राजस्थान में भीलवाड़ा की लेखिका शिखा अग्रवाल द्वारा संपादित पुस्तक " शृंगार : एक स्वाभाविक वृति" में शृंगार और फैशन को मानवीय स्वभाव का एक अनिवार्य और गहरा हिस्सा बताते हुए हमारी सोच, संस्कृति, और व्यक्तित्व के प्रतिबिंब दर्शाती है। पुस्तक में शृंगार का इतिहास, प्राचीन भारत में शृंगार, आभूषण, सोलह शृंगार की परम्परा, आंचलिक और जनजातीय लोकाचार, साहित्य में शृंगार रस, कवियों की शृंगार अभिव्यक्ति, मूर्तिकला और चित्रकला में शृंगार, गद्य और पद्य में शृंगार बोध और उपयोगिता आदि विषयों को शामिल किया गया है। लोकाचार में गोदना (टैटू) तक के लोकाचार को भी यह पुस्तक एक समीक्षीय रूप देती है। शृंगार और फैशन को ले कर यह पुस्तक एक ऐतिहासिक ही नहीं बल्कि सांस्कृतिक और शोध परख दस्तावेज के रूप में उभर कर सामने आती है।
पुस्तक पर साहित्यकार किशन प्रणय कहते है, " शृंगार और फैशन का अस्तित्व केवल बाहरी आवरण के सजावट तक सीमित न होकर, हमारे व्यक्तित्व, समाज, और संस्कृति की जीवंत अभिव्यक्ति का होना है। फैशन इंसान की उस मूल प्रवृत्ति का परिणाम है, जिसमें वह सुंदरता, रचनात्मकता, और आत्म-अभिव्यक्ति के लिए निरंतर प्रयास करता है। छीयालिस अध्यायों में विभाजित यह पुस्तक बताती है कि फैशन वैश्विक या किसी भी आंचलिक स्तर पर केवल कपड़ों या बाहरी दिखावे तक सीमित नहीं है, बल्कि यह इंसानी व्यक्तित्व, भावनाओं, और समाज में अपने स्थान को अभिव्यक्त करने का एक माध्यम भी है " ।
जितेंद्र 'निर्मोही' का आलेख " राजस्थानी का शृंगार काव्य संयोग -वियोग का अद्भुत मेल", चंद्र प्रकाश का आलेख " साहित्य, मूर्तिकला और चित्रकला में नारी शृंगार" , शिखा अग्रवाल के आलेख " शृंगार का बोध करता फैशन" एवं "प्राचीन भारत में फैशन", इतिहासकार ललित शर्मा का आलेख " नारी शृंगार के रसराज से जुड़े कला और संगीत, रूप जी रूप का आलेख " साहित्य में नारी शृंगार की अभिव्यंजना", अर्चना शर्मा का आलेख " पगड़ी पुरुषों का शृंगार", अक्षयलता शर्मा का आलेख " शृंगार एक चिंतन, अध्ययन, मंथन ", डॉ. नेहा प्रधान का आलेख " प्रेम शृंगार और मनोभावों की अभिव्यक्ति", डॉ.अपर्णा पाण्डेय का आलेख " प्रेम को रस रूप में परिणित करता है शृंगार ", डॉ.कृष्णा कुमारी का आलेख " रामचरितमानस में शृंगार " , अनुराधा गर्ग का आलेख " मध्यकालीन कवियों का शृंगार वर्णन" , डॉ. प्रभात कुमार सिंघल के आलेख "बिहारी के साहित्य में शृंगार बोध " एवं " परिधानों में शृंगार बोध " , नमिता सिंह 'आराधना' का आलेख " साहित्य में नारी शृंगार की उपयोगिता " , डॉ.मंजु यादव का आलेख "नारी सौंदर्य और प्रसाधन", रश्मि वर्मा गर्ग का आलेख "नारी शृंगार - सौंदर्य से भरपूर साहित्य" , रीता गुप्ता 'रश्मि' का आलेख "शृंगार सौंदर्य: बिंदिया चमकेगी ", अल्पना गर्ग का आलेख " सोलह शृंगार और उनके वैज्ञानिक तर्क", मीनाक्षी पंवार 'मीशांत' का आलेख " युग युगांतर से शृंगार की असीम महिमा ", प्रार्थना भारती का आलेख " भारतीय चित्रकला में नारी शृंगार" , राम मोहन कौशिक का आलेख " साहित्य में नारी सौंदर्य एवं शृंगार" एवं कविता गांधी का आलेख " चित्रकला में नारी शृंगार", सभी शोध परक आलेख हैं , जिन में शृंगार के विभिन्न पहलुओं पर विस्तार से चर्चा की गई है।
