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“ईश्वर और वेद ही संसार में सच्चे अमृत हैं”

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04 Jul 20
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“ईश्वर और वेद ही संसार में सच्चे अमृत हैं”

संसार में तीन सनातन, अनादि, अविनाशी, नित्य व अमर सत्तायें हैं। यह हैं ईश्वर, जीव और प्रकृति। अमृत उसे कहते हैं जिसकी मृत्यु न हो तथा जिसमें दुःख लेशमात्र न हों और आनन्द भरपूर हो। ईश्वर अजन्मा अर्थात् जन्म-मरण धर्म से रहित है। अतः ईश्वर मृत्यु के बन्धन से मुक्त होने के कारण अमृत है। ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरूप होने से सदैव आनन्द से पूर्ण रहता है। प्रकृति में विकार होकर कार्य सृष्टि का निर्माण होता है और इसकी समयावधि पूर्ण होने पर यह प्रलय को प्राप्त हो जाती है। प्रकृति जड़ होने के कारण इस पर अमृत और विकारों का सुख व दुःखरूपी प्रभाव नहीं होता। जीवात्मा अनादि, अनन्त, अविनाशी, अमर, अजर, नित्य, जन्म-मरण धर्मा, पाप-पुण्य कर्मों का कर्ता और कर्मों के कारण बन्धनों में फंसता है। बन्धनों में फंसा तथा सुख-दुःखों को भोगने वाला जीवात्मा तब तक अमृत नहीं कहला सकता जब तक कि इसका जन्म व मरण का बन्धन दीर्घकाल की अवधि के लिये भंग न हो। क्या ऐसा हो सकता है? इसका उत्तर है कि यह अवश्य हो सकता है। इस विषय को वैदिक धर्म विषयक प्रामाणिक शास्त्रों एवं सत्यार्थप्रकाश आदि ग्रन्थों को पढ़ कर जाना जा सकता है। सिद्धान्त है कि मनुष्य के जन्म का कारण उसके पूर्वजन्मों के कर्म होते हैं। उन कर्मों को पाप व पुण्य के भेद तथा पुण्यों की अधिकता होने पर जीवात्मा को मनुष्य का जन्म मिलता है। यदि पाप कर्मों को न किया जाये, पुण्य कर्मों को निष्काम भाव से किया जाये और वेद के अनुसार सदाचरण से युक्त जीवन व्यतीत करने सहित वेदविहित पंचमहायज्ञ कर्मों व मोक्ष प्राप्ति के साधक कर्मों को किया जाये तो इससे मनुष्य को जन्म-मरण से छूट मिल सकती है। शास्त्रीय विधान के अनुसार मनुष्य 31 नील 10 खरब 40 अरब वर्षों तक की अवधि के लिए जन्म मरण से मुक्त हो जाता है। यह कथन हमारे ईश्वर, धर्म तथा वेद मर्मज्ञ ऋषियों का है जिन्हें यह योग्यता प्राप्त होती है कि वह ईश्वर के सान्निध्य से तथा ईश्वर के साक्षात्कारपूर्वक किसी भी विषय को यथार्थ रूप में जान सकते हैं। ऋषियों के कहे वचनों में सन्देह का कोई कारण नहीं होता। ऋषि दयानन्द ने इसमें यह भी जोड़ा है कि ऋषियों के वेदानुकूल वचन ही प्रमाण होते हैं। मोक्ष व मोक्षावधि विषय में ऋषि वचनों का वेदों से विरोध न होने पर इन्हें प्रमाण स्वीकार करना ही उचित है।

 

                इस आधार पर मनुष्य का आत्मा वेदविहित सद्कर्मों सहित अमृतमय ज्ञान को प्राप्त कर मोक्ष रूप अमृत को प्राप्त हो सकता है। अमृत वा मोक्ष की प्राप्ति विषयक ज्ञान ही चार वेद व वेदानुकूल उपनिषद, दर्शन, मनुस्मृति, रामायण एवं महाभारत ग्रन्थों की सद्शिक्षायें हैं। संसार में प्रचलित मत-मतान्तरों ने वेद की शिक्षाओं व मान्यताओं में भ्रम फैलाये हुए हैं। वह वेद को अपनी अज्ञानता तथा अपने हितों के विरुद्ध होने से ईश्वरीय ज्ञान स्वीकार नहीं करते। वेद परमात्मा का सृष्टि के आरम्भ में दिया गया ज्ञान है। वेद की सभी शिक्षायें व मान्यतायें सर्वव्यापक एवं सर्वशक्तिमान ईश्वर प्रदत्त होने के कारण शत-प्रतिशत सत्य हैं। कोई भी ज्ञानी, अनुभवी, विशेषज्ञ मनुष्य व महापुरुष किसी धार्मिक व सांसारिक विषय पर दूसरों को जो जानकारी व ज्ञान देता है वह उसके अनुभव व विवेक पर आधारित होने के कारण प्रायः सत्य ही हुआ करता है। ईश्वर ने प्रकृति के सूक्ष्म कणों से इस सृष्टि को बनाया है। यह सूर्य, चन्द्र, पृथिवी, पृथिवीस्थ सभी अपौरुषेय पदार्थ ईश्वर द्वारा ही उत्पन्न व निर्मित किये गये हैं। उसी ईश्वर ने इस सृष्टि में मनुष्य आदि सभी प्राणियों योनियों सहित सभी ओषधियों, वनस्पतियों, कन्द, मूल, फल, गोदुग्ध तथा सभी प्रकार के अन्न व इतर पदार्थ बनाये हैं। उसके ज्ञान का विपरीत व अनर्थक होने का प्रश्न ही नहीं होता। अतः साक्षात्कृत धर्मा वेदों के ऋषियों ने अपनी योग एवं विवेक बुद्धि से वेदों की सत्यता की परीक्षा करने के बाद वेदों को ईश्वर ज्ञान घोषित किया, वह सत्य व उपयोगी होने से सबके लिए सर्वथा ग्राह्य एवं उपादेय है।

