GMCH STORIES

सात्विक धन एवं पुण्य कर्म ही लोक-परलोक में जीवात्मा के सहायक

( Read 8107 Times)

02 Aug 21
Share |
Print This Page

-मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

सात्विक धन एवं पुण्य कर्म ही लोक-परलोक में जीवात्मा के सहायक

ओ३म्
मनुष्य को अपना जीवन जीनें के लिए धन की आवश्यकता होती है। भूमिधर किसान तो अपने खेतों में अन्न व गो पालन कर अपना जीवन किसी प्रकार से जी सकते हैं परन्तु अन्य लोग चाहें कितने विद्वान हों, यदि नौकरी या व्यापार न करें तो उनका जीवन व्यतीत करना दुष्कर होता है। आजकल जीवन जीनें की यह कसौटी उल्ट गयी है। वर्तमान समय में किसान निर्धनता के शिकार हैं और अनेक कारणों से कुछ किसानों को आत्महत्यायें तक करनी पड़ती हैं। वहीं आजकल नगरीय लोग जो कुछ पढ़ लिखकर छोटी मोटी सरकारी नौकरी प्राप्त कर लेते हैं तो उन्हें जीवन भर अपने भोजन, वस्त्र, बच्चों की शिक्षा, घूमना-फिरना, चिकित्सा आदि सभी प्रकार की सुविधायें प्राप्त एवं सुनिश्चित हो जाती हैं। जो जितना बड़े पद पर होता है उसकों उतना ही अधिक वेतन मिलता है जिससे वह उस अतिरिक्त धन से सम्पत्तियां खरीदनें, बहुमूल्य मकान व वाहन आदि खरीदनें सहित भूमि तथा स्वर्ण आदि खरीद कर अपने धन को वहां विनियोजित करता है। जो लोग श्रमिक हैं उनमें भी कुछ लोग तो अच्छा धनोपार्जन कर लेते हैं तथा बहुत से लोग अल्प-आय के होने तथा प्रभूत परिश्रम करने पर भी कठिनता से अपना जीवन जी पाते हैं। मनुष्य की आत्मा में इच्छा व द्वेष की प्रवृत्तियां भी स्वाभाविक रूप से होती हैं। इस कारण बहुत से मनुष्य प्रभूत धन होने पर भी लोभ लालच के कारण भ्रष्ट आचरण कर उत्कोच व अन्य निन्दित कार्यों से बहुत अधिक धन कमाते हैं। राजनीति व बड़े सरकारी पदों के लोगों में ऐसे लोगों की संख्या अधिक है। वहां लोगों के पास सैकड़ो व हजारों करोड़ की सम्पत्तियां हैं जिनसे एक मध्यम श्रेणी का परिवार हजारों जन्म तक सुखी जीवन व्यतीत कर सकता है। ऐसे धनाड्य लोगों के कारण ही हमारा समाज समरता से दूर अभाव व दुःखों से ग्रसित होता देखा जाता है। आजकल देखने में मिल रहा है कि उच्च शिक्षित लोग अधिक मात्रा में अनैतिक कार्यों का प्रयोग कर रहे हैं जिससे सामान्य लोगों का चिकित्सा आदि व्यवसासयों के प्रति विश्वास कम होता जा रहा है। इसका एक कारण हमारी धर्म निरपेक्षता वाली शिक्षा हैं जहां योग, ध्यान, वेदों के अध्ययन सहित नैतिक शिक्षा को महत्व नहीं दिया जाता। माता-पिता भी अपनी सन्तानों को नैतिक शिक्षा नहीं देते। शायद ही कोई शिक्षित व अशिक्षित माता-पिता हों, जो अपनी सन्तानों को यह कहते हों कि बुरे काम से व भ्रष्टाचार से धन मत कमाना। ऐसी शिक्षा का न होना यही बताता है कि माता-पिता येन-केन प्रकारेण स्वयं भी धनवान बनना चाहते हैं और अपनी सन्तानों को भी उचित व अनुचित तरीकों से धनवान देखना चाहते हैं। 

