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 “विजया दशमी अन्याय पर न्याय की विजय का पर्व है”

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29 Aug 19
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 “विजया दशमी अन्याय पर न्याय की विजय का पर्व है”

देश में आश्विन माह के शुक्ल पक्ष की दशमी को विजया दशमी पर्व मनाने की परम्परा है। इतिहास में इसका उल्लेख नहीं मिलता कि इसका आरम्भ कब हुआ है। अनुमान से यह परम्परा सैकड़ो व सहस्रों वर्षों से मनाई जा रही है। ऐसा प्रतीत होता है कि महाभारत के बाद जब वेदों का प्रचार व प्रसार बन्द हो गया, वेद विलुप्ति के कगार पर पहुंच रहे थे, तब समाज के हितैषी महापुरुषों ने धर्म व संस्कृति की रक्षा की दृष्टि से इस पर्व को प्रचलित किया होगा। मर्यादा पुरुषोत्तम राम वैदिक धर्म व संस्कृति के मूर्तरूप हैं। राम के जीवन व चरित्र में वैदिक आदर्श गुणों की पराकाष्ठा पाई जाती है। ऐसे महापुरुष को यदि हम स्मरण करते हैं और उनके जीवन आदर्शों पर विचार करते हैं तो ऐसा करने से हमारी प्राचीन सनातन वैदिक धर्म व संस्कृति सुरक्षित रह सकती है और ऐसा ही हुआ भी है। मुस्लिम काल के वैदिक सनातन धर्म विरोधी मानवता के शत्रु क्रूर शासकों ने वैदिक धर्म को नष्ट करने की कोई कसर नहीं छोड़ी। हमारे धार्मिक ग्रन्थों को जलाया गया, मन्दिर तोड़े गये, अत्याचार व अन्याय की प्रतीक तलवार के बल पर हिन्दुओं का धर्मान्तरण किया गया। हमारी बहू व बेटियों को भ्रष्ट करने आदि अनेक प्रकार के अत्याचार इन नराधम लोगों ने किये तथापि हमारा धर्म व सस्कृति समाप्त नहीं हुई। इसका एक ही कारण है कि हमारे धर्म व संस्कृति के मूर्तरूप मर्यादा पुरुषोत्तम राम तथा योगेश्वर कृष्ण तथा इनके आदर्शों के जनता के दिलों पर प्रभाव ने ही वैदिक धर्म व संस्कृति को बचाये रखा। रामनवमी, विजयादशमी, कृष्ण जन्माष्टमी जैसे पर्वों का हमारे धर्म एवं संस्कृति की रक्षा में सर्वोपरि महत्व है।

 

                स्वाध्याय का मनुष्य के जीवन पर गहरा प्रभाव पड़ता है। मनुष्य जैसा साहित्य पढ़ता है वैसा ही उसका जीवन बनता है। प्राचीन काल में हमारे देश में गुरुकुलों में अध्ययन करने व बाद मृहस्थ आश्रम में घरों में वेद व उपनिषद, दर्शन, मनुस्मृति सहित रामायण व महाभारत आदि ग्रन्थों के पढ़ने की परम्परा थी। हमने भी इन ग्रन्थों को पढ़ा है। इनका अध्ययन मनुष्य को वैदिक विचारधारा से न केवल परिचित कराता है अपितु वैदिक विचारधारा की महत्ता व उसकी श्रेष्ठता का विश्वास भी आत्मा में विद्यमान परमात्मा ओर से अनुभव होता है। महाभारत काल के बाद वेद, उपनिषद एवं दर्शन आदि सभी साहित्य के संस्कृत में होने तथा उन दिनों इन धार्मिक ग्रन्थों का मुद्रण व प्रकाशन न होने के कारण सामान्य मनुष्यों तक उनकी पहुंच नहीं थी। ज्ञान प्राप्ति के लिये मनुष्यों को आश्रमों में महात्माओं व संन्यासियों की शरण में जाना होता था। आज का युग इस दृष्टि से क्रान्तिकारी परिवर्तन को अपने भीतर समेटे हुए है। आज हम किसी भी धार्मिक व सामाजिक विषयक ग्रन्थ को उसके जन-भाषाओं मे अनुवाद सहित प्राप्त कर सकते हैं और कुछ ही दिनों में उन्हें पढ़कर उसका रहस्य व तात्विक ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं। अतः सैकड़ो वर्ष पूर्व जन-सामान्य उत्सवों व पर्वों के द्वारा ही महत्वपूर्ण ऐतिहासिक घटनाओं से जुड़े हुए दिवसों को मनाता था और इस अवसर पर उन विद्वानों से उन घटनाओं व उन महापुरुषों की महत्ता को सुनकर व शुभ संकल्प लेकर अपने धर्म व संस्कृति को सुरक्षित करता था। इसी प्रकार से विजयादशमी का पर्व भी अस्तित्व में आया और इसने परम्परा बनकर वैदिक धर्म एवं संस्कृति की रक्षा की है।

