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“अविद्या का नाश और विद्या की वृद्धि बुद्धिमान मनुष्य का कर्तव्य”

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23 Aug 19
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“अविद्या का नाश और विद्या की वृद्धि बुद्धिमान मनुष्य का कर्तव्य”

 मानव शरीर ही ऐसा साधन है कि जिसे प्राप्त कर जीवात्मा अपने शरीर, आत्मा व बुद्धि के द्वारा ज्ञान की उन्नति कर सकता है। मनुष्य को यह मानव शरीर सत्य ज्ञान की प्राप्ति के लिये ही मिला है। जो मनुष्य सद्ज्ञान की प्राप्ति के लिये तप व पुरुषार्थ करते हैं वह समाज व देश के द्वारा सम्मान के योग्य हैं। जो मनुष्य लिपि व ज्ञान-विज्ञान आदि का अध्ययन कर रोजगार प्राप्त कर सुख-सुविधाओं में जीवन व्यतीत करते हैं वह अपने मनुष्य जीवन का पूरा उपयोग न करने से इससे वह लाभ प्राप्त नहीं कर सकते जिसे प्राप्त करने के परमात्मा ने हमें मनुष्य जन्म दिया है। मनुष्य के जीवन का उद्देश्य दुःखों के मुक्त होना तथा सुख प्राप्त करना भी है। दुःखों की निवृत्ति ज्ञान व उसके अनुरूप सत्कर्मों को करने से होती है। हमारे पूर्वज वेदाध्ययन कर ईश्वरोपासना, अग्निहोत्र-यज्ञ, परोपकार व दान आदि सत्कर्मों को करके अपने जीवन को दुःख-दारिद्रय से मुक्त कर भौतिक सुखों सहित साधना द्वारा ईश्वर के आनन्द का भोग करते थे। महर्षि दयानन्द के जीवन पर दृष्टि डालते हैं तो उन्होंने न केवल अपने जीवन में ईश्वर की उपासना व साधना को प्रमुख स्थान दिया था अपितु अपने प्राणों को छोड़ते समय भी ईश्वर की उपासना करते हुए और उसके मुख्य व निज नाम ‘ओ३म्’ का उच्चारण व जप करते हुए कहा था कि ‘हे ईश्वर! तुने अच्छा लीला की, तेरी यही इच्छा है, तेरी इच्छा पूर्ण हो।’ यह स्थिति वेदों का ज्ञान प्राप्त करने? जीवन को ईश्वर को समर्पित कर उसकी आज्ञानुसार जीवन व्यतीत करने तथा परमार्थ के कामों में ही अपनी आत्मा व शरीर को लगाने से प्राप्त होती है।

 

                सारा संसार महर्षि दयानन्द का ऋणी है जिसे उनके द्वारा वैदिक साहित्य के अनुसंधान से प्राप्त ज्ञान सहित उनके विद्यायुक्त ग्रन्थों व प्रचार से लाभ हुआ है, वर्तमान में भी हो रहा है और भविष्य मे ंभी होता रहेगा। यदि ऋषि दयानन्द न आते और वेदानुसंधान कर वेद प्रचार न करते तो आज संसार ईश्वर व जीवात्मा के सत्यस्वरूप तथा उपासना की यथार्थ विधि जिससे ईश्वर का साक्षात्कार होता है, परिचित न हो पाता। यह महद् कार्य ईश्वर की कृपा एवं ऋषि दयानन्द के पुरुषार्थ से ही सम्भव हुआ है। हम लोग अपने मध्यकालीन व ऋषि दयानन्द के समय तक के पूर्वजों की दृष्टि से अधिक सौभाग्यशाली है जिन्हें सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, आर्याभिविनय तथा ऋषि दयानन्द का वेदभाष्य उपलब्ध है और जिसका स्वाध्याय कर हम इस संसार को यथार्थरूप में जानने में सफल हुए हैं। ईश्वर व ऋषि की अपेक्षा भी यही रही कि लोग ईश्वरीय ज्ञान वेदों को जाने और उससे न केवल स्वयं लाभान्वित हों अपितु उसके प्रचार व प्रसार के द्वारा अज्ञानान्धकार में डूबे हुए लोगों को सद्ज्ञान देकर उन्हें ईश्वर व आत्मा को जानने में सहयोग करें। इन कर्मों से ही मनुष्य दुःखों से मुक्त होकर ईश्वर की कर्म-फल व्यवस्था से सुख प्राप्त होकर परजन्मों में उन्नति करते हुए मुक्ति वा मोक्ष को प्राप्त होता है। हमारे सामने अपने पूर्वज ऋषियों ब्रह्मा, मनु, याज्ञवल्क्य, यास्क, पाणिनी, पतंजलि, कपिल, गौतम, वेदव्यास, बाल्मीकि, दयानन्द आदि के उदाहरण हैं। इन महान ऋषियों के जीवन के उदाहरण के अनुरूप ही हमें भी अपना जीवन को बनाना है और वैदिक सिद्धान्त ‘मनुष्य को अपनी ही उन्नति में सन्तुष्ट नहीं रहना चाहिये अपितु सबकी उन्नति में अपनी उन्नति समझनी चाहिये’ को अपने जीवन का आदर्श बनाकर अपनी जीवन यात्रा को सम्पन्न करना चाहिये।  

