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“सत्यार्थप्रकाश सद्धर्म का प्रकाशक ग्रन्थ”

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17 Aug 19
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“सत्यार्थप्रकाश सद्धर्म का प्रकाशक ग्रन्थ”

मनुष्य एक चेतन प्राणी है। चेतन का स्वभाव गुण व कर्म की क्षमता से युक्त होना है। न केवल मनुष्य अपितु सभी चेतन प्राणी पशु व पक्षी आदि भी स्वभाविक ज्ञान से युक्त होकर जीवन भर कर्म करने में प्रवृत्त रहते हैं। जिन कर्मों से मनुष्य अन्य मनुष्यों व प्राणियों को सुख देने सहित समाज व देश का हित करते हैं, उन्हें उनके कर्तव्य व धर्म संज्ञक कर्म कहा जा सकता है। मनुष्य का जीवन भी जन्म व मृत्यु के मध्य में विद्यमान रहता है जहां वह अपनी भिन्न-भिन्न अवस्थाओं में नाना प्रकार के कर्मों को करता है। शैशव व किशोरावस्था में उसका ज्ञान सीमित रहता जिस कारण उसके कर्म भी उसके ज्ञान के अनुरूप साधारण कोटि के होते हैं। जब वह गुरुकुल, स्कूल व कालेज में ज्ञान प्राप्त कर लेता तो अर्जित ज्ञान के अनुरूप ही वह कर्म करता है। स्कूलों व कालेज में तो उसे नौकरी व व्यवसाय करने की प्रेरणा ही मिलती है। उसी के अनुरूप वह अपना व्यवसाय चुनता व उसे प्राप्त करने के लिये प्रयत्न करता है। बहुत से लोग इच्छित काम ढूंढ पाने में सफल हो जाते हैं और बहुत से लोग सफल नहीं हो पाते। उन्हें जो भी छोटा व बड़ा, अच्छा व अप्रिय कोटि का काम मिलता है, उसी को उन्हें अपनाना पड़ता है। वेदेतर हमारे जितने भी मत हैं उनमें हमें कहीं सत्य को जानने व उसके अनुरूप आचरण करने की प्रेरणा नहीं मिलती। ईश्वरीय ज्ञान वेद ही ऐसे ग्रन्थ हैं जो मनुष्य को असत्य पथ का त्याग कर सत्य पथ पर चलने की प्रेरणा करते हैं। सत्य पथ पर चलने से मनुष्य का शरीर स्वस्थ रहता है, बल का ह्रास व न्यूनता नहीं होती व उसका ज्ञान व विज्ञान दिन प्रतिदिन, स्वाध्याय, सन्ध्या, चिन्तन व मनन आदि कार्यों से बढ़ता रहता है। इसका परिणाम उसे अन्यों की तुलना में अधिक सफलताओं व सुखी जीवन के रूप में प्राप्त होता है। वह ईश्वर, जीवात्मा, कर्तव्य-अकर्तव्य, सत्यासत्य आदि विविध विषयों को जानता है। इसके साथ ही उसे जीवात्मा के भीतर व बाहर विद्यमान सर्वव्यापक व जगत् के स्वामी ईश्वर का सहाय भी प्राप्त होता है जिससे उसे सफलता का मिलना सुनिश्चित होता है। ईश्वरोपासक मनुष्य स्वाध्याय आदि के द्वारा कर्म-फल रहस्य को जानता है और दुःखों को अपने पूर्व अशुभ कर्मों का परिणाम अथवा आधिदैविक, आधिभौतिक तथा आध्यात्मिक दुःखों में से एक व मिश्रित दुःख मानकर उनको धैर्यपूर्वक सहन करता है क्योंकि वह जानता है कि दुःख स्थाई नहीं हैं। इनका कुछ अवधि बाद निराकरण व समाधान होना निश्चित होता है।

 

