पं. सत्यपाल पथिक जी से हमारा कई वर्षों से परिचय है। हम देहरादून के गुरुकुल पौंधा, वैदिक साधन आश्रम तपोवन सहित टंकारा, अजमेर, दिल्ली व हरिद्वार आदि स्थानों पर अनेक बार उनसे मिले हैं। पथिक जी यदा-कदा हमारे आर्य पत्र पत्रिकाओं में लेख देखते रहते हैं इसलिये भी वह हमें जानते हैं। हम तो आर्यसमाज में प्रवेश के समय से ही उनके भजनों के प्रशंसक हैं। यह भजन आरम्भ में हम वीडियों कैसेट्स में सुना करते थे। वह आर्यसमाज के उत्सवों व मेलों में जहां भी मिले हैं वहां हमारा परस्पर संवाद हुआ है। हम पहले भी उनसे सुने हुए प्रेरणादायक संस्करण अपने लेखों के माध्यम से फेस बुक आदि पर प्रस्तुत करते रहे हैं। पिछले सप्ताह भी हमने उनसे सुने पं. चमूपति एवं स्वामी अमर स्वामी जी के संस्मरण प्रस्तुत किये थे। वैदिक साधन आश्रम तपोवन के उत्सव में दिनांक 5-10-2018 को सायंकालीन कार्यक्रम की समाप्ति पर हम पथिक जी से वार्तालाप कर रहे थे। तभी हमने उनके प्रसिद्ध भजन ‘‘डूबतो को बचा लेने वाले मेरी नैय्या है तेरे हवाले” की चर्चा की। हमने उन्हें कहा कि यह भजन सुधांसु महाराज ने भी गाया है जो सुनकर अच्छा लगता है। यह भजन यूट्यूब पर भी उपलब्ध है। पथिक जी ने हमें बताया कि सुधांसु जी उनके लिखे अनेक भजन गाते हैं परन्तु वह उनके भजनों के कुछ शब्दों को बदल देते हैं और अन्तिम पंक्तियों में जहां पथिक जी का नाम होता है उसे हटा कर कुछ अन्य शब्द डाल देते हैं। हमें लगता है कि यह एक प्रकार से साहित्यिक चोरी है। यह बुरी बात है परन्तु इसमें अच्छाई यह है कि उनका भजन बहुत दूर दूर तक लोकप्रिय हो गया है। ईश्वर तो सब कुछ जानता है, कोई न्यास करे या न करे, ईश्वर तो इसका न्याय करेगा ही। पंतजलि योगपीठ के स्वामी रामदेव जी भी पथिक जी के भजन गाते हैं परन्तु वह शब्दों को यथावत् बोलते हैं और जहां पथिक जी का नाम आता है उसे भी भजन व गीत में पथिक जी का नाम लेकर पूरे सम्मान के साथ गाते हैं। स्वामी रामदेव जी ने जून, 2018 में उन्हें एक लाख रुपये का पुरस्कार देकर सम्मानित भी किया है।
पथिक जी ने आश्रम के प्रांगण में खड़े हुए हमें ऐसे दो भजनों की पृष्ठ भूमि बताई और कहा कि सभी भजनों की अपनी अपनी पृष्ठ भूमि है। दूसरे भजन की चर्चा हम आगे करेंगे जिसके बोल हैं ‘हम कभी माता-पिता का ऋण चुका सकते नहीं’। डूबतो को बचा लेने वाले भजन का उल्लेख कर पथिक जी ने बताया कि वह वर्ष 1973-1974-1975 में तीन वर्ष सिंगापुर रहे। उन्होंने फिलिपाइन्स के एक समाचार पत्र में पढ़ा कि वहां की एक युवती समुद्र में बोट चला रही थी। वह समुद्र के तट से बहुत दूर निकल गई थी। अचानक वहां पानी में एक उछाल आया और उस युवती की नावं पलट गई। लड़की ने तैर कर उस नाव को पकड़ने की बहुत चेष्टा की परन्तु वह उस तक पहुंच नहीं सकी। उसको बेहोशी आने लगी। बेहोशी की ही अवस्था में एक बड़ा केकड़ा जिसके शायद आठ पैर होते हैं, उस युवती के पास आया और उसने अपनी पीठ उस लड़की के पेट वा पीठ के नीचे लगा दी और पानी में तैरने लगा। वह तेजी से आगे बढ़ रहा था। लड़की बेहोश थी, उसे कुछ पता नहीं था। कुछ देर बाद युवती को होश आया तो उसने अनुभव किया की कोई वस्तु उसके नीचे है जो उसको जल से ऊपर उठाये हुए है और तेजी से दौड़ रही है। इस कारण वह जल के ऊपर उठी हुई उसी दिशा में जा रही है। होश आने पर वह युवती भयभीत हुई। कुछ देर बाद दूर एक पानी का जहाज दिखाई दिया। केकड़ा स्वतः उस ओर भागने लगा। लड़की ने चिल्ला कर जहाज वालों से सहायता की याचना की। जब वह दूर थी तो उसका शब्द वहां नहीं पहुंच सकता था। कुछ समीप जाने पर लड़की ने जहाज वालों से पुनः चिल्ला कर उसकी रक्षा करने को कहा। कुछ देर बाद उस जहाज के किसी नाविक की दृष्टि उस युवती पर पड़ गई। उन्होंने उसको बचाने का प्रयत्न किया। केकड़ा भी उस जहाज के समीप चला गया। जहाज वालों ने अपने साधनों से उस लड़की को समुद्र से निकाल कर जहाज में ले लिया जिससे उस लड़की की जान बच गई। अगले दिन लड़की ने समाचार पत्रों को इस घटना की जानकारी दी। इस घटना का समाचार फिलीपाइन टापू के एक समाचार पत्र में छपा जिसे पण्डित सत्यपाल पथिक जी ने सिंगापुर में पढ़ा। इस घटना से प्रेरित होकर पथिक जी ने भजन ‘डूबतों को बचा लेने वाले मेरी नैय्या है तेरे हवाले। लाख अपनो को मैंने पुकारा सबके सब कर गये हैं किनारा, अब कोई और देता नहीं है दिखाई बस तेरा ही है सहारा, तू ही सबको भंवर से निकाले, मेरी नैय्या है तेरे हवाले’ की रचना की। यह भजन बहुत प्रभावशाली है। पथिक जी की आवाज में इस भजन की सीडी भी उपलब्ध है। यूट्यूब पर भी यह भजन पथिक जी आवाज सहित सम्भवतः उनके पुत्र श्री दिनेश पथिक जी की आवाज में भी उपलब्ध है। सुधांसु जी की आवाज में भी यह उपलब्ध है। हम आशा करते हैं कि हमारे पाठक मित्रों को इस भजन का यह रहस्य जानकर अच्छा लगेगा। पथिक जी से वार्तालाप में यह तथ्य भी सामने आये कि सुधांसु जी ने आर्यसमाज के प्रति कृतघ्नता का व्यवहार किया है। आर्यसमाज में वह फूले फले, उन्हें मंच मिला, गायक बने परन्तु लोकैषणा तथा वित्तैषणा के लिये उन्होंने आर्यसमाज को छोड़ दिया। सुधांसु जी जिन दिनों आर्यसमाज में थे उन दिनों वह पथिक जी के बहुत निकट थे।
पथिक जी ने दूसरी घटना सुनाई जो उनके भजन ‘‘हम कभी माता-पिता का ऋण चुका सकते नहीं, इनके तो अहसां है इतने जो गिना सकते नहीं’ की पृष्ठभूमि से सम्बन्धित है। उन्होंने बताया कि प्रख्यात सैनिक हरि सिंह नलवा महाराजा रणजीत सिंह जी के सेनापति थी। उनकी वीरता और अनेक युद्धों में विजय की घटनायें इतिहास में वर्णित एवं प्रसिद्ध हैं। हरि सिंह नलवा ने अनेक युद्धों में विजय प्राप्त की। वह विजयी होकर अपने घर की ओर लौट रहे थे। मार्ग में उन्होंने माता के सन्तान पर सर्वाधिक उपकारों के उदाहरण व बातों को सुना तो उनका उन पर अनुकूल प्रभाव पड़ा। उन्होंने घर पहुंच कर अपनी माता की बहुत प्रशंसा की और कहा कि मैं तुम्हारा ऋण उतारना चाहता हूं। उसने उन्हें कुछ मांगने को कहा। माता ने बात को टालना चाहा परन्तु जब वह नहीं माने तो माता ने कहा कि सोच विचार कर मांग लूंगी। हरिसिंह नलवा भोजन कर जब सोने के लिये अपने बिस्तर पर जाने लगे तो उन्होंने अपना बिस्तर गिला पाया। मां ने उनके बिस्तर पर जल डाल दिया था। उसने नौकरों को भी वहां जाने से मना कर दिया था। हरि सिंह ने अपनी मां को इसके बारे में बताया और उसे बिस्तर बदलने को कहा। माता ने उत्तर दिया कि उससे गलती से वहां जल गिर गया है। आज इसी बिस्तर पर सो जाओ। हरि सिंह ने कहा कि मैं इस गीले बिस्तर पर नहीं सो सकता। वह इसके लिये बहस करने लगा। इस पर मां ने कहा कि हरि सिंह जब तुम्हारा जन्म हुआ था उसके कई महीनों अपितु वर्ष-दो वर्ष तक तुम रात्रि में मल-मूत्र करके बिस्तर को गीला कर देते थे। मैं तुम्हें सूखे में सुलाती थी और स्वयं गीली जगह पर सोती थी। ऐसा मैंने सौ से भी अधिक बार किया। तुम आज एक रात सोने में असुविधा अनुभव कर रहे हो। तुम माता के त्याग को नहीं समझ सकते। तुम मुझे उस त्याग की कीमत कदापि नहीं दे सकते। पथिक जी ने बताया कि इस घटना से प्रेरित होकर उन्होंने भजन लिखा ‘हम कभी माता पिता का ऋण चुका सकते नहीं’।
