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धर्म और संस्कृति:चम्बल के किनारे आस्था की हिलोरे

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12 Jan 17
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धर्म और संस्कृति:चम्बल के किनारे आस्था की हिलोरे
(डां. प्रभात कुमार सिंघललेखक एवं पत्रकार)धर्म और आध्यात्म प्राचीनकाल से ही चम्बल नदी के किनारे स्थित कोटा शहर के जनजीवन से जुडा रहा है। पुराणों के समय के धार्मिक साक्ष्यों से पता चलता है कि चम्बल नदी के आसपास का क्षेत्र जम्बू अरण्य क्षेत्र कहा जाता था। कई स्थानों पर चम्बल नदी को चर्मण्यवती कहना नदियों के प्रति धार्मिक आस्था का प्रतीक है। पुराणों में ही चम्बल के तट को राजा रंतिदेव की कर्म एवं यज्ञ स्थली बताया गया है। रंतिदेव ने यहां अग्निष्येय यज्ञ संपन्न किया था। परशुराम ने भी चम्बल के किनारे कई स्थानों पर तपस्या कर यज्ञ कराए थे। वामन पुराण के अनुसार चम्बल नदी के किनारे दान, पुण्य, हवन, जप एवं श्राद्ध करने से कई गुना फल की प्राप्ति होती है।
प्राचीन समय से ही यह क्षेत्र धर्म एवं आध्यात्मिक भावनाओं से ओतप्रोत रहा है। इस जिले में एवं आसपास बने अनेक देवालय इस तथ्य के जीवंत साक्षी हैं। तीसरी ईस्वी के मोखरी वंशीय वैदिक युग स्तम्भ ग्राम बडवा (वर्तमान बारां जिला) से प्राप्त हुए, जिन्हें राजकीय संग्रहालय में संरक्षित कर दिया गया है। गुप्तकाल से यहां शैव धर्म का व्यापक प्रचलन होने के प्रमाण इस क्षेत्र के मंदिरों से मिलते हैं। मंदिरों में पाई जाने वाली कामकला में लिप्त पाषाण प्रतिमाओं से प्रतीत होता है कि यहां शैव मत के वाम मार्ग का प्रभाव था, जो काम प्रक्रिया को ईश्वर से तादात्म्य का माध्यम मानते थे।
जिले में मंदिरों का निर्माण अर्वाचीन काल से वर्तमान समय तक निरंतर किया जा रहा है। वैष्णव संप्रदाय के अनेक धार्मिक स्थल इस संप्रदाय की धार्मिक आस्था के प्रतिबिम्ब हैं। हिन्दु समदाय के सभी देवी-देवताओं के अनेक मंदिर जगह-जगह पर बनाए गए हैं। मुस्लिम, जैन, सिक्ख, ईसाई एवं अन्य धर्मावलंबियों के आस्था स्थल भी यहां मौजूद हैं और उनकी धार्मिक आस्था का प्रतिनिधित्व करते हैं।
मथुराधीश मंदिर
कोटा स्थित पाटनपोल के मथुराधीश मंदिर में वल्लभ संप्रदाय की प्रथम पीठ स्थापित है। वैष्णवों का यह प्रमुख तीर्थ है। विक्रम संवत 1801 में दुर्जनशाल के समय दीवान राय द्वारकादास की हवेली में मथुराधीश जी की प्रतिमा स्थापित की गई, जिसे गोकुल के पास कर्णाबल गांव से लाया गया था। कृष्ण जन्माष्टमी पर नंदोत्सव, दीपावली पर अन्नकूट के साथ वर्षभर वैष्णव परंपरा के साथ उत्सवों का आयोजन किया जाता है।
कंसुआ का शिव मंदिर
कोटा शहर में डीसीएम मार्ग पर आठवीं शताब्दी का कंसुआ का शिव मंदिर भगवान शिव को समर्पित है। मंदिर के गर्भगृह में श्याम पाषाण का चतुर्मुख शिवलिंग स्थापित है, जिसकी प्रतिदिन पूजा की जाती है। मंदिर की विशेषता है कि सूर्य की पहली किरण मंदिर के भीतर 20-25 फुट स्थित शिवलिंग पर सीधी पडती है। मंदिर के परिक्रमा पथ में बांयी ओर की दीवार पर कुटिला लिपि में लिखा हुआ आठवीं शताब्दी का शिलालेख है, जिससे पता चलता है कि यह शिलालेख शिवगण मौर्य का है और निर्माण का विस्तार से वर्णन किया गया है।
