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“हमारे निमित्त से होने वाला वायु प्रदुषण हमारे परजन्म के सुखों में बाधक होंगे”

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19 Nov 18
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 “हमारे निमित्त से होने वाला वायु प्रदुषण हमारे परजन्म के सुखों में बाधक होंगे” मनुष्य जीवन में यदि किसी भौतिक वस्तु का सबसे अधिक महत्व है तो वह वायु है। वायु हमारे जीवन का प्रमुख आधार है। हम श्वास-प्रश्वास में वायु का ही सेवन करते हैं। हमें श्वास लेने में शुद्ध वायु की आवश्यकता होती है और जब हम श्वास छोड़ते हैं तो अशुद्ध वायु या कार्बन-डाई-आक्साइड गैस को वायुमण्डल में छोड़ते हैं। यह दूषित वायु मनुष्य के स्वास्थ्य के लिये हानिकारक होती है। इस व ऐसे अन्य कारणों से वायु प्रदुषण होता है। हम वायु के बिना 5 मिनट भी जीवित नहीं रह सकते। यदि हमें श्वांस के लिये वायु नहीं मिलेगी तो दो से तीन मिनट में ही हमारी मृत्यु हो सकती है। इस कारण प्रत्येक मनुष्य का कर्तव्य है कि वह वायु को शुद्ध रखे और अपने किसी कार्य से उसे प्रदुषित न करे। हम कितना भी करें परन्तु हमारे श्वास-प्रश्वास सहित मल-मूत्र विसर्जन, स्नान, वस्त्रों की धुलाई तथा रसोई में चूल्हा-चक्की आदि से प्रदुषण व निर्दोष कीट-पतंगों को कष्ट पहुंचने सहित उनकी मृत्यु आदि भी हो जाती है। हम पैदल चले या वाहन में, भूमि व मार्ग पर चलने वाले छोटे जीव-जन्तुओं को हानि होती है। यह हमारे निमित्त से होने वाले कुछ अशुभ वा पाप कर्म हैं। ऋषियों ने इन पापों से मुक्त होने के लिये प्रायश्चितस्वरूप यज्ञ-अग्निहोत्र को प्रतिदिन प्रातः व सायं करने का विधान किया है। इसको करने से हम अनायास व अनजानें में होने वाले इन पापों से बच जाते हैं। इसका कारण यह है कि यज्ञ-अग्निहोत्र से वायु की शुद्धि होती है, वायु का दुर्गन्ध दूर होता है, शुद्ध घृत की अग्नि में आहुतियों से घृत के सूक्ष्म कणों से वायु में ऐसे गुण उत्पन्न होते हैं जिनसे प्राणियों को लाभ होता है। ऐसे अनेक लाभ यज्ञ-हवन करने से होते हैं जिसमें वायु शुद्धि भी एक प्रमुख लाभ होता है।

श्वास-प्रश्वास तथा मल-मूत्र विसर्जन मनुष्य के ईश्वर द्वारा बनाये गये नियम हैं जिन्हें करना सभी के लिये आवश्यक है। तथापि अन्य प्राणियों को इनसे होने वाली हानियों से बचाने के लिये हम यज्ञ-अग्निहोत्र करके उपाय कर लेते हैं। वर्तमान में हम पेट्रोल तथा डीजल आदि ईधन का प्रयोग अपने वाहनों में करते हैं। इससे भी वायु व जल प्रदुषण होता है। इनसे होने वाला प्रदुषण हमारे श्वास-प्रश्वास तथा मल-मूत्र आदि कार्यों से होने वाले प्रदुषण से कहीं आधिक होता है। हमारे व अन्यों के निमित्त से वाहनों आदि से जो प्रदुषण होता है उसके निराकरण के लिये हम कोई उपाय नहीं करते। हमें लगता है कि इसकी गणना हमारे अशुभ कर्मों, कर्मभोग व हमारे प्रारब्ध में होगी और मृत्योपरान्त जिस योनि में भी हमारा परजन्म होगा, वहां हमें वाहन आदि के प्रदुषण से हुए अपकारों का भुगतान भी दुःख रूपी फल के भोग द्वारा करना होगा। हम अनुभव करते हैं कि वैदिक विचारधारा के बन्धुओं का इस ओर ध्यान नहीं है और न हमारे विद्वान कभी इनकी चर्चा ही करते हैं। विद्वानों को इस समस्या पर ध्यान देने और इसका समाधान करने की आवश्यकता है जिससे हमारा अगला जन्म दुःखों से रहित व सुखपूर्वक व्यतीत हो सके।

