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“दुःख से हमारे कल्याण का मार्ग खुलता है : आचार्य डॉ. वागीश शास्त्री”

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25 Dec 18
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“दुःख से हमारे कल्याण का मार्ग खुलता है : आचार्य डॉ. वागीश शास्त्री” आर्यसमाज धामावाला देहरादून के तीन दिवसीय 139 वार्षिकोत्सव का दिनांक 23-12-2018 को समापन दिवस हुआ। कार्यक्रम को आर्यसमाज मन्दिर में आयोजित न करके आर्यसमाज की संस्था ‘श्रीमद् स्वामी श्रद्धानन्द बाल वनिता आश्रम’ में आयोजित किया गया। इसका प्रमुख कारण आज स्वामी श्रद्धानन्द बलिदान दिवस का होना था। कार्यक्रम के आरम्भ में आश्रम की यज्ञशाला में यज्ञ हुआ। इसके बाद बिजनौर के आर्य विद्वान और भजनोपदेशक श्री कुलदीप आर्य तथा उनके सहयोगी तबला-वादन में प्रवीण श्री अश्विनी आर्य जी के सम्मिलित भजन हुए। भजनों का विवरण हम एक पृथक लेख के माध्यम से प्रस्तुत कर चुके हैं। भजनों के बाद आर्य जगत् के शीर्ष आर्य विद्वान डॉ. वागीश शास्त्री जी का प्रभावशाली व्याख्यान हुआ।

अपना व्याख्यान आरम्भ करते हुए आचार्य वागीश जी ने कहा कि बरेली शहर में महर्षि दयानन्द जी का आना हुआ। स्वामी श्रद्धानन्द जी के पिता नानक चन्द पुलिस विभाग में अधिकारी थे। उनकी स्वामी दयानन्द के व्याख्यानों में शान्ति व्यवस्था बनाये रखने के लिये ड्यूटी लगी। उन्होंने महर्षि दयानन्द के विचारों को सुना। उन्हें लगा कि इस महात्मा के विचारों को सुनकर उनका नास्तिक पुत्र मुंशीराम, स्वामी श्रद्धानन्द जी का पूर्व नाम, का सुधार हो सकता और उसकी नास्तिकता दूर हो सकती है। उन्होंने प्रेरणा कर मुंशीराम जी को स्वामी दयानन्द के सत्संग में भेजा। मुंशीराम जी ने स्वामी दयानन्द जी के भाषण सुने। उनकी शंकाओं का पूरा समाधान नहीं हुआ। ऋषि दयानन्द वहां समाज सुधार की चर्चा कर रहे थे। मुंशीराम जी ने स्वामी दयानन्द जी से अलग से समय मांगा और उनसे मिले। उन्होंने स्वामी दयानन्द जी के सम्मुख ईश्वर के अस्तित्व विषयक अपने सन्देहों व शंकाओं को प्रस्तुत किया। उन्होंने स्वामी जी को कहा कि मैं ईश्वर को समझना चाहता हूं। उनके सभी प्रश्नों के स्वामी दयानन्द जी ने उत्तर दिये। उन्होंने स्वामी दयानन्द जी को कहा कि आपने मेरे सभी प्रश्नों के उत्तर देकर मेरी बुद्धि को तो सन्तुष्ट कर दिया परन्तु मेरे मन व आत्मा में ईश्वर के अस्तित्व के प्रति विश्वास की भावनायें पैदा नहीं हो रही हैं। ऋषि दयानन्द मुंशीराम से बोले कि यह काम तो तब होगा जब ईश्वर तुम पर कृपा करेंगे।

