डा बेंगलुरु एवं रेलवे स्टेशन बादामी है। बेंगलुरु से यह 514 किमी.दूरी पर स्थित है। यहाँ से रेल अथवा बस द्वारा पत्तदकल पहुँचा जा सकता है।

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