मृत्यु शाश्वत है। परंतु जो महामना अपने जीवन को मानवता के संरक्षण, संपोषण के लिए समर्पित कर देते हैं वे यशस्वी बनकर अमरत्व को प्राप्त कर लेते हैं। यदि महापुरुषों का जीवन आने वाली पीढ़ियों के लिए प्रकाश स्तंभ का कार्य करते हुए पथप्रदर्शन का कार्य करता है तो निश्चित ही महाशय धर्म पाल जी गुलाटी का जीवन ऐसा ही रहा।
विभाजन की विभीषिका के पश्चात जब युवा धर्मपाल दिल्ली आए तो उनकी जेब में मात्र 700 रु ही थे। बहुत सोचा कि स्यालकोट में इतने बड़े व्यवसाय को छोड़ कर आये हैं तो अब क्या कुछ करें? परंतु धर्मपाल जी किसी कार्य को छोटा नहीं समझते थे। आज का युवा अगर इस एक विंदु को ही आत्मसात करले तो उसका जीवन बदल सकता है। तो धर्मपाल जी ने एक घोड़ा खरीदा और दिल्ली की सड़कों पर तांगा चलाने लगे।
उनकी आगे की कहानी तो दृढ़ संकल्प, सघन पुरुषार्थ, लक्ष्य प्राप्ति की अदम्य चाह और ईमानदारी की बेमिसाल कहानी है, जिसने धर्मपाल जी को मसालों का बेताज बादशाह बना दिया।
वेद भी यही कहता है कि प्रथम अपने पुरुषार्थ से धर्मपूर्वक अर्जित करो, अर्जित करे की वृद्धि करो और फिर उसको मानवता के हितार्थ समर्पित कर दो। महाशय धर्मपाल जी ने हूबहू यही किया। कठोर परिश्रम से पुश्तैनी व्यापार को विश्वभर में स्थापित किया, यही नहीं उनका ब्रांड शुद्धता का प्रतीक बन गया।
अर्जन अब हो गया , प्रभूत हो गया। अब जन हितार्थ वितरण की तैयारी थी। महाशय धर्मपाल जी ने अपने जीवन को हवन बना दिया। इदं न मम, यह मेरा नहीं है, प्रभु ने दिया है तो प्रभु का ही है अतः प्रभु की प्रजा को देना सबसे बड़ा कर्तव्य है। इसी सोच ने सैंकड़ों जनहित में संलग्न संस्थाओं का पोषण किया, जिनमे अस्पताल, शिक्षण संस्थाएं, अनाथालय, बालिका आश्रम आदि सम्मिलित हैं। एक भी ऐसा व्यक्ति मिलना असंभव है जो सहाय का इच्छुक हो महाशय जी के पास गया हो और खाली हाथ लौट हो। इसमें भी सर्वोपरि अनुकरणीय बात यह कि अभिमान महाशय जी को स्पर्श करने से डरता ही रहा।
कभी महादानी रहीम खानखाना से पूछा गया कि आप जैसे जैसे दान की मात्रा बढ़ाते हैं आपकी आंखें झुकती जाती हैं, ऐसा कैसे?
