GMCH STORIES

ऋषि दयानन्द ने ईश्वर के सत्यस्वरूप को जानना सरल बना दिया

( Read 2041 Times)

20 Jan 21
Share |
Print This Page

-मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

ऋषि दयानन्द ने ईश्वर के सत्यस्वरूप को जानना सरल बना दिया

ओ३म्

संसार में जानने योग्य यदि सबसे अधिक मूल्यवान कोई सत्ता व पदार्थ हैं तो वह ईश्वर व जीवात्मा हैं। ईश्वर के विषय में आज भी प्रायः समस्त धार्मिक जगत पूर्ण ज्ञान की स्थिति में नहीं है। सभी मतों में ईश्वर व जीवात्मा के सत्यस्वरूप को लेकर भ्रान्तियां हैं। कुछ मत ईश्वर को मनुष्यों की ही तरह आकाश के किसी एक स्थान पर रहने वाले मनुष्य के समान मानते हैं। ईश्वर सर्वव्यापक, निराकार व सर्वान्तर्यामी सहित सच्चिदानन्दस्वरूप सत्ता है जो अनादि तथा नित्य तथा अविनाशी तथा अमर है। इसका ज्ञान वैदिक धर्म के अनुयायी जो ऋषि दयानन्द और आर्यसमाज के वेदप्रचार आन्दोलन से जुड़े हैं, वही प्रायः सत्य व यथार्थ रूप में जानते हैं। अतः आर्यसमाज का यह कार्य है कि वह ईश्वर के सत्यस्वरूप, जो ऋषि दयानन्द के वचनों सहित वेद, उपनिषद तथा दर्शन आदि ग्रन्थों से प्राप्त होता है, उसका दिग्दिगन्त प्रचार करते रहें, जब तक कि समसत विश्व वेदवर्णित ईश्वर के सत्यस्वरूप को स्वीकार न कर ले। ऐसा होने पर ही विश्व में ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ की भावना विस्तृत होकर अखण्ड सुख व शान्ति की दिशा में आगे बढ़ा जा सकता है। संसार ईश्वर के सत्यस्वरूप को जितना अधिक जानेगा व स्वीकार करेगा, उतना ही अधिक विश्व सत्य के निकट पहुंचकर संसार में दुःख, दारिद्रय, परस्पर की हिंसा, अशान्ति तथा सामाजिक समस्याओं पर विजय पाकर एक समान विचारों वाले समाज के निर्माण में अग्रसर होगा। यही मुख्य लक्ष्य वेद, ऋषि दयानन्द व आर्यसमाज का प्रतीत होता है जिसके लिये ऋषि दयानन्द पूरी योजना अपने आर्यसमाज के अनुयायी शिष्यों को दे गये हैं। आर्यसमाज यह कार्य कर भी रहा है परन्तु उसे जो सफलता मिलनी चाहिये थी वह नहीं मिल रही है। इसके अनेक कारण हैं। ऋषि दयानन्द के सत्यार्थप्रकाश व उसकी भूमिका को पढ़कर इसका अनुमान किया जा सकता है। एक कारण ऋषि दयानन्द ने जो बताया है उसका उल्लेख उन्हीं के शब्दों में यहां भी कर देते हैं। वह लिखते हैं कि ‘मनुष्य का आत्मा सत्यासत्य का जानने वाला है तथापि अपने प्रयोजन की सिद्धि, हठ, दुराग्रह, और अविद्यादि दोषों से सत्य को छोड़ असत्य में झुक जाता है।’ यह मुख्य कारण है जो सत्य के प्रचार व सत्य को स्वीकार करने में बाधक बनता है। ऐसा होने पर भी सत्य मान्यताओं, सिद्धान्तों व परम्पराओं के प्रचारक आर्यसमाज का कर्तव्य है कि वह सत्य या सत्यार्थ के प्रचार में कोई कसर न रखे तभी देश व विश्व की सामाजिक स्थितियों में सुधार हो सकता है।