परिसर में भैरव की आदमकद प्रतिमा भी मंदिर की विशेषता है। भैरव की मूर्ति पर सिंदूर का चौला चढाया जाता है। परिसर में कई शिवलिंग भी हैं, लेकिन यहां स्थित सहस्त्रमुखी शिवलिंग 3 फुट ऊंचा एवं 1 फुट चौडा है। प्रसिद्ध कवि जयशंकर प्रसाद ने अपने चन्द्रगुप्त नाटक के प्राक्कथन में इस स्थान को कण्वाश्रम की संज्ञा देकर आम लोगों की इस धारणा को पुष्ट किया है कि यहां कण्व ऋषि का आश्रम था। कहा जाता है कि यहीं पर शकुंतला ने अपना बाल्यकाल और किशोरावस्था व्यतीत की थी। पुरातत्व की दृष्टि से इस मंदिर का अपना विशिष्ट महत्व है।
डाढदेवी
राजपरिवार द्वारा पूजनीय चामुण्डा स्वरूपा इष्ट देवी डाढदेवी का मंदिर डीसीएम मार्ग से होकर जाता है, जो कोटा शहर से करीब 15 किलोमीटर दूरी पर है। महाराव उम्मेद सिंह द्वितीय के समय से ही यहां दशहरा पर्व पर विशेष पूजा-अर्चना की जाती है। चैत्र एवं शारदीय नवरात्रा के अवसर पर यहां मेले जैसा दृश्य रहता है और हजारों श्रृद्धालु भक्ति-भाव से मां देवी के स्वरूप के दर्शन करते हैं। शिखरबंद मंदिर के गर्भगृह में चामुण्डा माता की खडी मुद्रा में प्रतिमा अपने आयुधों के साथ एक ऊंची चौकी पर स्थापित है। मंदिर का पूजा गृह एवं परिक्रमा पथ 22 अलंकृत स्तम्भों पर निर्मित है। मंदिर के पार्श्व में माता देवी सहित भैरव की प्रतिमाएं तथा मंदिर के सामने से दांयी ओर सिंह प्रतिमा स्थापित है। मंदिर के सामने एक जलकुण्ड निर्मित है तथा जलकुण्ड के आगे माता का वाहन सिंह एवं हनुमान जी की प्रतिमा स्थापित है। मंदिर परिसर में चार जलकुण्ड बने हैं। मंदिर के सम्मुख करीब 100 फीट दूरी पर अहाते के मध्य बना सिंहद्वार आकर्षक लगता है। सिंहद्वार पर दोनों तरफ दो-दो छतरियां निर्मित हैं। सिंहद्वार व अहाते का जीर्णोद्धार 18 नवम्बर, 2006 को कराया गया।
चरण चौकी
कैथून मार्ग पर मोतीपुरा गांव के समीप चरण चौकी आज प्रमुख वैष्णव तीर्थ बन गया है। यहां श्रीनाथ जी के चरण पूजे जाते हैं। श्रीनाथ जी के दिव्य विग्रह को 1970 में मोतीपुरा लाया गया। श्रीनाथ जी ने यहां 4 मास निवास किया। चरण चौकी की स्थापना वैष्णव संप्रदाय के नियमों के अनुसार भवन में की गई है, जहां से प्रभु के चरणों के दर्शन होते हैं।
चारचौमा शिवालय
कोटा से 25 किलोमीटर दूर चौमा गांव में गुप्तकालीन चारचौमा शिवालय भगवान शिव को समर्पित है। गुप्तकालीन होने से इस मंदिर को चौथी या पांचवीं सदी का माना जाता है। कोटा राज्य के इतिहासकार डॉ. मथुरा लाल शर्मा ने इस मंदिर को कोटा का सबसे प्राचीन शिवालय बताया है।
बाहर से देखने पर मंदिर साधारण शिखरबंद है तथा मंदिर में स्थित चतुर्मुख शिव प्रतिमा श्याम पाषाण से निर्मित है। यह प्रतिमा अत्यन्त ही आकर्षक है तथा इसकी विशेषता चारों मुखों के केशविन्यास में नजर आती है। वेदी से चोटी तक प्रतिमा की ऊंचाई करीब 3 फुट है। कंठ से ऊपर के चारों मुख काले और चमकीले हैं। यहां प्रतिदिन आरती होती है तथा महाशिवरात्रि पर भव्य मेले का आयोजन किया जाता है, जिसमें हजारों श्रृद्धालु पहुंचते हैं और भगवान शिव के दर्शन कर पुण्य प्राप्त करते हैं।
भीम चौरी