 

                उन्नीसवीं शताब्दी में ऋषि दयानन्द ने परीक्षापूर्वक वेदाध्ययन कर वेदों के ईश्वरीय ज्ञान एवं सर्वांश में सत्य होने की घोषणा की थी। उन्होंने नियम दिया है ‘वेद सब सत्य विद्याओं का पुस्तक है। वेद का पढ़ना-पढ़ाना और सुनना-सुनाना सब आर्यों (सभी मनुष्यों) का परमधर्म है।’ संसार में ईश्वर एक है तो उसका ज्ञान एवं शिक्षायें भी एक व एक समान होंगी। उनमें कहीं परस्पर विरोध नहीं हो सकता। वह प्राणियों में भेदभाव नहीं कर सकती। जिस किसी ग्रन्थ में सृष्टि के नियमों के विरुद्ध ज्ञान है वह ईश्वरीय ग्रन्थ कदापि नहीं हो सकते। पृथिवी गोल है। जिन ग्रन्थों में पृथिवी के गोल न होने विषयक कथन हों, वह कैसे अपनी पुस्तक को ईश्वर का ज्ञान कह सकते हैं? वैदिक विद्वानों ने सभी मत-पन्थों के ग्रन्थों को देखा है और निष्पक्ष आधार पर निश्चित किया है कि वेद ही एकमात्र ईश्वरीय ज्ञान है। इस विषयक अनेक विद्वानों के तर्क एवं प्रमाणों से युक्त लघु ग्रन्थ आर्यसमाज में उपलब्ध हैं जिससे सभी लोग लाभ उठा सकते हैं और उन्हें पढ़कर स्वयं सत्यासत्य का निर्णय कर सकते हैं अथवा वैदिक विद्वानों से शंका समाधान कर सकते हैं। आर्यसमाज के संस्थापक ऋषि दयानन्द ने स्वयं ही इस विषय पर विचार किया और वेदों को ईश्वरीय ज्ञान सिद्ध किया है। उन्होंने मत-पन्थों के विषय में लिखा है कि उनमें जो कुछ सत्य बातें हैं वह वेदों के सबसे प्राचीन होने के कारण वेदों से उनमें गई हैं और मत-मतान्तरों के ग्रन्थों में जो असत्य व सृष्टि नियमों के विरुद्ध बातें हैं वह उनकी अपनी हैं। वैज्ञानिक जगत में देखा जाता है कि कोई वैज्ञानिक कुछ नई बात कहता है तो पूरे विश्व के वैज्ञानिक उस पर विचार करते हैं और परीक्षा करने पर यदि वह सत्य पाई जाती है तो उसे विश्वस्तर पर स्वीकार कर लेते हैं। धार्मिक व सम्प्रदायवादियों में इसके विपरीत सभी अपनी अपनी पुस्तकें जो मध्यकाल के अन्धकार के दिनों में लिखी गईं थी, उन्हीं पर विश्वास करते हैं। किसी मत ने आज तक उनकी किसी मान्यता व वाक्यों में अर्ध विराम या पूर्ण विराम जैसा परिवर्तन व संशोधन नहीं किया है। इसकी कभी आवश्यकता भी अनुभव नहीं की गई। इसी से मत-मतान्तरों के ज्ञान के स्तर का अनुमान किया जा सकता है।

 

