हमारी राजस्थान यात्रा का अगला पडाव है झुंझुंनू जिला। वीर सपूतों की जननी शेखावाटी की माटी के झुंझुंनू, चूरू एवं सीकर जिलों ने देश को सबसे ज्यादा वीर सपूत दिये। जिन्होंने भारतीय फौज में लडते हुये वीर गति पाई और शहीदों की सूची में राजस्थान का नाम अमर कर दिया। इस धरती ने देश को अनेक सुमामधन्य उद्यमी दिये जो अपनी व्यापारिक कुशलता से विश्व पटल पर शेखावाटी के साथ-साथ राजस्थान का नाम रोशन कर रहे हैं। कुछ भी साथ ले कर नहीं जाने वालों ने कठिन परिश्रम से अपना एम्पायर खडा किया और साथ ही अपनी मातृ भूमि को खुशहाल बनाने में भामाशाह बनकर सेवा में आगे आ कर अपनी जन्म भूमि का कर्ज चुकाया। बिडला, डालमिया, पोद्दार, सिंघानिया, गोयनका, कानोडिया, पीरामल आदि उधोगपति झुंझुंनू जिले की देन हैं। खूबसूरत हवेलियों और मंदिरों के लिए पहचान बनाने वाले झुंझुंनू जिले में जगह-जगह ऑपन आर्ट गैलरी सैलानियों के आकर्शण का प्रबल केन्द्र हैं। मोदी एवं टिबरवाला हवेलियां यहाँ की संस्कृति की खास धरोहर हैं।
ऐतिहासिक दृाष्टि से पांचवीं-छठीं शताब्दी में गुर्जरों के काल में झुंझुंनू बसाने का पता चलता है। डॉ. दशरथ शर्मा की तेरहवीं शताब्दी की सूची में भी झुंझुंनू का नाम है। सुल्तान फिरोज तुगलक (१३५१-१३८८ ई) के बाद यहाँ कायमखानी वंशज अस्तित्व में आया। कायम खॉ के बेटे मुहम्मद खाँ ने झुंझुंनू में अपना राज्य कायम किया। यहाँ का अन्तिम नवाब रूहेल खाँ था। इसकी मृत्यु के पष्चात विक्रम संवत् १७८७ में यहाँ शेखावत राजपूतों का राज्य हो गया। सन् १८३४ ई में मेजर हेनरी फोस्टर ने यहाँ एक फौज का गठन किया जिसे शेखावाटी ब्रिगेड कहा जाता था। जहाँ यह फौज रहती थी वह क्षेत्र आज छावनी बाजार और छावनी मौहल्ला कहा जाता है। राजस्थान निर्माण के साथ झुंझुंनू जिला अस्तित्व में आया।
भौगोलिक दृष्टि से झुंझुंनू जिला २७०.५‘ से २८०.५१‘ उत्तरी अक्षांश एवं ७५०.से ७६० पूर्वी देशान्तर के मध्य स्थित है। जिले की सीमाएं हरियाण राज्य एवं सीकर व चूरू जिलों को सीमाओं से मिलती हैं। जिले का क्षेत्रफल ५९२८ वर्ग कि.मी., जनसंख्या (२०११)-एवं साक्षारता दर -प्रतिशत है। झुंझुंनू खेतडी नवलगद, चिढावा, बिलाडा उदयपुरवाटी, पिलानी एवं मुंकुंदगढ जिले के प्रमुख स्थल हैं। जिले के उत्तरी-परिचमी भाग में सुनहरे रेतीले धोरे हैं तथा दाक्षिणी-पूर्वी भाग में अरावली पर्वत श्रेणी है। लोहार्गल एवं सिरोही जैसे स्थल अरावली पहाडयों के मध्य स्थित हैं। एक मात्र कांतली नदी यहाँ पाई जाती ह। अजीत सागर बांध, पन्नालाल शाह का तालाब (खेतडी)एवं समस सागर (झुंझुंनू.) प्रमुख जलाशय हैं। जलवायु गर्मियों में गर्म एवं सदिर्यो में काफी ठंड रहती है। जिले में आम, नींबू, जामुन, बीलपत्र एवं केवडे के वृक्ष पाये जाते हैं। चीतल, सांभर, नीलगाय एवं हिरण आदि वन्य जीव पाये जाते हैं। चोकला नस्ल की भेड एवं मुर्रा नस्ल की भैंस यहाँ पाई जाती हैं।
