GMCH STORIES

“आत्मा की सत्ता पर स्वामी सत्यप्रकाश सरस्वती जी के सारगर्भित विचार”

( Read 11937 Times)

23 Jul 19
Share |
Print This Page
“आत्मा की सत्ता पर स्वामी सत्यप्रकाश सरस्वती जी के सारगर्भित विचार”

स्वामी डॉ0 सत्यप्रकाश सरस्वती आर्यसमाज के शीर्ष विद्वानों में से एक थे। आर्यसमाज में वेद और विज्ञान से जुड़े उच्चकोटि के विद्वान कम ही हुए हैं। ऋषि के जीवन काल व उसके बाद पं0 गुरुदत्त विद्यार्थी ऋषि के अनुयायी बने थे। वह भौतिक विज्ञान के उच्च कोटि के विद्वान थे। स्वामी सत्यप्रकाश सरस्वती जी रसायन शास्त्र के उच्चकोटि के वैज्ञानिक व विद्वान थे। आप इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में रसायन विभाग के अध्यक्ष थे। आपके निर्देशन में लगभग 2 दर्जन शोधार्थियों ने पी.एच-डी. वा डी.एस.सी. की उपाधियां प्राप्त की थी। आर्यसमाज के विख्यात विद्वान पं0 गंगा प्रसाद उपाध्याय आपके पिता थे। डॉ0 सत्यप्रकाश जी का जन्म आर्यसमाज मन्दिर, बिजनौर में हुआ था। आपका जीवन, आपके कार्य एवं आपका साहित्य अत्यन्त प्रेरणादायक है। हमने सन् 1975 में स्वामी जी को आर्यसमाज, धामावाला, देहरादून में एक सप्ताह तक प्रातः व सायं सुना था। देहरादून के विश्व प्रसिद्ध शोध संस्थान भारतीय पेट्रोलियम संस्थान में भी अंग्रेजी में विज्ञान विषय पर सुना था। हमनें आपके जीवन तथा व्यक्तित्व पर विस्तृत लेख भी लिखे हैं। आपकी अंग्रेजी पुस्तकें मैन एण्ड हिज रिलीजन तथा अग्निहोत्र भी हमारे संग्रह में हैं। अपनी पुरानी मित्र मण्डली के द्वारा हम उनसे जुड़े संस्मरण भी सुनते रहे हैं। अब वह मित्र प्रा0 अनूप सिंह एवं सत्यदेव सैनी जी आदि दिवंगत हो चुके हैं। आज हम स्वामी सत्यप्रकाश सरस्वती जी के ‘आत्मा की सत्ता’ पर कुछ प्रेरक, मौलिक एवं गम्भीर विचारों व चिन्तन को प्रस्तुत कर रहे हैं। यह विचार हमने स्वामी विद्यानन्द सरस्वती जी की पुस्तक ‘अनादि तत्व दर्शन’ की प्रस्तावना में लिखे उनके विस्तृत लेख से लिये हैं। हमें यह विचार बहुत अच्छे एवं प्रेरणादायक लगे हैं। हम आशा करते हैं कि पाठकों को भी यह लाभप्रद प्रतीत होंगे। आत्मा की सत्ता के विषय में वह लिखते हैं:-

    