कोटा से करीब 50 किलोमीटर दूर दरा नामक स्थान पर मुकुन्दरा की पहाडियों के सौन्दर्य के मध्य स्थित भीम चौरी को भी चौथी शताब्दी का बताया जाता है। यहां कभी भव्य शिवमंदिर था, परन्तु आज उसके स्तम्भों के रूप में अवशेष शेष रह गए हैं। एक लम्बे-चौडे पत्थर के दो स्तरीय चबूतरे पर कुछ खम्भों वाला एक ध्वस्त मंदिर को ही भीम चौरी अथवा भीव चंवरी कहा जाता है। यहां पर 44 फुट चौडे और 74 फुट लम्बे चबूतरे पर बने इन स्तम्भों को भीम का मण्डप भी कहा जाता है। इस चबूतरे पर ही मूल मंदिर स्थापित था। यहां से प्राप्त झल्लरी वादक की एक नायक और सुन्दर प्रतिमा कोटा के छत्रविलास स्थित राजकीय संग्रहालय में सुशोभित है। इस तांत्रिक पट्टिका को पूरे अंचल में अनूठा माना जाता है। इसमें मकरमुख से अलंकृत एक व्यक्ति को वाद्य यंत्र बजाते हुए दर्शाया गया है। यह मूर्ति विदेशों में भी कई बार प्रदर्शन के लिए भेजी गई है।
बूढादीत का सूर्य मंदिर
राजस्थान के गिने-चुने सूर्य मंदिरों में कोटा से करीब 55 किलोमीटर दूर बूढादीत गांव में बना सूर्य मंदिर पुरातत्व की अमूल्य धरोहर है। पूर्वाभिमुख मंदिर शिखरबंद है। छोटे-छोटे उपशिखरों की श्रृंखला मंदिर की शोभा में चार चांद लगाती है। यह निरंधार शैली में निर्मित है। गर्भगृह के बाहर पूजागृह या सभा मण्डप निर्मित है, जो गर्भगृह से जुडा है। करीब 50 फुट ऊंचा मंदिर नवीं शताब्दी का माना जाता है। मूर्तियां अनेक स्थानों पर खंडित होने पर भी उनका आकर्षण बरकरार है।
मंदिर के गर्भगृह के बाहर सामने से बांयी ओर रथ पर सवार सूर्यदेव की प्रतिमा है। गर्भगृह में संगमरमर से बनी सूर्य प्रतिमा आकर्षक है। मंदिर की परिधि में दीवारों पर बनी करीब 1-1 फीट की मूर्तियां अत्यन्त लुभावनी है तथा इनके ऊपर मध्य में करीब ढाई फुट की प्रतिमाएं उकेरी गई हैं। चेहरे को दर्पण में निहारती नायिका और पैरों से कांटा निकालती नायिका आदि की प्रतिमाएं खजुराहो एवं कोणार्क मंदिरों की मूर्तिकला के सदृश्य है। सात घोडों के रथ पर सवार सूर्यदेव की प्रतिमा मंदिर की दीवार में पार्श्वभाग में उकेरी गई है। घोडे दौडती मुद्रा में हैं। यहां विष्णु-लक्ष्मी एवं शिव-पार्वती सहित अनेक देवमूर्तियां भी तराशी गई हैं। मंदिर के चारों ओर पक्का चबूतरा बना दिया गया है। यह मंदिर तालाब के किनारे स्थित होने से अत्यन्त मनोरम प्रतीत होता है। सूर्य पूजा के पर्व मकर सक्रांति पर यहां विशेष रूप से पूजा-अर्चना की जाती है।
पोपा बाई का मंदिर
कोटा से 35 किलोमीटर दूर आवां गांव में ऐतिहासिक पोपा बाई का मंदिर भी पुरातत्व की दृष्टि से महत्वपूर्ण है, जिसे आठवीं सदी का माना जाता है। स्थापत्य कला और मूर्तिकला के सौन्दर्य से परिपूर्ण यह मंदिर भगवान शिव को समर्पित है। अपने युग की वास्तुकला के वैभव को दर्शाने वाला मंदिर आज खण्डहर बनता जा रहा है।
मंदिर ऊंचे चबूतरे पर बना है। शिखर धराशायी हो गया है। गर्भगृह से जुडा पूजागृह अत्यन्त कलात्मक स्तम्भों पर टिका है। चतुर्मुखी शिवलिंग अत्यन्त लघु रूप में तराशा गया है। अप्सराओं की मूर्तियां भी विविध भाव-भंगिमा में उकेरी गई हैं। मूर्तियों में तत्कालीन समाज में प्रचलित आभूषणों के विषय में जानकारी मिलती है।
आवां गांव में प्रवेश करते समय सडक के दांयी ओर समीप ही कच्चा रास्ता पार कर मंदिर तक पहचा जा सकता है। गांव में बद्रीनाथ, महाकालेश्वर एवं द्वारकाधीश के मंदिर भी दर्शनीय हैं।
मौजी बाबा गुफा
