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रियासती शान और मूर्तिकला की थाती कोटा संग्रहालयों की अपनी पहचान

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24 Jun 21
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रियासती शान और मूर्तिकला की थाती कोटा संग्रहालयों की अपनी पहचान

कोटा (डॉ.प्रभात कुमार सिंघल) |   देश के संग्रहालयों में राजस्थान में कोटा के दो संग्रहालय अपनी विशेषताओं की वजह से विख्यात हैं। राजकीय संग्रहालय अंचल की मूर्ति कला के लिए जाना जाता है,जिसकी मूर्तियां विदेशों में प्रदर्शन के लिए भेजी गई। दूसरा राव माधोसिंह संग्रहालय रियासती युग की शान का प्रतिबिंब प्रस्तुत करता है। आइए जानते है इन संग्रहालयों कि विशेषताओं के बारे में जिन्हें कोटा आने वाले पर्यटक अवश्य ही देखने जाते हैं।

राव माधोसिंह संग्रहालय

राजस्थान के  दक्षिण-पूर्व में चम्बल नदी के किनारे  टिपटा स्थित प्राचीन गढ़, में स्थापित राव माधोसिंह ट्रस्ट संग्रहालय कोटा  एवं हाड़ौती सम्भाग की कला, संस्कृति एवं इतिहास के दिग्दर्शन के लिये एक महत्वपूर्ण संग्रहालय हैं। इसकी स्थापना 20 मार्च 1970 को कोटा के महाराव भीमसिंह द्वितीय द्वारा की गई थी। संग्रहालय के साथ ही साथ हम कोटा के इस गढ़ को तथा इसमें निर्मित  भव्य  महलों का भी अवलोकन कर सकते हैं।

          पृथक से कोटा राज्य की स्थापना 1632 ई. से मानी जाती है। राज्य निर्माण पश्चात गढ़ में पुराने भवनों के साथ ही साथ प्रथम शासक राव माधोसिंह ने एक भव्य राजमहल का निर्माण कराया था। माधोसिंह द्वारा प्रारंभ में निर्मित इसी राजमहल में यह संग्रहालय स्थित है। संग्राहालय के मुख्य कक्ष अखाड़े के महल या दरबार हाॅल, सिलहखाना एवं उसके बरामदे, अर्जुन महल, छत्र महल, बड़ा महल, भीम महल तथा आनन्द महल इसी राजमहल में स्थित हैं।

       संग्रहालय में हथियापोल से प्रवेश करते हैं जो कि राजमहल का मुख्य प्रवेश द्वार है। प्रवेश द्वार की बाहरी दीवार पर दरवाजे के दोनों ओर कोटा चित्र शैली में दो सुन्दर द्वार रक्षिकायें चित्रित हैं। इन्हें कोटा के प्रसिद्व चित्रकार स्वर्गीय प्रेमचन्द शर्मा ने अपने भाई के साथ मिलकर बनाया था। नये दौर के इन दोनों चित्रों के कुछ ऊपर विशाल आकार के पत्थर के दो भव्य एवं आकर्षक हाथी दीवार पर लगे हुए हैं। पहले ये हाथी बून्दी के ऐतिहासिक किले के आन्तरिक प्रवेश द्वार पर लगे हुए थे तथा कोटा के प्रतापी नरेश महाराव भीमसिंह प्रथम एक आक्रमण के दौरान अपनी पैतृक भूमि बून्दी से इन्हें यहां ले आये और इस दरवाजे पर स्थापित कराया।