अर्थव्यवस्था की दृष्टि से जौ, अलसी एवं सरसों की फसलें की जाती हैं। खनिज सम्पदा जिले में खेतडी-सिंघाना क्षेत्र तांबा उत्पादन के लिए प्रसिद्ध है। हिन्दुस्तान कॉपर लि. द्वारा यहाँ तांबे का उत्खनन किया जाता है। जिले के कोलिहान एवं चांदमारो में भी तांबा पाया जाता है। अन्य खनिजों में ग्रेनाइट, लाइम स्टोन, लौह अयस्क, संगमरमर, फेल्सपार और डोलोमाइट भी पाया जाता हैं। चिडावा, झुंझुंनू एवं पिलानी में रीको द्वारा औद्योगिक क्षेत्र स्थापित किये हैं। सहकारी क्षेत्र में सरसों की तेल मिल है। तांबे के प्रग्लन के लिए खेतडी में कॉपर स्मेंल्टिंग प्लाट स्थापित किया गया है। खेतडी भारत की ताम्र नगरी के नाम से जाना जाता है। झुंझुनूं से ६७ तथा दिल्ली से १८० किलोमीटर दूर स्थित खेतडी। ताम्र युग की पुरानी भट्टियां खेतडी क्षेत्र से प्रात हुई हैं जिनमें ताम्र अयस्क गलाकर ताम्र धातु प्राप्त की जाती थी। अरावली के गर्भ में लगभग ७५ किलोमीटर लम्बी ताम्र पट्टी स्थित है जिसके ऊपरी छोर पर खेतडी स्थित है। १९६१ में खेतडी कॉपर कॉम्पलेक्स का विकास किया
कला एवं संस्कृति की दृष्टि से हवेलियों में रंग बिरंगे भित्ति चित्र सैलानियों की पहली पंसद हैं। झुंझुंनू में ईश्वरदास मोदी एवं टिबरवाले की हवेलियों, नवल गढ में पौद्दार पाटोदिया, भगत चौखानी की हवेलियां, तथा पिलानी में बिरला हवेली जिले की प्रमुख हवेलियां हैं। झुंझुंनू में रानी सति का मंदिर विख्यात है। यहीं पर मनसा माता मंदिर, खेम षांति मंदिर, खेतली में भट रानी जी मंदिर तथा नवलगढ में गंगा माता के मंदिर प्रमुख रूप से धार्मिक आस्था के केन्द्र हैं। झुंझुंनू में जोरावर गढ खेतडी में बागोर का किला एवं भोपालगढ का दुर्ग, मुकंदरा का किला, नवलगढ का दुर्ग डूण्डलोद का किला एवं मंडावा का किला प्रमुख दुर्ग हैं। झुंझुंनू में खेतडी महल, हवा महल एवं नवलगढ में रूप निवास महल जिले को प्रमुख दर्शनीय महल हैं। नरहड में शक्कर पीर बाबा की दरगाह प्रसिद्ध है। गींदड, चंग एवं कच्छी घोडी यहाँ के प्रमुख लोक नृत्य हैं। चिडावा के राणा परिवार का ख्याल लोक नाट्य एवं मण्डावा के रिजवी परिवार की गजल गायिकी की परम्परा ने भी जिले का नाम रोशन किया है। मांडना एवं सांझी का चित्रण एवं मेंहदी मांडना यहाँ की लोक संस्कृति का प्रतीक हैं। भाद्रपद माह की अमावस्या को भरने वाला लोहार्गल मेला, नरहड में शक्कर पीर बाबा का मेला, मनसा देवी मेला एवं रानी सती का मेला जिले के प्रमुख बडे मेले हैं। पिलानी में बिडला विज्ञान एवं तकनीकी संग्रहालय दर्शनीय है। झुंझुंनू के पाण्डित झाबरमल शर्मा को पत्रकरिता का भीश्म पितामह कहा जाता है। पंडित मोती लाल नेहरू की प्रांरमिक शिक्षा खेतडी में हुई थी। महीन जालीदार और काश्ठ दरवाजें प्रमुख हस्तशिल्प हैं।