पथिक जी ने अपने जीवन का एक संस्मरण और सुनाया था। उन्होंने बताया कि कुछ दशक पहले वह रेल द्वारा अमृतसर से भारत भ्रमण के लिये निकले थे। पूरी रेल बुक कराई गई थी। लगभग चार सौ व्यक्तियों को लेकर यह ट्रेन एक स्थान से दूसरे स्थान की ओर जाती थी। रात्रि में ट्रेन चलती थी और दिन में सभी यात्री घूमते थे। इस ट्रेन को पटना भी पहुंचना था। वहां ट्रेन लेट हो गई और रात्रि के समय पहुंची। रात्रि को भोजन एवं विश्राम करना था। लोगों ने विचार किया और निर्णय किया कि पटना के गुरुद्वारे में चलते हैं। देर रात्रि यह सब लोग पटना साहिब के गुरुद्वारे में पहुंचे। भोजन समाप्त हो गया था। गुरुद्वारे के लोगों ने कहा कि आप विश्राम कीजिए, आपके भोजन का प्रबन्ध करते हैं। उन्होंने तत्काल अपने लोगों को सूचना देकर बुलाया और 400 लोगों का भोजन बनाया गया। पथिक जी ने यह भी बताया कि गुरुद्वारे के द्वार पर चौकीदारों को हिदायत दी गई कि बाहर से कोई भी अन्दर आये तो आ सकता है परन्तु अन्दर का कोई व्यक्ति बाहर नहीं जा सकता। इसका अर्थ था कि कोई व्यक्ति बिना भोजन किये बाहर न जा सके। कुछ ही देर बाद चार सौ व्यक्तियों का भोजन तैयार हो गया। सभी ने भोजन किया और वहीं पर रात्रि शयन किया। गुरुद्वारे में बिना मत-मतान्तर व अपने पराये का विचार किये इस प्रकार जो सेवा की गई व अब भी की आती है, उसकी पथिक जी ने प्रशंसा की।
भारत के किसी आर्यसमाज व आर्य संस्था में हम इस प्रकार के व्यवहार की कल्पना भी नहीं कर सकते। हमने स्थानीय संस्थाओं में देखा है कि यदि एक दो व्यक्ति भी वहां भोजन के समय या कुछ देर बाद पहुंच जायें और भोजन करना चाहें तो मना कर दिया जाता है। एक विद्वान से अभी कुछ दिन पहले ही उनके प्रवचन में हमने सुना कि आतिथ्य का गुण हमसे सिख समुदाय ने ले लिया, सेवा का गुण ईसाईयों ने ले लिया और धर्म को मुसलमानों ने ले लिया। उन्होंने कहा कि यह बात और है कि मुसलमान धर्म के विषय में वेद, तर्क, युक्ति, सत्य व असत्य पर विचार नहीं करते परन्तु अपने नियमों के पक्के हैं। हमारे एक स्थानीय अधिवक्ता मित्र ने बताया कि देहरादून के सहारनपुर चौक गुरुद्वारे में प्रातः चाय व ब्रेड वितरित की जाती है। वहां कोई भी पहुंच जाये सबकी सेवा की जाती है। लंगर भी मिलता है और रात्रि में निःशुल्क सोने की भी व्यवस्था है। यह गुरुद्वारा रेलवे स्टेशन के पास है। अनेक यात्री रेल के देर से पहुंचने पर रात्रि समय में गुरुद्वारे में ही ठहरना पसन्द करते हैं। दूसरी ओर आर्यसमाजों में आर्यसमाजियों से मंत्री और प्रधानों के पत्र मांगे जाते हैं और भोजन की तो बात छोड़ये पुरोहित जी या सेवक आकर पूछता है कि आप कब जायेंगे और रसीद हाथ में थमा कर पैसे मांगता है। हमें लगता है कि जिसने भी यह नियम बनाया है उसका अभिप्राय वर्तमान में तो यही है कि कोई व्यक्ति आर्यसमाज में न आये। आर्यसमाज समय के साथ चलने में हमें विफल दिखाई देता है। स्थानीय आर्यसमाज का एक नियम भी कुछ वर्ष पहले हमारे सामने आया था। एक आर्यमित्र का परिवार एक आर्यसमाज में श्रद्धांजलि सभा करने गया तो पुरोहित जी ने कहा कि हाल का दरवाजा तब खुलेगा जब आप इकतीस सौ रूपये बतौर किराया दे देंगे। क्या ऐसे नियम किसी नये व्यक्ति को समाज का सदस्य बनाने में सहायक हो सकते हैं। हमें स्थानीय मित्रों ने बताया कि स्थानीय एक समाज में बाहर से आने वालों को प्रमाण लाना पड़ता है और उनसे किराया वसूल किया जाता है। यदि कोई संन्यासी व उपदेशक भी आता है तो उस पर भी किराया वसूल करने का नियम लागू होता है। भोजन उपलब्ध कराना तो हम भूल ही गये हैं। हमने यह बात सुधार की दृष्टि से लिचा है परन्तु इसका किसी पर कोई प्रभाव होगा, हमें दिखाई नहीं देता। इसी के साथ इस लेख को विराम देते हैं। ओ३म् शम्।
-मनमोहन कुमार आर्य
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