GMCH STORIES

“महाभारत के बाद वेदों के विलुप्त होने से मनुष्यमात्र की हानि हुई”

( Read 5356 Times)

17 Jun 19
Share |
Print This Page
“महाभारत के बाद वेदों के विलुप्त होने से मनुष्यमात्र की हानि हुई”

सृष्टि के आरम्भ से महाभारत काल तक समूचे विश्व में वेद और ऋषि परम्परा अपने पूरे प्रभावशाली रूप से प्रचलित रही। महाभारत का युद्ध महाविनाशकारी सिद्ध हुआ। इसका सबसे बुरा प्रभाव यह हुआ कि इसके बाद वेदों का पठन-पाठन, वेदों का प्रचार एवं प्रशिक्षण समाप्त हो गया। ईश्वरोपासना एवं अग्निहोत्र आदि धर्म कार्यों में उस समय के कुछ प्रभावशाली अल्पज्ञानी ब्राह्मण लोग निर्णय करने लगे जिसका परिणाम यज्ञों में हिंसा व वेद विरुद्ध कार्यों व कर्मकाण्डों का प्रचलन होना हुआ। यज्ञों में की जानी वाली हिंसा का दुष्परिणाम यह हुआ कि भावी अहिंसा के पुजारी विद्वानों ने यज्ञों की इस हिंसा का सुधार न करके इसके विरुद्ध मतों की स्थापना की। महात्मा बुद्ध ने भी यज्ञों की हिंसा का विरोध किया था और कालान्तर में उनके शिष्यों द्वारा एक नास्तिक मत बौद्ध मत का प्रादुर्भाव हुआ। जैनमत का मुख्य आधार भी अहिंसा है। इस मत के आचार्यों व अनुयायियों ने भी यज्ञों की हिंसा को पसन्द नहीं किया और यज्ञों के पोषक वेदमत का त्याग किया और और अनेक वेदविरुद्ध मान्यताओं पर आधारित जैनमत का प्रचार व प्रसार किया। कालान्तर में स्वामी शंकराचार्य जी का आविर्भाव हुआ जो वैदिक ज्ञान व विद्या में उच्च कोटि ज्ञान व शास्त्रार्थ कौशल में निपुण थे। उन्होंने शास्त्रार्थ करके इन नास्तिक मतों को असत्य व अव्यवहारिक सिद्ध किया जिससे भारत में लगभग ढाई हजार पूर्व पुनः वैदिक आस्तिक मत का प्रचार हुआ। दुर्भाग्य से स्वामी शंकराचार्य जी के एक जैनी शिष्य ने उन्हें धोखे से विषपान कराकर युवावस्था में ही उनका जीवन समाप्त कर दिया। शंकराचार्य जी के बाद पुनः अवैदिक विचारों का प्रचार प्रसार होने लगा। स्वामी शंकराचार्य जी के मत में भी वेद से प्रतिकूल मान्यतायें विद्यमान थीं। इस प्रकार महाभारत काल से आरम्भ हुई वेदज्ञान के प्रचार-प्रसार की अवनति में वृद्धि होती गयी और अवैदिक मत अस्तित्व में आने लगे।

