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श्रद्धाभाव से  मनाई,मेवाड के धर्मध्वजी महाराणा राज सिंह की जयंती

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02 Nov 20
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श्रद्धाभाव से  मनाई,मेवाड के धर्मध्वजी महाराणा राज सिंह की जयंती


 

उदयपुर,महाराणा मेवाड चेरिटेबल फाउण्डेशन, उदयपुर की ओर से आज मेवाड के ५८वें श्री एकलिंग दीवान महाराणा राज सिंह प्रथम की ३९१वीं जयंती श्रद्धाभाव से मनाई गई। सरकार के दिशा-निर्देशों के अनुरूप जयंती पर पूजा अर्चना का आयोजन रखा गया।

इस अवसर पर फाउण्डेशन के मुख्य प्रशासनिक अधिकारी भूपेन्द्र सिंह आउवा ने बताया कि महाराणा राज सिंह जी के शासन काल में राज्य की उन्नति और जनकल्याण में कई बडे निर्माण कार्य हुए। महाराणा राज सिंह जी के समय के कार्य युवापीढी के लिए प्रेरणा के स्रोत है।

महाराणा राजसिंह कालीन निर्माण

महाराणा राजसिंह की राजनीति की बडी सफलता यह रही की निरंतर संघर्ष के बीच भी उन्होंने मेवाड के पुनर्निर्माण के लिये समय दिया। महाराणा ने अपने कुंवरपदे के समय ’सर्वऋतुविलास‘ (सरबत विलास) नामक महल और बावडी बनवायी। विक्रम संवत् १७१६ में देबारी के घाटे का कोट और दरवाजा तैयार कराया। महाराणा ने अपने पिता के द्वारा निर्मित श्री जगदीश मंदिर में, शिव, सूर्य, गणपति और शनि के छोटे मंदिरों का निर्माण कार्य पूर्ण करवाया जो अधूरा रह गया था। महाराणा राजसिंह ने राजसमुद्र तालाब ( विक्रम संवत् १७१८-१७३२) के साथ ही नौ-चौकी के पास पहाड पर महल तथा कांकरोली के पासवाली पहाडी पर श्री द्वाराकाधीश जी का मन्दिर बनवाया। इस तालाब के निकट अपने नाम से राजनगर नामक कसबा बसाया। विक्रम संवत् १७२१ में उदयपुर में अम्बा माता का मन्दिर बनवाया। महाराणा ने अपने शासनकाल में उदयपुर से पश्चिम में बडी गाँव के पास अपनी माता जनादे के नाम से जनासागर तालाब, एकलिंगजी के पास वाले इन्द्रसर (इन्द्रसरोवर) के जीर्ण बाँध के स्थान पर नये बाँध का निर्माण करवाया। महाराणा की झाली महारानी ने एक मुखी बावडी, विक्रम संवत् १७३२ में महारानी चारुमती ने राजनगर में एक बावडी, महारानी पंवार ने देबारी के पास ’जया‘ नाम की बावडी बनवा*, जिसको अब ’त्रिमुखी बावडी‘ कहते हैं। विक्रम संवत् १७२५ कुँवर जयसिंह ने रंगसागर तालाब एवं महाराणा के मंत्री फतहचंद ने बेडवास गाँव में बावडी का निर्माण करवाया।


महाराणा राज सिंह कालीन साहित्य एवं कला

महाराणा राजसिंह के कला एवं साहित्य के प्रति अनुराग के कारण ही उनका काल संघर्ष के समय में भी साहित्यिक विकास का समय था जहाँ एक ओर महाराणा मुगलों से संघर्षरत थे, वहीं दूसरी ओर स्वयं भी कविताएँ लिखते थे। उन्होंने अनेक संस्कृत के विद्वानों, कवियों, कलाविदों एवं वास्तुकारों को राज्याश्रय देकर कला एवं साहित्य को समृद्ध करने में अपना योगदान दिया। महाराणा राजसिंह के काल में रणछोड भट्ट कृत राजप्रशस्ति महाकाव्य, सदाशिव कृत राजरत्नाकर, मान कवि रचित राजविलास, किशोरदास रचित राजप्रकाश जैसे महत्वपूर्ण ग्रथों की रचना हु* तथा साथ ही ऐतिहासिक ग्रथों की पाण्डुलिपियाँ भी महाराणा के प्रश्रय में तैयार की ग*। राजसमुद्र के प्रमुख सुत्रधार मुकुन्द, दलपति महासिंह, मोकमसिंह, व्याघ्र थे, जिन्होंने महाराणा राजसिंह की विशद् कल्पना को साकार किया था। उनके काल में एक मुखी, सुंदर एवं त्रिमुखी बावडी में निर्मित देव-प्रतिमाएँ विकसित स्थापत्य कला का परिचय कराती है। महाराणा प्रताप के काल में विकसित चावण्ड चित्रशैली का भी पर्याप्त विकास इस काल में देखने को मिलता है। श्रीनाथजी के मेवाड आगमन से एक न* चित्रशैली नाथद्वारा चित्रशैली का प्रादुर्भाव इस काल में मिलता है जिसे पिछवा* के नाम से भी जाना जाता है।