कोटा के किशोरपुरा दरवाजे से करीब डेढ किलोमीटर दूर चम्बल नदी के तट पर पुरातन तपस्या स्थली मौजी बाबा की गुफा स्थित है। सैकडों वर्ष पूर्व ब्रह्ममूर्ति मौजी बाबा नामक संत ने इस स्थल पर साधना व तपस्या की थी। उन्हीं के नाम पर इस गुफा का नाम मौजी बाबा रखा गया। मौजी बाबा की सिद्ध समाधि गुफा के प्रांगण में बनी है। मौजी बाबा के बाद अनेक संतों ने इस गुफा में रहकर तपस्या की, जिनकी समाधियां भी यहां बनी हैं। उक्त संतों के बारे में यद्यपि प्रामाणिक जानकारी उपलब्ध नहीं है, परन्तु यहां उपलब्ध मात्र शिलालेख के अनुसार कोटा के महाराव दुर्जनशाल जी के शासनकाल में (1723 से 1756) सिद्ध संत दुधाधारी ने यहां साधना की थी। बाद में संत विश्वबंधुओं ने भी गुफा पर एकांत उपासना की। भारत के स्वतंत्रता संग्राम के सैनानी भी यहां शरण लेते थे। स्वामी रामपुरी जी तथा स्वामी रामानन्द सरस्वती ने 1970 से इस गुफा को अपनी कर्मभूमि बनाया और यहां मानव संस्कार केन्द्र की स्थापना भी की।
अधरशिला
मुस्लिम समाज के पवित्र स्थलों में अधरशिला का अपना विशेष महत्व है। प्राकृतिक छटा से ओतप्रोत इस स्थल पर सूफी संत का मजार है, जिस पर एक विशाल गुम्बद की छतरी बनी है, जो स्थापत्य शिल्प की दृष्टि से 12-13वीं शताब्दी की प्रतीत होती है। सूफी संत का संबंध कादरिया संप्रदाय से है, इसलिए इनकी दरगाह पर कव्वाली के स्थान पर नाते पढी जाती है। यहां पर मध्यकाल में निर्मित एक दरगाह भी बनी है, जिस पर राजपूत स्थापत्य कला का प्रभाव दिखाई देता है। दरगाह के अहाते म एक मस्जिद बनी है, जिसमें प्रतिदिन नमाजी नमाज अदा करते हैं। दरगाह पर हजारों श्रृद्धालु प्रतिदिन मनौती मांगने आते हैं। यहां अधर में लटकी एक शिला विशेष रूप से दर्शनीय है, जो दर्शकों को अचंभित कर देती है। यह स्थल कोटा-रावतभाटा मार्ग पर चम्बल गार्डन के समीप स्थित है।
केसर खां एवं
डोकर खां का मकबरा
कोटा में गीता भवन रोड के किनारे हजीरा कब्रिस्तान में एक ऊंचे टीले पर मुस्लिम समाज के केसर खां एवं डोकर खां का मकबरा बना है। कहा जाता है कि 1546 ईस्वी में मालवा के दो पठान भाईयों ने अचानक हमला कर कोटा पर अधिकार कर लिया और 26 वर्षों तक राज किया। जिस समय इनका हमला हुआ, उस समय कोटा की बागडोर बीरमदेव के पास थी, जो अक्सर बून्दी दरबार की सेवा में रहता था और कोटा की देखरेख का भार छोटे भाई कान्हा पर छोड जाता था। बाद में जब बून्दी में राव दुर्जन गद्दी पर बैठा, जब उसने इन पठानों को युद्ध में हराकर कोटा में पुनः हाडाओं का शासन स्थापित किया। मकबरे में दोनों पठान भाईयों की मजारें पास-पास बनी हैं।
मुस्लिम भाईयों के अन्य महत्वपूर्ण पवित्र धार्मिक स्थलों में सोफिया स्कूल के समीप जंगलीशाह बाबा की दरगाह, बोरखेडा में अनवर खान साहब का मकबरा तथा रंगपुर में बाबा का मकबरा विशेष उल्लेखनीय हैं। आजादी के आंदोलन में मेहराब खां ने अंग्रेजों से संघर्ष किया, जिसमें उसे फांसी दे दी गई। मेहराब खां का मकबरा सिविल लाईन स्थित नयापुरा में महाराव भीमसिंह चिकित्सालय के सामने बावडी के पास बना है। सबसे बडी ईदगाह किशोरपुरा में है, जबकि दूसरी ईदगाह नान्ता में है। जामा मस्जिद चन्द्रघटा में तथा बोहरों की ईदगाह शॉपिंग सेन्टर में है।
गेपरनाथ
चम्बल के तट पर स्थित महत्वपूर्ण देवालयों में गेपरनाथ देवालय अपनी प्राकृतिक सुषमा के कारण विशेष रूप से दर्शनीय है। यहां भक्ति और प्रकृति का अनूठा मेल नजर आता है। विशाल शिलाखण्डों के मध्य स्थित इस मंदिर को पांचवीं से ग्यारहवीं सदी के मध्य का माना जाता है। आसपास बिखरे सांस्कृतिक अवशेषों से प्रमाण मिलता है कि कभी इस क्षेत्र में मौर्य, शुंग, कुषाण, परमार एवं गुप्तवंशीय राजाओं का शासन था।