रहीम ने जबाब दिया
देने वाला और है, देता है दिन रैन।
लोग भरम मोपें करें, ताते नीचे नैन।
ठीक यही कथन महाशय जी का था। भगवान की माया उसकी प्रजा को समर्पित।
महाशय धर्मपाल गुलाटी की समाज सेवा को मान्यता प्रदान करते हुए भारत सरकार ने उन्हें पद्मभूषण पुरस्कार से समादृत किया।
महाशय जी महर्षि दयानन्द सरस्वती की वैचारिक क्रांति व इनके द्वारा स्थापित मानवीय मूल्यों के प्रबल समर्थक थे अतः स्वाभाविक था कि आर्यसमाज के मिशन के अग्रप्रसारण में उनके व्यक्तित्व,कृतित्व व उनकी दान सरिता का मुख्य भाग होता और अंतिम श्वांस तक वे इसके लिए जीते रहे। उनका दिल समाज के शोषितों और वंचितों के लिए धड़कता था। नितान्त ग्राम्य आदिवासी अंचलों में अपने पुरुषार्थ से धर्मपूर्वक अर्जित धन से उन्होंने जगह जगह शिक्षा की ज्योति जलाई। भारतीय मनीषा को प्रबुद्ध करने हेतु अनेक गुरुकुल उनके द्वारा पोषित हो रहे हैं। देश का युवा अभाव के कारण निज प्रतिभा के प्रदर्शन से वंचित न रह जाय इस ओर भी वे सचेष्ट थे। महाशय धर्मपाल प्रतिभा विकास संस्थान के प्रकल्प की स्थापना कर एक बालक पर लाखों रुपये खर्च कर रहे थे ताकि कोई भी प्रतिभाशाली छात्र छात्रा धनाभाव के कारण अवसर से वंचित न रह जाय।
उदयपुर महाशय जी के हृदय में विशेष स्थान रखता था, उसके दो प्रमुख कारण थे। प्रथम तो प्रात:स्मरणीय महाराणा प्रताप की कर्मभूमि होने के कारण दूसरे युग प्रवर्तक महर्षि दयानन्द द्वारा लिखित कालजयी ग्रंथ सत्यार्थप्रकाश की रचनास्थली होने के कारण।
महाशय जी सन 2006 में उदयपुर आये तो यहां से पूर्णतः जुड़ गए। एक दिन नवलखा स्थित यज्ञशाला में प्रात: यज्ञ के पश्चात अनायास कह उठे की स्वर्गभूमि तो यह है, इसके विकास में धन का सदुपयोग होना ही चाहिए।
सुविदित ही है कि राज्य सरकार ने गुलाब बाग, उदयपुर स्थित नवलखा महल 1992 में एक भव्य स्मारक बनाने हेतु आर्यसमाज को सौंपा था । इस संस्था के संचालन हेतु श्रीमददयानंद सत्यार्थप्रकाश न्यास का गठन किया। 2007 में, बच्चों में वैदिक संस्कृति का आरोपण किया जाय , इस उद्देश्य से महाशय जी ने भव्य, वातानुकूलित माता लीलावन्ती सभागार का निर्माण कराया जिसका लोकार्पण स्मृतिशेष महामहिम उपराष्ट्रपति भैरोंसिंह जी शेखावत ने किया।
न्यास के तत्कालीन अध्यक्ष के. देवरत्न जी के प्रतिकूल स्वास्थ्य के कारण जब न्यास ने महाशय जी से अध्यक्ष पद स्वीकार करने की प्रार्थना की तो उन्होंने कृपापूर्वक सहज भाव से स्वीकृति प्रदान कर दी। 2009 में भव्य सत्यार्थप्रकाश स्तम्भ निर्माण हेतु ईसवाल कुमावतों का गुड़ा में एक भूमि क्रय की गयी। 60 करोड़ की यह योजना उदयपुर के पर्यटन व सांस्कृतिक वैभव का अभिन्न अंग होती। कतिपय कारणों से कुछ बिलम्ब हुआ पर गत दिनों में कुछ परिवर्तन के साथ यह कार्य परियोजना के रूप में पूर्णता प्राप्त कर रहा था, साथ ही वर्तमान नवलखा महल अकल्पनीय सौंदर्य के साथ दर्शकों के लिए सम्मोहक बन जाय, इसकी पूर्ण योजना बनकर, कार्य अग्रिम चरण में प्रवेश करने वाला था कि .....हा!हन्त, यह वज्रपात हो गया। न्यास अपने अध्यक्ष को खोकर मानो अनाथ ही हो गया है। हम हतप्रभ हैं। अभी तो कुछ सूझ नहीं रहा है, पर चरैवेति चरैवैति के आदर्श का अवलम्बन कर आर्य जगत पूज्य महाशय जी के इन स्वप्नों को साकार करेगा ऐसी आशा अवश्य है।
महाशय जी की सौम्य छवि, ममतामयी मुस्कान, तथा हर विपदा में खेवनहार की भूमिका स्मृतिपटल पर अमिट स्थान बना चुकी है। सैंकड़ों सानिध्य-स्मृतियां उमड़ घुमड़ कर रहीं है। पर अब उनके दर्शन कर स्वयं को ऊर्जस्वित करने का अवसर कभी नहीं मिलेगा यह सोचकर हताशा तो हैं, पर उनके दिग्दर्शित पथ पर आगे बढ़ते जाना है, हम जानते हैं कि यही संकल्प उस महान आत्मा के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि है।
अश्रुपूरित श्रद्धांजलि सहित