GMCH STORIES

आदिवासी जीवन में उतरती रोशनी  

( Read 29887 Times)

15 May 19
Share |
Print This Page
आदिवासी जीवन में उतरती रोशनी  
भारत की भूमि संबुद्ध महापुरुषों, साधु-संतों  एवं संत मनीषियों की रत्नगर्भा भूमि है। अपनी गहन साधना एवं त्याग के बल पर सिद्धि एवं समाधि के स्वाद को चखा और उस अमृत रस को समस्त संसार में बांटा। कहीं बुद्ध बोधि वृक्ष तले बैठकर करुणा का उजियारा बांट रहे थे, तो कहीं महावीर अहिंसा का पाठ पढ़ा रहे थे। यही नहीं नानकदेव जैसे संबुद्ध लोग मुक्ति की मंजिल तक ले जाने वाले मील के पत्थर बने। यह वह देश है, जहां वेद का आदिघोष हुआ, युद्ध के मैदान में भी गीता गाई गयी, वहीं कपिल, कणाद, गौतम आदि ऋषि-मुनियों ने अवतरित होकर मानव जाति को अंधकार से प्रकाश पथ पर अग्रसर किया। यह देश योग दर्शन के महान आचार्य पतंजलि का देश है, जिन्होंने पतंजलि योगसूत्र रचा। हमने हर संस्कृति से सीखा, हर संस्कृति को सिखाया। प्राचीन समय से लेकर आधुनिक समय तक अनेकों संत-मनीषियों, धर्मगुरुओं, ऋषियों ने भी अपने मूल्यवान अवदानों से भारत की आध्यात्मिक परम्परा को समृद्ध किया है, इन महापुरुषों ने धर्म के क्षेत्र में अनेक क्रांतिकारी स्वर बुलंद किए। ऐसे ही विलक्षण एवं अलौकिक संतों में एक नाम है गणि राजेन्द्र विजयजी। वे आदिवासी जनजाति के होकर भी जैन संत हंै, और जैन संत होकर भी आदिवासी जनजीवन के मसीहा संतपुरुष हैं। इनदिनों वे गुजरात के आदिवासी क्षेत्रों में उनके अधिकारों के लिये संघर्षरत हैं। 19 मई 2019 को गणिजी अपने जीवन के 45वें बसंत में प्रवेश कर रहे हैं।
गणि राजेन्द्र विजय एक ऐसा व्यक्तित्व है जो आध्यात्मिक विकास और नैतिक उत्थान के प्रयत्न में तपकर और अधिक निखरा है। वे आदिवासी जनजीवन के उत्थान और उन्नयन के लिये लम्बे समय से प्रयासरत हैं और विशेषतः आदिवासी जनजीवन में शिक्षा की योजनाओं को लेकर जागरूक हैं, इसके लिये सर्वसुविधयुक्त एकलव्य आवासीय माॅडल विद्यालय का निर्माण उनके प्रयत्नों से हुआ है, वहीं कन्या शिक्षा के लिये वे ब्राह्मी सुन्दरी कन्या छात्रावास का कुशलतापूर्वक संचालन कर रहे हैं। इसी आदिवासी अंचल में जहां जीवदया की दृष्टि से गौशाला का संचालित है तो चिकित्सा और सेवा के लिये चलयमान चिकित्सालय भी अपनी उल्लेखनीय सेवाएं दे रहा है। आदिवासी किसानों को समृद्ध बनाने एवं उनके जीवन स्तर को उन्नत बनाने के लिये उन्होंने आदिवासी क्षेत्र में सुखी परिवार ग्रामोद्योग को स्थापित किया है। वे आदिवासी अधिकारों के लिये व्यापक संघर्ष कर रहे हैं, उन्हें संगठित कर रहे हैं, उनका आत्म-सम्मान जगा रहे हैं। गणि राजेन्द्र विजयजी द्वारा संचालित प्रोजेक्ट एवं सेवा कार्यों की मोटी सूची में मानवीय संवेदना की सौंधी-सौंधी महक फूट रही है। लोग गांवों से शहरों की ओर पलायन रहे हैं, लेकिन गणि राजेन्द्र विजयजी की प्रेरणा से कुछ जीवट वाले व्यक्तित्व शहरों से गांवों की ओर जा रहे हैं। मूल को पकड़ रहे हैं। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी कहते थे-‘भारत की आत्मा गांवों में बसती है।’ शहरीकरण के इस युग में इन्सान भूल गया है कि वह मूलतः आया कहां से है? जिस दिन उसे पता चलता है कि वह कहां से आया है तो वह लक्ष्मी मित्तल बनकर भी लंदन से आकर, करोड़ों की गाड़ी में बैठकर अपने गाँव की कच्ची गलियों में शांति महसूस करता है। स्कूल, हाॅस्पीटल व रोजगार के केन्द्र स्थापित कर सुख का अनुभव करता है।
