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“आओ! आर्यसमाज के सत्संग में चलें जहां जाने से अनेक लाभ होते हैं”

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19 Aug 19
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“आओ! आर्यसमाज के सत्संग में चलें जहां जाने से अनेक लाभ होते हैं”

मनुष्य सामाजिक प्राणी है। यह अकेला नहीं रह सकता। घर पर माता-पिता, भाई-बहिन, पत्नी, सन्तानें आदि पारिवारिक सदस्य होते हैं। घर से बाहर विद्यालय तथा व्यवसाय-स्थल आदि में भी मनुष्य अपने मित्रों व अन्य अनेक लोगों से संगति करता है। इनके साथ मिलने से इसे कुछ लाभ व हानि दोनों के होने की सम्भावना रहती है। यदि सभी लोग ज्ञानी व चरित्रवान होते हैं तो इस मनुष्य का व्यक्तित्व भी ऐसे ही गुणों से युक्त होता है और यदि किसी में विपरीत व अशुभ गुण होते हैं तो उसका दुष्प्रभाव भी मनुष्य के व्यक्तित्व व जीवन पर पड़ता है। मनुष्य का निर्माण व उन्नति ज्ञानी व गुणी व्यक्तियों के मध्य में रहने से ही होती है। यह प्रायः सब जानते हैं परन्तु फिर भी अच्छे लोगों को ढूंढने व उनसे मित्रता व संगति करने का प्रयत्न सब नहीं करते। अच्छे लोगों की संगति से मनुष्य का व्यक्तित्व बनता है और इसके विपरीत लोगों की संगति से मनुष्य का जीवन अवनति को प्राप्त होता है। अच्छे लोगों की संगति सहित अच्छे ग्रन्थों का स्वाध्याय भी मनुष्य जीवन की उन्नति में बहुत अधिक सहायक होता है। संसार के महापुरुषों के जीवन पर यदि दृष्टि डालें, तो ज्ञात होता है कि उनके जीवन में स्वाध्याय सहित सत्पुरुषों, गुरुजनों व अच्छे मित्रों आदि इन सभीं का ही प्रभाव होता है। अतः मनुष्यों को अपनी व्यक्तिगत व सामाजिक उन्नति में स्वाध्याय व संगति पर ध्यान देना चाहिये।

 

                मनुष्य की उन्नति के लिये एक अच्छा साधन यह है कि वह अपने निकटवर्ती आर्यसमाज का सदस्य बन जाये और उसके प्रत्येक सत्संग एवं आयोजन में अपने परिवार के सदस्यों के साथ जाने का नियम बना ले। आर्यसमाज में जाने से अनेक लाभ होते हैं। हम समझते हैं कि यदि कहीं अच्छा आर्यसमाज है जहां के अधिकारी व सदस्य अच्छे गुणों से युक्त हैं, तो वहां का सदस्य बनने पर अनेक लाभ हो सकते हैं। आर्यसमाज में प्रत्येक रविवार को प्रातः प्रायः 8.00 बजे से 10.00 बजे तक सत्संग होता है। सत्संग में समाज की यज्ञशाला में प्रथम सन्ध्या व अग्निहोत्र यज्ञ का अनुष्ठान किया जाता है। एक पुरोहित जी होते हैं जो यज्ञ कराते हैं और बाकी यजमान व यज्ञ-प्रेमी बन्धु होते हैं। सत्संग में जाने और सन्ध्या-यज्ञ में भाग लेने से वह लोग जो सन्ध्या व यज्ञ नहीं जानते, वह सन्ध्या व यज्ञ करना सीख जाते हैं। सन्ध्या मनुष्य का ईश्वर के साथ मिलन तथा दोनों आत्माओं, ईश्वर व मनुष्य, के परस्पर एक दूसरे से जुड़ने को कहते हैं। इससे मनुष्य की आत्मा के दोष दूर होते हैं तथा ईश्वर के गुणों के अनुरूप मनुष्य के गुणों में सुधार होता है। प्रतिदिन प्रातः व सायं घर पर भी सन्ध्या करने से मनुष्यों के दुर्गुण व दुःख दूर होते रहते हैं और उसमें सद्गुणों का विकास होता रहता है। सन्ध्या का एक अंग स्वाध्याय भी है। सन्ध्या में आत्म-चिन्तन, मनन, विचार आदि भी सम्मिलित हैं। यही मनुष्य जीवन की उन्नति को प्राप्त करने वाले साधन व उपाय हैं। अतः आर्यसमाज के सत्संग में जाने का पहला लाभ तो सन्ध्या करने, उसे सीखने और उससे अपने दुर्गुणों, दुव्यसनों का त्याग, दुःखों की निवृति का होता है और उसी के साथ ईश्वर के श्रेष्ठ गुणों का आत्मा पर आधान व उनका आरोपण भी होता है।