इस विषय में हम अपना एक अनुभव बताना चाहते थे। हमारे एक विद्वान मित्र श्री चन्द्रदत्त शर्मा थे। हम एक ही सरकारी विभाग में सेवारत थे। शर्मा जी ने जीवन में कभी साईकिल भी नहीं चलाई, पेट्रोल व डीजल के निजी वाहन चलाने का तो प्रश्न ही नहीं होता। वह व उनकी धर्मपत्नी श्रीमती ओंकारी देवी जी को जहां भी जाना-आना होता था, वह दोनों पैदल या सार्वजनिक वाहन से आते जाते थे। वह हमें कहते थे कि मैं पैदल चलता हूं। पेट्रोल आदि वाहन न चलाने से मेरे निमित्त से वायु प्रदुषण नहीं होता जैसा इनका प्रयोग करने वालों द्वारा किया जाता है। इसका लाभ मुझे अगले जन्म में अवश्य मिलेगा। हम भी विचार करते थे और उन्हें अपनी सहमति देते थे। इसका अर्थ यह है कि जो व्यक्ति वाहनों के माध्यम से जितना प्रदुषण कर रहा है वह उतना अधिक अशुभ कर्मों का कर्त्ता बन रहा है। इसका परिणाम परजन्म में होगा, ऐसा हमें वैदिक विचारधारा का अध्ययन करने से प्रतीत होता है। हमारे एक स्थानीय आर्यमित्र श्री वेदप्रकाश जी थे। उनकी साईकिलों की दुकान थी। वह बताते थे कि यूरोप के देशों में ऐसे-ऐसे राज्याध्यक्ष हैं जो साईकिल से संसद भवन जाते हैं। इसका कारण प्रदुषण न होने देने की भावना है। हमारे देश में तो नेता अपनी पब्लिसिटी के लिये कई बार संसद बैलगाड़ी से आने की घोषणा करते हैं। यह लोग दिखावा करते हैं परन्तु मन से इसके प्रति वह कोई उदाहरण प्रस्तुत नहीं करते।

आजकल देश व विश्व में बड़े पैमाने पर औद्योगीकरण हो चुका है व निरन्तर हो रहा है। इससे भी बहुविध प्रदुषण होता है। इसकी रोकथाम के लिये अधिक उपाय नहीं हैं। इन सब कारणों से ग्लोबल वार्मिंग की समस्या सामने आयी है। बतातें हैं कि इससे ओजोन की परत में भी छिद्र हो गये हैं। इससे आने वाली सूर्य की किरणें मनुष्यों के लिये हानिप्रद होती हैं। ऋतु परिवर्तन पर भी इसका दुष्प्रभाव पड़ता है। देश में अनेक कत्लखानों में प्रतिदिन बड़े पैमाने पर पशु हत्या होती है। कुछ धार्मिक सम्प्रदायों के पर्वों पर भी बड़े पैमाने पर पशु वध होता है। इन सबसे हमारे पर्यावरण को हानि पहुंचती हैं जिससे प्राकृतिक आपदा जैसी समस्यायें उत्पन्न होती हैं। आधुंनिक विज्ञान के युग में जिह्वा के स्वाद के लिये पशुहत्या किया जाना दुःखद है। यह मानवीय कार्य नहीं है। इससे पता लगता है कि मनुष्य जीवों के प्रति कितना असम्वेदनशील है। स्वयं को कांटा लगे तो चिल्लाता है, धरती आसमान पर उठा लेता है और पशुओं की हत्या में भागीदार होता है। परमात्मा ने मनुष्य को शाकाहारी प्राणी बनाया है जो शारीरिक आकृति, दांतों की बनावट, मानवीय बुद्धि, आंतों की बनावट आदि से स्पष्ट होता है। मांसाहारी मनुष्यों ने ईश्वर की इच्छा व भावना को भुलाकर अपने जिह्वा के स्वाद के लिये ईश्वर की इच्छा के विपरीत पशु वध में भागीदार बना है जो निरन्तर हो रहा है। इसका परिणाम भी हमारे वातावरण पर पड़ रहा है। इसका निवारण केवल पशु हत्या पर पूर्ण प्रतिबन्ध के द्वारा ही हो सकता है जिसकी दूर-दूर तक कोई सम्भावना नहीं है। आर्यसमाज व सनातन धर्म की संस्थायें पशु हत्या पर प्रतिबन्ध लगाने के लिये आन्दोलन नहीं करती। यदि आज ऋषि दयानन्द और स्वामी श्रद्धानन्द जी जैसे लोग होते तो इस पर अवश्य ध्यान देते और कुछ न कुछ ठोस कार्य तो अवश्य ही करते।

