समय परिवर्तनशील होता है। आज जो समय है वह महाभारतकाल से पूर्व नहीं था। तब की देश, काल व परिस्थितियां आज से सर्वथा भिन्न थी। आज का समय एक प्रकार से संक्रमण काल है। हमारा धर्म वैदिक धर्म एवं संस्कृति वैदिक संस्कृति है। यही संसार का आदि काल से प्रचलित धर्म एवं संस्कृति है जिसका आधार ईश्वर व उसका सत्य ज्ञान वेद है। संसार में अनेक मत-मतान्तर प्रचलित हैं। कुछ मत हैं जो सनातन वैदिक धर्म को खण्डित व नष्ट कर अपने अपने मत का प्रचार व प्रसार करने के साथ देश की सत्ता पर अपना कब्जा करना चाहते हैं। इसका अनुमान आठवीं शताब्दी से विदेशी व विधर्मी मतावलम्बियों के आचरण एवं व्यवहार से किया जा सकता है। इसी आधार पर विगत 72 वर्षों में पाकिस्तान व बंगला देश बना है। देश में घटने वाली घटनाओं को देखकर अनुमान होता है कि अब भारत का धार्मिक स्वरूप बदलने के लिये भी भीतर-भीतर प्रयत्न हो रहे हैं। हमारे कुछ राजनीतिक दल सत्ता के लिये ऐसे लोगों का साथ लेते हैं और उनकी देश व समाज के हितों के विरुद्ध बातों को स्वीकार भी करते हैं। इसे समझने के लिये विवेक शील मन, मस्तिष्क व बुद्धि की आवश्यकता होती है।
धर्म व संस्कृतियों के उत्थान व पतन सहित इतिहास से परिचित मनुष्य इन बातों को समझते हैं। महर्षि दयानन्द ने भी इस षडयन्त्र का अपने समय में अनुभव किया था। हमारे अनेक नेताओं में जिसमें ऋषि दयानन्द के अनुयायी व सनातन मत परम्परा के अनेक क्रान्तिकारी नेता व देशभक्त लोग थे, इन षडयन्त्रों का अनुभव करते थे। हमने महर्षि दयानन्द के विचारों के अनुरूप सुदृण आर्य-हिन्दू संगठन एवं शुद्धि के काम की उपेक्षा की थी जिसका परिणाम ही पाकिस्तान एवं बंगलादेश का हमसे पृथक होना था। आज भी धीरे-धीरे देश उसी ओर जाता हुआ दिखाई दे रहा है। आज स्थिति यह आ गई है कि अन्य देशों में अत्याचारों से पीड़ित आर्य व हिन्दुओं के हित के लिये केन्द्र सरकार कोई हितकारी काम करती है तो हमारे देश के आर्य व हिन्दुओं से इतर मत-पन्थ-सम्प्रदाय सहित कुछ विपक्षी राजनीतिक दल भी उसका खुल कर विरोध करते हैं और देश की सम्पत्ति को हानि पहुंचाने वालों से सहानुभूति रखते हैं। उनका खुल कर एक स्वर से विरोध नहीं किया जाता। इनके पीछे विदेशी व देश के ऐसे लोग जो आर्य व हिन्दुओं के धर्म व संस्कृति को पसन्द नहीं करते, उनका धर्मान्तरण करते हैं व ऐसा जिनका इतिहास है, वह तत्व काम करते हुए प्रतीत होते हैं। सरकार इन सब बातों को जानती है परन्तु वह व्यवस्था की मजबूरियों के कारण विवश दिखाई देती है। ऐसी स्थिति में केन्द्र की श्री नरेन्द्र मोदी सरकार का जम्मू-कश्मीर राज्य को भारत का अन्य राज्यों की भांति अंग बनाना, सीएए और एनआरसी जैसे राष्ट्रहित के मुद्दों पर जो देशहित के अनुरूप निर्णय लिये हैं उसके लिये इतिहास में सदैव उनकी प्रशंसा होगी, ऐसा निश्चय से कहा जा सकता है। देशवासियों का कर्तव्य है कि उन्हें देशहित के अच्छे कार्य करने के लिये भारत सरकार का साथ देना चाहिये जिससे विरोधियों के देश विरोधी व आर्य-वेद-सत्य-धर्म के विरुद्ध गुप्त व लुप्त षडयन्त्र सफल न होने पायें।