 

                आर्यसमाज में सन्ध्या के बाद अग्निहोत्र-देवयज्ञ का आरम्भ होता है। यज्ञ में वेद मन्त्रों का उच्चारण होता है जिसमें ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना व उपासना होती है। यज्ञ करने के लाभ भी मन्त्रों में निहित होते हैं। मनुष्य को ऐसा करने पर अनायास ही यज्ञ के मन्त्र कण्ठस्थ हो जाते हैं और उसे अग्निहोत्र करना स्वयं भी आ जाता है। इसके बाद वह अपने घर पर दैनिक व विशेष अवसरों पर स्वमेव यज्ञ कर सकता है। यज्ञ करने से मनुष्य की सभी सात्विक व पवित्र इच्छायें पूरी होती हैं। हम ऐसा मानते हैं कि ईश्वर सर्वशक्तिमान है। वह सर्वान्तर्यामी है। वह हमारे प्रत्येक भाव व विचार को जानता है। जब हम उससे प्रार्थना करते हैं तो उसे हमारे उन विचारो का पूरा-पूरा ज्ञान होता है। यज्ञ करने से मनुष्य में वह पात्रता आ जाती है कि ईश्वर उसके दोषों को छुड़ा कर उसका अज्ञान दूर कर उसे विद्या का दान दे। विद्या प्राप्त हो जाने पर मनुष्य के सभी मनोरथ पूर्ण हो सकते हैं, ऐसा माना जा सकता है। यज्ञ करने से मनुष्य के शुभ कर्मों के खाते में भी वृद्धि होती है। उन कर्मों से उसे वर्तमान व भविष्य में सुख लाभ होता है। प्रतिदिन प्रातः व सायं यज्ञ करने से ईश्वर की निकटता व शुभ कर्म के कारण उसकी अविद्या दूर होकर उसे सद्ज्ञान प्राप्त होकर वह सन्मार्ग की ओर बढ़ता जाता है। ऐसा करने से अपनी इच्छानुसार किसी अच्छे व्यवसाय की प्राप्ति सहित गृहस्थ जीवन में सुख व शान्ति की उपलब्धि का लाभ होता है। अतः आर्यसमाज के सत्संग में जाने, वहां सन्ध्या व यज्ञ में भाग लेने, उससे सन्ध्या व यज्ञ करने की विधि-विधान का ज्ञान होने, यज्ञ के श्रेष्ठतम कर्म होने तथा उससे होने वाले अनेकानेक लाभों की प्राप्ति होने से मनुष्य अनेक-अनेक प्रकार से लाभान्वित होता है। हमने अपने जीवन में इन लाभों को प्राप्त किया है। इसी कारण सन्ध्या व यज्ञ के विषय में हम यह बात कह रहे हैं। जो भी मनुष्य आर्यसमाज के सत्संग में जायेगा उसको यह सभी लाभ अवश्य प्राप्त होंगे।

 