               

                विजयादशमी पर्व के साथ कुछ धर्म विरुद्ध बाते भी जुड़ गई हैं। इस पर्व के अवसर पर मां दुर्गा एवं काली की पूजा भी की जाती है। यह दोनों देवियां शक्ति का पंुज व स्रोत मानी जाती हैं। धर्मभीरू जनता इनसे शक्ति व अपनी रक्षा की प्रार्थना करती है। विजया दशमी पर्व पर इन देवियों को पशुओं की बलि देकर प्रसन्न करने की मिथ्या व अन्धविश्वासयुक्त परम्परायें किसी समय इस पर्व के साथ जुड़ गईं। वैदिक साहित्य पढ़ने पर यह ज्ञात होता है कि ईश्वर ही हमारी माता व पिता है, वही हमारा आचार्य, राजा और न्यायाधीश भी है। वही हमें शक्ति प्रदान करता, शत्रुओं पर विजय दिलाता और हमारी रक्षा करता है। उस परमात्मा को हमें किसी प्रकार की बलि देने व कोई पदार्थ चढ़ाने की आवश्यकता नहीं है। वह हमारी स्तुति व प्रार्थनाओं को पसन्द करता है। हमारे द्वारा स्तुति करने से ईश्वर के गुणों का संचार हमारी आत्मा व जीवन में होता है। एक ईश्वर ही हमारा सबका उपासनीय है। उससे इतर अन्य कोई उसके स्थान पर अन्य देवता उपासनीय नहीं है। वेदों में जड़ पूजा को अकर्तव्य बताया गया है। वेदों के अनुसार जड़ व चेतन का यथार्थ ज्ञान प्राप्त कर ही मनुष्य विवेकी बनता है। जड़ पूजा मनुष्य को पतन की ओर ले जाती है। ऋषि दयानन्द वेदों के उच्चकोटि के विद्वान व ऋषि थे। महाभारत के बाद उनके समान वेदों का विद्वान व ऋषि विश्व में कोई अन्य नहीं हुआ। उन्होंने देश, धर्म और संस्कृति के पतन का कारण वेदों का अप्रचार, अविद्या, अन्धविश्वासों, मिथ्या परम्पराओं सहित मूर्तिपूजा तथा फलित ज्योतिष को मुख्य रूप से माना है। अतः विजया दशमी पर्व के अवसर हमें सद्ग्रन्थों वेद, दर्शन व उपनिषद सहित सत्यार्थप्रकाश आदि का स्वाध्याय करना चाहिये जो अविद्या दूर करने में सबसे सशक्त साधन हैं। इन ग्रन्थों के स्वाध्याय से अविद्या दूर होकर मनुष्य अपने कर्तव्यों से परिचित हो जाता है और ईश्वर की ही उपासना कर वह छल व प्रपंचों के द्वारा स्वार्थ सिद्ध करने वाले तथाकथित मत-मतान्तरों के आचार्यों व ठेकेदारों के शोषण व अन्यायों से बच जाता है। विजया दशमी पर हम मर्यादा पुरुषोत्तम राम के जीवन पर बाल्मीकि जी द्वारा लिखी रामायण का अध्ययन कर उनके गुणों का धारण एवं आचरण करने का संकल्प ले सकते हैं। इसके साथ ही हमें वैदिक धर्म एवं संस्कृति की विरोधी व गलत मंसूबे रखने वाली शक्तियों को जानकर उनसे सावधान रहने के लिये हर सम्भव उपाय करने चाहिये। विजया दशमी के पर्व को परिवार के साथ मिलकर मनाना चाहिये। इस अवसर पर विजया दशमी से जुड़ी प्रेरणादायक कथाओं को हम परिवार में सुन सकते हैं। इसके साथ ही एक बड़ा अग्निहोत्र यज्ञ करके ईश्वर की सहायता व आशीर्वाद भी प्राप्त कर सकते हैं जिससे हमारे धर्म की रक्षा के साथ हमारा परिवार भी सुखी व सुरक्षित रहे। यज्ञ करने से यह लाभ होता है। अतः विजया दशमी के अवसर पर अग्निहोत्र यज्ञ सभी परिवारों में अवश्य होना चाहिये।

 

