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जनजातियों में गाथा-गायकी पुस्तक लोकार्पित

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23 May 19
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जनजातियों में गाथा-गायकी पुस्तक लोकार्पित

उदयपुर। जनजातियों में सदियों से पारंपरिक जो कंठासीन साहित्य संरक्षित है वही भारतीयता की असली पहचान है। इसलिए यह बहुत जरूरी है कि इन जातियों की संस्कृति, जीवनधर्मिता और मानवीय मूल्यपरक जो विरासत विद्यमान है, समय रहते उसका समूचित मूल्यांकन अत्यंत आवश्यक है। ये विचार गुजरात के प्रख्यात समाजशास्त्री एवं शिक्षाविद् प्रो. सागरमल बीजावत ने डॉ. महेन्द्र भानावत लिखित ‘ जनजातियों में गाथा-गायकी’ नामक पुस्तक के लोकार्पण अवसर पर व्यक्त किये।   
उन्होंने कहा कि यह कार्य डॉ. भानावत पिछले लगभग छह दशक से करते आ रहे हैं। पहलीबार उन्होंने ही आदिवासी भीलों में प्रचलित गवरी नामक आदिम नृत्य पर प्रामाणिक शोध कार्य किया था और उसके बाद इस क्षेत्र में उनकी एक दर्जन से अधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। प्रस्तुत पुस्तक जनजातियों में गाथा-गायकी में डॉ. भानावत ने चार खण्डों में राजस्थान की जनजातियों में प्रचलित भारत, पड़, कावड़ तथा कड़ा नामक गाथाओं का बड़ा ही कलापूर्ण, संश्लिष्ट एवं प्रामाणिक अध्ययन प्रस्तुत किया है। आशा है, इससे प्रेरित होकर अन्य विद्वान एवं शोधकर्मी भी इस क्षेत्र में महत्वपूर्ण कार्य करेंगे।
इस अवसर पर डॉ. भानावत ने कहा कि मौखिक साहित्य के संकलन एवं संरक्षण का कार्य अत्यंत कठिन और बड़े धैर्य का है। जिस क्षेत्र अथवा जाति विशेष से जुड़ा कोई भी अन्वेषण कार्य हो उसमें वही सफल हो सकता है जिसे उस अंचल, परिक्षेत्र और जनजीवन की पुख्ता जानकारी हो और उससे भी अधिक समझने की जिज्ञासा तथा ललक हो। आज के युवाओं के सामने सबसे बड़ी चुनौती उनकी आजीविका की है। इसलिए इस ओर बहुत कम लोग आकर्षित हो रहे हैं तब भी अनेक विश्वविद्यालयों में यह कार्य किया जा रहा है और स्वयं आदिवासियों से जुड़े विद्वान भी इस ओर काफी अच्छा काम कर रहे हैं।
   


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