                संसार में वेद के अतिरिक्त कोई ऐसा ग्रन्थ नहीं है जिसे हम मनुष्यों के लिए सत्य धर्म का प्रकाश करने वाला मार्गदर्शक ग्रन्थ कह सकें। सभी मतों में अविद्या व अन्य मतों की अच्छी बातों की उपेक्षा करने के संकेत मिलते हैं। उन मतों में यह शिक्षा नहीं है कि सत्य कहीं से भी प्राप्त होता हो तो उसी स्वीकार कर लेना चाहिये। सभी मत अपने ही मत को महत्व देते व दूसरे मतों की उपेक्षा करते हैं। कोई मत यह नहीं स्वीकार करता कि उनके मत की तुलना में अन्य मतों में भी उनके समान व उनसे कुछ अच्छी बातें, मान्यतायें व सिद्धान्त हो सकते हैं। ऐसा न होने से सभी मत पक्षपात पर आधारित प्रतीत होते हैं। वैदिक मत संसार का सबसे प्राचीन मत है। सृष्टि के आरम्भ में ही वेदों का आविर्भाव परमात्मा ने मनुष्यों के कल्याण के लिये किया था। वेद पुस्तक वा वेद ज्ञान का प्रयोजन किसी मत व सम्प्रदाय की अवहेलना करना कदापि नहीं था। वेद सम्पूर्ण ज्ञान है। वेदज्ञान प्राप्त कर लेने पर किसी अन्य मत की पुस्तक का अध्ययन कर उससे ज्ञान प्राप्त करने की आवश्यकता नहीं होती। परमात्मा पक्षपात रहित है और ऐसा ही उसका ज्ञान वेद है जो किसी से पक्षपात करने की शिक्षा नहीं देता। परमात्मा के लिये तो संसार के सभी गोरांग व श्याम वर्ण वाले, नाटे व लम्बे, सुन्दर व कुरूप सभी उसकी अपनी सन्तानें हैं। वह तो सबसे समान रूप से प्रेम करता है और सबके सुख के लिये प्रयत्नशील रहता है। अतः एक सच्चे, पक्षपातरहित तथा न्यायकारी पिता के समान परमात्मा का ज्ञान अर्थात् वेदों का ज्ञान है। वेदों ने 1.96 अरब वर्षों से भी अधिक समय तक पूरे विश्व पर अपना प्रभाव बनाये रखा।

 

                भारत में जब तक ऋषि परम्परा स्थापित रही, भारत सहित संसार के किसी देश में अविद्याजन्य मतों का आविर्भाव व प्रचार नहीं हुआ। ऋषि परम्परा विलुप्त होने पर ही वेदों का प्रचार बन्द होने से अविद्यायुक्त मत-मतान्तरों की उत्पत्ति व प्रचार देश-देशान्तर में हुआ है। देश व विश्व का यह दुर्भाग्य ही कहा जायेगा कि ऋषि दयानन्द से पूर्व लगभग 5000 वर्षों के कालखण्ड में ऐसा कोई वेदज्ञानी ऋषि उत्पन्न नहीं हुआ जो लोगों को सत्यासत्य, विद्याविद्या, उचित-अनुचित, कल्याण-अकल्याण युक्त ज्ञान व कर्मों के विषय में ज्ञान कराता और असत्य, अज्ञान, अन्धविश्वासों व मिथ्या परम्पराओं का छोड़कर लोगों को देश व विश्व के कल्याण के काम में प्रवृत्त करता। ऋषि दयानन्द को यह सौभाग्य ईश्वर व अपने गुरु विरजानन्द सरस्वती जी की प्रेरणा से प्राप्त हुआ और उन्होंने इस कार्य को करना स्वीकार किया था। इसी कारण हमें वेदों का परिचय व ज्ञान होने के साथ मत-मतान्तरों की अविद्या व अन्धविश्वासों सहित संसार में प्रचलित अनेकानेक मिथ्या व कुपरम्पराओं का ज्ञान हुआ। ऋषि दयानन्द ने अपने जीवन काल में वैदिक ज्ञान को अपने मौखिक उपदेश, वार्तालापों तथा शास्त्रार्थों के माध्यम से प्रचारित किया। उनकी महत्वपूर्ण एक देन यह भी है कि उन्होंने सभी वैदिक मान्यताओं सहित मत-मतान्तरों की अविद्या को भी अपने बाद के लोगों का मार्ग दर्शन करने के लिये एक अद्भुद ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश प्रदान किया। ऋषि दयानन्द का यह उपकार हमें सबसे उत्तम व श्रेष्ठ उपकार लगता है। इस उपकार के कारण हम व समस्त विश्व ऋषि दयानन्द की मृत्यु के 135 वर्ष बाद भी लाभान्वित हो रहा हैं। यदि यह ‘‘सत्यार्थप्रकाश” ग्रन्थ न होता तो आज संसार में अविद्या व असत्य मान्यताओं से युक्त मत-मतान्तरों का बोलबाला होता। मत-मतान्तरों का बोलबाला आज भी है परन्तु आज उन्हें सत्यार्थप्रकाश और आर्यसमाज का कुछ न कुछ डर सताता है। जैसे चोर पुलिस से डरता है वैसे ही अवैदिक मत-मतान्तर के लोग वेद, वैदिक शास्त्रों तथा ऋषि दयानन्द के सत्यार्थप्रकाश एवं ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका से डरते व भयातुर रहते हैं। जिस प्रकार से अन्धकार में एक दीपक के जलने से अन्धेरा भाग जाता है उसी प्रकार वेदों का ज्ञान भी दीपक व सूर्य के समान है जिसका प्रकाश होने से मत-मतान्तर रूपी अन्धकार नष्ट हो जाता है।

