कैसे कहुँ कब बन गई मैं
नारी से नारायणी
अब तलक तो मैं थी बस
इस सृष्टि की जीवन दायिनी
हर नये कदम पर नयी ठोकर
और पग पग पर अग्नि परीक्षा
डगों पर नहीं मैं डगमगाती
स्वयमेव ही सीमा प्रसारिणी
सुना था किस्से कहानियों में
मै थी सीप में मोती सी
अलको पलकों में रहने वाली
अब मैं हूँ सृष्टि धारिणी
हर पल कर्तव्यों में जकड़ी सी
मै जिम्मेदारियों का ताना बाना
तोड़ने लगी मैं बन्धनो को
मै भी हूँ सुख अधिकारिणी
रक्षक बनी हूँ मैं खुद ही खुद की
अब नहीं मै अबला सहज सुलभ
नारीत्व को बना कर अस्त्र शस्त्र
अब बनने लगी मैं सम्हारिणी