हर कार्य का कारण हुआ करता है। इसी प्रकार हमारे जन्म का भी कारण अवष्य ही कोई है। इस पर विचार करते हैं। हमें इस जन्म में मनुश्य जन्म मिला है। इस मनुश्य जन्म की विषेशता हमारा मानव षरीर है जिसमें पांच ज्ञान और पांच कर्म इन्दि्रयां हैं। इन इन्दि्रयों से हम देखते, सुनते, बोलते, रस का अनुभव करते तथा स्पर्ष का अनुभव प्राप्त करते हैं तथा इन्दि्रयों के नाना सुखों को भोगते हैं। पांच कर्मेन्दि्रयों से हम कर्म करते हैं। इन कर्मों को करने से ही हमें सुख व दुःख की प्राप्ति होती है। यदि हम कर्म न करें तो हमारा जीवन रोगी होकर समाप्त हो सकता है। कर्म करना हमारे लिये आवष्यक है। इन कर्मों का परिणाम हमारे इस जन्म में भी सुख व दुःख के रूप में सामने आता है। ऐसा हमारे प्रतिदिन के जीवन में होता है, जिसका हम अनुभव करते हैं। हम षिषु के रूप में उत्पन्न होते हैं और बढते हुए किषोर व युवा होते हैं। १२ वर्श के बाद हमारे ज्ञान व समझ में तेजी से वृद्धि होती है और संसार की बातों को अच्छी तरह से समझने लगते हैं। पुस्तक पढने से हमें उस विशय का ज्ञान होता है। हम पुस्तक की बातों की सत्यता व असत्यता को भी जानने की क्षमता से युक्त होने आरम्भ हो जाते हैं। ज्ञान व अनुभव बढने से हमारी सोच व समझ में वृद्धि होती जाती है। युवावस्था हमारे षरीर के विकास की दृश्टि से महत्वपूर्ण स्थिति होती है। इस स्थिति में हमारा ज्ञान व अनुभव परिपक्व होता है और हमें अपने हित व अहित तथा कर्तव्य व अकर्तव्यों का भी पूरा ज्ञान होता है। यह अवस्था कुछ वर्शों तक स्थिर रहती है। मनुश्य जीवन का यह समय ही सबसे अधिक महत्वपूर्ण एवं अपने लक्ष्यों की प्राप्ति करने का समय होता है। इस अवस्था में हम जो व जैसी साधना करते हैं उसको प्राप्त कर लेते हैं व कर सकते हैं। इसके बाद हमारी वृद्धावस्था का आरम्भ होता है जिसमें हमारे षरीर की षक्तियों में न्यूनता व क्षीणता आनी आरम्भ हो जाती है। लगभग ७०-१०० वर्श के बीच आयु होने पर प्रायः सभी मनुश्यों की मृत्यु हो जाती है। इसके कुछ अपवाद भी हो सकते हैं। यह हम सबका जीवनचक्र है।
युवा व प्रौढ अवस्था में हमने बाल्यकाल और वृद्धावस्था की दृश्टि से प्रायः सबसे अधिक षुभ व अषुभ कर्म किये होते हैं। इन सब कर्मों का फल सुख व दुःख हम इस जीवन में नहीं भोग सकते। कुछ मनुश्य अपनी वृद्धावस्था में नाना प्रकार के षुभ भी और अषुभ भी अनेक कर्म करते हैं। इन सबका फल इस जन्म में मिलना सम्भव नहीं होता। हमारे मनीशियों ने इस विशय पर गम्भीर चिन्तन कर बताया है कि मनुश्य जो कर्म करता है वह मुख्यतः तीन प्रकार के होते हैं। एक कि्रयमाण कर्म होते हैं जिनका फल उसे कर्म करने के साथ-साथ या कुछ ही समय बाद मिल जाता है। कुछ कर्म संचित कर्म होते हैं जिनका फल इस जन्म में कालान्तर में मिलता है। कुछ संचित कर्म ऐसे होते हैं जिनका फल इस जन्म में नहीं मिल पाता। एसे कर्मों ही हमारे परजन्म व पुनर्जन्म का कारण बनते हैं। इन्हीं कर्मों को प्रारब्ध कहा जाता है।