                यज्ञ में गोघृत, वनस्पतियों व ओषधियों सहित मिष्ट तथा स्वास्थ्यवर्धक भक्ष्य पदार्थों की आहुतियां दी जाती है। अग्नि इन पदार्थों को सूक्ष्म कर वायु में फैला देती है। जितनी तीव्र अग्नि होती है उतने ही आहुति के पदार्थ सूक्ष्म होकर यज्ञ कुण्ड की चारों दिशाओं में फैल जाते या भर जाते हैं। इससे जो वायु मण्डल बनता है उसमें श्वांस लेने से वह वायु हमारे शरीर में प्रविष्ट होकर, हमारे फेफड़ों में रक्त से मिलकर उसमें विकारों की निवृत्ति व सुधार कर मनुष्य के अनेक रोगों को दूर करती है व हमें रोग से बचाने में सहायक होती है। रोगों से बचने व शरीर में आ गये रोगों को दूर करने का यह भी एक वैज्ञानिक व धार्मिक तरीका है। आर्यसमाज में यज्ञ के मध्य पुरोहित जी कई बार कुछ विशेष निर्देश भी देते हैं जिनका श्रोता व यज्ञ करने वालों को ज्ञान नहीं होता। सत्संग में जाने से यह लाभ भी होता है। पुरोहित जी अपनी योग्यतानुसार यज्ञ के कुछ मन्त्रों की कई बार प्रसंगवश व्याख्या भी करते हैं। सब विद्वानों की अपनी-अपनी शैली होती है जो उनके ज्ञान पर आधारित होती है। पुरोहित जी से वेद-मन्त्रों की व्याख्या में कई बार कुछ महत्वपूर्ण बातें सुनने का अवसर मिल जाता है। यह बातें हमें जीवन भर याद रहती हैं और हमारा मार्गदर्शन करती हैं। अतः यज्ञ में जाने से मनुष्य को यह लाभ भी होता है। यह सब लाभ निःशुल्क हो रहे हैं। इन लाभों पर विचार करें तो यह मनुष्य के जीवन को दीर्घकाल व मृत्यु पर्यन्त मार्गदर्शन करते व सुखी रखते हैं। सन्ध्या व यज्ञ के महत्व व लाभ का आर्थिक आधार पर आकंलन नहीं किया जा सकता। हम लाखों रुपये व्यय करके भी कई बार वह लाभ प्राप्त नहीं कर सकते जो कि हमें आर्यसमाज में अनेक विद्वानों के बीच सन्ध्या व यज्ञ में बैठने व उनकी बातों को सुनने से प्राप्त हो जाते हैं।

 

                सन्ध्या व यज्ञ लगभग आधे से एक घण्टे में सम्पन्न हो जाता है। इसके बाद भजनों का कार्यक्रम होता है। लगभग 15 से 30 मिनट तक यह कार्यक्रम चलता है। भजनों का मनुष्य की मन व आत्मा पर गहरा प्रभाव पड़ता है। प्रवचन सुनकर भी प्रभाव पड़ता है परन्तु यदि भजन प्रभावशाली रूप से गाया जाता है, तो वह अधिक प्रभाव उत्पन्न करता है। अल्प शिक्षित व अशिक्षित बन्धु भजनों से अधिक लाभान्वित होते हैं। भजन मन व आत्मा को उद्वेलित करता है। बहुत से प्रसिद्ध भजनों को विद्वान भी प्रायः गुनगुनाते दीखते हैं एवं मोबाइल, अपने कम्प्यूटर व टीवी आदि के माध्यम से सुनते रहते हैं। हमने एक बार एक पौराणिक कथावाचक के सत्संग में एक आर्यसमाजी भजन सुना था। हमनें उनके प्रवचन की दो कैसेट ले ली थीं जिसमें वह भजन था। उस भजन को हम यदा-कदा सुनते रहते थे। आर्यसमाज में वह भजन कभी सुनने को नहीं मिला। कुछ दिन पहले हमने आर्यभजनोपदेशक श्री नरेशदत्त आर्य जी से उसकी चर्चा की तो उन्होंने उसे किसी कार्यक्रम में हमें सुनाने का कहा। एक दिन जब उन्होंने वह गीत वैदिक साधन आश्रम तपोवन के सत्संग में सुनाया तो उस समय हम वहां उपस्थित नहीं थे। उनके बताने पर हमें उसे न सुन पाने का दुःख हुआ। कुछ ही दिन पहले हमें वह पूरा भजन यूटूयूब पर मिल गया है। पहले भी हम खोजते रहे परन्तु वह पूरा भजन नहीं मिला था। अब हमें यह भजन एक आर्यभजनोपदेशक तथा एक पौराणिक कथावाचक का गाया हुआ मिला है। भजन के शब्द हैं ‘‘किसने दीप जलाया, दीप जलाकर किया उजाला अपना आप छुपाया, किसने दीप जलाया। है वह कौन कहां का वासी, कैसे कोई बताये। नहीं किसी ने देखा उसको, ऋषि जनों ने पाया।।” ऐसे कुछ अन्य भजन भी हैं जिनमें से एक पं0 सत्यपाल पथिक जी का ‘‘डूबतो को बचा लेने वाले मेरी नैया है तेरे हवाले। लाख अपनों को मैंने पुकारा सब के सब कर गये हैं किनारा, अब कोई देता नहीं है दिखाई, अब तो बस एक तेरा ही सहारा। कौन भवरों में किश्ती निकाले, मेरी नैया है तेरे हवाले। डूबतो को बचा लेने वाले मेरी नैया है तेरे हवाले।।” भजन सुनने पर हमें लगता है कि आत्मा को एक अकथनीय सुख की अनुभूति होती है। आर्यसमाज में जाने पर यदा कदा वहां कोई अच्छा गायक मिल जाता है जिससे आत्मा को एक विशेष सुखानुभूति होती है। यह लाभ भी हमें सत्संग में जाने का विशेष लाभ लगता है।