 

                परमात्मा ने मनुष्य को विद्या प्राप्ति के लिये बुद्धि दी है। यह बुद्धि पशुओं व पक्षियों के पास नहीं है। परमात्मा ने मनुष्येतर योनियों के प्राणियों को अपने जीवनयापन के लिये स्वाभाविक ज्ञान दिया है जिससे वह अपना जीवन अपनी योनि के विहित कर्मों को करते हुए व्यतीत करते हैं। मनुष्य अपनी बुद्धि को अध्ययन व ज्ञानार्जन के द्वारा उन्नत व ज्ञान से युक्त करते हैं। ज्ञान संसार की सबसे पवित्र व उत्तम वस्तु है। ज्ञान से श्रेष्ठ कुछ भी नहीं है। भौतिक पदार्थों व धन का महत्व तो है परन्तु ज्ञान की दृष्टि में धन तुच्छ है। भौतिक साधनों से हम इस जीवन में अपने शरीरों को कुछ समय के लिये सुख दे सकते हैं परन्तु ज्ञान ऐसी वस्तु है कि जिसे प्राप्त कर लेने पर मनुष्य न केवल इस जन्म में सुखी होता है अपितु ज्ञानानुरुप आचरण से उसके भविश्य के जन्म व मृत्यु भी सुखकारी होते हैं। ज्ञान से ही मनुष्य को अपने कर्तव्यों व उद्देश्यों का यथातथ्य ज्ञान होता है। वह जब ज्ञान प्राप्त कर लेता है तो वह निश्चय करता है कि उसका प्रमुख कर्तव्य ईश्वर की उपासना एवं आत्मा को सदाचरण में युक्त करना है। ईश्वरोपासना के बाद उसका प्रमुख कर्तव्य होता है कि वह अपना वातावरण जिसमें वायु एवं जल प्रमुख हैं, उनको स्वच्छ रखे व अग्निहोत्र यज्ञ के द्वारा वायु व जल को शुद्ध करके अपने व दूसरों के शरीरों को स्वस्थ व निरोग बनाये। अग्निहोत्र यज्ञ करना प्रत्येक गृहस्थी का कर्तव्य इसलिये है कि इससे वायु व जल की शुद्धि होती है, जिससे मनुष्य रोगों से बचा रहता व स्वस्थ तथा बलवान रहता है।

 

                यज्ञ करने व इससे होने वाले लाभों का ज्ञान हमें वेद व ऋषियों के साहित्य से होता है। महाभारत काल के बाद यह ज्ञान विलुप्त हो गया था। ऋषि दयानन्द ने अवर्णनीय कष्टों को सहकर वेदज्ञान को प्राप्त किया और उसके आधार पर वेदकालीन परम्पराओं को समाज में प्रचलित किया। वेदज्ञान ही वह ज्ञान है जिससे आत्मा की सर्वाधिक व सर्वांगीण उन्नति होती है। भौतिक साधनों से प्राप्त सुख-सुविधाओं में सुख व दुःख दोनों जुड़े रहते हैं परन्तु ईश्वर से जुड़ कर मनुष्य वेद और ऋषियों के सत्साहित्य से प्रेरणा ग्रहण कर जो सद्कर्म करता है उसमें दुःख या तो होते ही नहीं अथवा न्यूनतम होते हैं। यही कारण था कि हमारे सभी ऋषि-मुनि व विद्वान वेद मार्ग पर चलते थे और अपना सारा जीवन वेदाध्ययन व वेदाचार में ही व्यतीत करते थे। आज भी हम देखते हैं कि ऋषि दयानन्द के अनुयायी आर्यसमाज के संगठन से जुड़कर सन्ध्या व यज्ञ को महत्व देते हैं। शुद्ध आचरण करते हैं जिससे उनको सुखानुभूति होने सहित उनकी शारीरिक, आत्मिक तथा सामाजिक उन्नति भी होती है। वह अल्प साधनों व सुविधाओं में भी पूर्ण सन्तुष्ट रहते हैं। ऐसे लोगों को रोग कम होते हैं। रोगों का कारण पूर्वजन्मों व इस जन्म के कर्म होते हैं। उनका भोग तो हर हाल में करना ही होता है। कर्म के फलों को भोग कर ही मनुष्य उन कर्मों से स्वतन्त्र व मुक्त होता है। विद्वानों का यह भी कहना है कि यदि हम इस जन्म में दुःखी रहते हैं तो इसका अर्थ होता है कि हम अपने पूर्व काल में किये गये कर्मों का भोग कर रहे हैं जिन्हें भोग कर हम पूर्व किये हुए कुछ अशुभ कर्मों के परिणामस्वरूप प्राप्त हुए दुःखों से मुक्त हो जाते हैं। हम अपने इस जन्म में जो विद्यायुक्त कर्म करेंगे उनका फल भी साथ-साथ व भविष्य में मिलता है जिससे हमारा वर्तमान व भविष्य सुखी व निश्चिन्त बनता है। अतः सभी को वेद और वैदिक धर्म की शरण में आकर अपने जीवन को सुखी व आनन्द से युक्त करना चाहिये।