              दरबार हाल दीर्घा-दरबार हाॅल में राजसी सामान दर्शाये गये हैं। ये सामान सोने-चांदी, पीतल तथा अष्टधातु, हाथी दांत, काष्ठ तथा वस्त्राभूषण आदि अनके प्रकार के हैं। इनमें से अधिकांश वह वस्तुएं हैं जिनका उपयोग कोटा राजाओं और महारानियों ने व्यक्तिगत तौर पर किया था। मुख्य रूप से ये वस्तुएं पूजा कार्य, मनोरंजन या आराम के साधन एवं सवारी आदि से सम्बन्धित हैं। इनमें से कुछ प्रमुख आकर्षक वाद्य यंत्र, गंजफा खेल, चैपड़-चैसर, राजसी परिधान, सवारी सामग्री, कलात्मक वस्तुएं आदि का प्रदर्शन किया गया है। दरबार हाॅल इनके अतिरिक्त कई प्रकार के विविध संग्रह प्रदर्शित हैं।  इनमें कुछ प्रमुख सामग्री श्रीनाथजी का चांदी का सिंहासन व बाजोट, सुनहरी, हाथीदांत और चांदी की जड़ाई की कुर्सियां, हाथीदांत के ढोलण के पाये, चांदी की पिचकारियां, जड़ाऊ पालना, प्राचीन सिक्के, कागज पर लगने वाली रियासत की 95 मोहरें, रूईदार सदरी सुनहरी, चांदी तथा हाथीदांत के बने पंखों की डंडियां, सोने चांदी के जड़े नारियल, तीन शो केसों में रखे प्राचीन हस्तलिखित ग्रन्थ, केरोसीन से चलने वाला प्राचीन पंखा, पुराने जमाने के विविध किस्म के ताले और चाबियां हैं। तैरने का तख्ता जिसमें 4 तुम्बे लगे हूुए हैं, भी यहां प्रदर्शित है। इनका उपयोग पहले राजमहल के चैक के हौज में तैरने के लिये किया जाता था तथा झाला जालिम सिंह के नहाने का 20 सेर का पीतल का चरा भी यहां है। दरबार हाॅल के बाहर के बरामदे में खगोल यंत्र, जलघड़ी, धूपघड़ी, काष्ठ घोड़ा तथा नौबते वस्तुएं प्रदर्शित की गई हैं।

शस्त्र दीर्घा-दरबार के आगे राजमहल के दाहिनी ओर की गैलेरी में मध्ययुगीन अस्त्र-शस्त्रों के अलावा कोटा के शासकों द्वारा काम में लिए गए शस्त्र भी प्रदर्शित किये गए हैं। एक म्यान में दो तलवारें, पिस्तौल,  तलवार, ढालें, अनेक प्रकार की कटारें, भालें, बरछे, नेजे, तीर-कमान, फरसा, गदा, खुखरी, गुप्तियां, छड़ियां, खंजर, पेशकब्जा, कारद, बन्दूकें, सुनहारी पिस्तौल के अलावा राज्य का झण्डा, निशान, सुनहरी चोब, सुनहरी मोरछल एवं चंवर दर्शनीय हैं। सोने का मुगल-कालीन राजकीय चिन्ह माही मरातिब भी इसी कक्ष में देखा जा सकता है। यह कोटा के शासक महाराव भीमसिंह (प्रथम) को उनकी  सेवाओं के लिए मुगल बादशाह मोहम्मदशाह ने ई.1720 में प्रदान किया था। इसी मुगल शासक द्वारा प्रदत सर्वधातु की नक्कारा जोड़ी तथा योद्धा एवं अश्व को पहनाने का जिरह बख्तर भी माधोसिंह संग्रहालय के अनूठे संग्रह हैं।

           वन्यजीव दीर्घा-इस दीर्घा में कोटा के राजपरिवार के सदस्यों द्वारा शिकार के दौरान मारे गए चुनिन्दा वन्य जीव प्रदर्शित हैं। जिनमें शेर, तेन्दुआ, सिंह, सांभर, भालू, घड़ियाल, गौर मछली, खरमौर एंव काले तीतर आदि सम्मिलित हैं। सैकड़ों वर्षों पूर्व मारे गए जीव-जन्तु विषेष तकनीक से सुरक्षित रखे हुए हैं जो आज भी जीवन्त प्रतीत होते हैं।