                हमने ईश्वर व वेद सहित जीवात्मा की चर्चा लेख की उपर्युक्त पंक्तियों में की है। ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरूप तथा सर्वज्ञ होने से सदैव अमृतस्वरूप है। वह कभी जन्म नहीं लेता, अज्ञान में नहीं फंसता, वह सदैव आनन्दमय रहता है, इस आधार पर वह अमृत सिद्ध होता है। ईश्वर सर्वज्ञ है और उसका दिया हुआ वेदज्ञान भी सर्वज्ञता के गुणों से पूरित है। वेदों में ऐसे अनेक विषय हैं जिन पर सृष्टि के आदिकाल में मनुष्य स्वप्रयत्नों से ज्ञान अर्जित नहीं कर सकता था। अनेक सत्य रहस्यों से युक्त वह वेदज्ञान मनुष्यात्मा को अमृत प्राप्त कराने वाला अमृतमय ज्ञान है। यदि वेद न होता तो संसार को ईश्वर, आत्मा और प्रकृति सहित कार्य प्रकृति वा सृष्टि विषय का जो ज्ञान आज वेद, उपनषिदों एवं दर्शन आदि ग्रन्थों के माध्यम से प्राप्त है, वह कदापि न होता। अतः ईश्वर के समान उसका ज्ञान वेद भी अमृतमय व जीवात्माओं को अमृतमय मोक्ष को प्राप्त कराने वाला ज्ञान सिद्ध होता है। हमारे इन विचारों को अधिक गहराई से यदि समझना हो तो ऋषि दयानन्द कृत सत्यार्थप्रकाश एवं इतर प्राचीन उपनिषद एवं दर्शन आदि साहित्य को पढ़ना समीचीन है। वेदों ने कहा है कि ज्ञान से मुक्ति होती है। वेद ही वस्तुतः इस सिद्धान्त को पुष्ट करता है। अमृत व मोक्ष समानार्थक शब्द है। अमृत किसी ऐसे द्रव का नाम नहीं जिसे पीने मात्र से मनुष्य जन्म-मरण के बन्धनों से मुक्त होकर मोक्षावस्था को प्राप्त हो जाये। यह कल्पना ही कहा जा सकता है। जहां न भय है न शोक, न दुःख है न चिन्ता और जहां हर पल व हर क्षण ईश्वर के आनन्दमय स्वरूप को प्राप्त होकर जीवात्मा आनन्द का अनुभव करता है वही सद्ज्ञान व सद्कर्म ही अमृत हैं। इससे ईश्वर व वेद अमृत सिद्ध होते हैं।

 

                वह मनुष्य भाग्यशाली है जिसने वेदों व वैदिक शिक्षाओं का अध्ययन कर ईश्वर के सत्यस्वरूप को प्राप्त कर लिया है। ऐसा करने से अल्पज्ञ, एकदेशी, ससीम, जन्म-मरण धर्मा, पाप-पुण्य कर्मों में फंसा हुआ जीवात्मा भी जन्म व मृत्यु के दुःखों से बचकर अमृतमय मोक्ष को प्राप्त होता है। यजुर्वेद के चालीसवें अध्याय के 14हवें मन्त्र में परमात्मा ने उपदेश करते हुए विद्या से अमृत वा मोक्ष की प्राप्ति बताई है। यही मनुष्य जीवन का अन्तिम लक्ष्य है। मन्त्र है ‘विद्यां चाविद्यां च यस्तद्वेदोभयं सह। अविद्यया मृत्युं तीत्र्वा विद्ययाऽमृतमश्नुते।।’ इस मन्त्र का ऋषि दयानन्द कृत मन्त्रार्थ है ‘जो विद्वान् विद्या और उसके सम्बन्धी साधन-उपसाधनों पूर्व (मन्त्रों में) कही अविद्या और इसके उपयोगी साधनासमूह को और उस ध्यानगम्य मर्म इन दोनों को साथ ही जानता है वह शरीरादि जड़ पदार्थ समूह से किये पुरुषार्थ से मरण दुःख के भय को उल्लंघन कर आत्मा और शुद्ध अन्तःकरण के संयोग में जो धर्म उससे उत्पन्न हुए यथार्थ दर्शनरूप विद्या से (अमृतम्) नाशरहित अपने स्वरूप या परमात्मा को (अश्नुते) प्राप्त होता है।’

 

                ईश्वर और वेद ही संसार में मनुष्यों के लिए अमृत तुल्य है। इनका सेवन करने से मनुष्य अमृत अर्थात् मोक्ष को प्राप्त होकर मोक्षावधि तक आनन्द में विचरण करता है। उसको किंचित भी दुःख नहीं होता। यही सभी जीवात्माओं के लिये प्राप्तव्य है। इसे प्राप्त करने का वेदमार्ग के अतिरिक्त कोई मार्ग नहीं है। मोक्ष के इच्छुक साधकों को मोक्ष प्राप्ति वा दुःखों की निवृत्ति के लिये वेदों की शरण में आना ही होगा। ओ३म् शम्।

-मनमोहन कुमार आर्य

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