 

                अविद्या के नाश से अभिप्रायः है कि देश व समाज में एक भी मनुष्य अविद्या से युक्त न हो। सभी मनुष्य विद्यायुक्त होने चाहियें। इसका उपाय यह है कि हम व हमारे साधु-संन्यासी वेद एवं वैदिक साहित्य का अध्ययन करें व दूसरों को भी करायें। महर्षि दयानन्द सरस्वती जी ने अमर ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश लिखकर अविद्या के नाश के क्षेत्र में बहुत बड़ा काम किया है। सत्यार्थप्रकाश का अध्ययन करने से अविद्या का नाश, विद्या की वृद्धि तथा विद्या की रक्षा होती है। विद्या से अमृत की प्राप्ति होती है। यह वेदों का उपदेश व शिक्षा है। विद्या का अर्थ है कि हम ईश्वर, जीव व प्रकृति के यथार्थ स्वरूप को जाने। सत्यार्थप्रकाश इन तीनों अनादि व नित्य पदार्थों का सद्ज्ञान कराता है। सत्यार्थप्रकाश की भाषा बोलचाल की हिन्दी भाषा है। इसे कक्षा पांच व अक्षराभ्यासी व्यक्ति भी पढ़ व समझ सकता है। आर्यसमाज में जाकर कोई भी व्यक्ति अपनी शंकाओं का समाधान कर सकता है। संसार का कोई रहस्य ऐसा नहीं रहता जिसका पर्दा सत्यार्थप्रकाश के पढ़ने से उठ न जाता हो। मनुष्य के जीवन में उठने वाली प्रायः सभी शंकाओं का समाधान सत्यार्थप्रकाश में उपलब्ध हो जाता है। इसी कारण सत्यार्थप्रकाश सभी धार्मिक एवं सामाजिक ग्रन्थों में शिरोमणी हैं। सत्यार्थप्रकाश पढ़कर एक अज्ञानी भी विद्वान बन जाता है। वह तर्क करने में प्रवीण हो जाता है और किसी भी विषयों में अपने तर्कों से सत्य व असत्य का स्वरूप जानकर और सत्य को ग्रहण कर अपने जीवन को ऊंचा उठा सकता है।

 

                यह भी ज्ञातव्य है कि मनुष्य जो स्कूली शिक्षा ग्रहण करता है वह विद्या नहीं है। वह तो धन कमाने व कुछ शिष्टाचार की बातों को सीखने मात्र का ही एक साधन है। स्कूली शिक्षा से मनुष्य को ईश्वर व जीवात्मा आदि विषयों को तात्विक ज्ञान नहीं होता। उसे सत्यार्थप्रकाश, उपनिषद, दर्शन, मनुस्मृति तथा वेदादि की शरण में जाना ही पड़ता है। इन सभी ग्रन्थों को पढ़कर अथवा सत्यार्थप्रकाश मात्र का अध्ययन करने से ही जीवन के लक्ष्य मोक्ष का स्वरूप स्पष्ट होता है। मोक्ष के साधन व उपायों का का ज्ञान भी सत्यार्थप्रकाश को पढ़ने से होता है। ऋषि दयानन्द मोक्ष मार्ग के ही पथिक थे और उन्हें इसमें सफलता मिली, यह माना जा सकता है। यदि कोई कहे कि ऋषि को मोक्ष प्राप्त नहीं हुआ तो हम यही कहेंगे कि फिर संसार में किसी भी मनुष्य को मोक्ष प्राप्त न हुआ है और न होगा। ऋषि दयानन्द में वेदों के ज्ञान तथा सद्कर्मों की पराकाष्ठा थी। वह योगी थे और उन्होंने योगाभ्यास से ईश्वर का साक्षात्कार भी किया था। उन्होंने कभी कोई वेदविरुद्ध आचरण नहीं किया। वह कभी किसी भी परिस्थिति में अपने कर्तव्य से च्युत नहीं हुए। ऐसा महान व्यक्ति हमारा आदर्श व आचार्य है। यह हमारा सौभाग्य है और हम इसके लिये ईश्वर के प्रति नतमस्तक हैं। हम जानते हैं कि हम ईश्वर की कितनी भी उपासना कर लें, उसका ज्ञान प्राप्त कर कितना भी वेद प्रचार करें व सदाचारी बन जायें, परन्तु हम ईश्वर के ऋणों से अऋण नहीं हो सकते। हमें जीवन में ईश्वर द्वारा वेद में बताये मार्ग का अनुसरण करना ही है। यही कल्याण का मार्ग है। वेदाध्ययन व वेदाचरण से ही अविद्या का नाश और विद्या की वृद्धि होती है। यही मनुष्य जीवन का उद्देश्य है। आईये सत्यार्थप्रकाश पढ़कर अपने जीवन के सभी पक्षों को जाने व सद्कर्मों को करके अपना व दूसरों का उपकार करें। ओ३म् शम्।

-मनमोहन कुमार आर्य

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