 

                भजनों के बाद सत्यार्थप्रकाश का पाठ एवं सामूहिक प्रार्थना की जाती है। इनका अपना महत्व एवं लाभ है। इनकी चर्चा हम लेख के विस्तार के कारण छोड़ रहे हैं। इनके बाद किसी विद्वान का प्रवचन होता है। जो लोग स्वाध्याय नहीं करते उनके लिये प्रवचन आत्मा को ज्ञान देने व कराने की एक विशेष पद्धति कही जा सकती है। आर्यसमाज में ईश्वर, जीवात्मा, सत्संग, सन्ध्या, यज्ञ, माता-पिता की सेवा, आचार्य व विद्वानों का सम्मान, समाज सुधार, देशोन्नति, अन्धविश्वास निवारण, चरित्र का महत्व, व्यस्नों से हानियों आदि अनेक विषयों पर विद्वानों के प्रवचन वा व्याख्यान होते हैं। इससे सत्संग में उपस्थित श्रोतागण इन विषयों पर अच्छी जानकारी प्राप्त कर लेते हैं। उन्हें यह लगता है कि यहां जो बातें कहीं जाती हैं उसे हमें अपने जीवन में अपनाना चाहिये। समाज सुधार का यह एक प्रभावशाली तरीका है। आर्यसमाज में विद्वानों के व्याख्यान सुनकर उनसे सम्पर्क भी बनाया जा सकता है। वह मित्र भी बनाये जा सकते हैं। समय-समय पर किसी शंका के उपस्थित होने पर उनसे मिलकर, दूरभाष व पत्रव्यवहार से शंका समाधान भी कर सकते हैं। आर्यसमाज में नगर के अनेक प्रतिष्ठित लोग भी आते हैं। उनसे भी सम्पर्क होने से कुछ से मित्रता हो जाती है। यह सम्पर्क जीवन में अनेक प्रकार से लाभ पहुंचाते हैं। हम जब आर्यसमाज के सम्पर्क में आये थे तब आर्यसमाज के यहां दो गुट थे। एक ऐसा था जो हमें ऋषि दयानन्द के मार्ग पर चलने वाला लगा था। उनमें विद्वान भी थे और प्रदेश स्तर पर नेतृत्व करने वाले विद्वान नेता भी थे। देश व समाज में उनकी अच्छी छवि थी। पद की एषणा से भी वह दूर थे और हम उन्हें आर्यसमाज के हित की बातें करते हुए देखते थे। हमारे अनेक मित्र स्वाध्यायशील भी थे। ऐसे सभी लोगों से हमारी मित्रता हुई जो आज भी जारी है। अनेक लोग दिवंगत हो चुके हैं। आर्यसमाज का हमारे जीवन पर ऐसा प्रभाव पड़ा की हमने आर्यसमाज से इतर विचारों वाले बन्धुओं को अपना गहरा मित्र नहीं बनाया। उनसे हमारे सम्पर्क व सम्बन्ध यद्यपि आत्मीयता के रहे परन्तु वह सब व्यवसायिक व सामाजिक सम्बन्धों तथा दायित्वों के निर्वाह मात्र तक सीमित थे। हमारी जितनी भी मित्र मण्डली है वह 90 प्रतिशत से अधिक ऋषिभक्तों, आर्यसमाज के विद्वानों एवं सदस्यों की ही है। इसी प्रकार के लाभ सभी बन्धुओं के आर्यसमाज के सत्संग में जाने से होते हैं। इन लाभों को प्राप्त करने के लिये हमें कुछ व्यय नहीं करना पड़ता। आर्यसमाज में जाने पर वहां हमें अनेक विषयों के साहित्य का ज्ञान भी होता है और उनमें से अनेक ग्रन्थ विक्रयार्थ उपलब्ध भी होते हैं। वहां के पुस्तकालयों में भी अनेक दुर्लभ ग्रन्थ होते हैं, जिनसे हम लाभान्वित हो सकते हैं। प्रवचन की समाप्ति पर मंत्री जी द्वारा आर्यजगत व समाज विषयक सूचनायें दी जाती हैं। संगठन-सूक्त व  शान्तिपाठ होता है। अन्त में प्रसाद वितरण भी होता है। इस प्रकार से मनुष्य आर्यसमाज से जुड़कर एक सामाजिक प्राणी बन जाता है जिससे उसे निजी लाभ प्राप्त होने के साथ देश व समाज को उसकी विविध सेवाओं से लाभ होता है। अतः आर्यसमाज में जाना मनुष्य की शारीरिक, आत्मिक एवं सामाजिक उन्नति में सहयोगी होता है।