दर्शनीय स्थल
झुंझनू
झुंझुनूं जिला मुख्यालय पर स्थित प्राचीनतम दर्शनीय स्थानों में ४०० वर्ष पुराने आखयगढ के खण्डहर, बादलगढ एवं सूरजगढ महल अपना प्रमुख स्थान रखते हैं। बादलगढ को बिडला सेठों ने खरीद कर उसमें शार्दूलसिंह की मूर्ति स्थापित कर दी है। जिसके पुत्रों ने शेखावाटी के पचपाना क्षेत्रों पर शासन किया। प्राचीन स्थानों में फोरेस्टर गंज भी उल्लेखनीय है। अंग्रेजों के समय इस क्षेत्र में पिण्डारियों की लूटमार बढ गई थी जिन्हें कुचलने के लिये कर्नल फोरेस्टर की नियुक्ति की गई। उसने अनेक लुटेरों व उनके सरदारों के गढ नश्ट कर दिये तथा झुंझुनूं के पूर्वी भाग में फोरेस्टर गंज बसाकर उसमें छावनी स्थापित की। इस क्षेत्र में शिलालेख युक्त एक मन्दिर एवं एक मस्जिद स्थित है। तीन सौ वर्ष पुराने स्थलों में शार्दूलसिंह का बनवाया हुआ बिहारी जी का मन्दिर, रघुनाथजी का बडा मन्दिर तथा जैन मन्दिर दर्शनीय हैं। झुंझुनूं नगर के कलात्मक एवं प्राचीन कुओं में ई. १८५० ई. के लगभग बना लाल कुंआ (अब यह रेत से भर गया है) खेतडी नरेश अजीतसिंह द्वारा बनवाया गया सागर कुंआ, चेजारों का कुंआ, नया कुआं, भीखे वालों का कुंआ, छीपों का कुआं, तथा खण्डोलिया कुआं दर्शनीय हैं। खण्डेलिया कुआं पर बनी मीनारें, छतरियां एवं शिखर, बरामदा तथा प्रवेश द्वारा दूर से किसी महल का आभास देते हैं।
रानी सति मंदिर
राजस्थान के अनेक सति मंदिरों में झुंझुनू का रानी सति मंदिर विशेश कर मारवाडी समाज में अपना विशेश स्थान रखता है, वे सती को दुर्गा का अवतार मानकर पूजा करते हैं। मंदिर बाहर से देखने पर एक भव्य स्मारक के रूप में नजर आता है जो कई मंजिल में बना है। सफेद संगमरमर से बने इस मंदिर पर खूबसूरत आकर्शक चित्रकारी की गई है तथा मंदिर की बाहरी दीवार के मध्य मंदिर का मुख्य प्रवेश द्वार निर्मित है। करीब ४०० वर्ष प्राचीन मंदिर की अनुपम कलाकृति एवं चित्रकारी मंदिर को भव्यता प्रदान करती है। यह मंदिर सम्मान और नारी शक्ति का प्रतीक है।