आचार्य डॉ. वागीश जी ने प्रश्न किया कि यदि परमात्मा किसी पर कृपा करें, अपने अस्तित्व का विश्वास दिलायें औेर किसी को न दिलाये, ऐसा करना ईश्वर की न्याय व्यवस्था के विरुद्ध होगा। यदि ऐसा होता है तो उसका कुछ तर्कसंगत आधार अवश्य होना चाहिये। आचार्य जी ने कहा कि परमात्मा स्वभाव से दयालु है। वह न्यायकारी भी है। जिस जीवात्मा या मनुष्य ने जैसे कर्म किये उसको उन कर्मां के अनुरूप ही ईश्वर फल देता है। यही न्याय का आधार है। दया दो तरह से झलकती है। बिना कोई कर्म के सुख आदि मिले तो दया कही जायेगी। जब मनुष्य पर दुःख आता है तब भी ईश्वर की दया कही दिखाई देती है। आचार्य जी ने दुःख के दो विभाग बताये। किसी कारण से बनी मनःस्थिति में मनुष्य को दुःख होता है। आचार्य जी ने कहा कि मनोविज्ञान के अनुसार दुःख 10 प्रकार के हैं। एक कारण ऐसा भी है कि सुख के सभी साधन होने पर भी मनुष्य सुखी नहीं होता। हम अपनी मनःस्थिति से दुःख को उत्पन्न कर लेते हैं। हमारा बड़ा मकान हो, कार हो, बैंक बैलेंस हो, आदि दुःख ईश्वर की ओर से नहीं हैं। आचार्य जी ने एक श्लोक सुनाया जिसमें 10 प्रकार के दुःखों का वर्णन था। विद्वान आचार्य जी ने कहा कि हमारे कर्मफल के अनुसार जो दुःख आते हैं उनसे हमें आठ लाभ प्राप्त होते हैं। एक लाभ तो यह होता कि दुःख से हमारे कल्याण का मार्ग खुलता है। सुख व कल्याण एक साथ जिस मनुष्य व परिवार में होते हैं वह एक अच्छी स्थिति कही जा सकती है।

आचार्य वागीश जी ने कहा कि दुःख से आठ लाभ होते हैं। प्रथम यह कि इससे कल्याण का मार्ग खुलता है। परमात्मा यदि किसी एक भी जीवात्मा को कोई लाभ देंगे तो न्याय के अनुसार वही लाभ सभी जीवात्माओं को मिलना चाहिये। उन्होंने कहा कि किताब पढ़कर धनी और धन कमाने से विद्वान नहीं बन सकते। किताब पढ़ कर विद्वान और धन कमा कर धनी बनते हैं। बिना पुरुषार्थ से मिली चीज सबको समान रूप से मिलनी चाहिये। आचार्य जी ने कहा कि परमात्मा अच्छा काम करने वालों को उत्साह व आनन्द देता है। दूसरों को जो लोग दुःख देते हैं उन्हें भय व चिन्ता देता है। आचार्य जी ने स्वामी श्रद्धानन्द जी के ऋषि दयानन्द के साथ बरेली में हुए वार्तालाप का उल्लेख कर बताया कि स्वामी श्रद्धानन्द जी ने ऋषि को कहा था कि उनके मन में उनके दिए हुए उत्तर सुन कर ईश्वर के अस्तित्व में विश्वास नहीं हुआ। तब ऋषि ने कहा था कि तुम्हें ईश्वर का विश्वास तब होगा जब ईश्वर स्वयं तुम्हें विश्वास करायेंगे। आचार्य जी ने कहा कि मनुष्य धन कमाता है, इसमें मनुष्य का पुरुषार्थ भी है और ईश्वर की कृपा भी है। हमें गायत्री मन्त्र का पाठ करके ईश्वर से आत्मा में प्रेरणा करने की प्रार्थना करनी चाहिये। हमें रोज प्रातः व सायं प्रार्थना व सन्ध्या करनी चाहिये। जब आपको अवसर मिले तो आप दूसरों पर कृपा करें। असहाय प्राणियों पर भी कृपा करें। दीपावली व होली पर्वों की चर्चा कर आचार्य वागीश जी ने कहा कि इन पर्वों का पुराना नाम नवस्येष्टि है। कृषि की फसल वर्ष में दो बार होती है। फसल अच्छी होने पर किसान के मन में अहंकार आ जाता है। इस अहंकार को न होने देने के लिये ऋषियों ने नवान्न से यज्ञ करने का विधान किया है। नये अन्न से हवन करने से ईश्वर का धन्यवाद हो जाता है और किसान अहंकार से भी मुक्त होते हैं।