गणि राजेन्द्र विजयजी टेढ़े-मेढ़े, उबड़-खाबड़ रास्तों से गुजरते हुए, संकरी-पतली पगडंडियों पर चलकर सेवा भावना से भावित जब उन गरीब आदिवासी बस्तियों तक पहुंचते हैं तब उन्हें पता चलता है कि गरीबी रेखा से नीचे जीवन जीने के मायने क्या-क्या हैं? कहीं भूख मिटाने के लिए दो जून की रोटी जुटाना सपना है, तो कहीं सर्दी, गर्मी और बरसात में सिर छुपाने के लिए झौपड़ी की जगह केवल नीली छतरी (आकाश) का घर उनका अपना है। कहीं दो औरतों के बीच बंटी हुई एक ही साड़ी से बारी-बारी तन ढ़क कर औरत अपनी लाज बचाती है तो कहीं बीमारी की हालत में इलाज न होने पर जिंदगी मौत की ओर सरकती जाती है। कहीं जवान विधवा के पास दो बच्चों के भरण-पोषण की जिम्मेदारी तो है पर कमाई का साधन न होने से जिल्लत की जिंदगी जीने को मजबूर होती है, तो कहीं सिर पर मर्द का साया होते हुए भी शराब व दुव्र्यसनों के शिकारी पति से बेवजह पीटी जाती हैं इसलिए परिवार के भरण-पोषण के लिए मजबूरन सरकार के कानून को नजरंदाज करते हुए बाल श्रमिकों की संख्या चोरी छिपे बढ़ती ही जा रही है। कहीं कंठों में प्यास है पर पीने के लिए पानी नहीं, कहीं उपजाऊ खेत है पर बोने के लिए बीज नहीं, कहीं बच्चों में शिक्षा पाने की ललक है पर माँ-बाप के पास फीस के पैसे नहीं, कहीं प्रतिभा है पर उसके पनपने के लिए प्लेटफाॅर्म नहीं। कैसी विडंबना है कि ऐसे आदिवासी गांवों में न सरकारी सहायता पहुंच पाती है न मानवीय संवेदना। अक्सर गांवों में बच्चे दुर्घटनाओं के शिकार होते ही रहते हैं पर उनका जीना और मरना राम भरोसे रहता है, पुकार किससे करें? माना कि हम किसी के भाग्य में आमूलचूल परिवर्तन ला सकें, यह संभव नहीं। पर हमारी भावनाओं में सेवा व सहयोग की नमी हो और करुणा का रस हो तो निश्चित ही कुछ परिवर्तन घटित हो सकता है।
गणि राजेन्द्र विजयजी अपने इन्हीं व्यापक उपक्रमों की सफलता के लिये वे कठोर साधना करते हैं और अपने शरीर को तपाते हैं। अपनी पदयात्राओं में आदिवासी के साथ-साथ आम लोगों के बीच शिक्षा, स्वास्थ्य, संस्कार-निर्माण, नशा मुक्ति एवं रूढ़ि उन्मूलन की अलख जगा रहे हैं। इन यात्राओं का उद्देश्य है शिक्षा एवं पढ़ने की रूचि जागृत करने के साथ-साथ आदिवासी जनजीवन के मन में अहिंसा, नैतिकता एवं मानवीय मूल्यों के प्रति आस्था जगाना है। त्याग, साधना, सादगी, प्रबुद्धता एवं करुणा से ओतप्रोत आप आदिवासी जाति की अस्मिता की सुरक्षा के लिए तथा मानवीय मूल्यों को प्रतिष्ठापित करने के लिए सतत प्रयासरत हैं। मानो वे दांडी पकडे़ गुजरात के उभरते हुए ‘गांधी’ हैं। इसी आदिवासी माटी में 19 मई, 1974 को एक आदिवासी परिवार में जन्में गणि राजेन्द्र विजयजी मात्र ग्यारह वर्ष की अवस्था में जैन मुनि बन गये। बीस से अधिक पुस्तकें लिखने वाले इस संत के भीतर एक ज्वाला है, जो कभी अश्लीलता के खिलाफ आन्दोलन करती हुए दिखती है, तो कभी जबरन धर्म परिवर्तन