रानी सती(दादी) को समर्पित मंदिर परिसर में हनुमान मंदिर, सीता मंदिर, गणेश मंदिर एवं शिव मंदिर बने हैं। मंदिर में १३ सतीमंदिर हैं जिसमें १२ छोटे और एक बडा रानी सती का है। पास में हरितमा लिए एक उद्यान में भगवान शिव की खूबसूरत प्रतिमा स्थापित की गई है। मुख्य द्वार के बाहर एक आकर्शक फव्वारे के मध्य गणेश प्रतिमा है। मंदिर के अन्दर गर्भगृह, सभा मण्डप तथा दोनों ओर के बरामदों में दीवारों पर एवं छतों पर पेन्टिंग एवं कांच की कारीगरी का नयाभिराम कार्य किया गया है। इससे मंदिर की सुन्दरता में चार-चांद लग गये हैं और मंदिर भव्य स्वरूप में नजर आता है। मंदिर परिसर में शोडस माता मंदिर भी बना है जिसमें १६ देवियों की मूर्तियां स्थापित हैं। परिसर में ही लक्ष्मी नारायण का खूबसूरत मंदिर है।
दर्शकों के लिए मंदिर प्रातः ५ बजे से दोपहर १ बजे तक तथा दोपहर ३ बजे से रात्री १० बजे तक खुला रहता है। मंदिर की आरती का दृष्य देखने लायक होता है तथा आरती के बाद प्रसाद वितरण किया जाता है। मंदिर में शनिवार एवं रविवार को भक्तों की भारी भीड रहती हैं। भादों की अमावस्या पर यहां विशेश उत्सव का आयोजन किया जाता है। मंदिर में एक धर्मशाला भी बनी है, जिसमें १०० रूपये से ७०० रूपये तक कमरा उपलब्ध रहता है। भोजन के लिए भोजनालय एवं एक कैन्टिन की व्यवस्था भी उपलब्ध है।
रानी सति मंदिर के भव्य स्वरूप का शिलान्यास १९१२ को हुआ एवं मंदिर का निर्माण १९१७ में प्रारंभ होकर १९३६ में पूर्ण किया गया। मंदिर निर्माण के लिए अग्रवाल समुदाय के जालान गौत्र के लोगों ने अर्थव्यवस्था का प्रबन्ध किया। आज इस भव्य मंदिर के बहुमंजिल परिसर में मारबल से बना एक मुख्य सभा कक्ष एवं कमरों से घिरे दो कोर्टयार्ड बनाये गये हैं जिनकी क्षमता ३०० श्रद्धालुओं की ह। मुख्य गर्भगृह में रानी सति जो शक्ति की देवी है विराजित है। वर्ष १९९६ में रानी सति के भक्तगणों ने रानी सती का ४००वां जन्मदिन समारोह पूर्वक आयोजित किया।
बताया जाता है कि रानीसती जिसे नारायणी देवी और दादी कहा जाता है ने १३वीं से १७वीं सदी के मध्य अपने पति की गोद में बैठकर आत्मदाह कर सती हो गई थी। प्रचलित कथानक के अनुसार चिता में देवी रूप में सती प्रकट हुई और मधुर वाणी में राणा जी से बोली, मेरी चिता की भस्म को घोडी पर रखकर ले जाना और जहां यह घोडी रूक जायेंगी वहीं मेरा स्थान होगा। मैं उसी जगह से जन-जन का कल्याण करूंगी। ऐसा सुनकर राणा रूदन करने लगा तब मॉ ने आषीर्वाद दिया कि मेरे नाम से तुम्हारा आयेगा और इसी से रानी सती का नाम प्रसिद्ध हुआ। घोडी झुंझुनु गांव में आकर रूक गई तथा भस्म को वहीं पर पधराकर राणा ने सभी परिवार जनों की सहमति से भस्म की जगह एक सुन्दर मंदिर का निर्माण कराया। आज यही मंदिर एक बडा पुण्य स्थल बन गया है, जहां मॉ ”रानी सती दादीजी“ सब पर अपनी दया की वर्षा कर रही हैं।