विद्वान आचार्य वागीश जी ने कहा कि अपने अन्न में से दूसरों के लिये भी अन्न निकालें। कीटों के लिये, कुत्ते व कौवे आदि के लिये भी अन्न निकालें व उन्हें देंवे। प्रचुर अन्न आये तो नवस्येष्टि यज्ञ करें। आचार्य जी ने बस का उदाहरण दिया और कहा कि बस में हम किसी छोट्टे बच्चे को गोद में लिये महिला या वृद्ध सज्जन को देखते हैं तो अपनी सीट को छोड़कर उन्हें बैठने के लिये कहते हैं। एक व्यक्ति ने अपने मित्र से कहा कि मुझसे इन लोगों को बस में खड़ा देखा नहीं जाता। दूसरे मित्र ने पूछा तो तुम उठकर उन्हें बैठाते होगे? उसने कहा नहीं मैं ऐसा नहीं करता अपितु अपनी आंखे बन्द कर लेता हूं। ऐसे लोगों को ईश्वर की कृपा कहां से मिलेगी? आचार्य जी ने कहा कि परमेश्वर से कृपा मांगे। आपको जो पुरुषार्थ से धन व द्रव्य मिले हों उन्हें अपने से अधिक आवश्यकता वाले दूसरे लोगों को दें दे। ऐसा कर्म करके ईश्वर से जो मांगेंगे वह मिलेगा और अधिक मिलेगा। आचार्य जी ने स्वामी श्रद्धानन्द जी के जीवन की सबसे महत्वपूर्ण घटना की चर्चा की। उन्होंने दिल्ली रालेट एक्ट के विरोध में आन्दोलन में चांदनी चौक पर अंग्रेजों के गुरखा सैनिकों की संगीनों के सामने अपना सीना खोल कर उत्साह में भरकर कहा था, हिम्मत है तो मारो गोली। डॉ. वागीश शास्त्री जी ने कहा कि स्वामी श्रद्धानन्द जी के नेतृत्व कौशल और वीरता का यह अप्रतिम उदाहरण था। आचार्य जी ने कहा कि यदि हम उस स्थिति में होते तो क्या करते? वहां जो परिस्थितियां थी उसमें हम कायरता नहीं दिखा सकते थे। आचार्य वागीश जी ने कहा कि किसी आदमी की असलियत को देखना हो तो उसे तब देखो जब वह गुस्से में, नशे में, पदों की ऊंचाईयों पर हो। क्या वह विनम्र है या अहंकार से भरा है? उसे तब देखो जब वह गहरे दोस्तों के बीच हो तथा तब देखो जब वह अकेला हो। वह कैसा व्यवहार कर रहा है?

आचार्य वागीश जी ने गुरुकुल कांगड़ी की स्थापना की चर्चा की और कहा कि स्वामी श्रद्धानन्द जी ने उस गुरुकुल में अपने दोनों बालकों इन्द्र व हरीश को भर्ती किया था। उन दिनों गुरुकुल के बच्चों को सरकारी नौकरी की कोई सम्भावना नहीं थी। श्रद्धानन्द जी ने अपने बच्चों को उस नये गुरुकुल में भर्ती करके खुद का उदाहरण प्रस्तुत किया जिससे दूसरों को विश्वास हो सके और वह भी अपने बालकों को वहां भर्ती करें। आचार्य जी ने बताया कि स्वामी श्रद्धानन्द गुरुकुल में रात को उठ उठ कर घूमते और देखते थे कि किसी बच्चे को कोई परेशानी तो नहीं है। एक रात उन्होंने छात्रावास के एक कमरे से बच्चे के कराहने की आवाज सुनी। वह उस कुटिया में गये। एक बच्चा वहां बीमार था। उस बच्चे को वमन आ रहा था परन्तु वह उसे रोक रहा था। उसे डर था कि बिस्तर खराब हो जायेगा। वहां उल्टी कराने के लिये कोई बर्तन नहीं था। स्वामी जी ने अपने दोनों हाथों की अंजलि वमन करने के लिये उस बालक के आगे कर दी। वह बालक को बोले कि बिना संकोच इसमें उल्टी कर दो। उन्होंने बालक के प्रति माता-पिता का सा प्यार जताया। पास में सो रहे एक अध्यापक कुछ समय पूर्व जागे यह दृश्य देख रहे थे। उस अध्यापक के माध्यम से ही हम इस घटना को जान पाये। यदि वह न जागता या वहां अन्य कोई न होता तो स्वामी श्रद्धानन्द तो किसी को बताने वाले नहीं थे। हां कालान्तर में वह बच्चा बता सकता था। यह घटना स्वामी श्रद्धानन्द जी के मन की निर्मलता, वात्सल्यता और उनके अनेक गुणों का प्रकाश करती है। आचार्य वागीश जी ने कहा कि यह घटना आस्तिकता का सबसे बड़ा उदाहरण है। आचार्य जी ने श्रोताओं को प्रेरणा की अकेले में अच्छे काम करना।

