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“ईश्वरोपासना अर्थात् सन्ध्या क्यों करें?”

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14 May 22
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-मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

“ईश्वरोपासना अर्थात् सन्ध्या क्यों करें?”

ओ३म्
सन्ध्या भली भांति ईश्वर का ध्यान करने को कहते हैं। यही ईश्वर की पूजा कहलाती है। इससे भिन्न प्रकार से यदि ईश्वर की पूजा आदि करते हैं तो जो लाभ ईश्वर के सत्यस्वरूप का ध्यान व चिन्तन करने से मिलता है, वह अन्य प्रकार से या तो मिलता नहीं या बहुत कम मिलता है। ज्ञानी व विज्ञान कर्मी जानते हैं कि यदि हम कोई भी काम करें और वह ज्ञान विज्ञान के अनुकूल न हो तो सफलता नहीं मिलती। इसी प्रकार से यदि हम ईश्वर की पूजा, ध्यान व उपासना आदि करते हैं तो हमें उसकी विधि के ज्ञान के अनुरूप होने पर पहले विचार कर लेना चाहिये। ईश्वर का ध्यान व सन्ध्या करने से पूर्व हमें ईश्वर व आत्मा के विषय में ज्ञान होना चाहिये। ईश्वर क्या है? इस प्रश्न का एक उत्तर यह है कि ईश्वर वह है जिसने इस सारी सृष्टि को बनाया है, जो इसका पालन व संचालन कर रहा है, इसे सृष्टि को धारण करना भी कहते हैं तथा जो इस सृष्टि की अवधि वा आयु पूर्ण होने पर इसकी प्रलय करता है। ईश्वर ने इस सृष्टि, इसके लोक-लोकान्तर ही नहीं बनाये अपितु हमारी पृथिवी पर अग्नि, वायु, जल, आकाश आदि पदार्थों की उत्पत्ति सहित समस्त अन्न, फल, वनस्पतियों व ओषधियों एवं गाय आदि प्राणियों को भी उसी ने हमारी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए बनाया है। ईश्वर का सत्य स्वरूप सृष्टि के आरम्भ में सबसे प्रथम ईश्वर ने ही वेदों के द्वारा प्रकाशित व उद्घाटित किया था। विचार करने पर हम पाते हैं कि यदि ईश्वर वेदों का प्रकाश न करता तो हम ईश्वर, जीवात्मा सहित अन्य पदार्थों का ज्ञान कदापि प्राप्त नहीं कर पाते। इसके अतिरिक्त ईश्वर ने वेदों का प्रकाश कर हमें भाषा प्रदान की व हमें बोलना भी उसी ने सिखाया है। वेदों के आधार पर ईश्वर का जो स्वरूप हमारी दृष्टि में आता है उसका उल्लेख ऋषि दयानन्द जी ने अपने ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, आर्याभिविनय सहित लघु ग्रन्थों स्वमन्तव्यामन्तव्यप्रकाश, आर्योद्देश्यरत्नमाला एवं आर्यसमाज के दूसरे नियम में भी किया है। समूचे वेद भाष्य में भी हमें ईश्वर के यथार्थ व सत्य स्वरूप के दर्शन होते हैं। हम यहां आर्यसमाज के दूसरे नियम के अनुसार पाठकों के लिए ईश्वर का सत्य स्वरूप, जैसा कि वेदों से प्राप्त होता है, उद्धृत कर रहे हैं। ऋषि दयानन्द जी लिखते हंव कि ‘ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकार, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनन्त, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र और सृष्टिकर्ता है। उसी की उपासना करनी योग्य है।’ ऋषि दयानन्द जी ने इन शब्दों में ईश्वर का सत्यस्वरूप बताकर इसी स्वरूप वाले ईश्वर की उपासना का करना आवश्यक बताया है। 

