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“पुनर्जन्म का आधार ईश्वर-जीव-प्रकृति के नित्यत्व का सिद्धान्त”

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15 Jun 19
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“पुनर्जन्म का आधार ईश्वर-जीव-प्रकृति के नित्यत्व का सिद्धान्त”

वेदों ने विश्व को त्रैतवाद और ईश्वर-जीव-प्रकृति के नित्यत्व का सिद्धान्त दिया है। त्रैत में तीन सत्तायें ईश्वर, जीव व प्रकृति है जो अनादि व अविनाशी हैं। ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकार, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनन्त, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर,  अभय, नित्य, पवित्र होने सहित सर्वज्ञ, सृष्टि का रचयिता, सभी जीवों को उनके कर्मानुसार जन्म व सुख-दुःख प्रदान करने वाला, सृष्टि की आदि में चार ऋषियों को वेदों का ज्ञान देने वाला, वेदों के अनुसार आचरण और ईश्वरोपासना, अग्निहोत्र-यज्ञ व सद्कर्मों को करने वालों को सुख व मोक्ष प्रदान करने वाला है। ईश्वर नित्य होने से इसका न आदि है न अन्त। यह अनादि काल से विद्यमान वा सत्तावान है और अनन्तकाल तक अपने यथार्थ स्वरूप में बिना किसी विकार को प्राप्त हुए बना रहेगा। संसार में दूसरा नित्य पदार्थ जीवात्मा है। जीवात्मा भी सत्य व चेतन स्वरूप है। जीवात्मा का आकार एकदेशी तथा ससीम है। जीव की यह सत्ता भी अनादि, अविनाशी, अन्तहीन, अमर, अनन्त व जन्म-मरण धर्मा है। ईश्वर सर्वव्यापक एवं सर्वान्तर्यामी होने के साथ सर्वज्ञ है तो वहीं जीव एकदेशी एवं ससीम होने से अल्पज्ञ है। ईश्वर अपने स्वरूप में सदैव सर्वज्ञ एवं पूर्ण आनन्द को प्राप्त होकर जन्म व किसी भौतिक पदार्थ की अपेक्षा नहीं रखता। दूसरी ओर जीव अपनी स्वतन्त्र सत्ता में होकर भी जन्म धारण से पूर्व किसी भी प्रकार का सुख व दुःख अनुभव नहीं करता। उसे अपनी मृत्यु के बाद व जन्म से पूर्व किसी प्रकार का सुख-दुःख, पूर्वजन्म की स्मृतियां आदि नहीं होती न ही अपनी सत्ता की ही अनुभूति होती है। माता के गर्भ में जाने व वहां उसके शरीर का पूर्ण व आंशिक निर्माण होने पर ही वह माता की भावनाओं व विचारों को कुछ-कुछ अनुभव करता है। जन्म के बाद उत्तरोतर उसके शरीर का विकास होता है जिससे उसकी शारीरिक शक्तियों के विकास के साथ ज्ञान ग्रहण करने की क्षमता में भी वृद्धि होती है। इस प्रकार जीवात्मा का मनुष्य रूप में जन्म होकर वह शैशव, बाल, किशोर, युवा, प्रौढ़ व वृद्धावस्थाओं से गुजर का मृत्यु को प्राप्त होता है।

 

                संसार में तीसरी अविनाशी नित्य सत्ता का नाम ‘प्रकृति’ है। यह प्रकृति भी अपने मूल स्वरूप में अतिसूक्ष्म होती है। इसमें सत्व, रज और तम गुणों की साम्यावस्था होती है। जब सर्ग काल आता है तब परमात्मा पूरे ब्रह्माण्ड में फैली इस प्रकृति में हलचल व विकार उत्पन्न कर इससे महत्तत्व, अहंकार, पांच तन्मत्रायें, पंचमहाभूतो, जीवात्माओं के सूक्ष्म शरीर आदि की रचना कर प्राणियों के लिये व्यवहारयोग्य इस सृष्टि को अस्तित्व में लाता है। इसका उल्लेख वेद मन्त्रों में स्पष्टतः किया गया जिसका हम प्रतिदिन संन्ध्या के मन्त्रों में पाठ भी करते हैं। परमात्मा सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, सर्वज्ञ एवं सर्वशक्तिमान है, अतः उसे सृष्टि को उत्पन्न करने व इसका पालन व प्रलय करने में कुछ भी असहजता अनुभव नहीं होती। वह सहजता से ही इस पूरे ब्रह्माण्ड की रचना व इसका पालन व व्यवस्था आदि करता है। इस प्रकार सृष्टि की उत्पत्ति-पालन-प्रलय का क्रम चलता है और रात्रि के बाद दिन और दिन के बाद रात्रि की ही तरह सृष्टि-प्रलय-सृष्टि का क्रम भी अनादि काल से चला आ रहा है और अनन्त काल तक चलता रहेगा।

 