आर्यसमाज के शीर्ष विद्वान आचार्य डॉ. वागीश शास्त्री जी ने कहा कि कर्म फल देने के लिये ईश्वर का हमारे मन में उपस्थित होना आवश्यक है। उन्होंने आर्यसमाजी विचारों वाले दिल्ली के पूर्व मुख्यमंत्री श्री साहिब सिंह वर्म्मा का उल्लेख कर बताया कि एक बार वह कनाट पलेस में थे। वर्मा जी की यह आदत थी कि वह सरकारी सुविधाओं के बिना ही दिल्ली का जायजा लेने साधारण कार में निकल पड़ते थे। उन्होंने अपने विद्युत विभाग के मंत्री को वहां किसी स्त्री के साथ घूमते देखा। वह मंत्री जी मनोरंजन की स्थिति में थे। वर्म्मा जी ने उसे फोन किया तो वह इधर उधर की बातें करने लगा और बोला कि मैं अभी शाहदरा में हूं। अगर आप चाहें कि आपसे मिलूं तो मुझे आने में तीन चार घंटे लग जायेंगे। साहिब सिंह वर्मा जी ने उसे कहा कि अपने पीछे देखों कौन खड़ा है? मंत्री जी घूमे, देखा मुख्यमंत्री साहिबसिंह वर्मा जी हैं। वह हैराम और लज्जित हुआ। आचार्य वागीश जी ने कहा कि इस दुनिया का सबसे बड़ा बौस सर्वव्यापक ईश्वर है। वह हमें हर जगह हर क्षण देख रहा है। ईश्वर पर विश्वास करने का यह प्रमुख आधार हैं।

आचार्य वागीश जी ने महापुरुषों के जीवन की घटनाओं को स्मरण करने से होने वाले लाभों की भी चर्चा की। आचार्य जी ने कहा कि भारतीय परम्परा में इतिहास में काल-क्रम का दिया जाना अनावश्यक माना जाता था। यदि इतिहास से कोई शिक्षा न मिले तो उसे पढ़ने व याद करने में मन लगता नहीं है। यदि उससे शिक्षा व प्रेरणा मिले तो उसका मूल्य होता है। आचार्य जी ने इतिहास के ग्रन्थ रामायण, महाभारत व पुराणों की चर्चा की। इन ग्रन्थों के लेखक आचार्यों ने तारीखों पर ध्यान नहीं दिया। इनमें बिना तारीख की घटनायें मिलती हैं। रामायण व महाभारत आदि की शिक्षाप्रद घटनायें भावी पीढ़ियों का मार्गदर्शन करें, इसलिये इतिहास में कुछ कल्पनाओं को जोड़ा गया है। रोचक कल्पनाओं को लोग याद रखते हैं तथा शिक्षा को भुला देते हैं। आचार्य जी ने कहा कि एक दिन निश्चित कर उन शिक्षाओं को याद करें और उसमें उपयोगी बातों को अपने जीवन में ग्रहण करें। उन्होंने कहा कि बच्चों का माइण्ड सैट अच्छा बनाने के लिये उन्हें अपने महापुरुषों के जीवन चरितों व उनकी घटनाओं को पढ़ायें। बच्चों का मन अच्छे संस्कारों से युक्त हो इसके लिये हम अपने बच्चों को अच्छे स्कूलों में भर्ती कराते हैं। उन्हें ट्यूशन भी पढ़ाते हैं। उन्होंने पूछा कि बच्चों को पढ़ाते पढ़ाते ही हो या कभी उन्हें व्यायाम करने व खेलने के लिये भी कहीं भेजते हो? आचार्य जी ने एक उदाहरण दिया कि एक विद्वान रोगी करोड़पति और एक पढ़ा लिखा स्वस्थ युवा सरकारी कर्मचारी। उन्होंने कहा कि पैसे का महत्व तब है जब हमारा शरीर स्वस्थ रहे। मन शक्तिशाली कैसे होगा? उन्होंने पूछा की संसार में सबसे शक्तिशाली कौन है? शक्तिशाली वह है जिसका मन शक्तिशाली हो। उन्होंने कहा कि जिस व्यक्ति के संकट में बहुत लोग सहयोग करने आते हैं। वह शक्तिशाली माना जाता है।