शंकराचार्य जी के देहावसान के कुछ काल बाद पुराणों का काल आया जब कुछ संस्कृत भाषा पर अधिकार रखने वाले तथा वेदों के यथार्थ स्वरूप से अनभिज्ञ लोगों ने वेदविरुद्ध व सत्यज्ञान के विरुद्ध पुराणों की रचना की। पं0 मनसाराम वैदिकतोप जी एवं अन्य अनेक आर्य वैदिक विद्वानों ने इस तथ्य को अपने ग्रन्थों में स्पष्ट किया है। इन 18 पुराणों के रचनाकारों ने अपने ग्रन्थों की सामग्री को कहा से प्राप्त किया, इस पर प्रकाश नहीं पड़ता। पुराणों को निष्पक्ष होकर पढ़ने से इसके अनेक स्थल अनैतिहासिक, काल्पनिक एवं अविश्वनीय प्रतीत होते हैं जो प्रत्यक्षतः ईश्वरीय ज्ञान वेदों से विरुद्ध हैं। ऐसा लगता है कि इनके रचनाकारों ने अपनी विचारधारा व मान्यताओं के अनुसार अध्यात्म एवं इतिहास के तथ्यों को कथाओं आदि के द्वारा अतिरंचित रूप से प्रस्तुत किया है। महर्षि दयानन्द सरस्वती जी के अनुसार यह सभी ग्रन्थ संसार में अविद्या के प्रसार में कारण रहे हैं। इन सब कारणों से ही देश और संसार में सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकार, सर्वशक्तिमान, सर्वज्ञ, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी परमात्मा की योग विधि से अपनी आत्मा में ध्यान, गुण-चिन्तन व जप आदि द्वारा की जाने वाली उपासना छूट गई और उसके स्थान पर भांति भांति की मूर्तिपूजा, फलित ज्योतिष, अवतारवार की कल्पना, मृतक श्राद्ध, जन्मना जातिवाद और नाना प्रकार के मिथ्या कर्मकाण्ड प्रचलित हुए जिससे संसार के लोगों सहित प्राणी मात्र की भारी हानि हुई है। समय के साथ साथ मत-मतान्तरों के अन्धविश्वास, पाखण्ड, कुरीतियां, पक्षपात, अन्याय, अव्यवस्था आदि बढ़ते ही गये। विवेचन के आधार पर कहा जा सकता है कि यदि महाभारत का युद्ध किसी प्रकार टल जाता या न हुआ होता तो मानवमात्र सहित प्राणीमात्र का जो अहित वेद विद्या, वैदिक धर्म एवं सत्य वैदिक शिक्षाओं एवं सिद्धान्तों के प्रचार न होने से हुआ हैख् वह न होता और आज का युग पूरे विश्व में एक मत, एक भाव, परस्पर का सहयोग एवं सबकी सबके द्वारा उन्नति व सुखों में वृद्धि के रुप में व्यतीत हो रहा होता। आज संसार में जितने भी मत-मतान्तर एवं इनके आपसी झगड़े हैं, इनका कारण व आधार महाभारत युद्ध के बाद वेदों के विलुप्त होने व सत्य वैदिक शिक्षाओं के प्रचार व प्रसार के न होने से उत्पन्न अज्ञान में हुई वृद्धि ही है। ऋषि दयानन्द के साहित्य को पढ़ने पर उनका यही मत सम्मुख आता है।

वैदिक धर्म में कहा गया है कि धर्म वह है जिससे मनुष्य का अभ्युदय हो और मरने के बाद निःश्रेयस अर्थात् मोक्ष की प्राप्ति हो। क्या सभी धर्म वा मत-मतान्तर इस मान्यता को स्वीकार करते हैं। हमें लगता है कि मत-मतान्तरों के लोग तो अभ्युदय का सही अर्थ भी शायद नहीं जानते और निःश्रेयस से तो वैदिक धर्मियों के अतिरिक्त सभी लोग अनभिज्ञ हैं। मनुष्य का अभ्युदय तब होता है जब वह आध्यात्मिक उन्नति के साथ सद्कर्मों द्वारा पुरुषार्थ से भौतिक उन्नति को भी प्राप्त हो। इतिहास में राम, कृष्ण, दयानन्द जी सहित अनेक उदाहरण हमें मिलते हैं। यह सभी महान पुरुष आध्यात्मिक उन्नति में शिखर पर थे। ऐसे मनुष्य देश व समाज में उत्पन्न होने ही बन्द हो गये हैं। देश व समाज की उन्नति तभी कही जायेगी जब हमारे समाज में राम, कृष्ण व दयानन्द जैसे ईश्वर भक्त, देश भक्त, धर्मधुरन्धर तथा आध्यात्मिक एवं भौतिक विद्याओ ंसे सम्पन्न ऋषि-मुनि व मनुष्य उत्पन्न हों व विद्यमान हों। हमारा यह भी दुर्भाग्य है कि आज का शिक्षित समाज पतंजलि, कपिल, कणाद, गौतम, बादरायण व्यास और जैमिनी आदि ऋषियों के नामों से परिचित नहीं है। इन ऋषियों के द्वारा रचित 6 दर्शन ग्रन्थों के अध्ययन की बात तो बहुत दूर है। यदि हमारे आज के शिक्षित बन्धु इन 6 दर्शनों के हिन्दी भाष्यों को भी पढ़ले तो उन्हें ऋषियों के ज्ञान व जीवनशैली का भलीप्रकार से ज्ञान हो सकता है। हम समझते हैं कि कोई भी जीवन शैली वैदिक जीवन शैली जो दर्शन ग्रन्थों के ज्ञान से पुष्ट हो, अच्छी नहीं हो सकती।