                हमारा यह संसार अपने आप न तो बना है और न ही बिना किसी ज्ञात व अज्ञात सत्ता के चल रहा है। इस सृष्टि को बनाने वाली सत्ता का नाम ही ईश्वर है। वह सत्ता व उसका अस्तित्व सत्य व यथार्थ है। ईश्वर तत्व व पदार्थ वा सत्ता का संसार में अभाव नहीं अपितु भाव है। ईश्वर भाव सत्ता है। यह अनादि व नित्य है। इसका कभी अभाव व नाश नहीं होता। ईश्वर ने यह संसार अपनी अनन्त प्रजा जिसे जीव कहते हैं, जो अनादि, नित्य, चेतन, एकदेशी, ससीम, अल्पज्ञ, जन्म-मरण धर्मा, शुभ व अशुभ कर्मों को करने वाली, कर्म करने में स्वतन्त्र तथा फल भोगने में परतन्त्र है, उन जीवों के भोग व अपवर्ग=मोक्ष के लिये बनाया है। यह संसार अपने उद्देश्य के अनुसार पूर्ण व्यवस्थित रूप से चल रहा है। जीवों का जन्म व मरण हम मनुष्य आदि अनेक प्राणी योनियों में देखते हैं। सभी जीवों व प्राणियों को सुख व दुःख भोगते हुए भी देखते हैं। अधिकांश जीव जो-जो कामनायें, छोटी व बड़ी, करते हैं वह पूर्ण भी होती हैं। लोगों को वेद की आज्ञाओं का पालन करते हुए तप व त्याग पूर्वक जीवन व्यतीत करते हुए भी देखते हैं। इससे अनुमान होता है कि हमारा यह संसार वेद के नियमों के अनुसार चल रहा है तथा वेद के नियमों का पूर्णता से पालन हो रहा है। इस कारण से वेदज्ञान सबके लिए, ज्ञानी व विज्ञानियों के लिए भी, स्वीकार्य होना सिद्ध होता है। अतः संसार के सभी मनुष्यों को उस ईश्वर को जिसने इस संसार को जीवात्माओं के सुख भोग तथा आनन्द से युक्त मोक्ष प्राप्ति के लिये बनाया है, उसको जानना चाहिये। ईश्वर के स्वरूप तथा गुण, कर्म व स्वभाव का परिचय ऋषि दयानन्द के ग्रन्थों सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, संस्कारविधि, ऋग्वेद आंशिक तथा यजुर्वेद सम्पूर्ण वेदभाष्य, आर्याभिविनय, पंचमहायज्ञविधि, व्यवहारभानु तथा गोकरुणाविधि आदि ग्रन्थों में मिलता है। हम इन ग्रन्थों सहित वैदिक साहित्य के प्राचीन ग्रन्थ वेद, उपनिषद, दर्शन, शुद्ध मनुस्मृति आदि को पढ़कर ईश्वर के सत्यस्वरूप तथा गुण, कर्म तथा स्वभाव का विस्तृत ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं। बानगी के रूप में हम यहां आर्यसमाज के दूसरे नियम तथा आर्याभिविनय से ईश्वर के सत्य स्वरूप, गुणों तथा विशेषणों आदि को प्रस्तुत कर रहे हैं।