    धन यदि धर्मपूर्वक व पवित्र आचरण से पुरुषार्थ व पसीना बहाकर कमाया जाता है तो वह धन सुधन होता है। यदि धन को बेईमानी व अनुचित साधनों से कमाया जाता है तो वह धन कुधन या चोर-धन कहा जा सकता है। कम परिश्रम करके अधिक धन कमाना, भले ही वह उचित साधनों से ही क्यों न हो, हमें लगता है कि ऐसा करना भी उचित नहीं होता। इसे व्यवस्था का दोष भी कह सकते हैं। हमारे शास्त्रों में धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष की चर्चा आती है। इन पुरुषार्थ चतुष्टय को प्राप्त करना ही मनुष्य जीवन का लक्ष्य कहा जाता है। धर्म सत्य व न्याय का आचरण करने को कहते हैं। अर्थ का भाव यह है कि धर्म अर्थात् सत्य और न्याय का आचरण कर पदार्थों वा सुविधाओं को प्राप्त करना। काम की परिभाषा यह है कि धर्मपूर्वक प्राप्त अर्थ से इष्ट भोगों (सुखों) का सेवन करना। मोक्ष का अर्थ है कि सभी दुःखों से छूटकर सदा आनन्द में रहना। मोक्ष में जन्म व मरण का छूटना एक प्रमुख उपलब्धि होती है। जन्म व मरण दोनों में ही जीव को दुःख होता है। जन्म व मरण के बीच की अवधि में भी सभी धनाड्यों को भी अनेक प्रकार के दुःख आते हैं। इन सभी दुःखों से मुक्ति ही मोक्ष कहलाती है। अतः अर्थ वह होता है जिसे धर्म व पुरुषार्थ से प्राप्त कर उससे सुख देने वालों पदार्थों को प्राप्त किया जाये। अर्थ के साथ कर्म भी जुड़ा हुआ है। ऋषि दयानन्द कर्म की परिभाषा करते हुए कहते हैं कि जो मन, इन्द्रिय और शरीर में जीव चेष्टा-विशेष करता है वह कर्म कहलाता है। वह कर्म शुभ, अशुभ और मिश्र भेद से तीन प्रकार का होता है। ऋषि दयानन्द ने क्रियमाण कर्म पर प्रकाश डालते हुए कहा है कि जो वर्तमान में किया जाता है, वह ‘क्रियमाण कर्म’ कहलाता है। संचित कर्म वह होते हैं जो क्रियमाण का संस्कार ज्ञान में जमा होता है। तीसरे कर्म प्रारब्ध होते हैं। इसके विषय में ऋषि दयानन्द कहते हैं कि जो पूर्व किये हुए कर्मों के सुख-दुःख-रूप फल का भोग किया जाता है, उसको ‘प्रारब्ध’ कहते हैं। यह प्रारब्ध पूर्वजन्मों के अभुक्त कर्मों का संचय प्रायः होता है। पूर्वजन्म के प्रारब्ध कर्मों के कारण ही हमारा यह जन्म हुआ है और इस जन्म में हम जो कर्म करेंगे और जिनका मृत्यु से पूर्व भोग नहीं हो सकेगा, वह सब प्रारब्ध के रूप में हमारे भावी जन्म में निर्णायक होंगे। उनके प्रभाव से ही हमें अगला जन्म और सुख व दुःख प्राप्त होंगे। यह भी सम्भव है कि इस जन्म के अशुभ व पाप कर्मों के कारण हमें अगले जन्म में मनुष्य योनि के स्थान पर पशु व पक्षी योनि में जन्म मिले। 