वर्तमान में पाश्चात्य जीवन शैली को कुछ लोग अच्छा कह सकते हैं। निःसन्देह इस जीवन शैली की कुछ बातें अच्छी हो सकती हैं। विडम्बना यह है कि इस जीवन शैली के लोगों को अपने भविष्य व परजन्म के विषय में किंचित भी ज्ञान नहीं है। जिस प्रकार हमारा यह जन्म हुआ है और कुछ समय बाद मृत्यु निश्चित है, इसी प्रकार मृत्यु के बाद हमारी नित्य व अमर आत्मा का पुनर्जन्म होना सुनिश्चित है। मृत्यु के बाद होने वाले पुनर्जन्म का आधार हमारे इस जन्म के कर्म, कार्य व व्यवहार होंगे। यदि हमने ईश्वर की आज्ञा का पालन किया होगा तो हमारा पुनर्जन्म सुखी व उन्नति को प्राप्त होगा। ऋषियों ने विश्लेषण करके बताया है कि परमात्मा हमें मनुष्य आदि जन्म पूर्व जन्म के पाप-पुण्यों व उनसे बने प्रारब्ध के आधार पर हमारी जन्म-योनि वा जाति, आयु और सुख-दुःखादि का भोग निर्धारित कर देते हैं। पाश्चात्य जीवन शैली में परमात्मा के स्वरूप व उसकी वेद की आज्ञाओं को जानने व समझने के प्रति उपेक्षा बरती जाती है। इस कारण पाश्चात्य जीवन शैली को आदर्श नहीं कहा जा सकता। इसी कारण हमारे देश के विज्ञ व विप्र बन्धु वेदाध्ययन कर ईश्वरापासना तथा दैनिक यज्ञ-अग्निहोत्र आदि करते हुए जीवन में परोपकार, दान, परसेवा आदि के कार्यों में जीवन बिताते हैं। इस जीवन शैली को किसी के द्वारा बुरा भी नहीं कहा जाता क्योंकि जब किसी से चर्चा की जाती है तो वह इन बातों को न समझने के कारण उपेक्षा भाव बरतता है। वेदाध्यायी सभी लोग आश्वस्त हैं कि ईश्वरोपासना से आनन्द एवं सुखों में वृद्धि होती है। मनुष्य का आचरण व व्यवहार सत्य व पक्षपातरहित होने के कारण वह निश्चिन्त जीवन व्यतीत करता है। अतः वेद की मान्यताओं के अनुसार जीवन व्यतीत करना ही श्रेष्ठ सिद्ध होता है।

वर्तमान समय आधुनिक युग है जो भौतिक ज्ञान व विज्ञान की उन्नति में दिन प्रतिदिन नई ऊंचाईयां प्राप्त कर रहा है। इतनी उन्नति होने पर भी आज का समृद्ध व शिक्षित मनुष्य सुखी नहीं है। वह अनेक प्रकार के रोगों व असिद्ध सुखों के प्राप्त न होने के कारण से दुःखी रहता है। आवश्यकता है कि आज हम अपने सभी पूर्वाग्रहों को त्याग दें और सत्य के आधार पर अपने जीवन को बनायें व चलायें। तर्क, युक्ति व प्रमाणों के आधार पर ईश्वर, आत्मा, उपासना, कर्म आदि का निश्चय कर सार्वदेशिक स्तर पर उसे सबके लिये अनिवार्य करें जिससे सभी विवाद व समस्यायें दूर होकर एक स्वर्णिम युग का सूत्रपात हो। हम पाश्चात्य देशों के लोगों से इस प्रकार के प्रस्ताव पर अनुकूल प्रतिक्रिया मिलने की आशा कर सकते हैं। जिन लोगों का अंधविश्वास युक्त धार्मिक कार्यों से स्वार्थ सिद्ध होता है, वह ऐसे किसी प्रस्ताव का कभी समर्थन नहीं कर सकते। ऋषि दयानन्द ने वैदिक मान्यताओं के प्रकाश तथा मत-मतान्तरों की अविद्यायुक्त बातों की विवेचना पर सत्यार्थप्रकाश नामक ग्रन्थ लिख कर इसी प्रकार का प्रस्ताव किया था कि सब लोग प्रीतिपूर्वक व धर्मानुसार सत्य व असत्य का निर्धारण कर सत्य को स्वीकार तथा असत्य का त्याग करें। ऋषि दयानन्द जी की यह बात आज भी समीचीन व उपयुक्त है। देश व समाज को ऋषि दयानन्द जी के विचारों का अध्ययन कर उनसे लाभ उठाना चाहिये। आज देश में जो नाना प्रकार की विचारधारायें हैं, जो मनुष्यों को आपस में बांटती हैं व जिनसे देश व समाज का अहित होता है, उनसे दूर होने के लिए समाज से जातिवाद व मत-मतान्तरों की दीवारों को गिराना होगा। ऐसा करके ही संसार में सभी लोगों को पूर्ण सुख सुलभ होगा अन्यथा सुखी व श्रेष्ठ विश्व की आशा नहीं की जा सकती। वर्तमान समय में जो धार्मिक एवं सामाजिक समस्यायें हैं, इसका कारण हमें महाभारत का युद्ध व उसके बाद की परिस्थितियां लगती हैं। ऐसा हम ऋषि दयानन्द के साहित्य के अध्ययन के आधार पर कहते हैं। ऋषि दयानन्द की स्मृति को सादर नमन। ओ३म् शम्।

 


Source :
This Article/News is also avaliable in following categories : Chintan
Your Comments ! Share Your Openion

You May Like