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“सहनशीलता की भी सीमा होती हैः पं0 नरेशदत्त आर्य”

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09 Sep 19
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“सहनशीलता की भी सीमा होती हैः पं0 नरेशदत्त आर्य”

वैदिक साधन आश्रम तपोवन, देहरादून के मंत्री यशस्वी प्रेमप्रकाश शर्मा जी के 22 दून विहार, राजपुर रोड, जाखन स्थित निवास पर 2 सितम्बर, 2019 से अथर्ववेद पारायण यज्ञ और महाभारत के आधार पर श्री कृष्ण के उज्जवल जीवन एवं आदर्श चरित्र पर गीतों के माध्यम से कथा का आयोजन चल रहा है। यह आयोजन 11 सितम्बर को यज्ञ की पूर्णाहुति के साथ सम्पन्न होगा। यज्ञ की ब्रह्मा देहरादून स्थित द्रोणस्थली कन्या गुरुकुल की आचार्या डा. अन्नपूर्णा जी हैं जिनके साथ उनकी चार शिष्यायें वेदमन्त्रोच्चार करती हैं। गीत एवं व्याख्यान के माध्यम से आर्यजगत के सुप्रसिद्ध भजनोपदेशक पं. नरेशदत्त आर्य अपने एक भजनोपदेशक शिष्य श्री मोहित आर्य एवं ढोलक वादक श्री अमित आर्य जी के साथ कथा कर रहे हैं। आज अथर्ववेद पारायण यज्ञ एवं कथा का 7वां दिवस था। हमें इस आयोजन में अपरान्ह 3.00 बजे आरम्भ होने वाले कार्यक्रम में सम्मिलित होने का अवसर मिला। कार्यक्रम के आरम्भ में प्रथम दैनिक यज्ञ हुआ जिसके बाद अथर्ववेद के 18वे काण्ड के तीसरे सूक्त के मन्त्रों से आहुतियां आरम्भ हुई और लगभग 1 घंटे तक आहुतियों का क्रम चला। यज्ञ की समाप्ती पर कन्या गुरुकुल की कन्याओं ने एक सामूहिक भजन गाया जिसके बोल थे ‘प्रभु सारी दुनियां से ऊंची तेरी शान है, कितना महान है तू कितना महान है।।’ इस भजन के बाद यज्ञ की ब्रह्मा डा. अन्नपूर्णा जी का सम्बोधन हुआ। उन्होंने कहा कि यज्ञ से वातावरण सुन्दर व पवित्र बनता है। आज अथर्ववेद के जिन मन्त्रों से आहुतियां दी गई हैं, उनमें शान्ति का बहुधा प्रयोग हुआ है। इन मन्त्रों का उद्देश्य ब्रह्माण्ड में शान्ति के लिए ईश्वर से प्रार्थना करना है। विदुषी आचार्या ने कहा कि मनुष्य शान्त मन से ही अपने जीवन के सभी शुभ कार्यों को कर सकता है। इसी कारण से ईश्वर शान्ति प्रदान करने की कामना की गई है। आचार्या जी ने कहा कि समय के तीन पद हैं भूत, वर्तमान एवं भविष्य। मन, वचन व कर्म से हम तीन प्रकार के कर्म करते हैं। प्रारब्ध कर्मों को हम कर चुके हैं और इनका फल हमें प्राप्त हुआ है व हो रहा है। संचित कर्मों का फल हमें अभी नहीं मिला है, बाद में मिलेगा। हमारे क्रियमाण कर्मों का फल हमें साथ-साथ मिलता जाता है। अच्छे विचारों को जानने व प्राप्त करने के लिए हमें सत्संग की आवश्यकता है। सत्य और असत्य का ज्ञान करने के लिए हमें ज्ञान की आवश्यकता होती है। इस जन्म में हमें जाति, आयु व सुख-दुःख जो मिले हैं वह हमारे प्रारब्ध कर्मों के कारण मिले हैं।