आचार्य वागीश जी ने मन को शक्तिशाली बनाने के उपायों की भी चर्चा की। उन्होंने कहा कि माता-पिता अपने बच्चों को महापुरुषों का जीवन चरित पढ़ायें। इससे बच्चों को महापुरुषों के जीवन के साहस, देशभक्ति एवं महान कार्यों को जानने व वैसा करने की प्रेरणा मिलेगी। आचार्य जी ने अमेरिका के एक व्यक्ति की चर्चा की। उन्होंने जब दूर कहीं कोई काम होता था तो वह किराये का दो सीटर प्लेन लेकर जाते थे। एक दिन यात्रा कर रहे थे कि उनका पाइलट अचानक बेहोश हो गया। उस समय उनका जहाज हजारों मीटर की ऊंचाई पर था। वह पहले कई बार यात्रा कर चुके थे। उन्हें पता था कि जहाज जब उड़ता है तो उसका नियंत्रण कक्ष से सम्पर्क बना रहता है। उसने पाइलट का नैट फोन उसके सिर से उतार कर अपने सिर पर पहना। कई बार हैलो हैलो कहा। नियंत्रण कक्ष से आवाज आई तो उसने उन्हें सारी स्थिति बताई। नियंत्रण कक्ष से जहाज को सुरक्षित उतारने के निर्देश दिये गये जिसका उसने पालन किया। जहाज सुरक्षित उतर गया। इस प्रकार उन्होंने अपनी जान भी बचाई और उनके पाइलट की भी उपचार होने के बाद जान बच गई। आचार्य जी ने कहा कि बच्चे यदि महापुरुषों की जीवनी व इस प्रकार का साहित्य पढ़ेगे तो आवश्यकता पड़ने पर उन्हें लाभ होगा। आचार्य जी ने आगे कहा कि मन का शक्तिशाली होना आवश्यक है। संकटो में क्रोध करना उचित नहीं। साल में एक दो बार आर्यसमाज में बच्चों का कैम्प लगायें। उन्हें जीवनोपयोगी बातें बतायें नहीं तो आप अपने बच्चों को खो देंगे। जिन बच्चों में अपने देश व उसके महापुरुषों के प्रति लगाव नहीं होगा उन बच्चों को अपने देश और माता-पिता के प्रति अपने कर्तव्य का भाव भी समाप्त हो जायेगा।

आचार्य डॉ. वागीश जी ने कहा कि बाल्यकाल में मेरे पिता ने स्वामी श्रद्धानन्द जी का जीवन चरित मेरे हाथ में पढ़ने के लिये दिया था। श्रद्धानन्द जी ने निर्णय कैसे किये? बुद्धि या भावनाओं से निर्णय कैसे लेने चाहियें? आचार्य जी ने कहा कि निर्णय बुद्धि व भावनाओं को जोड़ कर लेने चाहियें और तीसरी चीज उसमें सच्ची श्रद्धा भी जुड़ी हो होनी चाहिये। श्रद्धा सत्य में दृण आस्था को कहते हैं। आचार्य जी ने कहा कि जहां आपकी सत्य बात के विपरीत कुछ घट रहा हो, वहां पर अपनी धारणा को दृणता से स्थापित कर देना चाहिये। आचार्य जी ने कृष्ण के मथुरा छोड़ने की कथा का भी उल्लेख किया। उन्होंने बताया कि उनके शत्रु जरासन्ध ने एक विदेशी शक्ति कालभवन से संधि कर ली। इससे जरासंध की स्थिति सुदृण हो गयी थी। अतः कृष्ण जी ने विवेकपूर्ण निर्णय लेकर वहां से पलायन कर द्वारका में अपने राज्य की स्थापना की। आचार्य जी ने कहा कि निर्णय लेते समय अपने अहंकार को पीछे कर देना चाहिये। कृष्ण जी का यह कितना बड़ा साहस था। देश पहले है और हमारा अहंकार बाद में। दूसरों का सुख व दुःख भी केन्द्र में होना चाहिये। निर्णय लेने और भी अनेक बातों पर आचार्य जी ने प्रकाश डाला। आचार्य जी ने अपने शरीर, बुद्धि व मन को परिष्कृत करने को कहा।