आज की शिक्षा विद्या न होकर अविद्या व मिथ्या ज्ञान है। आज के लोगों को सत्य व हितकर बात समझाना भी असम्भव नहीं तो कठिन अवश्य है। प्रश्न किया जा सकता है कि जो मनुष्य मांसाहार नहीं करते, वह क्या बुद्धिमान व विद्वान नहीं होते? सृष्टि की आदि से हमारे देश के ऋषि-मुनि ही नहीं साधारण लोग भी मांसाहार नहीं करते थे। वह विवेकशील, धर्मपारायण तथा ईश्वरभक्त होते थे। रामायण व महाभारत ग्रन्थों से हजारों व लाखों वर्ष पूर्व सामान्यजनों द्वारा मांसाहार किये जाने की पुष्टि नहीं होती। यदि रामायण में राक्षसों की बात करें तो यह विदित होता है कि उनमें कुछ लोग मांसाहार करते थे जिससे उनकी बुद्धि विकृत हो गई थी और वह श्रेष्ठ कार्य न करके हिंसा व दुव्यर्सनों सहित चारित्रिक हनन के कार्य करते थे। आज ज्ञान-विज्ञान बहुत अधिक वृद्धि को प्राप्त हुआ है। इससे मनुष्य में सात्विकता में कमी तथा राजसिक व तामसिक बुद्धि व कार्यों में वृद्धि हुई है। यूरोप के देशों में भी शाकाहार बढ़ रहा है। लोगों का प्रकृति व पशुओं के प्रति भी प्रेम भी बढ़ रहा है। भारत में श्रीमती मेनका गांधी जी द्वारा भी पशुओं के प्रति दया एवं करूणा सहित उन्हें किसी प्रकार का कष्ट न देने का आन्दोलन भी चल रहा है। यह सराहनीय कार्य हैं। आज हृदय, मधुमेह आदि अनेक रोगों में चिकित्सक मांसाहार, अण्डों, धूम्रपान आदि का सेवन न करने की सलाह देते हैं। इससे सिद्ध होता है कि मांसाहार स्वास्थ्य के लिये हानिकारक है। आज मनुष्य की आयु प्राचीन काल की तुलना में काफी कम है। कृष्ण जी, अर्जुन, भीष्म पितामह यह सब 120 वर्ष से अधिक आयु थे और बलवान व स्वस्थ होते थे तथा इस बड़ी आयु में इन्होंने युद्ध में वीरता के कौशल दिखाये थे। आज का मनुष्य औसत आयु 60-70 वर्ष के बीच का ही होता है। अतः मनुष्य को सुख व शान्ति तथा दीर्घ जीवन के लिये वेदों की ओर लौटना होगा और पूर्ण शाकाहारी बनने सहित उसे योगाभ्यास व ईश्वरोपासना को महत्व देना होगा।

मनुष्य का कर्तव्य है कि वह अपने इस जीवन व भावी परजन्म को सुखी व उन्नत बनाने के लिये देवयज्ञ-अग्निहोत्र करे, शाकाहारी जीवन व्यतीत करें और पेट्रोल व डीजल आदि के वाहनों का न्यूनतम प्रयोग करें जिससे उसका इहलोक और परलोक सुखी हो सके। यदि ऐसा नहीं करेंगे तो हो सकता है कि वाहन प्रदुषण करने का दुष्परिणाम भंयकर दुःखों के रूप में हमें परजन्म में भोगना पड़े। हम आर्यसमाज के उपदेशक विद्वानों से भी निवेदन करते हैं कि वह भी इस विषयक अपने विचारों व अनुभव को साझा करें जिससे सामान्य जनता को लाभ हो।
-मनमोहन कुमार आर्य
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