                आर्यसमाज का दूसरा नियम ईश्वर के सत्यस्वरूप सहित उसके गुण, कर्म तथा स्वभाव पर प्रकाश डालता है। नियम है ‘ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकार, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनन्त, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सवेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र और सृष्टिकर्ता है। उसी की उपासना करनी योग्य है।’ इस नियम में ऋषि दयानन्द ने ईश्वर के सत्यस्वरूप सहित उसके गुण, कर्म व स्वभाव से भी परिचित कराया है। ऋषि दयानन्द के समकालीन साहित्य में ईश्वर विषयक ऐसा वाक्य व संस्कृत श्लोक उपलब्ध नहीं होता जिससे ईश्वर को व्यापक रूप में जाना जा सके। इस नियम का महत्व इस कारण से भी है कि ऋषि दयानन्द के समय में लोगों ने ईश्वर के सत्यस्वरूप व गुणों आदि को भुला दिया था और उसके नाम पर अनेक मिथ्या विश्वास व आस्थायें समाज सहित देश देशान्तर में प्रचलित थीं। प्रायः सभी मतों में ईश्वर के सत्यस्वरूप को लेकर भ्रान्तियां पाई जाती थी व वही भ्रान्तियां आज भी विद्यमान हैं। आज भी इन मतों ने अपने मतों को वैदिक ज्ञान के आलोक में अद्यतन, संशोधन व परिवर्धन नहीं किया है। आज भी संसार में अविद्या विद्यमान है और लोग ईश्वर के सत्यस्वरूप व सत्यगुणों से अपरिचित हैं। इसके विपरीत आज भी अधिकांश लोग ईश्वर विषय में अनेक प्रकार के अज्ञान, अन्धविश्वासों तथा रुढ़ियों को मानते हैं। ऐसी स्थिति में आर्यसमाज के दूसरे नियम सहित ऋषि दयानन्द के ईश्वर के सत्यस्वरूप का बोध कराने वाले साहित्य की आज भी प्रासंगिकता व उपयोगिता है और इसके प्रचार की अत्यन्त आवश्यकता है जिससे देश व संसार से मुख्यतः ईश्वर के विषय में फैली हुई भ्रान्तियां दूर की जा सके। ऐसा होने पर ही विश्व में विश्व बन्धुत्व का भाव जाग्रत किया जा सकता व हो सकता है। आर्यसमाज के दूसरे नियम के अतिरिक्त आर्याभिविनय पुस्तक में प्रथम स्थान पर प्रस्तुत वेदमन्त्र के व्याख्यान में भी ऋषि दयानन्द ने ईश्वर के गुणों की जिस प्रकार से व्याख्या की है वह भी अन्यतम है। इसका प्रचार भी देश देशान्तर में सभी आत्मिक एवं नास्तिक विचारों के मनुष्यों में किया जाना आवश्यक प्रतीत होता है। हम यहां आर्याभिविनय से ईश्वर विषयक गुणों के व्याख्यान से सम्बन्धित मन्त्र व उसकी व्याख्या प्रस्तुत कर रहे हैं।

                आर्याभिविनय में प्रथम मन्त्र के रूप में ऋषि दयानन्द ने ऋग्वेद अ0 1, अ0 6, व0 18, मन्त्र 9 को प्रस्तुत किया है। मन्त्र है ‘ओ३म् शं नो मित्रः शं वरुणः शं नो भवत्वर्यमा। शं न इन्द्रो बृहस्पतिः शं नो विष्णुरुरुक्रमः।।’ इस मन्त्र का ऋषि के शब्दों में व्याख्यान इस प्रकार है। व्याख्यान- हे सच्चिदानन्दान्तस्वरूप! हे नित्यशुद्धबुद्धमुक्तस्वभाव! हे अद्वितीयानुपमजगदादिकारण! हे अज, निराकार, सर्वशक्तिमन्, न्यायकारिन्! हे जगदीश, सर्वजगदुत्पादकाधार! हे सनातन, सर्वमंगलमय, सर्वस्वामिन! हे करुणाकरास्मत्पितः, परमसहायक! हे सर्वानन्दप्रद, सकलदुःखविनाशक! हे अविद्याअन्धकारनिर्मूलक, विद्यार्कप्रकाशक! हे परमैश्वर्यदायक, साम्राज्यप्रसारक! हे अधमोद्धारक, पतितपावन, मान्यप्रद! हे विश्वविनोदक, विनयविधिप्रद! हे विश्वासविलासक! हे निरंजन, नायक, शर्मद, नरेश, निर्विकार! हे सर्वान्तर्यामिन्, सदुपदेशक, मोक्षप्रद! हे नरेश, निर्विकार! हे सर्वान्तर्यामिन्, सदुपदेशक, मोक्षप्रद! हे सत्यगुणाकर, निर्मल, निरीह, निरमय, निरुपद्रव, दीनदयाकर, परमसुखदायक! हे दारिद्रयविनाशक, निर्वैरिविधायक, सुनीतिवर्धक! हे प्रीतिसाधक, राज्यविधायक, शत्रुविनाशक! हे सर्वबलदायक, निर्बलपालन! हे धर्मसुप्रापक! हे अर्थसुसाधक, सुकामवर्द्धक, ज्ञानप्रद! हे सन्ततिपालक, धर्मसुशिक्षक, रोगविनाशक! हे पुरुषार्थप्रापक, दुर्गुणनाशक, सिद्धिप्रद! हे सज्जनसुखद, दुष्टसुताड़न, गर्वकुक्रोध-कुलोभविदारक! हे परमेश, परेश, परमात्मन्, परब्रह्मन्! हे जगदानन्दक, परमेश्वर, व्यापक, सूक्ष्माच्छेद्य! हे अजरामृताभय-निर्बन्धानादे! हे अप्रतिमप्रभाव, निर्गुणातुल, विश्वाद्य, विश्ववन्द्य, विद्वद्विलासक, इत्याद्यनन्तविशेषणवाच्य! हे मंगलप्रदेश्वर! ‘‘शं नो मित्रः” आप सर्वथा सबके निश्चित मित्र हो, हमको सर्वदा सत्यसुखदायक हो। हे सर्वोत्कृष्ट, स्वकरणीय, वरेश्वर! ‘‘शं वरुणः” आप वरुण, अर्थात् सबसे परमोत्तम हो, सो आप हमको परमसुखदायक हो। ‘शन्नोभवत्वर्यमा” हे पक्षपातरहित, धर्मन्यायकारिन्! आप अर्यमा (यमराज) हो, इससे हमारे लिए न्याययुक्त सुख देनेवाले आप ही हो। ‘‘शन्नः इन्द्रः” हे परमैश्वर्यवान्, इन्द्रेश्वर! आप हमको परमैश्वर्ययुक्त स्थिर सुख शीघ्र दीजिए। हे महाविद्यवाचोधिपते। ‘‘बृहस्पतिः” बृहस्पते, परमात्मन्! हम लोगों को (बृहत्) सबसे बड़े सुख को देनेेवाले आप ही हो। ‘‘शन्नो विष्णुः उरुक्रमः” हे सर्वव्यापक, अनन्तपराक्रमेश्वर, विष्णो! आप हमको अनन्त सुख देओ, जो कुछ मांगेंगे सो आपसे ही हम लोग मांगेंगे, सब सुखों का देनेवाला आपके विना कोई नहीं है। हम लोगों को सर्वथा आपका ही आश्रय है, अन्य किसी का नहीं, क्योंकि सर्वशक्मिान्, न्यायकारी, दयामय सबसे बड़े पिता को छोड़ के नीच का आश्रय हम लोग कभी न करेंगे। आपका तो स्वभाव ही है कि अंगीकृत को कभी नहीं छोड़ते सो आप हमको सदैव सुख देंगे, यह हम लोगों को दृढ़ निश्चय है।।