कोटा से 22 किलोमीटर दूर कोटा-रावतभाटा मार्ग पर रथकांकरा गांव के समीप चम्बल घाटी से 300 से 350 फुट गहराई में स्थित गेपरनाथ महादेव का मंदिर अपने अनुपम प्राकृतिक वातावरण, चट्टानों से निकलते हुए झरनों की लय के मध्य अपनी उन्मुक्तता के साथ श्रृद्धालुओं को आकर्षित करता है। रमणीक स्थल होने से यह सैलानियों के आकर्षण का महत्वपूर्ण स्थल है। यहां हर वर्ष महाशिवरात्रि के अवसर पर मेले का आयोजन किया जाता है। बरसात ऋतु में इस स्थान का आकर्षण दुगुनित हो जाता है।
विभिषण मंदिर
संभवतः भारत में कोटा जिले के कैथून में स्थित विभिषण का अकेला मंदिर है। कोटा से 16 किलोमीटर दूर स्थित यह मंदिर तीसरी से पांचवीं शताब्दी के मध्य का बताया जाता है। प्रारंभ में यहां एक छतरी में विभिषण की धड से ऊपर तक की भव्य प्रतिमा विराजित थी, जिसे आज भव्य मंदिर का स्वरूप दे दिया गया है। होली के अवसर पर यहां विशेष रूप से मेले का आयोजन किया जाता है। कहा जाता है कि सुनार समाज के लोग विभिषण के प्रमुख भक्त हैं और वे यहां नियमित पूजा करते हैं।
फलौदी माता
कोटा जिले में जिला मुख्यालय से 80 किलोमीटर दूर खैराबाद में फलौदी माता का मंदिर दर्शनीय है। यहां फलौदी माता की श्यामवर्णीय प्रतिमा स्थापित है। बताया जाता है कि यह मूर्ति मेडता के समीप फलौदी गांव में प्रकट हुई थी, जिसे वहां से लाकर यहां स्थापित कर दिया गया। मंदिर में की गई कांच की कारीगरी अत्यन्त मोहक है। इस मंदिर के साथ यहां अन्य मंदिर व कलात्मक जलकुण्ड बने हैं। परिसर में ही श्रृद्धालुओं के लिए एक धर्मशाला भी बनाई गई है। बसंत पंचमी पर यहां विशाल मेले का आयोजन किया जाता है तथा प्रति 12 वर्ष में कुम्भ की भांति यहां एक माह तक कुम्भ का आयोजन किया जाता है।
इन कतिपय आस्था स्थलों के साथ कोटा में वल्लभ संप्रदाय के छोटे मथुरेश जी, फूल बिहारी जी, गढ में बृजनाथ जी और लक्ष्मीनारायण जी तथा पाटनपोल में महाप्रभू जी के मंदिर विशेष श्रृद्धा केन्द्र हैं। कोटा के पाटनपोल में मंशापूर्ण गणेश जी, किशोरपुरा में नीलकंठ महादेव, पुरानी धानमंडी में मोरी के हनुमान जी, कैथूनीपोल में सत्यनारायण जी, ठठेरों की गली, शास्त्री मार्केट में श्रीराम मंदिर व जैन मंदिर, भीमगंजमंडी क्षेत्र में चांदमारी के बालाजी एवं श्रीराम मंदिर, गढ के पीछे तलहटी में बोट के बालाजी मंदिर, इसके आगे बैराज के ऊपर गणेश मंदिर, किशोर सागर तालाब के किनारे गीता भवन का सत्संग स्थल एवं सत्येश्वर महादेव, नाना देवी मंदिर एवं शॉपिंग सेन्टर में टीलेश्वर महादेव एवं शीतला माता मंदिर भी आस्था के धार्मिक स्थल हैं।
रामपुरा में छोटी एवं बडी समाध के शिव मंदिर, किशोरपुरा में हाडाओं की कुलदेवी आशापुरा माताजी, नान्ता में श्री करणी माता जी, कुन्हाडी में बीजासन माताजी एवं राधा-माधव मंदिर, रंगबाडी में हनुमान जी मंदिर तथा गणेश नगर में खडे गणेश जी का मंदिर, भीतरिया कुंड में शिव मंदिर, गोदावरी धाम के हनुमान जी एवं रामधाम शहर के महत्वपूर्ण श्रृद्धा केन्द्र हैं।
सिक्खों के पूजा स्थलों में बडगांव में आजमगढ गुरूद्वारा, आर.के. पुरम, छावनी व कोटा जंक्शन स्थित गुरूद्वारे का विशेष महत्व है। इसाई संप्रदाय के सीएनआई चर्च सब्जीमंडी, सेंट मेरी ऑर्थोडॉक्स चर्च तलवंडी, सेंट जॉसफ द वर्कर चर्च भीमगंजमंडी, मेथोडिस्ट चर्च सिविल लाईन्स, इम्मानुएल चर्च बून्दी जैसे महत्वपूर्ण हैं।