सृश्टि की उत्पत्ति पर विचार करने और वेद तथा ऋशियों के ग्रन्थों के प्रमाणों से यह सृश्टि ईष्वर द्वारा बनाई हुई रचना है। ईष्वर एक सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकार, सर्वज्ञ, सर्वव्यापक, सर्वषक्तिमान तथा सभी प्राणियों के प्रत्येक कर्म की साक्षी सत्ता है। ईष्वर हमारा न्यायाधीष भी है। ईष्वर के इस गुण को वेदों में अर्यमा नाम से व्यक्त किया गया है। वह ईष्वर हमारे कर्मों का फल देने के लिये ही हमें नाना प्रकार के षरीर व भोग उपलब्ध कराता है। हमारे पूर्वजन्मों के अवषिश्ट व भोग से बचे हुए कर्मों का भोग करने के लिये ही हमारा यह जन्म हुआ था। इस जन्म में हम पूर्वजन्मों के जितने कर्मों का भोग कर लेंगे वह हमारे प्रारब्ध से निकल जायेंगे। षेश बचे कर्मों सहित इस जन्म के संचित कर्मों के आधार पर हमारा परजन्म का प्रारब्ध बनेगा। यह प्रारब्ध ही हमारे भावी जन्म वा पुनर्जन्म का कारण होता है। यदि यह प्रारब्ध न होता तो हमारा जन्म भी न होता। प्रारब्ध पूर्वजन्मों के उन कर्मों को कहते हैं जिनका भोग नहीं हुआ होता अथवा जिनका जीवात्मा को भोग करना होता है और परमात्मा को भोग कराना होता है। सिद्धान्त है कि ’’अवष्यमेव ही भोक्तव्यं कृतं कर्म षुभाषुभम्‘‘। इस आधार पर हमारे जन्म का रहस्य सुस्पश्ट हो जाता है। पूर्वजन्म के कर्म वा प्रारब्ध के अतिरिक्त हमारे इस जन्म का कोई कारण नहीं है और इस जन्म में मृत्यु होने पर बचे हुए कर्मों का भोग करने के लिये हमारा पुनर्जन्म होना भी तर्क व युक्तिसंगत है। यदि ऐसा नहीं होगा तो सृश्टि के सबसे बडे न्यायाधीष, जो संसार के बडे से बडे न्यायाधीषों का भी न्यायाधीष और उनके कर्मों का भी न्याय करता है, उस पर आरोप आयेगा कि उसने जीवों के कर्मों का भोग प्रदान नहीं किया। अतः इससे संसार में विद्यमान ईष्वर द्वारा संचालित कर्म-फल व्यवस्था का भी ज्ञान होता है।
जन्म का कारण कर्म हैं, यह स्पश्ट होने पर एक षंका हो सकती है कि इस सृश्टि का आरम्भ कब से है? विचार करने और उपलब्ध प्रमाणों के आधार पर यह सृश्टि अनादि सिद्ध होती है। इस सृश्टि का कभी आरम्भ नहीं हुआ है अपितु यह सदा से, अनादि काल से, उत्पन्न होती व इसकी प्रलय होती आ रही है। इस सिद्धान्त को ’सृश्टि प्रवाह से अनादि है‘ सिद्धान्त कहा जाता है। इसका कारण यह है कि ईष्वर, जीव व प्रकृति यह तीन सत्तायें अनादि सत्तायें हैं। इनका न तो आदि है और न कभी अन्त होना है। अन्त उसी सत्ता का होता है जिसका आदि होता व जन्म होता है। जिसका जन्म होता है उसकी मृत्यु भी अवष्यम्भावी होती है और जिसका जन्म नहीं होता, उसकी मृत्यु भी नहीं होती। गीता में कहा गया है ’जातस्य हि ध्रुवो मृत्यु ध्रुवं जन्म मृतस्य च‘ अर्थात् जिसका जन्म होता है उसकी मृत्यु होनी अटल है और जिसकी मृत्यु होगी उसका जन्म होना भी अटल व ध्रुव सत्य है। इसी सिद्धान्त के अनुरूप सृश्टि के प्रवाह से अनादि का सिद्धान्त है। जीवात्मायें अनादि सत्तायें हैं। इन जीवात्माओं का अनादि काल से सचित कर्म व प्रारब्ध चले आ रहे हैं। इसी कारण से ईष्वर को सृश्टि की रचना, पालन व प्रलय करनी पडती है। ऐसा ही हमेषा होता रहेगा क्योकि ईष्वर, जीव तथा प्रकृति का अस्तित्व षाष्वत, सनातन, अनादि व नित्य है।