 

                हमारे पुण्य कर्मों से लोक व परलोक सुधरते हैं। डा. अन्नपूर्णा जी ने कहा कि हमारे वर्तमान का सुधार होने से हमारा भविष्य भी सुधरता है। हमें अपने वर्तमान को बिगड़ने नहीं देना चाहिये। यदि हमारा वर्तमान बिगड़ता है तो हमारा भविष्य भी बिगड़ जायेगा। डा. अन्नपूर्णा जी ने सन्ध्या के अन्तर्गत समर्पण मन्त्र का उल्लेख कर उस पर प्रकाश डाला। उन्होंने कहा कि सन्ध्या का उद्देश्य जीवन को धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष की प्राप्ति कराना है। आचार्या जी ने मनुस्मृति के अनुसार धर्म के 10 लक्षणों पर भी प्रकाश डाला। उन्होंने कहा कि धर्म वेद एवं श्रुति के अनुसार कर्म व आचरण करने को कहते हैं। सदाचार भी धर्म है। उन्होंने आगे कहा कि हम दूसरों के प्रति वह आचरण कदापि न करें जो दूसरों द्वारा हमारे प्रति किये जाने पर हमें पसन्द न हो। डा. अन्नपूर्णा जी ने कहा कि महाभारत के अनुसार हमें दूसरों के प्रति वह आचरण नहीं करना चाहिये जो हम दूसरों के अपने प्रति पसन्द नहीं करते हैं। हमें वह आचरण करना चाहिये जो हमारी आत्मा को प्रिय हो व जिससे करके हमें प्रसन्नता प्राप्त हो। हमें किसी के साथ छल व कपटपूर्ण आचरण नही करना चाहिये। धर्म का आचरण करने से मनुष्य का जीवन सार्थक होता है। आचार्या जी ने आगे कहा कि मनुष्य का जीवन तब सफल होता है जब वह सर्वव्यापक परमेश्वर को अपने हृदय में खोजता व उसका ध्यान करता है। श्री प्रेम प्रकाश शर्मा जी ने आचार्या जी के सम्बोधन की समाप्ति पर उनका धन्यवाद किया और कहा कि आज हमारे कार्यक्रम में कुछ अग्रणीय लोग उपस्थित हैं। शर्मा जी ने इन विभूतियांे में आचार्य सुनील शास्त्री, आचार्य वेदवसु शास्त्री, श्री दिलबाग सिंह पंवार एवं श्रीमती मीनाक्षी पंवार जी के नामों का उल्लेख कर उनका परिचय भी दिया।

 