                सृष्टि के आरम्भ से महाभारत युद्ध तक के 1.96 अरब से अधिक वर्षों तक संसार में चार वेदों पर आधारित केवल वैदिक धर्म ही प्रचलित था। संसार के सभी लोग वेद की शिक्षाओं का पालन करते हुए सुखी रहते थे। लगभग पांच हजार वर्ष हुए, महाभारत युद्ध के बाद लोगों में आलस्य प्रमाद में वृद्धि हुई तथा उन्होंने वेद एवं विद्या के अन्य ग्रन्थों के अध्ययन में उदासीनता व शिथिलता का परिचय दिया जिसके परिणाम स्वरूप अहिंसायुक्त यज्ञों में पशुओं की हिंसा भी की जाने लगी। इससे अहिंसा की प्रवृत्ति के लोगों को बुरा लगा और उन्होंने इसका विरोध किया। कालान्तर में महात्मा बुद्ध हुए जिन्होंने यज्ञों में हिंसा का संगठित होकर विरोध किया और उनकी मृत्यु के बाद उनके अनुयायियों ने बौद्ध मत की स्थापना की। इसके बाद महावीर स्वामी के अनुयायियों ने जैनमत की स्थापना की। भारत से दूर लगभग चार हजार वर्ष पूर्व पारसी मत स्थापित हो चुका था। यह लोग अग्निहोत्र-यज्ञ की तरह अग्नि की पूजा करते थे। इस मत के बाद ईसाई व इस्लाम मतों की स्थापना वहां की देश, काल और परिस्थितियों के अनुसार हुई। यह सभी मत वेदों के सत्य ज्ञान से दूर थे। इन मतों का ईश्वर-प्रदत्त सत्य वैदिक मान्यताओं से विरोध इन मतों की पुस्तकों को देखकर लगाया जा सकता है जिसका दिग्दर्शन ऋषि दयानन्द सरस्वती जी ने अपने अमर व विख्यात ग्रन्थ ‘सत्यार्थप्रकाश’ में किया है।  बौद्ध व जैन मत पुनर्जन्म के वैदिक सिद्धान्त को मानते हैं। यह उनका अपना स्वनिर्मित नया सिद्धान्त नहीं है अपितु यह वेदों की परम्परा से चला आया सिद्धान्त है जिसे उन्होंने यथावत् स्वीकार किया है। ईसाई एवं इस्लाम मतों की स्थापना भारत भूमि से हजारों किमी0 दूरी पर हुई। ऐसा सम्भव हैं कि वहां लोगों को वेदों के अन्य सिद्धान्तों व मान्यताओं की तरह पुनर्जन्म का सिद्धान्त भी विस्मृत हो गया हो। जो भी कारण रहा हो, इन मतों में ईश्वर व जीवात्मा के अनादित्व एवं अविनाशी होने, सृष्टि की उत्पत्ति-पालन-प्रलय तथा यह प्रवाह से अनादि है, जीवात्मा अपने पूर्वजन्मों के कर्मां के अनुसार जन्म लेती और नये कर्मों को करके मृत्यु होने पर पुनर्जन्म लेकर सद्कर्मों को करके मोक्ष व जन्म-मरण के बन्धन में फंसती है, यह सिद्धान्त विस्मृत हो गये थे। यह भी बता दें कि वैदिक धर्म के सभी सिद्धान्त युक्ति व तर्कसंगत हैं तथा उसे अनेक उदाहरणों से सत्य सिद्ध किया जा सकता है। यही कारण था कि सृष्टि के आरम्भ से देश के ऋषियों व मनुष्यों ने वैदिक धर्म को ही अपनाये रखा और इसका प्रसार केवल आर्यावर्त्त में ही नहीं अपितु समस्त विश्व में था। प्रायः विश्व की सभी भाषाओं पर संस्कृत का प्रभाव भी दृष्टिगोचर होता है। इस विषय को जानने के लिये पं0 रघुनन्दन शर्मा की प्रसिद्ध पुस्तक ‘‘वैदिक सम्पत्ति” का अध्ययन किया जा सकता है। 

 