इन आलेखों के साथ - साथ पद्य रचनाओं में भी शृंगार की हृदय स्पर्शी अभिव्यक्ति देखते ही बनती है। अक्षयलता शर्मा की ,"मत कर पिव जी परदेशां व्योपार", डॉ. वैदेही गौतम की, "प्रणय निवेदन, डॉ. कृष्णा कुमारी की" प्रियतम तुम्हारी याद आई", डॉ.अपर्णा पाण्डेय की
" अभिव्यक्ति", तितीक्षा गुप्ता की" मूर्तिकला में नारी शृंगार", दीनदयाल शर्मा की "स्टेच्यू ", टीकम चन्दर ढोडरिया की" रूप निहारे", डॉ. इंदु बाला शर्मा की "लजाती सकुचाती गौरी ",
रेणु सिंह 'राधे' की " शृंगार सजे नारी के अंग-अंग ", डॉ. वैदेही गौतम की " साहित्यिक लावण्या ", रेखा सक्सेना की "नारी शृंगार बीसा",महेश पंचोली की "खिलता गुलाब",रीता गुप्ता 'रश्मि' की" शृंगार मेरा बस तुम ", प्रार्थना भारती की" मेरा प्यार मेरा शृंगार", पल्लवी दरक न्याति की" स्त्री शृंगार", डॉ.शशि जैन की
"तुमने जब से दस्तख दी है",साधना शर्मा की
"साजन से ही शृंगार",अनिष कुमार की "नारी शृंगार", तरूण राय कागा की पनघट ", अर्चना शर्मा की " सिंगार" एवं अभिज्ञा गप्ता की " एक बेटी की अभिव्यक्ति" शृंगार की प्रतिनिधि रचनाएं हैं।
इतिहासकार ललित शर्मा अपने लेख में लिखते हैं, " शृंगार रस को साहित्य में नौ रसों में से एक माना जाता है। शृंगार का अर्थ कामुक प्रेम, रोमांटिक प्रेम, आकर्षण या सौंदर्य है। शृंगार रस को रसराज भी कहा जाता है ।
रसराज अर्थात आत्माभिव्यक्ति आनन्द के लिए एक अद्वितीय प्रेरणाशक्ति होती है। इसका सीधा सम्बन्ध हृदय से होता है।भारतीय ऋषि-मुनियों ने आत्मानन्द के लिये संगीत की गहनता को स्वीकार किया है। भारतीय पुराणों तथा अन्य संस्कृत काव्यों में स्वर्ग के वर्णन में अप्सराओं तथा गंधर्व कन्याओं का उल्लेख प्राप्त होता है। नृत्य व गायन ही उनकी जीविका थी। ग्रंथों में इनके सौन्दर्य वर्णन के साथ-साथ संगीत गुण का भी वर्णन मिलता है। ये अप्सराएँ इन्द्र के संरक्षण में थी और इनका मुख्य कार्य इन्द्र तथा वहां के ऋषि-मुनियों की संगीत व नृत्य द्वारा सेवा करना था। अनेक अप्सराओं में उर्वशी, मेनका, तिलोत्तमा कला के लिए विख्यात थी। नृत्यागनाओं को भारत में राज्याश्रय प्राप्त था। " ( पृष्ठ १३ से१५)
रूप जी रूप ने अपने लेख में जायसी के पद्मावत में वियोग शृंगार को उद्धत कर लिखा है.....( पृष्ठ २१)
पद्मावति चाहत ऋतु पाई / गगन सोहावन भूमि सोहाई / चमक बीजु बरसे जल सोना/ दादुर मोर सबद सुठि लोना / रंग राती प्रीतम संग जागी / गरजे गगन चौंकि गर लागी ।
प्रणय निवेदन कविता में डॉ. वैदेही गौतम लिखती हैं...........( पृष्ठ २५ )
प्रियवर की करबद्ध श्रृंखला /नख शिख के अभिव्यंजन में / गौर वर्ण सिंदूरी बिंदिया.../
कंगन का खन- खन खनकना / सुगंधित सुरभित केशसुलझन में / छमक छमक पायलिया झूमें / प्रियवर हृदय प्रति स्पंदन में/ बिछुड़ी का चम - चम चमकना / विश्वास रजत नख पग तल में / प्रिय मिलन के समरस क्षण में / आनंदित होता प्रतिक्षण प्रतिपल/ स्वीकार कर लिया प्रणय निवेदन/ प्रियवर नयन मिलनक्षण से......।
मध्यकाल जिसे रीति काल भी पुकारा जाता है में रसराज अर्थात प्रेम अपने चरम पर था। बिहारी को रसराज कवि की उपमा दे दी गई। डॉ. अपर्णा पाण्डेय सहित कई लेखकों ने बिहारी के इस संयोग शृंगार रस दोहे को उद्धत किया है........( पृष्ठ ७२ )....