कराने वालों के प्रति मुखर हो जाती है। कभी जल, जमीन, जंगल के अस्तित्व के लिये मुखर हो जाती है। इस संत ने स्वस्थ एवं अहिंसक समाज निर्माण के लिये जिस तरह के प्रयत्न किये हैं, उनमें दिखावा नहीं है, प्रदर्शन नहीं है, प्रचार-प्रसार की भूख नहीं है, किसी सम्मान पाने की लालसा नहीं है, किन्हीं राजनेताओं को अपने मंचों पर बुलाकर अपने शक्ति के प्रदर्शन की अभीप्सा नहीं है। अपनी धून में यह संत आदर्श को स्थापित करने और आदिवासी समाज की शक्ल बदलने के लिये प्रयासरत है और इन प्रयासों के सुपरिणाम देखना हो तो कवांट, बलद, रंगपुर, बोडेली आदि-आदि आदिवासी क्षेत्रों में देखा जा सकता है।
इतना ही नहीं यह संत गृहस्थ जीवन को त्यागकर भी गृहस्थ जीवन को सुखी बनाने के लिये जुटा है, इनका मानना है कि व्यक्ति-व्यक्ति से जुड़कर ही स्वस्थ समाज एवं राष्ट्र की कल्पना आकार ले सकती है। स्वस्थ व्यक्तियों के निर्माण की प्रयोगशाला है - परिवार। वे परिवार को सुदृढ़ बनाने के लिये ही सुखी परिवार अभियान लेकर सक्रिय है। 
भारत को आज सांस्कृतिक क्रांति का इंतजार है। यह कार्य सरकार तंत्र पर नहीं छोड़ा जा सकता है। सही शिक्षा और सही संस्कारों के निर्माण के द्वारा ही परिवार, समाज और राष्ट्र को वास्तविक अर्थों में स्वतंत्रा बनाया जा सकता है। इसी दृष्टि से हम सबको गणि राजेन्द्र विजय के मिशन से जुड़ना चाहिए एवं एक स्वस्थ समाज निर्माण का वाहक बनना चाहिए। आओ हम सब एक उन्नत एवं आदर्श आदिवासी समाज की नींव रखें जो सबके लिये प्रेरक बने।
मेरी दृष्टि में गणि राजेन्द्र विजयजी के उपक्रम एवं प्रयास आदिवासी अंचल में एक रोशनी का अवतरण है, यह ऐसी रोशनी है जो हिंसा, आतंकवाद, नक्सलवाद, माओवाद जैसी समस्याओं का समाधान बन रही है। अक्सर हम राजनीति के माध्यम से इन समस्याओं का समाधन खोजते हैं, जबकि समाधान की अपेक्षा संकट गहराता हुआ प्रतीत होता है। क्योंकि राजनीतिक स्वार्थों के कारण इन उपेक्षित एवं अभावग्रस्त लोगों का शोषण ही होते हुए देखा गया है। गणि राजेन्द्र विजयजी के नेतृत्व में आदिवासी समाज कृतसंकल्प है रोशनी के साथ चलते हुए इस आदिवासी अंचल के जीवन को उन्नत बनाने एवं संपूर्ण मानवता को अभिप्रेरित करने के लिये। आदिवासी समुदाय के बीच अहिंसक समाज निर्माण की आधारभूमि गणि राजेन्द्र विजयजी ने अपने आध्यात्मिक तेज से तैयार की है। अनेक बार उन्होंने खूनी संघर्ष को न केवल शांत किया, बल्कि अलग-अलग विरोधी गुटों को एक मंच पर ले आये। जबकि गुट व्यापक हिंसा एवं जनहानि के लिये तरह- तरह के हथियार लिये एक दूसरे को मारने के लिये उतावले रहते थे। हिंसा की व्यापक संभावनाओं से घिरे इस अंचल को अहिंसक बनाना एक क्रांति एवं चमत्कार ही कहा जायेगा। सचमुच आदिवासी लोगों को प्यार, करूणा, स्नेह एवं संबल की जरूरत है जो गणिजी जैसे संत एवं सुखी परिवार अभियान जैसे मानव कल्याणकारी उपक्रम से ही संभव है, सचमुच एक रोशनी का अवतरण हो रहा है, जो अन्य हिंसाग्रस्त क्षेत्रों के लिये भी अनुकरणीय है। 

Source :
This Article/News is also avaliable in following categories : National News
Your Comments ! Share Your Openion

You May Like