आचार्य जी ने स्वामी श्रद्धानन्द जी द्वारा चलाये गये शुद्धि आन्दोलन की चर्चा की। स्वामी श्रद्धानन्द दूसरे समुदाय के लोगों में गये। वहां अपने लोगों को वापिस लाने की कोशिश की। गांव-गांव के लोग शुद्ध होने लगे। एक समुदाय के व्यक्ति ने उनके शुद्धि कार्यों से नाराज होकर उन्हें गोली मार कर हुतात्मा बना दिया। आचार्य जी ने बताया कि गांधी जी ने स्वामी श्रद्धानन्द जी को दोष दिया था। उन्होंने कहा था कि शुद्धि करने की क्या आवश्यकता थी? आचार्य जी ने कहा कि आज देश की परिस्थितियां बता रहीं हैं कि स्वामी जी ने जो किया व कर रहे थे वह ठीक था तथा गांधी जी गलत थे।

आचार्य जी ने देश के विभाजन का भी उल्लेख किया। उन्होंने कहा कि देश के नेताओं ने यह कैसा न्याय किया। जब दो समुदायों में बंटवारा हो गया तो दूसरे समुदाय के लोगों को भारत में क्यों रखा गया? उनको उनका हिस्सा दे दिया गया और अपने हिस्से में भी उनको रहने दिया गया। उनसे कहा गया कि तुम चाहो तो यहां भी रह सकते हो। यह मूर्खता थी। इसका खामियाजा सदियों तक भोगना पड़ेगा। आचार्य जी ने कहा कि हिन्दू समाज की अनेक विडम्बनायें हैं। हमारे बन्धुओं के बाहर जाने के सारे रास्ते खुले हैं। उन्होंने पूछा कि अन्य मत का व्यक्ति हिन्दू बनना चाहे तो उसे क्या बनाओगे? यादव, ठाकुर, कायस्थ, ब्राह्मण, क्षत्रिय, जाट, गुर्जर क्या बनाओगे? यह तो तब बनते हैं जब उनका पिता उस जाति व वर्ण का हो। आचार्य जी ने कहा कि आर्यों का समाज बन नहीं सका है। उन्होंने कहा आर्यसमाज वैदिक धर्म के प्रचार की गतिविधियों को चलाने का केन्द्र है। आर्यसमाज प्रचार का स्थान नहीं है। प्रचार के लिये बाहर निकल कर काम करना होगा। आचार्य जी ने वर्णव्यवस्था की चर्चा भी की। वर्ण परिवर्तन पर भी आचार्य जी ने प्रकाश डाला।

आर्यसमाज के शीर्ष विद्वान वागीश जी ने कहा कि ऐसा समाज बनाना बाकी है जो अपनी उन्नति ही न करे अपितु दूसरों की उन्नति में भी प्रयत्नरत रहे। आचार्य जी ने दुःख भरे शब्दों में कहा कि हिन्दू समाज ने स्वामी श्रद्धानन्द और आर्यसमाज द्वारा किये गये शुद्धि के कामों में साथ नहीं दिया। आचार्य वागीश जी ने कहा कि योगी अरविन्द ने भविष्यवाणी की थी कि आने वाले 90 वर्षों में हिन्दू समाज को अपने अस्तित्व को बचाने के लिये समझौते करने होंगे। क्रिश्चियन, वामपन्थी या इस्लामिक लाबी में से किसी एक से सन्धी करनी पड़ेगी। इनसे हिन्दुओं को जुड़ना पड़ेगा तभी वह सुरक्षित रह सकेंगे। आचार्य जी ने श्रोताओं से पूछा कि आप इन तीन में से क्या होना पसन्द करेंगे? एक विकल्प यह भी है कि ठीक से हिन्दू हो जाईये। जातिवाद, प्रान्तवाद, भाषावाद, व अन्य अन्धविश्वासों व बुराईयों को दूर कर दीजिये। आज हिन्दू पंजाबी, बिहारी, गुजराती, मराठा, बंगाली आदि अनेक खण्डों में बंटा हुआ है। आचार्य जी ने चाइना की एक वेबसाइट का उल्लेख कर कहा कि उनके द्वारा प्रचार किया जा रहा है कि वह आगामी कुछ वर्षों में भारत को 25-26 टुकड़ों में बांट देंगे। आचार्य जी इस हिन्दुओं की स्थिति पर एक उर्दू का शेर पढ़ा जिसकी पहली पंक्ति का भाव था कि जिन्हें मरहम की फ्रिक है उन्हें हिन्दू गैर समझते हैं। हिन्दुओं व आर्यसमाजियों सहित इसके साथी व सहयोगी बौद्ध व जैन आदि की भी स्थिति वही होगी जो हिन्दुओं की होगी। आचार्य जी ने कहा कि पांचवा व आखिरी विकल्प है कि सब हिन्दू एक साथ समुद्र में डूब कर मर जायें। अस्तित्व की रक्षा के लिये हमें सभी हिन्दुओं को सभी धार्मिक, सामाजिक बुराईयों व अन्धविश्वासों से मुक्त करना व कराना पड़ेगा। हमें दूसरों को अपने अन्दर आने व मिलाने के रास्ते खोलने पड़ेगें। आचार्य जी ने पुराने समय में हिन्दुओं की दुर्बलताओं की कुछ ऐसी घटनाओं का भी उल्लेख किया जब कुछ विधर्मियों ने हिन्दुओं के कुवें में गो आदि पशुओं का मांस डाल दिया और हिन्दू धर्माचार्यों ने पूरे गांव के लोगों को ही हिन्दू धर्म से बाहर कर दिया।