            छायाचित्र दीर्घा-वन्यजीव कक्ष से लगे छायाचित्र कक्ष में  1880 ई. से वर्तमान काल तक के अनेक छायाचित्र संग्रहित हैं। सन 1857 की क्रान्ति के दौरान कोटा में किस स्थान पर क्या घटना घटित हुई थी इसका चित्रण यहाँ  एक मानचित्र में प्रदर्शित किया गया है। इसे कोटा के पूर्व महाराव बृजराज सिंह ने तैयार किया है।

             चित्रकला दीर्घा- इस दीर्घा में मुगल तथा कोटा-बूंदी के चित्रों को प्रदर्षित किया गया है। चित्रकारों द्वारा बनाए गए इन कलात्मक चित्रों में गज एवं अश्व, विश्व दर्शन, श्रीनाथजी का नवनिधि चित्र जिसमें गोस्वामी बालकों को विषेष वेषभूषा में दर्षाया गया है, कोटा चित्र शैली के प्रतिनिधि चित्र है।

             राजमहल कक्ष-यह कक्ष भी संग्रहालय का ही हिस्सा है जिसमें अभी भी राजगद्दी की प्रतिकृति रखी है। रियासत काल में यहीं पर दरीखाना भी होता था। दरबार राजगद्दी पर बैठते थे और उमराव, सामन्त, उच्च अधिकारी, राज मान्यता प्राप्त विशेष जन हाड़ौती की राज दरबारी पोषाक में अपने निर्धारित स्थान पर बैठते थे। इस कक्ष में कांच की कारीगरी का काम मुगलयुगीन है। कांच की कारीगरी,मीनाकारी, डाक की जड़ाई, जामी कांच की जड़ाई, गोलों के कांच की जड़ाई, साण की जड़ाई कोटा के बेगरी परिवार के शिल्पकारों द्वारा निर्मित है। राजमहल की दीवारों में सफेद चूने में गहरे नीले, हरे तथा कत्थई रंगों के कांच का आकर्षक काम है। इसी कक्ष में कोटा राज्य का केसरिया गरूड़ ध्वज एक चित्र पर प्रदर्षित है। दाहिनी ओर कोटा राज्य का सुन्दर नक्शा, बाई ओर बूंदी राजघराने का वंशवृक्ष तथा उसी के पास कोटा राजघराने का वंशवृक्ष कारीगरी का काम मुगलयुगीन है।

           राजमहल की ऊपरी मंजिल के अधिकांश कक्ष चित्रित हैं जिनमें लक्ष्मी भंडार तिबारी, अर्जुन महल, छत्र महल में कोटा शैली के अनुपम भित्ति चित्र बने हैं। भीम महल में लगे कालीन बहुत सुन्दर एवं कलात्मक है जिन्हें कोटा जेल के कैदियों ने बनाया था। तीसरी मंजिल पर स्थित बड़ा महल का निर्माण कोटा के प्रथम शासक राव माधोसिंह (वि.सं.1681-1705) ने करवाया था। इस महल में राजस्थान की सभी चित्र शैलियों में भित्ति चित्र बनाए गए है। पूरा महल चित्रों से भरा हुआ है। सवारी, दरबार और उत्सव आदि विविध विषयों को कलमकारों ने प्राकृतिक रंगों से चित्रित किया है। महल के बाह्य कक्ष में अधिकांश चित्र कांच के फ्रेम में दीवार पर जड़े हुए हैं। इसी से लगा हुआ एक आकर्षक झरोखा है, जिसे सूरज गोख कहते हैं। इसमें रंगीन कांच का काम बड़ा ही सुन्दर बन पड़ा है।         महलों के विविध कमरों में दीवारों,स्तम्भों,आलों, झरोखों में बहुतायत में बने भित्तिचित्र दर्शनीय हैं। कोटा-बून्दी शैली में निर्मित चित्र कहीं-कहीं मुगल और एंग्लो कला से भी प्रभावित हैं। अर्जुन महल के चित्र विख्यात हैं। संग्रहालय प्रातः 9.30 बजे से सायं 6.00 बजे तक दर्शकों के लिए खुला रहता है। सोमवार को साप्ताहिक अवकाश क साथ-साथ राष्ट्रीय पर्वों के दिन बंन्द रहता है।