                निश्चय ही तत्वज्ञान का केन्द्र बिन्दु मैं या अस्मद् (मेरी आत्मा) है। यह अस्मद् ज्ञाता भी है और जब अपने संबंध में स्वयं ऊहायें उपस्थित करने लगता है तो यह ज्ञाता और ज्ञेय दोनों ही बन जाता है। सामान्य तर्क शास्त्र की दृष्टि से एक समय ही कोई ज्ञाता और ज्ञेय दोनों नहीं हो सकते। किन्तु यह तर्क तो साधारण तर्क शास्त्र का है, जिसकी सहायता से हम दूसरों के सम्बन्ध में जानने का कुछ प्रयास कर सकते हैं। तर्क तो यह भी किया जा सकता है कि जो अपने को नहीं जान सकता है, वह दूसरे को कैसे जानेगा। यह तर्क नहीं तर्काभास है। कभी-कभी हम यह भी कह सकते हैं कि अपने से इतर विषय का ज्ञान उपलब्ध किया जाता है, किन्तु अपनी अनुभूति होती है। स्व का ज्ञान बर्ह्ज्ञिन से भिन्न है, दोनों ज्ञानों के साधन भी भिन्न हैं, और उनकी प्रक्रियायें भी भिन्न हैं। स्व के ज्ञान के निमित्त न तो इन्द्रियों की आवश्यकता होती है, न मानस तन्त्र की और न भाषा की। किन्तु जब यह ज्ञान दूसरों के प्रति व्यक्त किया जाता है, तो उसे हम उसी माध्यम से व्यक्त करने की चेष्टा करते हैं, जिस माध्यम के हम अभयस्त हैं। इस व्यक्तिकरण में हम थोड़ा ही सफल हो पाते हैं, बहुधा हमारी भाषा आलंकारिक ही रह जाती है। रूप, रस, गन्ध आदि को भी दूसरों के प्रति व्यक्त करना सरल नहीं है, और ऐसी स्थिति में हम स्वयं क्या हैं, इसे व्यक्त करना अतिकठिन है (स्यात्, हम गिनाते जावें कि हम क्या नहीं हैं, यह अभिव्यक्ति ही सबसे बड़ी अभिव्यक्ति होगी)। किन्तु हमारी स्व-सत्ता हमारे लिए भी और दूसरों के लिए भी प्रमाण की अपेक्षा नहीं रखती। मैं हूं, इसमें मुझे सन्देह नहीं, आप भी हैं, इसमें मुझे सन्देह नहीं। आपको भी मेरी सत्ता के सम्बन्ध में सन्देह नहीं है। मैं क्या हूं और आप क्या हैं, यह न भी जानते हुए, मैं यह स्वीकार करता हूं , कि मैं भी हूं और आप भी हैं। मेरी आयु इस समय 74 वर्ष की है। अपनी सत्ता के सम्बन्ध में मुझे सन्देह नहीं हुआ, और न मुझे इस बात में सन्देह हुआ, कि सत्ता की दृष्टि से 1979 में मैं वही व्यक्ति हूं जिसने 1921 में मैट्रिकुलेशन की परीक्षा उत्तीर्ण की, या जिसने 1932 में डाक्टर की उपाधि प्राप्त की, या जो 1967 में यूनिवर्सिटी सेवा से मुक्त हुआ, या जो 1971 में संन्यासी बना। किसी मूर्ख दार्शनिक को तो इसमें सन्देह हो सकता है, किन्तु डाकखाने के कर्मचारियों को, बैंक के अधिकारियों को, बीमा कम्पनी के संचालकों और मेरी मित्र मण्डली को या सम्बन्धियों को कभी इस बात में सन्देह नहीं हुआ। मेरे शरीर के कण-कण बदल गए, और शरीर में न जाने कितनी विध्वंसकारी प्रतिक्रियायें हुई। (अपचयन-उपचयन की, विघटन और संघठन की), सब कुछ बदला पर अपनी दृष्टि में और दूसरों की दृष्टि में मैं वही सत्ता बना रहा जो 1905 में था। रूप बदला, नाम बदल सकता था, किन्तु नाम रूप से भिन्न जो मैं था, उसकी सत्ता में न मुझे सन्देह हुआ और न अन्यों को जो मेरे सम्पर्क में अब तक भी आये।

 

                क्या मैं शरीर से भिन्न कोई सत्ता हूं? क्या आप भी अपने शरीर से भिन्न कोई सत्ता हैं? मैं स्वतः तो यह अनुभव करता रहा कि मैं शरीर में तो हूं-शरीर मेरा है, अर्थात् शरीर मेरे लिए है, जिसके द्वारा कुछ सीमित काम मैं कर सकता हूं किन्तु मैं शरीर से पृथक हूं, अवश्य। शरीर के संघात मात्र से उत्पन्न मैं कोई सत्ता नहीं हूं। लोगों ने बड़ी चेष्टा की कि यह सिद्ध हो जाय कि मेरी चेतनता जड़ पदार्थों से प्रसूत एक विशिष्ट चेतना मात्र है। तरह-तरह के उदाहरणों से यह समझाने का यह प्रयत्न भी किया गया, कि मेरी चेतना किसी जैव-रासायनिक या भौतिक क्रिया का परिणाम है-पर ये कल्पानायें दुरुह कल्पनायें ही रही हैं। प्रत्येक प्रश्न के कई उत्तर हो सकते हैं, पर वैज्ञानिक पद्धति तो यह है कि अनेक उत्तरों में जो अल्पतम जटिल हो उसे स्वीकार किया जाय। मनुष्य ने जीवन तथ्यों को बहुत कुछ समझने का प्रयास किया है, और उसकी उपलब्धियां भी बहुत रही हैं, किन्तु वह अभी साध्य प्रश्नों के पृष्ठ पर ही मानों खेल रहा है, गहराई में प्रवेश भी नहीं कर पाया है।