 

                सत्यार्थप्रकाश 14 समुल्लासों में रचा गया ग्रन्थ है। इसके आरम्भ के दस समुल्लास पूर्वार्ध तथा बाद के चार समुल्लास उत्तरार्ध के कहलाते हैं। पूर्वार्ध के दस समुल्लासों में वैदिक सत्य मान्यताओं का युक्ति एवं तर्क पूर्वक मण्डन किया गया है। सत्यार्थप्रकाश के उत्तरार्ध के चार समुल्लासों में भारतवर्षीय मत-मतान्तरों सहित अन्य देश-देशान्तरों में उत्पन्न अवैदिक मतों की अविद्यायुक्त, असत्य तथा मनुष्यों के लिये हानिकारक व अकल्याणकारी मान्यताओं का युक्ति व तर्क सहित खण्डन किया गया है। संसार में इससे पूर्व व इसके बाद ऐसा महत्वपूर्ण ग्रन्थ कहीं किसी ने नहीं लिखा। सत्य का मण्डन और असत्य का खण्डन संसार में केवल वेदों व ऋषि दयानन्द का प्रतिनिधि आर्यसमाज ही करता है। सत्यार्थप्रकाश के प्रथम दस समुल्लासों में धर्म का निरुपण होने से संसार के सभी लोग धर्म के यथार्थस्वरूप को जानकर उसका अनुगमन कर धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष को प्राप्त कर सकते हैं तथा अविद्या आदि से मुक्त रह सकते हैं। ईश्वर, जीवात्मा तथा प्रकृति के स्वरूप का ज्ञान होने सहित मनुष्य के कर्तव्य एवं कर्तव्यों पर भी सत्यार्थप्रकाश के प्रथम दस समुल्लासों में उद्बोधन प्राप्त होता है। संसार के सभी मतों को पढ़कर सत्यार्थप्रकाश का अध्ययन करने पर मनुष्य इसी निष्कर्ष पर पहुंचता है कि जो गुण व महत्व सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ का है वह अन्य किसी का नहीं है। सत्यार्थप्रकाश वेदों का द्वार है। सत्यार्थप्रकाश से मनुष्य वेदों के महत्व से परिचित होता है और वेदाध्ययन में उसकी रुचि उत्पन्न होने सहित इन कार्यों को करने से आत्मा को सन्तुष्टि व प्रफुल्लता मिलती है।

 

                वेद पढ़ने का सभी मनुष्यों को अधिकार है व ऐसा करना परम कर्तव्य एवं धर्म भी है। इसमें सभी महिलायें, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, अतिशूद्र, अज्ञानी, मूर्ख, पापी व अनुचित काम करने वाले मनुष्य भी सम्मिलित हैं। वेदों व सत्यार्थप्रकाश को पढ़कर एक दुराचारी सदाचारी बन सकता है, अज्ञानी ज्ञानी बन सकता है तथा समाज विरोधी समाज का सुधारक, हितकारी व संशोधक बन सकता है। सत्यार्थप्रकाश पढ़कर हमें अपने कर्तव्य व धर्म का ज्ञान होता है। सत्य को धारण करना ही मनुष्य का धर्म है। असत्य को छोड़ना व दूसरों से छुड़वाना भी मनुष्य का धर्म है। इसी कार्य को हमारे ऋषि-मुनि व विद्वान सृष्टि के आरम्भ से करते आये हैं और सृष्टि की प्रलय तक मनुष्य का यही कर्तव्य व धर्म निश्चित होता है। सत्यार्थप्रकाश को पढ़कर ईश्वर व जीवात्मा का सत्यस्वरूप विदित होता है तथा ईश्वर उपासना की विधि, इसका महत्व तथा मनुष्य को अपने मोक्षगामी कर्तव्यों व साधनों का भी ज्ञान होता है। इन्हीं शब्दों के साथ हम इस लेख को विराम देते हैं। पाठक इस लेख को पसन्द करेंगे, ऐसी हमें आशा है। ओ३म् शम्।

-मनमोहन कुमार आर्य

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