आचार्य जी ने अग्नि और कोयले का उदाहरण भी दिया। उन्होंने कहा कि अग्नि से बाहर जाकर वह कोयला या राख कहलाता है और अग्नि में रहे तो उसकी संज्ञा अग्नि होती है। आचार्य जी ने कहा कि कोई चमत्कार हो जाये और पूरी धरा साथ दे तो और बात है। हिन्दू समाज को अपने अस्तित्व की रक्षा के लिये अपनी सभी दुर्बलताओं का त्याग कर एकजुट होना होगा। उन्होंने उर्दू का यह शेर भी बोला ‘लम्हों ने खता की सदियों ने सजा पाई।’ अपने व्याख्यान को विराम देते हुए आचार्य जी ने कहा कि आपको मेरे व्याख्यानों में कुछ अच्छा लगा हो तो उसका श्रेय ऋषियों को है। हमारा राष्ट्र सुख, समृद्धि और सौभाग्य से युक्त हो, इसकी उन्होंने कामना की। उन्होंने सभी श्रोताओं को अपनी शुभकामनायें दीं। इसी के साथ उनका व्याख्यान और आर्य समाज का तीन दिवसीय वार्षिकोत्सव जिसमें स्वामी श्रद्धानन्द बलिदान पर्व का आयोजन भी सम्मिलित था, समाप्त हुआ।

कार्यक्रम में उपस्थित आर्यसमाज से जुड़े अनेक प्रमुख लोगों का माल्यार्पण कर सम्मान किया गया। इसके बाद आश्रम की पांच कन्याओं ने श्रद्धानन्द गाथा को गाकर प्रस्तुत किया। इसकी आरम्भ की पंक्तियां थी ‘हम स्वामी श्रद्धानन्द जी के जीवन की एक झलक दिखाते हैं बलिदान दिवस की बेला पर लघु कथा सुनाते हैं। स्वामी जी तुम्हें प्रणाम, बलिदान दिवस के नाम।’ आश्रम के अधिष्ठाता श्री ओम्प्रकाश नांगिया जी ने भी श्रोताओं को सम्बोधित किया ओर सरकारी नीतियों के कारण आश्रम चलाने में जो समस्यायें आ रही हैं उनको सभी श्रोताओं के सामने रखा। अन्त में आर्यसमाज के प्रधान श्री महेश कुमार शर्मा जी ने स्वामी श्रद्धानन्द जी के जीवन पर एक विस्तृत पावर प्वाइण्ट प्रजन्टेशन दिया। इसमें स्वामी श्रद्धानन्द जी के जीवन विषयक प्रत्येक जानकारी को आडियो विजुएल, द्रश्य व श्रव्य, माध्यम से प्रस्तुत किया जिसे जानकारियों का भण्डार कह सकते हैं। उनका यह कार्य अत्यन्त सराहनीय एवं स्वागतयोग्य है। कार्यक्रम के अन्त में शान्ति पाठ हुआ और ऋषि लंगर के साथ समस्त आयोजन सम्पन्न हुए। ओ३म् शम्।
-मनमोहन कुमार आर्य
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देहरादून-248001
फोनः09412985121

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