कोटा से 35 किलोमीटर दूर बून्दी और इसके आसपास अनेक आस्था स्थल, जहां श्रृद्धालुओं की आस्था का केन्द्र हैं, वहीं ये स्थल सैलानियों के लिए भी आकर्षण का केन्द्र हैं। बून्दी से 45 किलोमीटर एवं कोटा से 22 किलोमीटर पर स्थित चम्बल नदी के किनारे केशवराय पाटन प्रमुख धार्मिक स्थल है। यहां महाराव शत्रुसाल द्वारा चम्बल नदी के किनारे ऊंचे चबूतरे पर 1601 ईस्वी में बनाया गया केशवराय (विष्णु) का मंदिर स्थापत्य एवं मूर्तिकला का नायाब नमूना है। मंदिर परिसर में मृत्युंजय महादेव का मंदिर राजस्थान के प्राचीनतम मंदिरों में है। यहां जैन मुनि सुब्रतनाथ का जैन मंदिर जैन धर्मावलंबियों का प्रमुख तीर्थ है। केशवराय पाटन में कार्तिक पूर्णिमा के अवसर पर भव्य मेले का आयोजन किया जाता है।
बून्दी से 25 किलोमीटर दूर अरावली की पर्वतमालाओं के मध्य सुरम्य वातावरण में रामेश्वर धाम धार्मिक एवं रमणीक स्थल है। यहां गुफा में भगवान शिव का पावन मंदिर है। वर्षा ऋतु में काफी ऊंचाई से गिरने वाले जलप्रपात का दृश्य अत्यन्त मनोरम होता है।
बून्दी से ही 24 किलोमीटर दक्षिण-पश्चिम में बून्दी-बिजौलिया मार्ग पर भीमलत एक धार्मिक और प्रमुख पर्यटक स्थल है। यहां 150 फीट ऊंचाई से झरना बहता है, जिसकी तलहटी में एक शिव मंदिर बना है। बरसात के दिनों में यहां का दृश्य अत्यन्त लुभावना लगता है।
बून्दी में हिन्दुओं का प्रमुख तीर्थ केदारेश्वर बाणगंगा है। यह मंदिर हाडा वंश की बून्दी में स्थापना से पूर्व बम्बावदा के राव कोल्हण ने 1193 ईस्वी में बनवाया था। किवदंती के अनुसार पानी के लिए राव कोल्हण ने यहां बांध से जमीन फोडकर पानी निकाला था। इसी वजह से इसे बाणगंगा भी कहा जाता है। प्राकृतिक सौन्दर्य लिए यह एक धार्मिक स्थल होने के साथ-साथ रमणीक पिकनिक स्थल भी है।
बून्दी से 90 किलोमीटर दूर ऐेतिहासिक इन्द्रगढ कस्बे के आगे कमलेश्वर (क्वांलजी) का प्राचीन मंदिर है। यहां की शिव प्रतिमा दर्शनीय है एवं मंदिर के द्वार पर प्राचीन कला अलंकृत है। यहां दो पवित्र कुण्ड बनाए गए हैं। बताया जाता है कि बडे कुण्ड का जल शीतल एवं छोटे कुण्ड का जल गरम रहा है। मान्यता है कि इन कुण्डों में स्नान करने स कुष्ठ रोग दूर हो जाते हैं। कार्तिक मास की पूर्णिमा पर यहां भव्य मेला आयोजित किया जाता है। इन्द्रगढ की पहाडियों पर बीजासन माता का प्रमुख धार्मिक स्थल भी लोगों की आस्था का महत्वपूर्ण केन्द्र है।
बून्दी-जयपुर मार्ग पर पश्चिम में करीब 8 किलोमीटर पर पवित्र तीर्थ सथूर माताजी का मंदिर स्थित है। यहीं पर सडक से कुछ हटकर चन्द्रभागा नदी के तट पर रक्तदंतिका देवी का मंदिर और एक कुण्ड है। यह देवी बून्दी के हाडा शासकों की कुलदेवी के रूप में मान्यता प्राप्त है। मंदिर की स्थापना बून्दी के महाराव देवसिंह हाडा (1241 से 1243 ईस्वी के मध्य) के समय की गई।

कोटा से 85 किलोमीटर दूर झालावाड जिले का महत्वपूर्ण ऐतिहासिक एवं कलात्मक सूर्य मंदिर झालरा पाटन कस्बे के मध्य स्थित है। करीब 96 फीट ऊंचे शिखरबंद इस मंदिर के पृष्ठ भाग में सूर्य प्रतिमा बनी है, जबकि गर्भगृह में भगवान विष्णु की प्रतिमा स्थापित है। मंदिर के कारीगरीपूर्ण स्तम्भ, तोरणद्वार, जाली-झरोखे, मंदिर के ऊपर बनी छतरियां एवं इनमें स्थापित मूर्तियां, मंदिर की परिधि गृह में बाहर की ओर बनाई गई विभिन्न मुद्राओं में अप्सराओं व देवी-देवताओं की मूर्तियां देखते ही बनती हैं। मंदिर की स्थापत्य व मूर्तिकला खजुराहो मंदिरों के सदृश्य है।
शांतिनाथ जैन मंदिर