पौराणिक तथ्यों से ज्ञात होता है कि महाभारत के युद्ध के चक्रव्यूह में वीर अभिमन्यु वीरगति को प्राप्त हुए थे। उस समय उत्तरा जी को भगवान श्री कृष्ण ने वरदान दिया था कि कलयुग में तू नारायणी के नाम से श्री सती दादी के रूप में विख्यात होगी, जन-जन का कल्याण करेगी और दुनिया में पूजी जायेगी। उसी वरदान स्वरूप उन्होंने अपने पति के हत्यारें को मारकर बदला लिया और फिर आज से लगभग ७१५ वर्ष पूर्व मंगलवार मंगसिर बदि नवमीं ६ दिसम्बर १२९५ को सती हुई थी।
नरहड दरगाह
राजस्थान के झुंझुनूं जिले के गांव नरहड में एक ऐसी दरगाह है जो भाईचारे व सदभावना की अनूठी मिसाल है। यहां जन्माश्टमी का पर्व विशेश रूप से समारोह पूर्वक मनाया जाता है। हिन्दू-मुस्लिम सदभावना का संदेश देती यह दरगाह झुंझुनूं जिला मुख्यालय से ४० किलोमीटर दूर है। यहां चिडावा व पिलानी कस्बों से देवरोड होते हुए बसों से जाया जा सकता है।
दरगाह का बुलंद दरवाजा ७५ फीट ऊंचा एवं ४८ फीट चौडा है। दरगाह में तीन दरवाजे- बुलंद दरवाजा, बसंती दरवाजा एवं बंगाली दरवाजा बने हैं। इन तीनों द्वारों के बाद मजार शरीफ एवं मस्जिद है। मजार का गुम्बद चिकनी मिट्टी से निर्मित है, जिसमें पत्थर का उपयोग नहीं किया गया। दरगाह क्षेत्र में मजार के तीन ओर मुसाफिरखाने निर्मित हैं। मजार के प्रवेश वाले द्वार पर चांदी की परत चढाई गई है। गुम्बद पर ४० किलोग्राम पीतल का छत्र बना है। कहते हैं कि दरगाह के मुख्य द्वार पर बनी खिडकी से निकलकर एक ओर से दूसरी ओर जाने का मतलब ‘स्वर्ग द्वार‘ तक पहुंचना है। नरहड शरीफ को न्याय और प्रेम का देवता माना जाता है।
दरगाह में सालाना उर्स व भादवा मेला आयोजित किया जाता है। मेले में राजस्थान के ही नहीं, अपितु पंजाब, गुजरात, दिल्ली, हरियाणा, मध्य प्रदेश, आंध्र प्रदेश एवं महाराश्ट्र आदि राज्यों से भी बडी संख्या में भक्तगण जायरीन बाबा के दरबार में जियारत करने के लिए आते हैं। जन्माश्टमी के मौके पर तीन दिन का मेला आयोजित किया जाता है। रात्रि में शक्कर बाबा की हाजिरी में ख्याल गायकी के कार्यक्रम प्रस्तुत किए जाते हैं, जो रात्रि १२ बजे कृष्ण जन्मोत्सव तक चलते हैं। दरगाह में एक हिन्दू पुजारी की भी नियुक्ति की गई है और यह परंपरा पिछले ७५० सालों से चली आ रही है। बाबा की दरगाह में प्रतिदिन अजान के साथ सुबह-शाम घडयाल बजाए जाने की भी परंपरा है।
कहा जाता है कि यहां खुदाई में निकले हाजिब शकरवार के रोजे को हिफाजत से रखा गया है। यही हजरत हाजिब शकरवार नरहड दरगाह के पीर हैं। बाबा शकरवार का जन्म ५७९ या ५८९ हि. का है और वे कुरान शरीफ के हाफिज पैदा हुए थे। जन्माश्टमी के अवसर पर कव्वाली, रतजगा और जकडी के कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं। दरगाह के जाल के वृक्ष पर मन्नतों के डोरे बांधे जाते हैं, जिनकी मन्नतें पूरी हो जाती हैं, वे भी यहां आकर षीश नवाते हैं और डोरे बांधते हैं। यहां जात और बच्चों के मुण्डन संस्कार भी किए जाते हैं। नरहड कभी प्राचीन जोड राजपूत राजाओं की राजधानी थी और उस समय यहां ५२ बाजार थे। यहां पीर बाबा की मजार का निर्माण नवाब युनूस खां ने करवाया था। नरहड नवाब अल्लाउद्दीन खां के समय दरगाह पूर्ण रूप से बनकर तैयार हुई है।