कर्म व प्रारब्ध को जानकर मनुश्य को दुःखों से बचने के लिये अपने कर्मों को वेदानुकूल व वेदसम्मत बनाना चाहिये। वेद निशिद्ध कोई कर्म नहीं करना चाहिये और वेद प्रतिपादित किसी कर्म का त्याग भी नहीं करना चाहिये। कुछ कर्म सबके लिये आवष्यक एवं अनिवार्य हैं जिन्हें सभी मनुश्यों को करना चाहिये। इन कर्मों को नित्यकर्म व महायज्ञ कहते हैं। इनमें षारीरिक षुद्धि, व्यायाम व प्रायाणाम आदि तो गौण रूप से सम्मिलित ही हैं परन्तु पांच प्रमुख कर्तव्य व महायज्ञ सन्ध्या, देवयज्ञ अग्निहोत्र, पितृयज्ञ, अतिथि यज्ञ एवं बलिवैष्वदेव यज्ञ हैं। इनकी व्याख्या ऋशि दयानन्द जी की पुस्तक पंचमहायज्ञ विधि तथा सत्यार्थप्रकाष आदि ग्रन्थों में दी गई है। इसे इन ग्रन्थों में देखा जा सकता है। संक्षेप में इतना बता सकते हैं कि ईष्वर के गुण, कर्म व स्वभाव को जानकर उसकी योग व ध्यान की विधि से जो उपासना की जाती है उसे सन्ध्या कहते हैं। सन्ध्या में स्वाध्याय करना भी सम्मिलित है। वायु व जल की षुद्धि सहित षरीर को निरोग रखने और हमारे निमित्त से दूशित हुई वायु व जल आदि की षुद्धि के लिये अग्निहोत्र देव यज्ञ किया जाता है।
माता-पिता आदि की तन-मन-धन से सेवा, उपकार, उनका सम्मान, उनके लिये आवास, भोजन, वस्त्र एवं चिकित्सा आदि की व्यवस्था करना तथा अपने व्यवहार से उन्हें पूर्ण सन्तुश्ट रखना पितृ यज्ञ है। समाज में जो हमसे अधिक विद्वान हैं अथवा वेदों के विद्वान, उसके प्रचारक व गुरुकुल के षिक्षक व समाज सुधार के काम करने वाले समाज सुधारक हैं, उनकी सेवा व उनकी आवष्यकताओं की पूर्ति करना अर्थात् दान आदि करना, हमारा कर्तव्य है। ऐसा करने से अतिथिपूजा होती है। बलिवैष्वदेव यज्ञ में हम पषु, पक्षियों आदि को चारा, अन्न व उनके भोजन के पदार्थों को उन्हें उपलब्ध कराते हैं, उनके प्रति अहिंसा एवं दया का भाव रखते हैं तथा दूसरे हिंसक मनुश्यों व पषुओं से उन्हें बचाते है। ऐसे कार्यों को बलिवैष्वदेव यज्ञ के अन्तर्गत माना जाता है। बलिवैष्वदेव यज्ञ का करना इसलिये भी महत्वपूर्ण है कि यह सम्भव है कि हमारा अगला जन्म किसी मनुश्येतर पषु आदि योनि में हो। यदि समाज में यह यज्ञ किया जाता होगा तो हमें भी कालान्तर में इसका लाभ मिलेगा। धर्म की एक परिभाशा भी यही है कि हम दूसरों से जिस व्यवहार की अपेक्षा करते हैं वही व्यवहार हमें उनके प्रति भी करना चाहिये। अतः बलिवैष्वदेव यज्ञ से कालान्तर में हमें ही लाभ होगा, इसलिये इस सामाजिक कार्य को भी सबको एकमत होकर एक रीति व विधि से करना चाहिये। यह पंचमहाकर्तव्य कहलाते हैं। हमारे अन्य सभी कर्म भी देष व समाज सहित प्राणीमात्र के हित से जुडे होने चाहिये। इससे हमें इस जन्म व परजन्म दोनों में लाभ होगा।
हमारे इस जन्म का कारण हमारे पूर्व जन्म के कर्म हैं और हमारे पुनर्जन्म का कारण हमारे इस जन्म के कर्म होंगे। यह युक्ति एवं तर्कसंगत तथा षास्त्रों से अनुमोदित सिद्धान्त है। हमें इसे मानना भी है और इसका प्रचार कर इसे सर्वमान्य बनाना है जिससे सभी मनुश्य अपने जीवन के उद्देष्य वा लक्ष्य धर्म, अर्थ, कार्म व मोक्ष को प्राप्त हो सकें। सांख्यदर्षन में मनुश्य के दुःखों सहित कर्म एवं जन्म की विस्तार से चर्चा है। उसका अध्ययन करना उपयोगी एवं महत्वपूर्ण है। ओ३म् षम्।