राजकीय संग्रहालय

कोटा परिक्षेत्र की सांस्कृातिक एवं पुरातत्व संपदा को सहेजे कोटा के राजकीय संग्रहालय में प्रागेतिहासिक, पुरातत्व, शैव, वैष्णव, अस्त्र-शस्त्र, परिधान, चित्रकला, लोकजीवन एवं जैन प्रतिमा दीर्धाएं बनाए गई हैं। लोक जीवन के प्रतीक सृष्टि के सृजन कर्ता ब्रह्मा से शुरू कर मात्रिकाएं, लक्ष्मी, कुबेर, कामक्रीडा, मृत्यु वादन से संगीत नव गृह आदि प्रतिमाओं को क्रमवार दर्शाते हुए मृत्यु के देवता यम की प्रतिमा तक ले जाया गया है। जहाॅ यमराज को हाथ कपाल लिऐ हुए दिखाया गया है। इन प्रतिमाओं में तत्कालीन समाज के लोकजीवन की झलक देखने को मिलती है।

           इस दीर्घा को संग्राहलय अधीक्षक  उमराव सिंह विशिष्ठ उपलब्धि मानते हैं और बताते है कि इस प्रकार की प्रदर्शनी  (द बाडी इन इंडियन आर्ट) वर्ष 2014 ब्रिटिश इंडियन मे लगी थी। ऐसी दीर्घा प्रदेश के 19 संग्रहालयों मे से केवल कोटा में बनाई गई है। संग्रहालय का 2020 ई. में करीब 2 करोड रूपये से नवीनीकरण किया गया हैं और मूर्तियों के पैडस्टल बनाने  ,मार्बल का फर्श लगाने  ,न्यू लुक शो केस बनानेे ,कलात्मक जालियां लगाने, ग्लास वर्क, एलईडी लाईट तथा सीसीटी कैमरे लगाने के तथा परिसर एवं भवन का सौन्दर्यकरण कार्य किया गया।

           संग्रहालय उत्तरी भारत में मथुरा संग्रहालय के पश्चात मूर्तिकला की दृष्टि से सर्वाधिक सम्पन्न है। कोटा का राजकीय संग्रहालय छत्रविलास उद्यान के बृजविलास महल में स्थित हैं।  प्राचीनता की दृष्टि से मथुरा संग्रहालय अग्रगण्य हैं तो मूर्तिकला की विविधता की दृष्टि से कोटा के राजकीय संग्रहालय का अपना विशेष महत्व हैं। चित्रकला की दृष्टि से कोटा का राव माधोसिंह संग्रहालय अनुपम है तो उसके पूरक के रूप में कोटा का यह राजकीय संग्रहालय चित्रकला का अद्भुत खजाना है।

             कोटा के  राजकीय संग्रहालय की स्थापना का श्रीगणेश 1936 में हुआ जबकि बनारस हिन्दु विश्व विद्यालय के प्रोफेसर ए. एस. अल्लेकर को कोटा के पुरातात्विक महल के स्थानों के सर्वेक्षण के लिये आमंत्रित किया गया था। उन्होंने अपनी सर्वेक्षण रिपोर्ट में इस भू- भाग के ऐतिहासिक व सांस्कृतिक महत्व को बतलाते हुए 14 स्थानों का जिक्र करते हुए उनकी सुरक्षा एवं मरम्मत की ओर ध्यान दिलाया। इनकी मरम्मत के कार्य को देखते हुए पुरातत्व विभाग के डायरेक्टर जनरल रायबहादुर के. एन.दीक्षित जब कोटा आये तो उन्हें यह काम बड़े घटिया स्तर का लगा और उन्होंने इस कार्य को सम्पन्न करने के लिये कोटा राज्य में एक अलग से पुरातत्व विभाग स्थापित करने की राय दी।