लोहार्गल
राजस्थान के तीर्थ स्थलों में लोहार्गल नामक तीर्थ एक ऐसा आस्था स्थल है, जहां श्रद्धालु २४ कोसीय परिक्रमा लगाना पुण्य का कार्य मानते हैं। अरावली पर्वतमाला में स्थित धार्मिक एवं प्राकृतिक परिवेश का संगम लिए यह तीर्थ शेखावाटी जनपद में सीकर से करीब ३० किलोमीटर पूर्व में और झुंझुनूं से करीब ६० किलोमीटर दक्षिण-पष्चिम में स्थित है। बताया जाता है कि महाभारत युद्ध के पष्चात स्व-गौत्र बंधुओं की हत्या की आत्मग्लानि से पीडत पाण्डवों को ब्रह्मा जी ने कहा था कि वे देशाटन कर जगह-जगह पवित्र जलाशयों में स्नान करें। जिस जलाशय में उनके अस्त्र-शस्त्र गल जाएंगे, वहीं वे आत्मग्लानि के पाप से मुक्त हो जाएंगे। लोहार्गल के पवित्र सूर्य कुण्ड में उनके अस्त्र-शस्त्र गल गए और तभी से इसका नाम लोहार्गल हो गया।
लोहार्गल पहाडों की हरियाली, आम्र कुंज, निर्मल जलप्रवाह, वृक्षों से आच्छादित नदी का मार्ग तथा चारों ओर का आनन्ददायी वातावरण नयनाभिराम लगता है। गोगानवमी, जो हर वर्ष भाद्रपद माह में आती है, के दिन हजारों नर-नारी लोहार्गल के पहाडों की २४ कोसीय परिक्रमा लगाना बडे पुण्य का कार्य मानते हैं। लोहार्गल के सूर्य कुण्ड में स्नान करने के साथ यह परिक्रमा प्रारंभ होती है और अमावस्या को पुनः कुण्ड में पवित्र स्नान करने के साथ संपन्न होती है। परिक्रमा के दौरान श्रद्धालु ज्ञान बावडी, गोल्याण, चिराना, किरोडी, कोट, सकराय (शाकंभरी), नागा कुण्ड, टफश्वर, शोभावती, खोह कुण्ड आदि पवित्र स्थलों के दर्शन भी करते हैं। सम्पूर्ण परिक्रमा के जरिये यद्यपि श्रद्धालु करीब ३५ किलोमीटर का पहाडी रास्ता तय करते हैं, परंतु इसे २४ कोसीय परिक्रमा कहा जाता है। इस परिक्रमा में कई लोग भोजन बनाने का सामान भी लेकर चलते हैं और पडाव स्थलों पर रसोई बनाकर भोजन करते हैं।
परिक्रमा करीब एक सप्ताह तक चलती है। मार्ग में किरोडी स्थल का पौराणिक महत्व है। बताया जाता है कि किरोडी को पाण्डव माता कुन्ती की तपस्या स्थली भी कहा जाता है। यहां षीतल और गुनगुने पानी के तीन कुण्ड बने हैं। दो कुण्डों में गंधक जैसा मिश्रण होना बताया जाता है, जहां नहाने से चर्म रोग दूर हो जाते हैं। परिक्रमा में ही दूसरा प्रमुख स्थल शाकंभरी का है, जिसे सकराय के नाम से भी पुकारा जाता है। शाकंभरी में दो देवियों की पुरानी मूर्तियां व शिलालेख है। यहां भी स्नान के लिए जलकुण्ड व विश्राम स्थल बने हैं। इनके अतिरिक्त इन प्रमुख आस्था स्थलों के साथ-साथ परिक्रमा के इस पूरे रास्ते में छोटे-बडे सौ से अधिक मंदिरों के दर्शन भी करते हैं।
