कोटा | कोटा जिले की पुरातत्व स्थलों की यात्रा के आज के पड़ाव पर चलते हैं कंसुआ के प्राचीन शिव मंदिर की यात्रा पर। आठवीं शताब्दी प्राचीन यह मंदिर कोटा शहर में डीसीएम मार्ग पर कंसुवा क्षेत्र में स्थित है। मंदिर के परिक्रमा पथ में बाईं ओर की दीवार पर कुटिला लिपि में लिखा हुआ आठवीं शताब्दी 738 ई. का शिलालेख लगा है। इससे पता चलता है कि इस स्थान के धार्मिक महत्व को देखते हुए चित्तौड़गढ़ के राजा धवल मौर्य के सामंत शिवगण मौर्य ने इस मंदिर का निर्माण करवाया था।
बताया जाता है यहां कण्व ऋषि का आश्रम था और शकुंतला का पालन पोषण यहां हुआ था और उसका बाल्यकाल और किशोरावस्था यहीं व्यतीत हुई थी। प्रसिद्ध कवि जयशंकर प्रसाद ने अपने चन्द्रगुप्त नाटक के प्राक्कथन में इस स्थान को कण्वाश्रम की संज्ञा देकर आम लोगों की इस धारणा को पुष्ट किया है कि यहां कण्व ऋषि का आश्रम था।
समय-समय पर इस देवालय का जीर्णोद्वार करवाया गया। कोटा के शासक राव किशोर सिंह प्रथम (1684-96) द्वारा किये गये जीर्णोद्वार का उल्लेख मंदिर के प्रवेश द्वार पर लगे शिलालेख में किया गया है। पुरातत्व की दृष्टि से इस मंदिर का अपना विशिष्ट महत्व है। यह मंदिर केंद्रीय पुरातत्व एवं सर्वेक्षण विभाग के अधीन संरक्षित स्मारक है। पुरातत्व विभाग द्वारा भी कुछ वर्षो पूर्व मंदिर का जीर्णोद्धार कराकर संरक्षित किया गया था।
मंदिर परिसर में कुछ सीढियां उतर कर बाईं ओर मुख्य मंदिर का प्रवेश द्वार आता है और समीप ही बाहर की और जल कुंड बना है। शिखरबंद मंदिर अपने सादे स्वरूप में प्राचीनता का बोध कराता है। मंदिर के गर्भगृह में श्याम पाषाण का चतुर्मुख शिवलिंग स्थापित है, जिसकी प्रतिदिन पूजा की जाती है। भगवान शिव परिवार सहित विराजमान हैं। मंदिर की विशेषता है कि सूर्य की पहली किरण मंदिर के भीतर 20-25 फुट स्थित शिवलिंग पर सीधी पड़ती है।
परिसर में बटुक भैरव की प्रतिमा मंदिर की विशेषता है। भैरव की मूर्ति पर सिंदूर का चौला चढ़ाया जाता है। परिसर में कई शिवलिंग भी हैं। मुख्य मंदिर के सामने स्थित पंचमुखी शिवलिंग का शिल्प अनुपम है। जल कुण्ड के दूसरी ओर स्थित सहस्त्रमुखी शिवलिंग करीब 3 फुट ऊंचा एवं 1 फुट चौड़ा है जिस पर छोटे - छोटे 999 शिवलिंग बने हैं उल्लेखनीय है। महाशिवरात्रि एवं पूरे सावन माह मंदिर पर भक्तजनों की भारी भीड़ रहती है।