             इसी सुझाव पर 1943 ई. में कोटा के महाराव भीमसिंह ने स्टेट हिस्टेरियन तथा उपाचार्य हर्बट काॅलेज डाॅ. मथुरालाल शर्मा को राज्य में बिखरे पड़े शिलालेख एवं मूर्तियों को संग्रह करने को कहा। डाॅ. शर्मा ने प्रयास करके लगभग सौ मूर्तियों का संग्रह कर लिया तब 1945.46 में कोटा में एक संग्रहालय की स्थापना  बृजविलास महल में की गई। प्रारम्भ में इस संग्रहालय में केवल पुरातात्विक महत्व की सामग्री ही रखी गई। वर्ष 1951 में राजस्थान सरकार के पुरातत्व एवं संग्रहालय विभाग ने कोटा संग्रहालय को अपने हाथ में लेकर  बृजविलास से कोटा गढ़ के प्रवेश द्वार के ऊपर बने हवामहल में स्थानान्तरित कर दिया । इस समय महाराव भीमसिंह ने संग्रहालय को स्थान देने के साथ ही साथ विविध प्रकार की सांस्कृतिक एवं ऐतिहासिक महत्व की अनेक वस्तुएं भी प्रदान की। कालान्तर में संग्रहालय में शनै कर शनैः अनेक वस्तुएं जुड़ती रही और यह सभी दृष्टियों से परिपूर्ण हो गया। हवामहल में स्थान की कमी को देखते हुये संग्रहालय को  1994-95 में पुनः बृजविलास महल में स्थानान्तरित दिया गया।

             संग्रहालय के पुरातत्व विभाग में मुख्यतः पुरानी मूर्तियां, शिलालेख और सिक्के हैं। हाडौती के लगभग सभी पुरातात्विक महत्व के स्मारकों की मूर्तियां यहां संग्रहित हैं । इनमें बाड़ौली, दरा, अटरू, रामगढ़, विलास, काकोनी, शाहबाद, आगर, औघाड, मन्दरगढ़, बारां और गांगोभी की मूर्तियां प्रमुख हैं। संग्रहालय में 150 से भी अधिक चुनिन्दा मूर्तियों का संग्रह हैं। यहां वैष्णव, शैव और जैन तीन सम्प्रदायों की मूर्तियाँ में मुख्य रूप से विष्णु, शिव, त्रिविक्रम, नारायाण, हयग्रीव, वराह, कुबेर, वायु, शिव-पार्वती, कार्तिकेय, ब्रह्या, हरिहर महेश, अग्नि, क्षेत्रपाल, वरूण, यम, एन्द्री, वराही, अम्बिका, ब्रह्याणी चन्द्र, पाश्र्वनाथ, गजलक्ष्मी, रति-कामदेव आदि देवी देवताओं की प्रतिमायें शांमिले हैं। संग्रहालय में रखी हुई कुछ प्रतिमाएं तो अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति की हैं जिनमें से दरा की झल्लरी वादक  तथा बाडौली की शेषायी विष्णु की प्रतिमाएंे तो विश्व के कई देशों में प्रदर्शित हो चुकी हैं। अपनी धुन में तल्लीन झाल्लरी वादक की प्रतिमा अपने आप में अनूठी और एकाकी है। बादामी रंग की विष्णु की खड़ी प्रतिमाओं में काफी बारीक कटाई का काम हैं। बाड़ौली से लाई गई पालिश की हुई शेषायी की मूर्ति में अद्भुत आकर्षण है तथा भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू भी इसके सामने आकर इसे कुछ क्षण तक अचम्भे से निहारते रहे। गांगोभी की प्रतिमाऐं सफेद पत्थर की हैं तथा महीन कारीगरी की दृष्टि से बेजोड़ हैं। विलास की यमराज की मूर्ति में अद्भुत आकर्षण है तथा रामगढ़ की 9 वीं सदी की वाद्य और नृत्य में रत एक युगल की मूर्ति जीवन्त सी प्रतीत होती है।