लोहार्गल के कुण्ड की सीढयों का स्थापत्य देखते ही बनता है। सूर्य कुण्ड में बने गौ-मुख में पहाडों से होकर पानी आता है और मुख से २४ घंटे जलधारा प्रवाहित होती है। इसके पास ही वनखण्डी शिखर पर जाने का एक रास्ता है, जबकि दूसरा रास्ता मालकेतु पर्वत पर जाता है, जहां शेशनाग की अश्टधातु की प्रतिमा है। माल और केतु को हिमालय का पुत्र बताया जाता है। बरसात के दिनों में पर्वतों का सौन्दर्य अद्वितीय एवं मनमोहक होता है। सावन के महीने में विगत कुछ वर्शों से कावडयों के काफिले भी लोहार्गल आने लगे हैं और यहां का पवित्र जल लेकर विभिन्न मंदिरों में शिव का अभिशेक करते हैं।
नवलगढ-ओपन आर्ट गैलरी
जयपुर-झुंझुनुं सडक और रेलमार्ग पर झुंझुनूं से ४० किलोमीटर तथा सीकर से ३० किलोमीटर दूर स्थित नवलगढ से लगभग २५० वर्ष पुराना दुर्ग, उसे समय का कांचिया गढ जिसमें कांच की जडाई से युक्त महल तथा उसी काल के बने गोपीनाथजी मन्दिर, जानकीनाथजी मन्दिर, विप्रमण्डल धर्मशाला, पारदर्शक शिवलिंग युक्त ठिकाने की छतरी तथा रूप निवासी कोठी दर्शनीय हैं। लगभग २०० वर्ष पुराने भवनों एवं स्थलों में महामाया मन्दिर, रघुनाथ मन्दिर , लक्ष्मीनारायण मन्दिर, वार्ड नं. ४ की आठों हवेलियां, छोटा गोपीनाथ मंदिर, गूदड का मन्दिर, काली मन्दिर पाटोदियों की छतरी, पोद्दार मातुश्री विद्यालय भवन एवं कोठी जिसमें भित्ति चित्र बने हैं, श्री सगनाथ राम की हवेली, कल्याणजी मन्दिर, गंगामाई मन्दिर, ठकुरानी श्री नवलसिंह द्वारा बनवाया गया रामदेव मन्दिर आदि दर्शनीय हैं।
एक सौ से एक सौ पचास वर्ष पुराने स्थिलों में पारदर्षी शिवलिंग युक्त रूपनिवास छतरी, भित्ति चित्रों युक्त जयपुरियों की हवेली तथा स्कूल, कलवालों की हवेली, मोर मन्दिर एवं मोर की हवेली, घेर का मन्दिर, वार्ड नं. ८ का ठाकुरजी महाराजा का मन्दिर, ष्याम बाबा का मन्दिर, शिव मंन्दिर, शानिदेव मन्दिर, भगतों की हवेली, ५०० बीघा जमीन में बना भगतों का जोहड, टीले वाली बगीची के सामने स्थित बारा दरीची, भित्ति चित्रों युक्त बाबूलाल पाटदिया की हवेली, गऊशाला, भित्ति चित्रों युक्त रामरीख दास परसपुरियां की हवेली दर्शनीय हैं। पचास से सौ वर्ष पुराने स्थलों में भित्ति चित्रों युक्त बाबू लालधर जी धरका की हवेली, खाखाजी का बद्रीनारायण मन्दिर, हनुमानजी की बगीची, नेमानी पेवेलियन, भित्ति चित्र युक्त सेखसरियों की पुरानी हवेली तथा सेठ गोवर्धनदास गोविन्द राम सेखसरिया की नवीन कलात्मक हवेली, वार्ड नं. ९ का मोरों का मन्दिर, वार्ड नं.१० का गंगामाई मन्दिर तथा वार्ड नं. २ का गांधी पार्क दर्शनीय हैं। नवलगढ की हवेलियों में भित्ति चित्रों का जादुई आकर्शण तथा लकडी के दरवाजों की बारीक कला अद्भुत दृष्य उपस्थित करती है। यहाँ की हवेलियों को ओपन आर्ट गैलारी कहा जा सकता है।