                डा. अन्नपूर्णा जी के सम्बोधन के बाद पं. नरेश दत्त आर्य जी के शिष्य श्री मोहित जी का एक भजन हुआ जिसके बोल थे ‘प्रभु आपकी कृपा से सब काम हो रहा है। करता है तू दयालु मेरा नाम हो रहा है।।’ गायक मोहित जी की आवाज बहुत अच्छी लगी। यह अभी किशोर हैं और इनमें भविष्य का एक प्रभावशाली भजनोपदेशक छुपा हुआ है। हमारी मोहित जी को शुभकामनायें हैं। प्रसिद्ध आर्य भजनोपदेशक पंडित नरेशदत्त आर्य जी ने श्री कृष्ण जी की कथा आरम्भ करते हुए एक भजन सुनाया। भजन के बोल थे ‘‘बाते हैं कैसी माधव तुम्हारी उलझन में बुद्धि पड़ी है हमारी। मिली जुली जो बातें करते आ सुदर्शन आ।।” पंडित जी ने कहा मनुष्य को ज्ञान प्राप्त करना चाहिये। ज्ञान से बढ़कर ऐसा कोई साधन नहीं है जो मनुष्य को पवित्र कर सके। ज्ञान प्राप्ति के बाद मनुष्य का कर्म करना भी आवश्यक है। आचार्य नरेशदत्त जी ने कहा कि एक पंख का पक्षी नहीं उड़ा करता। इसी प्रकार से मनुष्य के जीवन में दो पंख ज्ञान व कर्म हैं। दोनों को साथ लेकर जो मनुष्य चलता है वह सुखी होता है। संसार में ज्ञान सबसे बड़ा व सबसे महत्वपूर्ण हैं। बहुत से लोगों ने ज्ञान के महत्व को सुना तो उन्होंने अपना सारा जीवन स्वाध्याय आदि करते हुए ज्ञान प्राप्ति में लगा दिया परन्तु उसके अनुरूप कर्म नहीं किये। ऐसे लोगों का ज्ञान सफल नहीं हुआ। ज्ञान के अनुरूप कर्म करने से उनको जो लाभ मिलना था उससे वह वंचित हो गये। पंडित जी ने कहा कि कभी कभी हम सीधे को उलटा समझ जाते हैं। इसका उन्होंने एक उदाहरण भी दिया। पंडित जी ने कहावत ‘पोथी पढ़ पढ़ जग मुआ पण्डित भया न कोय’ का उल्लेख किया और इसके उदाहरण भी दिये। उन्होंने कहा आज लोग पुस्तकें तो बहुत पढ़ते हैं परन्तु उनका ज्ञान तथा कर्म प्रशंसनीय न होकर निन्दनीय कोटि के होते हैं। आचार्य नरेशदत्त आर्य जी ने कहा कि वेद हमें सिखाता है कि हमें सबके साथ प्रेम से मिलकर चलना चाहिये। हमने अपने कर्तव्यों को जानना है और उसे पूरा करना है। वेद हमें प्रेम से रहना भी सिखाता है। उन्होंने कहा कि वेद विद्या भी हमें प्रेम से रहना सिखाती है। ज्ञान प्राप्त कर हमें ज्ञान के अनुरूप कर्म करने चाहियें। उन्होंने कहा कि जिसका व्यवहार सरल एवं सौम्य है वह सांख्य योगी होता है। आचार्य जी ने वेदमंत्र बोल कर कहा कि त्यागपूर्वक जीवन जीने वाला मनुष्य भी सांख्य योगी होता है। कर्मों की कुशलता का नाम योग है। ऐसे पुरुषार्थी पुरुष को कर्म योगी कहते हैं।

 

                आचार्य नरेशदत्त आर्य जी ने कहा कि जैसा हम मन में सोचते हैं वैसा ही हम अपनी वाणी से बोलते हैं। जैसे हम सोचते व बोलते हैं वैसा ही हम कर्म करते हैं। किसी से लड़ाई करने से पूर्व हमारे मन में उसके प्रति द्वेष उत्पन्न होता है। जिसके मन में द्वेष होता है वह उसकी वाणी से बाहर निकलना शुरु हो जाता है। पं0 नरेशदत्त जी ने कहा कि कृष्ण जी ने शिशुपाल की एक सौ गालियां सहन की। आचार्य नरेशदत्त जी ने श्री कृष्ण के गुणों का वर्णन किया। उन्होंने कहा कि श्री कृष्ण जी सहनशील महापुरुष थे। इसके आगे उन्होंने कहा कि सहनशीलता की भी सीमा होती है। जिस मनुष्य का मन वश में नहीं होता उसका मन तप आदि कार्यों में नहीं लगता है। तप करने से पूर्व मन को वश में करना आवश्यक है। मन जब अच्छे अच्छे काम करता है तो मनुष्य की मुक्ति हो जाती है। जब मनुष्य व उसका मन बुरे काम करता है तो वह दुःख के बन्धनों में फंस जाता है। इसके बाद आचार्य जी ने एक भजन सुनाया जिसके बोल थे ‘‘धीरे धीरे मोड़ तू इस मन को इस मन को तू इस मन को। मन लोभी मन कपटी है और चोर। नादान तू, अभिमानी तू, दूर प्रभु का घर नहीं।।” पंडित नरेश दत्त जी ने कहा कि जगत में जगजीत तो बहुत हुए पर मनजीत बहुत कम हुए हैं। श्री नरेशदत्त आर्य ने श्री प्रेम प्रकाश शर्मा जी के गुणों की भी प्रशंसा की। कृष्ण जी ने अर्जुन को कहा कि जो नर अपने कर्तव्यों का त्याग कर भीतर से ललचाते हैं वह पाखण्डी, कपटी व ढोंगी कहलाते हैं। आचार्य नरेशदत्त जी ने कहा कि ऋषि दयानन्द ने पाखण्डों का खण्डन नहीं अपितु वेद का मण्डन किया। वेदों के मण्डन में ही पाखण्डों का खण्डन निहित था। यदि वह ऐसा न करते तो वेदों का मण्डन न होता। पंडित नरेशदत्त आर्य ने ऋषि दयानन्द के गृह त्याग और उन्हें मार्ग में ठग मिलने की घटना को गीत के माध्यम से अलंकारिक रूप में प्रस्तुत की। उनके गीत के बोल थे ‘‘जिन्हें देवता समझकर पूजते थे वो बड़े स्वार्थी और मक्कार निकले”। पं. नरेशदत्त ने कहा कि ऋषि दयानन्द ने पाखण्डियों को बहुत निकटता से देखा था। ऐसे पाखण्डियों से हमें बचकर रहना चाहिये।