महाराणा राज सिंह ने पाण्डुलिपि चित्रकला का संरक्षण जारी रखते हुए रामायण श्ाृंखला को पुरा किया गया। रामायण पाण्डुलिपि चित्रों का निर्माण सहाबुद्दीन, मनोहर एवं डक्कनी जैसे चित्रकारों ने पुरा किया था, जिसे उनके पिता महाराणा जगत सिंह जी ने शुरू करवाया था। इसी तरह पाण्डुलिपि चित्रकारी में सुर-सागर श्ाृंखला (१६५५ई.स.), राग मालकौस रागमाला श्ाृंखला (१६६०ई.स.), गीत गोविन्द श्ाृंखला (१६६५ई.स.), भगवत् पुराण श्ाृंखला (१६६५-१६७०ई.स.), गजेन्द्रमोक्ष श्ाृंखला (१६८०ई.स.) और एकलिंगमहात्म्य् श्ाृंखला (१६८०ई.स.) जैसी विश्वविख्यात श्ाृंखलाओं का निर्माण महाराणा राजसिंह जी के शासनकाल में हुआ था।

महाराणा राजसिंह की दानशीलता

रणछोड भट्ट द्वारा रचित ’राजप्रशस्ति महाकाव्य‘ मुख्यतः महाराणा राजसिंह का जीवनवृत्त है, जिसमें महाराणा के जीवन चरित्र, प्रत्येक अभियान, दान-पुण्य, और घटनाक्रम का विस्तार से वर्णन किया गया है। महाराणा जयसिंह के काल में इसे राजसमुद्र स्थित नौ-चौकी पर २५ बडी शिलाओं पर खुदवाया गया, जो भारत का सबसे बडा शिलालेख है। राजप्रशस्ति के अनेक प्रसंगों एवं दान उद्धरणों से महाराणा के स्वभाव की उदारता और धार्मिकता का परिचय प्राप्त होता है, जिनमें रत्न तुलादान, स्वर्ण तुलादान, रजत तुलादान आदि प्रमुख हैं। महाराणा ने समय-समय पर अनेक धार्मिक आयोजन कर हाथी, घोडे सहित अनेक भूमिदान किये साथ ही बडी संख्या में कन्याओं के विवाह भी कराये थे। महाराणा ने अपनी रानीयों और पुत्रों से भी अनेक अवसरों पर तरह-तरह के तुलादान करवायें। उन्होंने अनेक धार्मिक यात्राएँ की, जहाँ तीर्थ स्थलों में विपुल मात्रा में दान-दक्षिणाएँ दी। इन दान राशियों का उपयोग जन कल्याणकारी कार्यों जैसे अकाल के समय में भोजन उपलब्ध करवाने, जलाशयों के निर्माण के लिए किया गया।

महाराणा राजसिंह का स्वर्गारोहण

महाराणा राजसिंह की मृत्यु के विषय में ऐसी प्रसिद्धि है कि वह बडे ही वीर स्वभाव के थे और अन्त तक औरंगजेब की सेना से लडा* करना चाहते थे, परन्तु कुम्भलगढ जाते हुए वे ओडा गाँव में ठहरे, जहाँ उनके भोजन मे विष मिला देने से विक्रम संवत् १७३७ कार्तिक शुक्ल १० को उनका निधन हो गया। ओडा गाँव में महाराणा का दाह संस्कार किया गया, वहाँ आज भी उनकी छत्री बनी हु* है।


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