देश के सभी आर्य-हिन्दू ईश्वर व ऋषियों सहित राम, कृष्ण, शंकराचार्य व दयानन्द जैसे पराक्रमी व सत्य मार्ग पर चलने वाले महापुरुषों की सन्तानें हैं। उनका कर्तव्य है कि वह अपने पूर्वजों के अनुरूप अपने जीवन को बनायें। राम तथा कृष्ण ने अपने समय में देश व समाज में प्रचलित अन्याय, शोषण व अत्याचारों के विरुद्ध उन्हें कुचलने का काम किया था। उन्होंने साधुओं व सज्जन पुरुषों की रक्षा तथा दुष्टों व दुराचारियों का दमन व पराभव किया था। राम, कृष्ण तथा दयानन्द का जीवन और चरित्र विश्व में निश्कलंक एवं देश व समाज को समर्पित था। वह धार्मिक, आस्तिक, ईश्वरभक्त तथा वेद एवं वैदिक धर्म के अनन्य प्रेमी एवं उसके रक्षक एवं प्रचारक थे। राम व कृष्ण ने क्षात्र धर्म को धारण किया था जिसका प्रत्यक्ष उदाहरण बाल्मीक रामायाण तथा महाभारत में वर्णित श्री राम व श्री कृष्ण जी के जीवन व कार्यों से मिलता है। ऋषि दयानन्द जी कम आयु में ही संन्यासी हो गये थे। वह वैदिक मत को मानने वाले गुण-कर्म-स्वभाव से युक्त ब्रह्मज्ञानी, दिव्य कर्मों व आचरणों से युक्त ब्राह्मण थे। ऋषि दयानन्द सच्चे ब्राह्मण होकर दूसरों से अन्न प्राप्त करते थे और उनकी रक्षा व उन्नति के लिये उनको ईश्वर व वेदों में प्राप्त दिव्य प्ररेणायें व मार्गदर्शन मानवमात्र को प्रदान करते हैं। उनका कार्य भी राम व कृष्ण जी के कार्यों का पूरक था।
देश के अस्सी प्रतिशत हिन्दुओं व आर्यों के आदर्श एवं प्रेरक महान पुरुष श्री राम व श्री कृष्ण ही हैं। कोई साधारण योग्यता का मनुष्य उनका स्थान नहीं ले सकता। हिन्दुओं व आर्यों को वर्तमान समय में सबसे अधिक आवश्यकता परस्पर संगठित होने की हैं। जब राजनीतिक दल सत्ता प्राप्ति के लिये बेमेल गठजोड़ कर सकते हैं तो हिन्दू व आर्यों में गठजोड़ व सहयोग क्यों नहीं हो सकता? संगठन में ही बल होता है। यदि हम संगठित होंगे तो कोई भी शक्ति हमें किसी भी प्रकार की हानि नहीं पहुंचा सकती। हमें अतीत में जो जो हानियां हुई हैं वह सब हमारे वेदों से दूर होने सहित असंगठित एवं अज्ञान व अन्धविश्वासों से ग्रस्त होने के कारण हुई हैं। हम यह अनुभव करते हैं कि हमारे सभी पण्डित व पुजारियों को भी अपने कर्तव्य को समझते हुए सभी श्री राम और श्री कृष्ण की सन्ततियों को देश व धर्म के लिये संगठित होने तथा वैदिक धर्म एवं संस्कृति को किसी प्रकार से भी हानि पहुंचाने वालों के साथ यथायोग्य व्यवहार करने की शिक्षा देनी चाहिये। कोरी भक्ति, पूजा, धनोपार्जन व दान प्राप्ति से काम नहीं चलने वाला है। इससे धर्म एवं संस्कृति की रक्षा न पहले हुई है न अब होगी। यदि ऐसा ही चलता रहा तो वह दिन आ सकते हैं कि जब हम सदा-सदा के लिये या तो अपने धर्म से हाथ धो बैठेंगे अथवा हमारा अस्तित्व मिटा दिया जायेगा। ऐसा पहले भी हुआ है। इसके बावजूद अपने आर्य-हिन्दू पूर्वर्जों के संघर्ष से हम बचे रहे हैं। अब स्थिति ऐसी आ रही है कि हमारी संख्या निरन्तर घट रही है और अन्य मतों की बढ़ रही है। उनका अतीत का हमारे पूर्वजो के प्रति व्यवहार हमें विदित है। उनके स्वभाव व प्रकृति में परिवर्तन नहीं आया है। वह सुनियोजित रूप से, साम-दाम-दण्ड-भेद की नीति से उसी दिशा में बढ़ रहे हैं। अतः हमें न केवल सावधान रहना है अपितु अपने अस्तित्व व धर्म एवं संस्कृति की सुरक्षा के सभी उचित उपाय करने हैं। जिस प्रकार भावी रोगों से बचने के लिये हमें व्यायाम, अच्छा भोजन एवं स्वास्थ्य के नियमों का पालन करना होता है, उसी प्रकार से हमें वर्तमान में भी करना है।