द्वारिकाधीश मंदिर
नवलगढ की शहर पनाह के बाहर पूर्व दिशा में स्थित द्वारकाधीश के मंदिर का निर्माण विक्रम सम्वत् १९१३ में सेठ दौलतराम चौखाणी ने कराया था। मंदिर के प्रवेश द्वार से अंदर पहुंचने पर एक बडा चौक दिखाई देता है जिसका आंगन पक्का बना हुआ है। चौक के सामने मंदिर का गर्भगृह है जहां राधा-कृष्ण की प्रतिमाएं प्रतिष्ठित की गई हैं। गर्भगृह के सामने हनुमान जी की मूर्ति विराजमान है। पास ही विष्णु के वाहन गरूडजी की प्रतिमा स्थापित है। बांयी और एक बडे भवन में दर्शनार्थियों के भजन कीर्तन के लिए व्यवस्था की गई है। मंदिर के निकट एक विशाल शिवालय बनाया गया है जहां एक ही विशाल जलहरी में ग्यारह शिवलिंग बने हुए हैं। शिवालय में ग्यारह शिवलिंगों के अलावा शिव, पार्वती, गणेश तथा कार्तिकेय की सुन्दर प्रतिमाएं विराजमान हैं। शिवालय के ऊपर विशाल छत्री बनी हुई है जहां मोर व कबूतरों के लिए छाया व पीने को पानी मिलता है। गर्भगृह के ऊपर विशाल व ऊंचा शिखर बना हुआ है। नवलगढ सेठों का बनाया हुआ यह प्रथम मंदिर है। इससे पूर्व जितने भी मंदिर बने हैं सब राजाओं द्वारा ही बनवाए गए थे।
गंगामाता मंदिर-
नवलगढ के दक्षिणी द्वार पर नानसा दरवाजे के निकट गंगामाई का प्राचीन एवं भव्य मंदिर स्थित है। एक बडे प्रांगण के बीच काफी ऊंचाई पर बने इस मंदिर के लिए ३० सीढयां हैं। आज से १०० वर्ष पूर्व सेठ गोपालराम छावछरिया ने गंगामाई के मंदिर का निर्माण कराया था। मंदिर अपनी विशालता के कारण प्रसिद्ध रहा है। मंदिर में प्रवेश करने पर एक बडी पोल में से गुजरना पडता है। मंदिर के मध्य में बडा चौक है। सामने गर्भ गृह में गंगामाई की श्वेत संगमरमर से निर्मित प्रतिमा विराजमान है। अन्य मण्डप में शिव, पार्वती, गणेश व पंचमुखी शिवलिंग स्थित हैं। सभी प्रतिमाएं बडे आकार की एवं श्वेत संगमरमर से बनी हुई हैं। गर्भगृह के सामने चौंक में हनुमान व शिव प्रतिमाएं स्थित हैं। प्राचीन मंदिर षैली में बना यह मंदिर आकर्षक छतरियां व गुम्बजों से शोभित है। मंदिर का अपना कुआं तथा बाग भी है। सभा मण्डपों में सुन्दर भित्ति चित्र बने हुए हैं जिनमें कृष्ण की रासलीला व भगवान के विविध रूपों के दृष्य बनाये गये हैं। गर्भगृह के दरवाजे पर भित्ति चित्रकारी व शीशे की सज्जा की गई है। द्वार के दोनों तरफ सफेद संगमरमर से बनी गौ व गौवत्स (बछडे) की प्रतिमाएं स्थापित हैं।
चारधाम-निम्बास