                मनुष्य व सभी प्राणी भौतिक शरीर एवं चेतन जीवात्मा का संयुक्त रूप हैं। मनुष्य का आत्मा अनादि व अविनाशी है। यह जन्म-मरण धर्मा है। जिस प्रकार जीवात्मा का इस बार माता-पिता के द्वारा जन्म हुआ है और इसकी मृत्यु होनी निश्चित है, उसी प्रकार इस जन्म से पूर्व भी इस जीवात्मा का अस्तित्व था। ईश्वर भी सत्तावान् था। माता-पिता भी नये-नये बनते जाते हैं। अतः यह जन्म उसी मृतक आत्मा का उसके उस जन्म वा पूर्वजन्मों के शुभाशुभ कर्मों के फल भोग के लिये ही हुआ होना निश्चित होता है। इसी प्रकार इस जन्म में जब इसकी मृत्यु होगी तो इसका आत्मा सूक्ष्म शरीर सहित भौतिक शरीर से पृथक हो जायेगा। इस अवस्था में आत्मा का क्या होगा? एक ही विकल्प है कि परमात्मा इस आत्मा को इसके सूक्ष्म शरीर सहित भावी युवा माता-पिता जो सन्तान चाहते हैं, उनको दे दे। ऐसा होना सम्भव है और यही सभी माताओं-पिताओं के साथ हो रहा है। मृत्यु के समय हम देखते हैं कि कोई मनुष्य स्वयं मरना नहीं चाहता परन्तु संसार में विद्यमान सर्वव्यापक व सर्वान्तर्यामी परमात्मा की सत्ता मृत्यु का समय आने पर उसकी आत्मा व प्राणों को किस सरलता से निकाल लेती है और इसका घर वालों को कुछ विशेष पता भी नहीं चलता। जीवात्मा और ईश्वर क्योंकि अनादि, अनुत्पन्न, नित्य, सदा रहने वाले हैं, इनका कभी नाश नहीं हो सकता, इनका अस्तित्व सदा बना रहना है, अतः आत्मा का जन्म होना जिसका आधार जीवात्मा के पूर्वजन्म के कर्म होते हैं, अवश्यम्भावी है। जो पुनर्जन्म को नहीं मानता उन बन्धुओं से हम पूछना चाहते हैं कि वह बतायें कि जन्म से पूर्व और मृत्यु के बाद जीवात्मा कहां किस रूप में रहता है? वह क्या करता है? पुनर्जन्म न मानने पर क्या ईश्वर पर आरोप नहीं आयेगा कि सर्वशक्तिमान होकर भी उसने जीवात्मा को उसके कर्मों के अनुसार जन्म क्यों नहीं दिया? इससे तो ईश्वर का मुख्य स्वभाव वा कर्तव्य यह कि जीवात्मा को कर्मानुसार जन्म व सुख-दुःख देना, भंग होने से ईश्वर भी ईश्वर नहीं रहेगा। अतः जीवात्मा के जन्म व मृत्यु का आधार उसका अनादि व अमर होना है और इसके साथ उसके पूर्वजन्म के कर्मों के आधार पर ही परमात्मा उसे मनुष्यादि योनि में जन्म, सुख व दुःख सहित मुक्ति आदि प्रदान करता है।

 

                हमारे बहुत से मित्र यह शंका करते हैं कि यदि पुनर्जन्म होता है तो हमें अपना पूर्वजन्म स्मरण क्यों नहीं है? इसका उत्तर है कि हमारे पूर्वजन्म का शरीर नष्ट हो चुका है जो इस जन्म में हमारी आत्मा के साथ नहीं है। मनुष्य का पुनर्जन्म, मनुष्य सहित पशु, पक्षी आदि योनियों में होता है व इन सभी योनियों में कर्मों का फल भोग कर प्राणी पुर्नजन्म में मनुष्य आदि अनेक योनियों में जन्म लेते हैं। शरीर व योनि बदल जाने, नौ-दस महीनों तक माता के गर्भ में रहने तथा जन्म के बात की नई-नई सहस्रों स्मृतियों के कारण पूर्वजन्म की स्मृतियां विस्मृत हो जाती है। योगदर्शन में एक सिद्धि का वर्णन आता है जिसके अनुसार मनुष्य समाधि को सिद्ध कर लेने के बाद अपने पूर्वजन्मों को जान सकता है। हम लोग योग की उस स्थिति तक नहीं पहुंच पाते। यदि ऐसा होता तो निश्चय ही हम एक नहीं अपने अनेक पूर्वजन्मों को जान सकते थे। अतः हमें पूर्वजन्म और पुनर्जन्म के सिद्धान्त को मानना चाहिये और वेद तथा ऋषियों के ग्रन्थों को पढ़कर सन्मार्ग पर चलना चाहिये जिससे हमारा इस जन्म में अभ्युदय तथा मृत्यु होने पर मोक्ष की प्राप्ति हो। यह भी बता दें कि ऋषि दयानन्द जी ने पूना में सन् 1875 में अनेक प्रवचन किये थे जिनमें से एक प्रवचन जन्म विषयक है। इसमें पूर्वजन्म की विस्मृति के अनेक कारण बताने के साथ पूर्वजन्म के कुछ संस्कारों यथा माता का दुग्धपान करने का अभ्यास तथा मृत्यु से भय आदि को भी पुनर्जन्म में प्रमाण के रूप में माना है। पुनर्जन्म के विषय में अधिक जानने वाले बन्धुओं को ऋषि दयानन्द के इस प्रवचन का अवश्य अध्ययन करना चाहिये। पुनर्जन्म पर अनेक पुस्तकें हैं। इन्हें पढ़कर भी विषय को समझा जा सकता है। ओ३म् शम्।


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