कहत, नटत, रीझत, खिझत, खिलत मिलत, लजियात/ भरे भौन में करत हैं नैननू, हीं सो बात ।। (बिहारी सतसई)
" रामचरित मानस में शृंगार" में डॉ. कृष्णा कुमारी लिखती हैं, " आनंद मानव जीवन का प्रमुख ध्येय माना गया है। जीवन के साथ-साथ काव्य में भी रस की भूमिका सर्वोपरि है, निर्विवाद है। सर्व प्रथम आचार्य भरतमुनि ने अपने 'नाट्यशास्त्र' ग्रन्थ में रससूत्र का विवेचन किया है, और रस को काव्य की आत्मा माना है। काव्य के नौ रसों में शृंगार रस को 'रसराज' की उपाधि से अलंकृत किया गया है। शृंगार के दो पक्ष हैं, संयोग और वियोग या विप्रलम्भ । इसका स्थाई भाव 'रति' है। हम तुलसीकृत महाकाव्य रामचरितमानस के संदर्भ में दृष्टिपात करें तो इस में सभी रसों का विवरण मिलता है, जो कि महाकाव्य के लिए अनिवार्य तत्त्वों में शामिल है।
हे खग मृग हे मधुकर श्रेनी । तुम्ह देखि सीता मृगनैनी ।। खंजन सुक कपोत मृग मीना ।
मधुप निकर कोकिला प्रबीना ।। अरण्यकाण्ड
इन पंक्तियों में विरह रस के भाव के साथ- साथ प्रेम और करुणा का भाव स्पष्टत अभिव्यक्त हुआ है । यह गरिमापूर्ण, अद्वितीय, विलक्षण विप्रलम्भ शृंगार का कोई सानी में अत्यंत, सजीव, अद्भुत, रुचिर, अतुल्य वर्णन संत तुलसी शृंगार रस हिंदी साहित्य में दुर्लभ ही है।
जब पवनसुत जनकसुता की खोज करके आते हैं और श्रीराम व की विरह - विधग्ध हालत का बखान करते हुए सुंदरकांड में लिखा हैंl ,
विरह अगिनि तनु तूल समीरा ।
स्वास जरइ छन माहिं सरीरा ।। नयन स्त्रवहिं जलु निज हित लागी। जरें न पाव देह बिरहागी ।।
ये कुछ बानगी है पुस्तक में गद्य - पद्य रचनाओं की जिस संकित की अन्य रचनाओंके बारे में भी रोशनी पड़ती हैं। कथाकार और समीक्षक विजय जोशी पृष्ठ आवरण पर किताब के बारे में लिखे विचार भीउल्लेखनीय हैं जिसमें वे कृति को शृंगार की परम्परा और फैशन की धारा बताते हुए लिखते हैं, "साहित्य, चित्रकला, मूर्तिकला और समाज के सन्दर्भ में कृति 'शृंगार एक स्वाभाविक वृत्ति यथा शीर्षक अपने भीतर उन सभी आयामों को समाहित किए हुए है जिससे शृंगार, शृंगार रस, रूप और गंध की समस्त संवेदनाओं से आत्मसातीकरण होता है। इस माने में भी कि पारम्परिक परिवेश और आधुनिक वातावरण में अथवा समय विशेष पर प्रचलित एवं लोकप्रिय संसाधनों से शृंगार की मूल चेतना के विविध सन्दर्भ यहाँ देखे जा सकते हैं फिर चाहे वे आलेख, निबंध का व्यापक फलक हो या फिर कविताओं का वितान। कला-साहित्य में शृंगार से सम्बन्धित आलेखों में शृंगार शब्द की व्याख्या और उसके