             संग्रहालय में प्रदर्शित शिलालेखों में प्रदर्शित कुछ तो अति प्राचीन एवं ऐतिहसिक होने के साथ ही साथ भारतीय इतिहास के स्त्रोत की दृष्टि से अत्यन्त ही महत्वपूर्ण हैं। यहा चार लेख चार यूपों पर उत्कीर्ण हैं जिन्हें अन्ता के समीप बड़वा ग्राम से लाया गया हैं। यूप प्रस्तर के वे स्तम्भ हैं जिनसे यज्ञ के समय के अश्व बांधे जाते थे। वैदिक परम्परा के अनुसार बड़वा के ये यूप आधार में चैकोर और मध्य में अष्टाकार और शीर्ष पर मुडे हुए हैं। यूप  पीले रंग के  बलुआ पत्थर के हैं। इन यूपों पर ब्राह्यी लिपि में कुषाण कालीन 195 विकम्र (238 ई.) की है। इससे ज्ञात होता है कि इन यूपों के निर्माणकर्ता मौखरी वंश के बल के पुत्र बलर्धन सोमदेव और बलसिंह थे, जिन्होंने यहां त्रिराज एवं ज्योतिशेम यज्ञ करके इन्हें स्थापित किया था। यह एक आश्चर्य की बात है कि सातवीं शताब्दी में कन्नौज में राज्य करने वाले वर्धन वंश के प्रतापी नरेश हर्षवर्धन से काफी पहले इस भू-भाग पर इस वंश का अधिकार था। ये चारों यूप तथा इन पर लिखे शिलालेख इस संग्रहालय की अमूल्य निधि हैं। इन प्रसिद्ध शिलालेखों के अतिरिक्त हाड़ौती में अन्य कई स्थानों से प्राप्त शिलालेखों की देवनागरी में प्रतिलिपि भी इस संग्रहालय में रखी गई है। जिनमें चार चैमा का गुप्त शिलालेख, कंसुआ का 8वीं शताब्दी का लेख, शेरगढ़ में भण्डदेवरा का 13वीं शताब्दी व 12वीं विक्रम का लेख तथा चांदखेड़ी का 1746 विक्रम का लेख प्रमुख हैं।

संग्रहालय में कई ताम्रपत्रों के मूल लेख तथा कुछ के अनुवाद भी उपलब्ध हैं। संग्रहालय में शहाबाद और दरा से लाये गये भी कुछ शिलालेख भी उपलब्ध हैं। शिलालेखों के साथ ही साथ खरीतों पर लगाये जाने वाली चपड़ी की सील के कुछ लेख भी मौजूद हैं जिनमें प्रमुख रूप से राव माधोसिंह , महाराव रामसिह, वजीरखान नसरतजंग, बलवन्तसिंह, जार्ज रसेल आदि के हैं। इसी प्रकार कोर्ट स्टेम्प की मोहर के लेख भी यहाँ पर प्रदर्शित हैं।