                विश्व पर दृष्टि डालें तो इटली के पन्द्रहवीं शताब्दी के कूटनीतिज्ञ मेकावेली ने अपने देश के सीजर बोर्जिया को आदर्श पुरुष बताया था। इसके कई शताब्दियों बाद जर्मन दार्शर्निक निट्शे हुआ। इसने भी सीजर बोर्जिया को आदर्श माना। इसके साथ ही निट्शे ने नेपोलियम को भी संसार का आदर्श पुरुष बताया। इन दोनों व्यक्तियों के जीवन पर दृष्टि डालते हैं तो यह विवेक शून्य होकर मानवता विरोधी कामों को करने वाले व्यक्ति थे। पं0 भवानी प्रसाद जी ने सीजर बोर्जिया और नैपोलियम का उल्लेख कर कहा है कि इन दोनों में आकाश, पाताल का अन्तर है। नैपोलियम के प्रतिभावान् योद्धा होने में कोई संदेह नहीं किया जा सकता परन्तु सीजर बोर्जिया अपने समय का सब से अधिक घृणित और पतित व्यक्ति था। उसने अपने भाई को मरवा दिया था। एक महिला का सतीत्व नष्ट किया था और अपनी माता के अपमान का बदला लेने के लिए निर्दोष स्विस जनता को तलवार के घाट उतार दिया था। वह विष की उपयोगिता में विश्वास रखता था और अपने शत्रुओं पर विजय पाने की चिन्ता में उचित और अनुचित का ध्यान रखना आवश्यक न समझता था। नेपोलियम के जीवन की भी राम के जीवन से कोई तुलना नहीं है। जो आदर्श राम ने प्रस्तुत किया वह संसार के किसी महापुरुष कहे जाने वाले व्यक्ति ने नहीं किया। राम ने बाली का वध इस लिये किया क्योंकि उसने अपने छोटे भाई की धर्मपत्नी का अपहरण किया था। उन्होंने रावण से युद्ध उसके राज्य को हड़पने के लिये नहीं अपितु अपनी धर्मपत्नी सीता जी को रावण के कुत्सित इरादों व दासत्व से मुक्त कराने के लिये किया था। राम ने एक अन्यायकारी व मानवता के पुजारी ऋषियों की रक्षा के लिये राक्षसों को चुन चुन कर समाप्त किया। उन्होंने अपना कोई निजी प्रयोजन सिद्ध नहीं किया। यह कार्य धर्म की रक्षार्थ किया गया कार्य था। इसलिये राम विश्व वरेण्य हैं। उनको आदर्श मानकर अनुकरण करने से विश्व के सभी लोगों का कल्याण होना सम्भव व निश्चित है।

 

                विजया दशमी चार माह की वर्षा ऋतु के समाप्त होने पर मनाया जाता है। प्राचीन काल में भारत में न तो अच्छी सड़के थी और न आजकल की तरह के यातायात के साधन। अतः वर्षा ऋतु के चार महीनों में क्षत्रियों की विजय यात्रायें एवं वैश्यों की व्यापार यात्रायें व कार्य अवरुद्ध रहते थे। वर्षा की समाप्ति पर क्षत्रिय व वैश्य अपने अपने कार्यों को पुनः आरम्भ करने के लिये अस्त्र शस्त्रों को संचालन के लिये तैयार करते थे तथा वैश्य भी अपने अपने उद्योगों व व्यापार के लिये यात्रायें आरम्भ कर देते थे। सभी देश वासी इस अवसर पर मर्यादा पुरुषोत्तम राम के जीवन से प्रेरणा लेने के लिये विजया दशमी पर्व को हर्षोल्लास से मनाते थे। कालान्तर में रावण के पुतले को जलाने की परम्परा भी इस पर्व के साथ जुड़ गई। यह उन दिनों के अनुसार किसी सीमा तक उचित हो सकता है परन्तु आज के समय में ऐसे कार्य से कोई विशेष प्रेरणा व लाभ नहीं होता। श्री राम जी के इतिहास पर दृष्टि डालने से इस दिन रावण का वध व उस पर विजय का होना सिद्ध नहीं होता। इस पर भी हम श्री राम को याद करने की परम्परा का निर्वहन करते हैं तो इसमें कुछ बुरा भी नहीं है। आज भी हमारा समाज अशिक्षित है। शिक्षित लोग भी अंग्रेजी पढ़कर राम के महत्व को समझते नहीं है। अतः अशिक्षितों सहित सभी लोग यदि इस पर्व को यदि किसी भी रूप में मनाते हैं तो मनायें परन्तु हमारा कर्तव्य है कि हम आर्य जाति को अन्धविश्वासों एवं मिथ्या परम्पराओं से पृथक कर उसे वेद की मान्यताओं एवं सिद्धान्तों पर आरूढ़ करे। यही सबके हित में है। ओ३म् शम्।

-मनमोहन कुमार आर्य

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