 

                आर्यसमाज में हम वेदों की मान्यताओं व सिद्धान्तों पर ही प्रायः सुनते हैं। इनका संस्कार हमारी आत्मा व मन पर होता है। मनुष्य की आत्मा में व मन में जो विचार, भाव या संस्कार होते हैं उसी के अनुरूप मनुष्य का जीवन बनता है। अतः आर्यसमाज के सत्संग व वैदिक साहित्य के स्वाध्याय से मनुष्य का जीवन शून्य से शिखर पर पहुंचता है। सभी मनुष्यों को परिवार सहित आर्यसमाज के सत्संगों में जाना चाहिये और उसका सदस्य बनना चाहिये। आर्यसमाज के 10 स्वर्णिम नियम हैं। उनको कण्ठ कर लेना चाहिये। आर्यसमाज का चैथा नियम है ‘सत्य के ग्रहण करने और असत्य को छोड़ने में सर्वदा उद्यत रहना चाहिये।’ इस मन्त्र की भावना को अपने जीवन में आत्मसात करना चाहिये। आर्यसमाज में भी यदि किसी सदस्य या अधिकारी में पदेषणा या अन्य विद्वानों की निन्दा आदि कोई दुर्गुण प्रतीत हो तो उसकी अधिक संगति न करें। जो पूर्णतया निष्पक्ष हों, उन्हीं की संगति करें। हमने इन बातों से दूर रहकर व आर्य साहित्य के स्वाध्याय में संलग्न रहकर अधिक लाभ प्राप्त किया है। हम स्वाध्याय व लेखन द्वारा प्रचार को महत्व देते रहे हैं। इससे हमें व समाज को लाभ हुआ है। इससे हम अनेक प्रकार के विवादों से भी बचे हैं। कुल मिलाकर आर्यसमाज के सत्संग से मनुष्य को अनेकविध लाभ होते हैं। इसी के साथ इस लेख को विराम देते हैं। ओ३म् शम्।

-मनमोहन कुमार आर्य

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