 

                पंडित नरेशदत्त आर्य ने बताया कि श्री कृष्ण ने अर्जुन को कहा कि तू अपने जीवन को यज्ञमय बना। हमें देवता बनने का प्रयत्न करना चाहिये। कृष्ण जी ने कहा है कि जो अपने जीवन को यज्ञमय बना लेता वह है वह देवता बन जाता है। पंडित जी ने इसके समर्थन में एक भजन प्रस्तुत किया। गीत के बोल थे ‘तू स्वार्थ भावना को छोड़कर कर यज्ञ रचा प्यारे। सुखी बने संसार सुखी बने संसार।। ये सब यज्ञ करने वाले सनातन ब्रह्म को पाते हैं। यज्ञ से जो बचा यज्ञशेष उस अमृत को खाते हैं।।’ नरेशदत्त जी ने ऋषि दयानन्द के शब्दों को याद कर बताया कि योगाभ्यास और अति प्रेम से हमें ईश्वर की विशेष भक्ति करनी चाहिये। उन्होंने कहा कि जिस घर में सुख है और प्रेम का वातावरण है वह घर स्वर्ग है अन्यथा नरक है। पंडित जी ने एक स्वरचित भजन प्रस्तुत किया ‘सुबह शाम सन्ध्या हवन कर लो शुद्ध जग का पर्यावरण कर लों।। यज्ञ करते-2 जब यज्ञमय हो जाओगे, सुख में फूलोगे न दुःख में घबराओंगे। इदन्न मम का मनन कर लो, सुबह शाम सन्ध्या हवन कर लो।।’ पं0 नरेश दत्त आर्य के सुमुधुर भजनों व व्याख्यान को सुनकर प्रसन्न होकर अनेक बन्धुओं ने उन्हें छोटी-बड़ी धनराशियां भेंट कीं। इदन्न न मम का उदाहरण देते हुए आचार्य नरेशदत्त जी ने राम के वन गमन का उल्लेख किया व उनके मनोभावों को भी प्रस्तुत किया। पडित जी ने भरत के दैवीय गुणों का भी इस प्रसंग में उल्लेख किया। आचार्य जी ने कहा कि जहां इदन्न न मम की भावना होती है वह घर स्वर्ग बन जाता है। मां और पिता देवता होते हैं, इसके अनेक उदाहरण आचार्य जी ने दिये। कथा समाप्त होने पर श्री प्रेमप्रकाश शर्मा जी ने पं0 वेदवसु शास्त्री जी को सन्ध्या कराने के लिये आमंत्रित किया और उन्होंने बहुत अच्छी तरह से सन्ध्या सम्पन्न कराई। पं0 वेदवसु जी ने बताया कि कार्यक्रम में उपस्थित आचार्य सुनील शास्त्री जी ने हरिद्वार में भारत माता मन्दिर के निकट एक गुरुकुल खोला है जिसका उद्देश्य वेदों के प्रचारक तैयार करना है। आचार्य सुनील जी ने इस गुरुकुल की शुरुआत अपने दो पुत्रों को गुरुकुल में भर्ती करके की हैं। उनके दोनों पुत्र भी यज्ञ में उपस्थित थे। लगभग 8-9 वर्ष के यह दोनों बच्चे लगभग साढ़े तीन घंटे तकयज्ञ व सत्संग में पूरे मनोयोग से शान्तिपूर्वक हमारे ही निकट बैठे रहे जिसे देखकर हमें रोमांच हो रहा था। इसके बाद शान्तिपाठ हुआ और सभा का विसर्जन किया गया। विसर्जन से पूर्व सभी ने जलपान किया।