    वेद यह भी बताते हैं कि इस सृष्टि की रचना वा उत्पत्ति ईश्वर ने अपने किसी निजी प्रयोजन के लिए नहीं की है अपितु अपनी शाश्वत प्रजा चेतन जीवात्माओं की उन्नति व उनको सुख पहुंचाने के लिए की है। ईश्वर ने हमारे कर्मानुसार हमें मनुष्य बनाया है। हम इस जीवन में जो सुख भोग रहे है, अतीत में भोग चुके हैं व आगे भी भोगेंगे उनका आधार व कारण परम पिता परमेश्वर ही है। इस जन्म से पूर्व भी अनन्त बार हम जन्म लेकर इसी प्रकार से व इससे भी अधिक सुख भोग चुकंव हैं और भविष्य में अनन्त काल तक भोगेंगे। इसके बदले में हम ईश्वर को अपनी कोई वस्तु क्या दे सकते हैं? यह मनुष्य का स्वभाव है कि वह जब किसी भी मनुष्य से उपकृत होता है तो वह उसका धन्यवाद करता है। वह किसी का ऋण व अहसान लेना नहीं चाहता और यदि लेना पड़ता है तो उसका मूल्य दिया करता है। परमात्मा ने हम पर इतनी कृपा की है कि जितनी अन्य कोई नहीं कर सकता। अतः हम ईश्वर के प्रति कृतज्ञता का भाव रखते हैं और सभी को रखना भी चाहिये। कृतज्ञता का भाव रखने से हमारे अहंकार का नाश होता है। यह ज्ञातव्य है कि अहंकारी मनुष्य का नाश उसके अहंकार के कारण ही होता है। अहंकार कोई अच्छा मानवीय गुण नहीं है। इसका सभी को त्याग करना ही चाहिये। अहंकार के विपरीत विनयशीलता का गुण होता है। मनुस्मृति में एक प्रामाणिक बात कही गई है कि अभिवादन-शील मनुष्य जो प्रति दिन व नियमित रूप से ज्ञान व आयु में वृद्ध लोगों की सेवा किया करता है उसकी आयु, विद्या, यश व बल बढ़ता है। मनु जी के यह विचार समाज में प्रत्यक्ष सत्य सिद्ध होते हुए पाये जाते हैं। अतः आयु, विद्या, यश और बल की प्राप्ति के लिए मनुष्यों को अहंकार का नाश कर विनयशील स्वभाव को धारण करना चाहिये। हम ईश्वर के प्रति मनुष्य के कर्तव्यों पर चर्चा कर रहे हैं। परमात्मा ने हमारे लिए सृष्टि बनाई, हमें माता-पिता के द्वारा सुख का सर्वोत्तम साधन यह मनुष्य शरीर दिया, हमारे लिए संसार में भोजन, वस्त्र, आवास आदि के लिए नाना पदार्थ बनाये और उनका उपयोग करने के लिए वेदों के द्वारा हमें शिक्षा दी, अतः हमारा कर्तव्य है कि हम उस ईश्वर के प्रति कृतज्ञता का भाव रखते हुए उसकी स्तुति, प्रार्थना व उपासना किया करें। ऐसा करने से ही हम अपनी हानि से बच सकते हैं और हमें अनेक प्रकार से लाभ पहुंचता है। अतः सभी मनुष्यों को ईश्वर की उपासना वा संन्ध्या आदि कर्म यथासमय अर्थात् प्रातः व सायं की सन्ध्या वेला में अवश्यमेव करने चाहिये। 

    सन्ध्या कैसे करें? इसके लिए हमें वेद वा वेदानुकुल ईश्वर के गुण, कर्म व स्वभाव को बताने वाले ऋषि व आप्त पुरूषों के ग्रन्थों का अध्ययन करना चाहिये। वैदिक विद्वानों द्वारा लिखे गये ईश्वर विषयक ग्रन्थों का अध्ययन करने पर भी हमारी आत्मा ईश्वर के गुणों को अपनी आत्मा से ग्रहण करती है। हम जब ईश्वर के सत्य गुण-कर्म-स्वभाव को बताने वाले ऋषियों के ग्रन्थों का अध्ययन करते हैं तो हमारी आत्मा उसे पढ़कर व जानकर उसके सत्य होने की पुष्टि करती है। यह ध्यान रहे कि अध्ययन करते हुए हमें अपने विवेक को जाग्रत रखना होता है। किसी भी बात को आंखे बन्द कर स्वीकार नहीं करना चाहिये। बुद्धि से सत्य व असत्य का विवेचन करके ही सत्य को स्वीकार करना चाहिये। ऐसा करने से ही हम सत्य को जान पाते हैं और हमें उसके अनुरूप क्रियायें करने से लाभ होता है। स्वाध्याय के लिए सत्यार्थप्रकाश, आर्याभिविनय, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, योगदर्शन, वेद मंजरी, ऋग्वेद ज्योति, यजुर्वेदज्योति, अथर्ववेदज्योति, श्रुति सौरभ आदि ग्रन्थों सहित ऋषि दयानन्द व आर्य विद्वानों के वेदभाष्य पठनीय हैं। इन्हें पढ़कर ईश्वर का सत्य स्वरूप ज्ञात हो जाता है, सारी शंकायें व भ्रान्तियां दूर हो जाती है और ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना व उपासना करने की प्रेरणा मिलती है। 