दैहिक और आत्मिक प्रसंगों को तो उभारा गया ही है साथ हो उसके अभिव्यंजना पक्ष को भी सप्रसंग उद्घाटित किया है। इन आलेखों की यह विशेषता भी है कि सोलह शृंगार के विविध सन्दर्भ को विवेचित करते हुए उनके बदलते स्वरूप को भी सामने लाते हैं। यही नहीं शृंगार और फैशन के मूल भावों को विश्लेषित करते हुए इनके परम्परागत और परिवर्तित होते सन्दर्भों को भी उभारते हैं। आलेखों में विवेचित चित्रकला, मूर्तिकला और संगीत सन्दर्भ सौन्दर्य और सरगम की अनूठी जुगलबंदी प्रस्तुत होती है। साथ ही नारी शृंगार के अतिरिक्त पुरुष शृंगार में विशेष पगड़ी पर एक मात्र आलेख सौन्दर्य के साथ आन बान शान की भावना को संचारित करता है। वहीं शृंगार बोध से ओतप्रोत कविताएँ रूप और रस की संवेदना से भरपूर हैं। सम्पादक शिखा अग्रवाल ने अपने लेखकीय कौशल के साथ इन आलेखों को सम्पादकीय दृष्टि से समृद्ध कर जीवन के प्रमुख रस शृंगार की परम्परा और फैशन की धारा को समेकित करते हुए कृति का रूप प्रदान किया जो सृजन सन्दर्भों और अध्येताओं के लिए उपयोगी ही नहीं वरन् शोध हेतु एक दिशा भी प्रदान करती है।"
संपादकीय में शिखा अग्रवाल लिखती हैं,
" शृंगार, सौंदर्य, प्रेम की अभिव्यंजना हर युग में प्रचलित रही है। जो एक स्वभाविक वृत्ति है।
समय- समय पर इनके बदलते स्वरूप फैशन का रूप धारण कर लेते हैं। ये सभी अवधारणाएं प्राचीन काल से ही हमारी संस्कृति का हिस्सा रही हैं। शृंगार और फैशन हर समाज में प्रचलित रहे हैं। वेशभूषा और इसका बदलाव भी शृंगार का ही हिस्सा है। नारी ही नहीं पुरुष भी सुंदर दिखने के लिए युगानुसार शृंगार कर परिधान धारण करते हैं। आधुनिक समय में शृंगार और फैशन के स्वरूपों में तेजी से परिवर्तन होता रहता है। दूरस्त जंगलों में निवास करने वाले आदिवासी भी इस से अछूते नहीं हैं। यह जरूर है कि उनके शृंगार आज भी पारंपरिक रूप से मौलिकता लिए हुए हैं। उनके शृंगार के तौर तरीके और अनूठेपन से हम आश्चर्यचकित हो जाते हैं। शृंगार और परिधान से ही सौंदर्य और प्रेम की भावना पुष्पित और पल्लवित होती है। प्यार की भावना ही समाज को एकता के सूत्र में पिरोती है और आपसी सद्भाव और भाईचारे को बढ़ाने में अमूल्य योगदान करती है।भारतीय सौन्दर्य के चिन्तन में नारी केन्द्र बिंदु है, जहाँ से रूप के समस्त लक्षणों-शोभा, कान्ति, लावण्य आदि की परिभाषाएँ और सौन्दर्य की व्याख्या आदि प्राप्त होती है। हर युग में नारी के सौंदर्य में वृद्धि के लिए शृंगार के विविध उपाय किये गये हैं।"