 

                श्री प्रेम प्रकाश शर्मा जी प्रत्येक वर्ष अपने निवास पर वेद पारायण यज्ञ का आयोजन करते हैं। हम अनेक वर्षों से उनके द्वारा आयोजित यज्ञों में सम्मिलित होते आ रहे हैं। शर्मा जी के सभी भाई व बहिने, पुत्री व दामाद सहित उनके ससुराल पक्ष के लोग भी इस यज्ञ में सोत्साह सम्मिलित होते हैं। आज के यज्ञ में उनके छोटे भाई श्री वेद प्रकाश मुजफफरनगर, श्री देवेन्द्र कुमार बहनोई शामली, श्री बलदेव सिंह जी बहनोई हरियाणा, बहिने श्रीमती राजेश, श्रीमती उषा जी, श्रमती सुधा जी तथा श्रीमती कान्ता काम्बोज यजमान के रूप में उपस्थित थीं। शर्मा जी के दौहित्र व पुत्री सहित अनेक सम्बन्धी भी आयोजन में उपस्थित थे। श्री प्रेम प्रकाश शर्मा जी को हमें निकट से देखने का अवसर मिलता है। वह मन, वचन व कर्म से सच्चे आर्य हैं। सन्ध्या एवं यज्ञ में उनकी गहरी श्रद्धा है। देहरादून का वैदिक साधन आश्रम तपोवन उनकी कर्मस्थली है जिसे उन्होंने भव्य रूप दिया है। आश्रम की दो इकाईयां हैं। आश्रम में दो बड़ी यज्ञ शालायें, तीन सभागार, अतिथियों व साधकों के लिए कुटियांयें, गोशाला आदि हैं। एक बड़ा भव्य आधुनिक स्वास्थ्य केन्द्र भी उन्होंने बनवाया है। एक जूनियर हाईस्कूल का संचालन भी तपोवन आश्रम की ओर से किया जाता है। स्कूल में बच्चों का शिक्षा का स्तर सराहनीय है। पं0 सत्यपाल पथिक जी और पं0 उमेशचन्द्र कुलश्रेष्ठ जी प्रत्येक वर्ष स्वेच्छा से आश्रम के उत्सवों में आते हैं और अपने भजनों व व्याख्यानों से साधको को ज्ञान सरिता में स्नान कराते हैं। आश्रम के प्रधान श्री दर्शन कुमार अग्निहोत्री तथा आचार्य आशीष दर्शनाचार्य सहित स्वामी चित्तेश्वरानन्द सरस्वती जी भी आश्रम की महत्ता व उन्नति में चार चांद लगा रहे हैं। ईश्वर आश्रम के सभी अधिकारियों को स्वस्थ रखें और यह दीर्घायु हों। इति ओ३म् शम्।

-मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः 09412985121

 


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