    ईश्वर की उपासना न केवल विद्वानों को ही करनी चाहिये अपितु ज्ञानी-अज्ञानी सभी मनुष्यों को भी करनी चाहिये। ईश्वर की उपासना से ईश्वर का सान्निध्य प्राप्त होता है। हमारे बुरे गुण, कर्म व स्वभाव में सुधार होता है। ईश्वर ज्ञानस्वरूप व आनन्दस्वरूप है। सन्ध्या व उपासना करने से हमारे ज्ञान में वृद्धि होती है और दुःख दूर होकर आनन्द की उपलब्धि होती है। इन लाभों को प्राप्त करने के लिए हमें ईश्वर की भक्ति वा सन्ध्या अवश्य करनी चाहिये। सन्ध्या करने से हमें सत्य कर्मों को करने की प्रेरणा मिलने सहित बुरे कर्मों के प्रति अनिच्छा भी उत्पन्न होती है जिससे हमारा यह जीवन व परजन्म भी सुधरता है। ईश्वर की उपासना के लिए ऋषि दयानन्द जी ने ‘सन्ध्या’ नाम की एक पुस्तक लिखी है। इसे पढ़कर ही सबको सन्ध्या करनी चाहिये। सन्ध्या से पूर्व व सन्ध्या करते हुए सन्ध्या के अर्थों पर भी दृष्टि डालनी चाहिये व उनके अनुसार चिन्तन व ईश्वर का ध्यान करना चाहिये। सन्ध्या का मन्त्र बोलते हुए उसके अर्थों की भावना भी बननी चाहिये। यदि ऐसा नहीं होगा तो सन्ध्या करने में मन नहीं लगेगा व उससे सन्ध्या करने का लाभ नहीं होगा। मन्त्रों के अर्थ जानने से हमें ईश्वर की हमारे ऊपर जो अहेतुकी कृपा अर्थात् हम पर अकारण कृपा हो रही है व ईश्वर से हमें जो सुख प्राप्त हो रहे हैं, उसका ज्ञान होता है। लेख का विस्तार न कर हम सन्ध्या के समर्पण मन्त्र में उपासक द्वारा ईश्वर को सम्बोधित कर कहे गये शब्दों को प्रस्तुत कर रहे हैं। उपासक ईश्वर को कहता है ‘हे परमेश्वर दयानिधे! आपकी कृपा से जप और उपासना आदि कर्मों को करके हम धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की सिद्धि को शीघ्र प्राप्त होंवे।’ सन्ध्या करने से मनुष्य को धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष की प्राप्ति होती है। इस कारण भी हम सन्ध्या करते हैं। यह उपलब्धि व प्राप्ति न धन से हो सकती है, न रूतबे से व न अन्य किसी प्रकार से। यह प्राप्ति होती है ईश्वर व आत्मा के यथार्थ ज्ञान, स्वाध्याय व ईश्वर का भली भांति ध्यान करने से। यह भी जान लें कि ईश्वर की उपासना से जो सुख व लाभ राजा व बड़े-बड़े धनवानों को नहीं होता वह लाभ ईश्वर भक्तों, उपासकों व योगियों को होता है। इसी के साथ इस लेख को विराम देते हैं।

ओ३म् शम्। 
-मनमोहन कुमार आर्य
पताः 196 चुक्खूवाला-2
देहरादून-248001
फोनः09412985121 


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