आर्यसमाज के कुछ नेता भी इस कार्य में बाधक दिखाई देते हैं जो अपने पद, प्रतिष्ठा आदि तुच्छ अधिकारों के लिये आपस में लड़ते हैं जिससे आर्यसमाज एक शक्ति-हीन संस्था बन कर रह गई है। कभी-कभी ऐसा प्रतीत होता है जैसे कोई विदेशी व देशी वैदिक धर्म व संस्कृति विरोधी साम्प्रदायिक व राजनीतिक शक्तियां इस कार्य को करा रही हैं। यदि ऐसा नहीं है तो क्या कारण है कि एक ही एक विचारधारा व एक सिद्धान्त, एक ईश्वर, एक धर्म पुस्तक और एक सर्वमान्य महापुरुष ऋषि दयानन्द को मानने वाले लोग परस्पर संगठित नहीं हो पा रहे हैं? इस बात पर विचार व मन्थन किया जाना आवश्यक है। हमें नहीं लगता कि कोई आर्य इस बात को स्वीकार करेगा कि वह आर्यसमाज का नेतृत्व करने के लिए ही उत्पन्न हुआ है और यही उसका उद्देश्य है। हमारा जन्म धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष की प्राप्ति के लिये हुआ है न कि आर्यसमाज का प्रधान व मंत्री बनने व नेता बनने के लिये। निश्चय ही ईश्वर को जानना और उपासना आदि साधनों से उसे प्राप्त करना सभी मनुष्यों का मुख्य उद्देश्य है। पदों का अधिकार को समाज की सेवा के लिये प्राप्त किया जाता है। इसमें परस्पर मनमुटाव व संघर्ष की आवश्यकता है ही नहीं। योग्यतम व्यक्ति का चुनाव किया जाना चाहिये। यही आर्यसमाज का सिद्धान्त एवं परम्परा है। आर्य नेताओं को अपने मन को टटोलना चाहिये और यह भी देखना चाहिये कि क्या वह किसी योग्य पुरुष के अधिकारों का हनन तो नहीं कर रहे हैं। यदि सभी नेता ऐसा सोचेंगे और त्याग भाव का परिचय देंगे तो समस्या कुछ कम होकर हल भी हो सकती है। सभी आर्य ज्ञानवान व समझदार होते हैं। अतः हमें स्वयं ही इसका समाधान खोजना चाहिये। हां, कुछ एक दो व्यक्ति हो सकते हैं जिनके अनुयायी ऐसा नहीं होने देंगे। ऐसा होने पर भी यदि शेष लोगों का सुदृण संगठन बन जाता है तो दूसरे विरोधी अयोग्य लोग स्वयं ही आर्यसमाज से दूर हो जायेंगे। इस ओर ध्यान दिये जाने की आवश्यकता है और जो बाधक तत्व हैं, उनका बहिष्कार किये जाने की आवश्यकता है। यही आर्यसमाज को स्वस्थ एवं शक्तिशाली करने की औषधि है।
हमें लगता है कि आर्यसमाज के सत्संगों में अन्य विषयों सहित देश की धार्मिक, सामाजिक तथा राजनैतिक स्थिति पर चर्चा होनी चाहिये। इन स्थितियों से आर्य व हिन्दू समाज पर क्या प्रभाव हो रहा है व इसके भविष्य में क्या परिणाम हो सकते हैं, इस पर भी विद्वानों को प्रत्येक सत्संग में चर्चा करनी चाहिये। हमें इस पर भी चिन्तन करना चाहिये कि कैसे सन् 1947 में देश का बटवारा हुआ और पाकिस्तान में हिन्दुओं के साथ क्या-2 घटित हुआ। उसकी पुनरावृत्ति न हो, इसके लिये हमें तत्पर होना है। यदि हम सजग व सावधान नहीं होंगे तो अचानक मुसीबत आने पर हम अपनी, अपने परिवार व समाज सहित देश व समाज की रक्षा नहीं कर पायेंगे। सभी हिन्दुओं के संगठनों को भी सावधान व सजग रहना चाहिये। उन्हें मिथ्या पूजा व अर्चना को कम करके देश व समाज का हित करने सहित सभी ईश्वर व वैदिक धर्म के मानने वालों की रक्षा के उपाय करने चाहिये। अपनी रक्षा का समस्त भार सरकार पर छोड़ कर निश्चिन्त हो जाने से हम सुरक्षित नहीं रह सकते। सरकारें बदलती रहती हैं। ऐसा भी हो सकता है देश में ऐसी सरकार आ जाये जो हमारी रक्षा करने के स्थान पर हमारा अहित करने वाली हो। ऐसे स्थिति में हमारा सुदृण संगठन ही हमें बचा सकता है। हमने देश में वर्तमान में जो चल रहा है, उस की पृष्ठभूमि व परिणामों पर विचार कर कुछ विचार लिखे हैं। देश में बड़े-बड़े विद्वान, विचारक, सगठन एवं उनके नेता हैं। हमें वैदिक धर्म और आर्य-हिन्दू संस्कृति के सच्चे हितैषियों के हितकारी सुझाव पर ध्यान देना तथा उन्हें अपनाना है। देश की सरकार के सभी हितकारी निर्णयों में हमें सरकार का साथ देना है। आर्यसमाज के दसवें नियम के अनुसार उनका पालन करना है। नियम है ‘सब मनुष्यों को सामाजिक सर्वहितकारी नियम पालने में परतन्त्र रहना चाहिए और प्रत्येक हितकारी नियम (के पालन) में सब स्वतन्त्र रहें।’ ओ३म् शम्।
-मनमोहन कुमार आर्य
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