                आर्यसमाज के दूसरे नियम तथा आर्याभिविनय में दी गई इस मन्त्र व्याख्या से ईश्वर के सत्यस्वरूप, उसके गुण, कर्म व स्वभाव सहित परमेश्वर का प्रत्यक्ष, निभ्र्रान्त, यथार्थ ज्ञान व बोध होता है। प्रिय पाठको को ऋषि दयानन्द के एक एक शब्द व वाक्य का मनन व चिन्तन करना चाहिये। इससे उनको ईश्वर विषयक यथार्थ बोध प्राप्त होगा और ऐसा करके वह अज्ञान व अविद्या से मुक्त होंगे। ऋषि दयानन्द ने ईश्वर को जिन शब्दों में व्याख्या की है, ऐसी व्याख्या विश्व साहित्य में शायद कहीं नहीं मिलती। ईश्वर के सत्यस्वरूप को विश्व को बताने के लिये ऋषि दयानन्द विश्व के वन्दनीय हैं। हमारा उनको सादर नमन है। ईश्वर भक्तों को प्रतिदिन व समय समय पर इस नियम व इस वेदमन्त्र व्याख्यान का वाचन करते रहना चाहिये। इससे वह ऋषि दयानन्द सहित परमात्मा से जुडे रहेंगे और अज्ञान की निवृत्ति से उनको सुख प्राप्ति होने की आशा है। ऋषि दयानन्द ने अपने जीवन में वेदों के प्रचार का जो कार्य किया उससे ईश्वर विषयक सभी भ्रान्तियां दूर हुई हैं। उन्होंने संसार को ईश्वर के सत्यस्वरूप का बोध कराया है। आज भी ईश्वर के सत्यस्वरूप के प्रचार प्रसार की महती आवश्यकता है जिससे संसार में विद्यमान अविद्या, अधर्म, पाखण्ड व अन्धविश्वास आदि का उन्मूलन किया जा सके। ओ३म् शम्।

-मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः09412985121


Source :
This Article/News is also avaliable in following categories : Chintan
Your Comments ! Share Your Openion

You May Like