    श्रेष्ठ कर्म वह होते हैं जिनका परिणाम सुख व जीवन की उन्नति के रूप में होता है। सत्य-शास्त्र विहित धर्मयुक्त कर्मों को करके जो धन कमाया जाता है वह श्रेष्ठ धन होता है। जो कर्म शास्त्र द्वारा वर्जित हैं उनको किसी भी मनुष्य को नहीं करना चाहिये। घूस व भ्रष्टाचार सरकारी व्यवस्थाओं के द्वारा वर्जित कर्म होने से यह अनुचित व निकृष्ट कोटि के कर्म होते हैं जिनका परिणाम सरकारी व्यवस्था में भी दण्ड होता है और धार्मिक व ईश्वरीय दृष्टि से भी अहितकारी व दुःखदायी होता है। अतः ऐसा कोई कर्म नहीं करना चाहिये जिसे छुप कर करना पड़े और यदि पूछताछ हो तो उसे छुपाना पड़े या झूठ बोलना पड़े। मनुष्य को धन उन्हीं कर्मों से कमाना चाहिये जिन्हें वह किसी को भी पूछने पर बता सकता हो कि उसने वह धन किन साधनों से कमाया है। ऐसा करने से मनुष्य का जीवन सुखपूर्वक व्यतीत होता है और वह अभय व मन की शान्ति से युक्त रहता है। ऋषि दयानन्द ने एक बात यह भी कही है कि जब मनुष्य कोई अशुभ व बुरा काम करता है तो उसकी आत्मा में भय, शंका व लज्जा उत्पन्न होती है। यह भय, शंका एवं लज्जा का अनुभव परमात्मा मनुष्य की आत्मा में इसलिये कराता है जिससे मनुष्य उस पाप कृत्य को न करे। यह एक प्रकार से मनुष्य को परमात्मा की उस गलत काम को न करने की सलाह होती है। जो मनुष्य लोभवश अपनी आत्मा की उस सलाह को नहीं मानते, उन्हें बाद में सरकारी व्यवस्था व ईश्वरीय व्यवस्था से उस कर्म के दुःख रूपी फलों को भोगना पड़ता है। तब वह परमात्मा के सामने गिड़गिड़ाता है व उसके अन्य उपाय खोजता है। कई अज्ञानी लोग ऐसे अवसरों पर पौराणिक रीति से पूजा-पाठ कराते हैं। हमारा अध्ययन कहता है कि इसका प्रभाव उस समस्या या दुःख पर सीधा नहीं होता। इस कर्म का परिणाम तो हमारे भावी सुख व दुःखों पर पड़ सकता है। हमें भविष्य में दुःख न हो और हम चिन्ताओं से मुक्त होकर जीवन व्यतीत करें, इसके लिये यह आवश्यक है कि हम धर्म पर चलते हुए सत्य और न्याय का आचरण करें और कोई भी अशुभ व पाप कर्म को न करें।  

    वेद आदि शास्त्रों का अध्ययन करने पर यह पता चलता है कि मनुष्य को अपनी शारीरिक, आत्मिक एवं सामाजिक उन्नति करनी चाहिये। यदि मनुष्य अपनी आत्मिक उन्नति कर लेता है तो हमारा विचार है कि उसकी सामाजिक उन्नति स्वतः होती है। आत्मिक उन्नति के लिये हमें सांसारिक ज्ञान के साथ शास्त्रीय ज्ञान को भी प्राप्त करना होता है। ज्ञान यदि हमारे आचरण में न हो तो वह ज्ञान किसी काम का नहीं होता। हमें अपने शास्त्रीय ज्ञान के अनुसार ही अपना जीवन बनाना चाहिये। सभी ग्रन्थ शास्त्र नहीं होते। शास्त्र केवल वही ग्रन्थ कहलाते हैं जिनमें शत-प्रतिशत बातें सत्य हों। ऐसे ग्रन्थों में शीर्ष स्थान पर ईश्वरीय ज्ञान चार वेद ही हैं। मिथ्या ग्रन्थों पर आस्था रखकर यदि हम उनके अनुसार आचरण करते हैं तो इससे हमें व दूसरों को भी दुःख होना सम्भावित होता है। हम जो भी ग्रन्थ पढ़े, हमें उसकी बातों को स्वीकार करने से पूर्व उसकी परीक्षा भी अवश्य करनी चाहिये। बहुत से लोग मांसाहार करते हैं परन्तु वह यह विचार नहीं करते कि मांसाहार भक्ष्य है या अभक्ष्य? निश्चय ही मांसाहार अभक्ष्य है और इससे रोग सहित ईश्वरी व्यवस्था से दण्ड मिलना स्वाभाविक है। इसी प्रकार से अन्य सभी बातों की भी परीक्षा कर उनके निरापद होने पर ही स्वीकार करना चाहिये।