झालरा पाटन में सूर्य मंदिर के समीप ही 10वीं शताब्दी का पूर्वाभिमुख शांतिनाथ जैन मंदिर जैन धर्मावलंबियों का प्रमुख आस्था केन्द्र है। गर्भगृह में काले संगमरमर की आदमकद शांतिनाथ जी दिगंबर प्रतिमा के दर्शन होते हैं। मंदिर के प्रवेश द्वार पर बने विशालकाय हाथी दर्शनीय है। परिसर हैं। परिसर में जैन धर्म से संबंधित विभिन्न कथानकों के बडे-बडे आकर्षक चित्र बनाए गए हैं। मंदिर का स्थापत्य एवं मूर्तिकला दर्शनीय है।
चन्द्रभागा मंदिर समूह
झालरा पाटन के समीप बहने वाली चन्द्रभागा नदी के किनारे बना प्राचीन देवालयों का समूह अपने पुरातत्व एवं धार्मिक महत्व का होने से विशेष स्थान रखता है। यहां के मंदिरों की कारीगरी देखते ही बनती है। गुप्तकालीन शीतलेश्वर महादेव का मंदिर प्रमुख है। नवदुर्गा एवं सप्तमातिृका के मंदिर भी यहां बने हैं। मुख्य मंदिर के पीछे बने दो भग्न शिव मंदिरों के प्रवेश द्वार की कारीगरी अद्भुत है। प्रतिवर्ष कार्तिक पूर्णिमा के अवसर पर हजारों श्रृद्धालु चन्द्रभागा में स्नान कर पुण्य कमाते हैं और इस मौके पर यहां भव्य मेले का आयोजन भी किया जाता है।
नागेश्वर पार्श्वनाथ
झालावाड से 190 किलोमीटर पर राजस्थान और मध्य प्रदेश की सीमा पर चौमहला से 9 किलोमीटर दूर उन्हेल गांव में देश का प्रसिद्ध जैन तीर्थ स्थल नागेश्वर पार्श्वनाथ स्थित है। यहां नागेश्वर पार्श्वनाथ की 2829 वर्ष पुरानी सप्तफणधारिणी कायोत्सर्ग मुद्रा में हरे पाषाण की 14 फुट ऊंची प्रतिमा के दर्शन होते हैं। यह प्रतिमा ग्रेनाईट सेण्ड स्टोन से बनाई गई है। मंदिर की स्थापत्य एवं मर्तिकला दर्शनीय है।
बौद्ध गुफाएं
झालावाड से 90 किलोमीटर दूर कोलवी नामक गांव में चट्टानों की काटकर बनाई गई बौद्ध गुफाएं राजस्थान में बौद्धकालीन संस्कृति के अवशेष के रूप में अपना विशेष महत्व रखती हैं। क्यासरा नदी के तट पर करीब 200 फीट ऊंची अश्वनाल आकृति की पहाडी पर विशाल चट्टानों की काटकर बनाई गई इन गुफाओं की खोज 1835 में डॉ. इम्पे द्वारा की गई। गुफाओं पर हिन्दू शैली के मंदिरों का तथा स्तूप शिखर पर दक्षिण भारतीय कला का प्रभाव नजर आता है। यहां बनी दो मंजिली गुफाएं विशेष रूप से दर्शनीय हैं। कुछ गुफाओं में भगवान बुद्ध की प्रतिमाएं एवं दीवारों पर रेखांकन नजर आता है। कोलवी से 12 किलोमीटर बिनायका में भी पहाडी पर चट्टानों को काटकर 16 गुफाएं बनाई गई हैं। पगारिया गांव के समीप हथियागोड की पहाडी पर भी 5 गुफाएं बनी हैं। गुनाई ग्राम के समीप बौद्ध श्रमणों की 4 गुफाएं हैं। कोलवी के आसपास गांवों में बनी बौद्ध गुफाओं से ज्ञात होता है कि राजस्थान का यह स्थल कभी बौद्ध धर्म का एक प्रभावी केन्द्र रहा होगा।

कोटा से 70 किलोमीटर दूर बारां नगर में भगवान श्री कल्याणराय जी का मंदिर सम्पूर्ण परिक्षेत्र में विख्यात है। भव्य और आकर्षक इस मंदिर का निर्माण बून्दी के राव बेरिसाल सिंह के शासनकाल (1383-1433 ईस्वी) में राजमाता रायकुंवर बाईसा ने करवाया था। वे श्रीजी की दिव्य मूर्ति को रणथंभौर से लेकर यहां आई थीं। मंदिर के गर्भगृह में प्रतिष्ठित श्रीजी की मूर्ति जन-जन की आस्था का केन्द्र है। मंदिर के पार्श्वभाग की दीवार से सटी हुई जामा मस्जिद है, जो हिन्दू-मुस्लिम एकता का अनूठा उदाहरण है। बारां नगर में ही चौमुखा स्थित सांवला जी का कलात्मक मंदिर, भूतेश्वर शिव मंदिर, सत्यनारायण मंदिर, रघुनाथ मंदिर, जोडला जैन मंदिर तथा कुन्द-कुन्दाचार्य जी का दिगंबर जैन अतिशय क्षेत्र धार्मिक आस्था के स्थल हैं।