 

                हमने शरीर के जिस अंश को थोड़ा बहुत समझा है, वह अतिस्थूल है। अन्नमय कोश के हम अंश नहीं हैं, प्राणमय कोश की भी हम सत्ता नहीं है, मनोमय कोश को हमने समझा ही नहीं है, और आनन्दमय और विज्ञानमय कोश की संरचना के सम्बन्ध में हम नितान्त मूर्ख हैं। इन कोशों के बनाने वाले हम नहीं हैं-हमने तो यह सभी कोश किसी से पाये हैं। उनका उपयोग कुछ सीमा तक हम करते हैं, किन्तु किस प्रकार इस उपयोग के करने में हम सफल होते हैं, इसका हमें ज्ञान भी नहीं है। किन्तु इतना सब होते हुए भी हम यह मानने को तैयार नहीं हैं कि शरीर के मरने से हम मरते हैं, और शरीर के बन जाने पर हम स्वतः बन जाते हैं। है तो कुछ उल्टा ही। माता के गर्भ में (या पिता के गर्भ में) आने पर हमारा शरीर बनने लगता है, किन्तु हम इस शरीर को बनाने वाले नहीं है। यह शरीर यथार्थ है, कल्पना या मिथ्या नहीं है, प्रयोजन से सम्पन्न है। यथार्थ शरीर न स्वयं बनता है, न हम इसे बनाते हैं। कोई है अवश्य जो हमसे भिन्न है, हमसे अधिक समझदार है, जिससे हमारा निकट का सम्बन्ध है, और जिसे विशाल जगत् का परिचय है। उसकी व्यवस्था से माता के गर्भ में मेरा शरीर बना (गर्भ की अंधेरी कोठरी में उसकी व्यवस्था ने मेरी आंखें बनायी जिसमें दूरस्थ सूर्य और तारों को देखने की क्षमता विकसित हुई। गर्भ में ही उसने मेरी नासिका बनायी, जिससे मैं गुलाब-चमेली के फूलों की गंध सूंघ सकूं, और उसी गर्भ में उसने मेरे मुख के भीतर, जब कि मुख खुला भी न था, ऐसी जिह्वा बना दी जिससे मैं शक्कर का मिठास अनुभव कर सकूं-उस शक्कर का जो गन्ने के भीतर बन रही है-मुझसे कहीं दूर किसी खेत में।) अतः स्पष्ट है कि मेरे शरीर को व्यवस्थित करने वाला कोई वह है, जिसे सृष्टि का ज्ञान है, और जो दूरस्थ प्रदेशों में सृष्टि की व्यवस्था को चला रहा है। मेरे शरीर से सामंजस्य रखने वाले इस समस्त जगत् को मिथ्या, काल्पनिक, अध्यास या व्यवहार मात्र का मानना एक ऐसा तथ्य है, जो कतिपय विद्वानों को कितना ही मुग्ध करने वाला क्यों न हो, यथार्थता और सत्य से बहुत ही दूर है।

 

                स्वामी सत्यार्थप्रकाश सरस्वती जी की लिखी यह पूरी प्रस्तावना पढ़ने योग्य है। इसमें स्वामी जी ने पाठकों को ईश्वर और आत्मा का सत्यस्वरूप बताकर उनके आंशिक दर्शन करा दिये हैं। पाठकों को स्वामी जी के उपुर्यक्त विचार पसन्द आयेंगे और उनका ज्ञानवर्धन होगा, हम ऐसी आशा करते हैं। ओ३म् शम्।

-मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः 09412985121


Source :
This Article/News is also avaliable in following categories : Literature News , Chintan
Your Comments ! Share Your Openion

You May Like