    मनुष्य अपना जीवन कैसे जीये? इस पर विचार करते हैं तो हमारे सामने वृक्षों और पशुओं का जीवन एक आदर्श उपस्थित करता है। वृक्ष भूमि से उतना ही आहार लेते हैं जितनी की उनको आवश्यकता होती है। वह अपने भोजन का भण्डारण या संग्रह आदि नहीं करते। पशुओं में भी हम यही भावना देखते हैं। उन्हें यदि मिल जाये तो वह प्रसन्नतापूर्वक आवश्यकता के अनुसार ही ग्रहण करते हैं अन्यथा सन्तुष्ट प्रायः रहते हैं। पशु व पक्षी भी किसी प्रकार का भण्डारण करने की बात नहीं सोचते। कोई एक दो अपवाद हो सकते हैं। मनुष्यों को भी धन व पदार्थों का आवश्यकता से अधिक संग्रह नहीं करना चाहिये। ईश्वरोपासना एवं सद्ग्रन्थों के स्वाध्याय का त्याग कर अधिकतम व अमर्यादित धन कमाने की प्रवृत्ति अत्यन्न दोषपूर्ण हैं। इसका परिणाम अच्छा नहीं होता। मनुष्य अन्न व भोजन तो उतना ही ग्रहण कर सकता है जितनी की भूख होती है। उसे निद्रा भी एक 18 से 24 वर्ग फीट के पलंग पर ही होता है। वस्त्र साधारण हों या कीमती, कोई फर्क नहीं पड़ता। हां, ज्ञान न हो या कम हो तो अवश्य फर्क पड़ता है। ज्ञान बढ़ाने के लिये मनुष्य के भीतर उत्साह होना चाहिये। ऐसा मनुष्य अनेक प्रकार के दुःखों व मुसीबतों से बचा रहता है। अतः हमें सुखी जीवन पर विचार करना चाहिये। धन व सुख के प्रचुर साधनों से समृद्ध जीवन हर हाल में सुखी नहीं होता। बहुत से धनाड्य लोग अस्पताल में बिस्तर पर पड़े द्रव-ग्लूकोस का सेवन कर जीवित रहते हैं। ईश्वर न करे कभी हमारी ऐसी स्थिति हो। योगदर्शन में पतंजलि ऋषि भी योगी के लिये अपरिग्रही होने की बात कहते हैं। 

    गीतकार कीर्तिशेष पंडित सत्यपाल पथिक जी ने एक भजन लिखा है जिसकी प्रथम दो पंक्तियां देकर हम इस लेख को विराम देते हैं। ‘श्रेष्ठ धन देना ओ दाता श्रेष्ठ धन देना जिसमें चिंतन और मनन हो ऐसा मन देना ओ दाता श्रेष्ठ धन देना।।’ ओम् शम्।
-मनमोहन कुमार आर्य
पताः 196 चुक्खूवाला-2
देहरादून-248001
फोनः09412985121 


Source :
This Article/News is also avaliable in following categories : Chintan ,
Your Comments ! Share Your Openion

You May Like