नागदा के शिव मंदिर
बारां जिले में अन्ता से 6 किलोमीटर पश्चिम में स्थित नागदा गांव के समीप कालीसिंध नदी के किनारे नागेश्वर महादेव का प्राचीन तीर्थ स्थल है। किवदंती के अनुसार यह शिवलिंग अपने आप प्रकट हुआ था। प्राचीन परकोटे के मध्य यहां अनेक मंदिर, चबूतरे, छतरियां व प्रतिमाएं बनी हैं। गौमुखी से वर्षभर जलधारा प्रवाहित होती है। कार्तिक पूर्णिमा एवं महाशिवरात्रि पर यहां मेलों का आयोजन किया जाता है।
भण्डदेवरा
बारां जिला मुख्यालय से करीब 40 किलोमीटर दूर किशनगंज तहसील में रामगढ की पहाडियों की तलहटी में 10वीं शताब्दी में मलयवर्मन द्वारा निर्मित भण्डदेवरा मंदिर स्थित है। 13वीं शताब्दी में मेढवंशीय शासकों द्वारा मंदिर का जीर्णोद्धार कराया गया। मंदिर भगवान शिव को समर्पित है। किन्नर, देवी-देवता, अप्सराएं, गधर्व, युगल मूर्तियां यहां खूबसूरती से कलात्मक रूप में देखने को मिलती हैं। खजुराहो सदृश्य होने से इस मंदिर को राजस्थान का ‘मिनी खजुराहो’ कहा जाता है। रामगढ की पहाडी पर किशनई माता का प्रसिद्ध मंदिर है। यहां तक पहुंचने के लिए झाला जालिम सिंह ने 715 सीढियों का निर्माण कराया था।
सीताबाडी
बारां जिला मुख्यालय से करीब 45 किलोमीटर दूर केलवाडा के समीप सीताबाडी नामक धार्मिक एवं रमणीक स्थल क्षेत्रीय लोगों की आस्था का विशेष केन्द्र है। यहां सीता माता, सूर्य, लक्ष्मण एवं बाल्मिकी के देवालय बने हैं। यहां बने सूर्य मंदिर एवं सूर्य कुण्ड तथा लक्ष्मण मंदिर एवं लक्ष्मण कुण्ड के प्रति श्रृद्धालुओं की विशेष आस्था है, जो इन कुण्डों में स्थान कर दर्शन करते हैं। मान्यता है कि महर्षि बाल्मिकी का यहां आश्रम रहा होगा। यहां सीता ने अपना निवर्सन काल व्यतीत किया। मई-जून में प्रतिवर्ष यहां मेले का आयोजन किया जाता है। इस मेले में स्थानीय जनजाति सहरिया विशेष रूप से बडी संख्या में भाग लेते हैं, जिस कारण इसे सहरियों का कुम्भ भी कहा जाता है। मेले में सहरिया जनजाति की संस्कृति भी देखने को मिलती है। यहां बने जलकुण्डों में श्रृद्धालु स्नान कर मृतकों की आत्मा की शांति के लिए पिण्डदान करने की रस्म भी निभाते हैं। मेले में मनोरंजन के विविध साधन होते हैं और साथ ही पशु मेला भी आयोजित किया जाता है।
काकूनी के मंदिर
बारां जिला मुख्यालय से 70 किलोमीटर दूर छीपाबडौद तहसील में सारथल गांव के समीप 10वीं से 12वीं शताब्दी के मध्य परवन नदी के किनारे काकूनी में शैव, वैष्णव एवं जैन मंदिरों के भग्नावशेष पुरातत्व की अमूल्य धरोहर है। यहां सहस्त्रमुखी शिवलिंग एवं 15 फुट ऊंची गणेश प्रतिमा एवं मंदिरों की कारीगरी दर्शनीय है।
ब्रह्माणी माता का मंदिर
जिले की अन्ता तहसील में सोरसन गांव में स्थित ब्रह्माणी माता के मंदिर का महत्व इस बात से है कि संभवतः पूरे देश में माता का यह पहला ऐसा मंदिर है, जहां देवी की पीठ पूजी जाती है, जिसका श्रृंगार किया जाता है। चारों ओर ऊंचे परकोटे से घिरा यह शैलाश्रय गुफा मंदिर है। यहां प्रतिदिन देवी की पीठ की पूजा-अर्चना की जाती है। विगत 450 वर्षों के अधिक समय से अखण्ड ज्योत प्रज्जवलित है। मंदिर परिसर में प्राचीन शिव मंदिर एवं गौड ब्राह्मणों का सती चबूतरा भी बनाया गया है। मंदिर के समीप सोरसन संरक्षित क्षेत्र हिरन, कृष्ण मृग एवं गोडावन के लिए विशेष रूप से उल्लेखनीय है।

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