              संग्रहालय में कुछ पुराने समय के सिक्के भी प्रदर्शित किये गये हैं। इनमें अधिकांश सिक्के वे हैं जो कि कोटा राज्य के विभिन्न स्थानों से समय-समय पर प्राप्त हुए थे। सिक्कों में सर्वाधिक प्राचीन पंचमार्क सिक्का है जो कि चांदी का चैकोर हैं तथा जिस पर फूल बने हुए हैं। इस प्रकार के सिक्कों का चलन ईसा से तीसरी शताब्दी पूर्व था। कोटा, मेवाड़, बून्दी, झालावाड़, जयपुर, जोधपुर, बीकानेर, जैसलमेर, किशनगढ़, करौली, भरतपुर और टोंक आदि रियासतों के सिक्के भी यहां प्रदर्शित हैं जो कि कोटा राज्य के रानीहेड़ा गांव में मिले थे। ये सिक्के मुगल बादशाह अकबर, जहांगीर, शाहजहां, औरंगजेब और मोहम्मदशाह के समय के हैं।

             संग्रहालय से जुड़े हुए सरस्वती भण्डार में पहले 5000 हस्तलिखित ग्रंथ थे। अब सरस्वती भण्डार के अलग हो जाने के कारण कतिपय चुने हुए विशिष्ठि हस्तलिखित ग्रंथ ही यहां रह गये हैं। जिनमें अधिकांश चित्रित हैं। ये ग्रंथ चित्र तथा चार्ट स्वर्ण अक्षरी, चित्र काव्य, भोजपत्री एवं नक्काशी द्वारा अलंकृत हैं। चित्रित ग्रंथों में भागवत जो कि 1190 पृष्ठों की है इसमें कुल 4760 चित्र हैं । दूसरी भागवत सूक्ष्म अक्षरी है जिसका आकार 69 फुट गुणा 3 इंच हैं, इसमें सुनहरी रेखांकन का काम है तथा इसमें 18वीं शताब्दी में बने दशावतार के चित्र हैं। यहां एक गीता भी सूक्ष्म अक्षरी है जिसमें इतने बारीक अक्षर है कि इसे सूक्ष्मदर्शी यंत्र से भी पढ़ने में कठिनाई आती है तथा इसका आकार साढे आठ इंच गुणा साढ़े पांच इंच है।

       संग्रहालय में एक चावल पर उत्कीर्ण गायत्री मंत्र  इस संग्रहालय की महत्वपूर्ण निधी है। इसमें 268 अक्षर हैं। यह उत्कीर्ण चावल 11 सितम्बर 1939 को महाराव उम्मेदसिंह की सालगिरह पर दिल्ली के फतह संग्रहालय द्वारा तैयार कर भेंट किया गया । यहां एक अन्य गीता सप्त श्लोकी कत्र्तारित अक्षरी है। गीता पंचरत्न नामक ग्रंथ में 236 पृष्ठ एवं 23 चित्र हैं तथा कई जगह अक्षर स्वर्ण में लिखे गये हैं। स्वर्ण अक्षरों युक्त एक अन्य ग्रंथ में शत्रुशल्य स्त्रोत है। दुर्जन शल्य स्त्रोत काले रंग के पृष्ठ पर सफेद स्याही से लिखा गया है। इसी प्रकार के अन्य ग्रन्थ आशीर्वचन तथा सिद्धान्त रहस्य है। अन्य प्रमुख ग्रन्थ हैं- कल्पसूत्र, यक्रसार, वल्लभोत्सव चन्द्रिका, सर्वोत्तम नवरत्न, पृथ्वीराजयुद्ध, डूंग सिंह की वीरगाथा, अश्व परीक्षा, ज्ञान चैपड़ आदि। यहां के ग्रन्थों में उम्मेदसिंह चरित काव्य में कोटा के पुराने इतिहास का जिक्र हैं। कुरान मजीद ग्रन्थ जिसका आकार 7 इंच गुणा 4 इंच है में 764 पृष्ठ हैं, अरबी में लिखा है तथा इसमें सुन्दर कारीगरी का काम है। संग्रहालय प्रातः 9.30 बजे से सायं 6.00 बजे तक दर्शकों के लिए खुला रहता है। सोमवार को साप्ताहिक अवकाश के साथ-साथ राष्ट्रीय पर्वों के दिन बंन्द रहता है।


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