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“क्या हमें अपने पूर्वजन्म एवं पुनर्जन्म होने के सिद्धान्त का ज्ञान है?”

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04 Dec 20
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“क्या हमें अपने पूर्वजन्म एवं पुनर्जन्म होने के सिद्धान्त का ज्ञान है?”

मनुष्य हो या इतर प्राणी, सभी जन्म व मरण के चक्र में फंसे हुए हैं। संसार में हम देखते हैं कि जिसका जन्म होता है उसकी मृत्यु अवश्य होती है। जन्म से पूर्व और मृत्यु के बाद का ज्ञान कुछ  आध्यात्मिक व वैदिक विद्वानों को ही होता है। कुछ ऐसे मनुष्य हैं जो पुनर्जन्म होना स्वीकार करते हैं और बहुत से ऐसे भी हैं जो इसे स्वीकार नहीं करते। सत्य एक ही होता है। सत्य यह है कि मनुष्य व सभी प्राणियों में एक समान जीवात्मा तत्व व पदार्थ विद्यमान है जो अनादि, नित्य, अविनाशी व अमर है। यह जीवात्मा न उत्पन्न होता है और न कभी नष्ट होता है। नष्ट का अर्थ किसी पदार्थ का अभाव होना होता है। विज्ञान का नियम है कि किसी पदार्थ का अभाव नहीं होता। गीता में बताया गया है कि भाव से अभाव व अभाव से भाव पदार्थ उत्पन्न नहीं होते है। किसी पदार्थ का नष्ट होना उसका स्वरूप परिवर्तित होना होता है। हम लकड़ियों को जलाते हैं तो वह नष्ट हो जाती है। परन्तु लकड़ियों में जो मूल पदार्थ थे उनका अभाव न होकर वह सूक्ष्म रूप में वायु व आकाश में फैल जाते हैं। हम सामान्य भाषा में उसे धुआं कह देते हैं। यह धुआं लकड़ी में निहित पंचतत्वों को जलने पर पृथक पृथक कर देता है। जल तत्व अलग हो जाता है और अन्य तत्व व पदार्थ तथा उनके परमाणु अलग हो जाते हैं।

 

                आत्मा एक चेतन सत्ता है। चेतन सत्ता ज्ञान व कर्म करने की क्षमता व सामथ्र्य से युक्त होती है। परमात्मा से इसे अनेक योनियों में अपने पूर्वजन्म के कर्मानुसार जन्म मिलता है तो यह अपने स्वाभाविक व नैमित्तिक ज्ञान के आधार पर भिन्न भिन्न योनियों में नाना प्रकार के कर्मों को करती हैं। संसार में दो प्रकार के पदार्थ विद्यमान हैं। इन्हें जड़ व चेतन कहा जाता है। चेतन से जड़ व जड़ से चेतन पदार्थ उत्पन्न नहीं होते और न ही प्रकृति व भौतिक पदार्थों से जीवों की उत्पत्ति होती है। ऐसा होना सर्वथा असम्भव है। जीव सृष्टि में अनादि व नित्य, अल्पज्ञ, एकदेशी, अणु परिमाण, जन्म व मरण धर्मा, कर्म के बन्धनों में बंधी व फंसी हुई सत्ता है जिसे सुख व दुःख का अनुभव अपनी जन्म व मृत्यु के बीच की अवस्था में होता है। इसे ही जीवात्मा के कर्मों का फल भोग कहा जाता है। आत्मा, परमात्मा तथा प्रकृति ये तीन पदार्थ अनादि व नित्य हैं। इनकी कभी किसी से उत्पत्ति नहीं हुई है। परमात्मा में सृष्टि की रचना व पालन करने का गुण व स्वभाव विद्यमान है। जीवों में जन्म व मरण तथा बन्धनों से मुक्त होने की प्रवृत्ति होती है। अतः परमात्मा अपने नियम व व्यवस्था के अनुसार प्रत्येक कल्प में जीवों के लिए सृष्टि का निर्माण कर उनका पालन व प्रलय करते हैं। प्रलय की अवधि पूर्ण होने पर रात्रि व दिन के क्रम के अनुसार पुनः सृष्टि व पलय होती रहती है जिसमें अनादि व नित्य सभी जीवों को उनके कर्मानुसार जन्म मिलते रहते हैं।

 

                जीवात्मा के जन्म व मरण की यात्रा मोक्ष प्राप्त करने तक चलती है। मोक्ष ईश्वर को प्राप्त होकर जनम मरण वा आवागमन से छूटने को कहते हैं। मोक्ष में आत्मा को ईश्वर के आनन्द में ही विचरण करना होता है। मोक्ष में जीव को आनन्द का भोग करने के लिए परमात्मा से विशेष शक्तियां प्राप्त होती हैं। आत्मा दुःखों से सर्वथा निवृत्त व आनन्द से युक्त रहता है। दीर्घकाल तक मोक्ष में रहने व मोक्ष की अवधि पूरी होने पर जीवात्मा का पुनः जन्म होता है। यह जन्म जीव के मोक्ष को प्राप्त होने से पूर्व जो भोग करने से बचे हुए कर्म होते हैं, उसके आधार पर होता है। परमात्मा, जीव तथा प्रकृति विषयक विस्तृत ज्ञान ईश्वर से प्रदत्त ज्ञान चार वेदों से यथावत् प्राप्त होता है। हमारे सभी ऋषियों ने वेद ज्ञान की परीक्षा की है और इसे ईश्वरकृत वा अपौरुषेय माना है। वेदों का अध्ययन कर इसमें ज्ञान व विज्ञान विषयक जो सिद्धान्त व मान्यतायें विदित होती है उससे विज्ञ पाठकों को विश्वास होता है कि वेद शब्द रचना, वेद में वर्णित विषयों तथा भावों की अभिव्यक्ति आदि की दृष्टि से मनुष्यों के लिये असम्भव कार्य होने के कारण ईश्वरप्रदत्त ज्ञान ही है। अतः मनुष्य को अपनी सभी शंकाओं का समाधान वेद व वेदों पर आधारित ऋषियों के ग्रन्थों से करना चाहिये।

 

                वेद, दर्शन, उपनिषद, गीता, सत्यार्थप्रकाश एव पुराण आदि ग्रन्थ पुनर्जन्म होने के सिद्धान्त की पुष्टि करते हैं। दर्शन ग्रन्थों में जन्म के कारणों पर विचार कर इसका कारण व प्रयोजन पूर्वजन्म के कर्मों को सिद्ध किया गया है। इस आधार पर पूर्वजन्म और हमारा वर्तमान जन्म पुनर्जन्म सिद्ध होतें हंै। प्रसिद्ध गीता ग्रन्थ में तो निश्चय से कहा गया है कि जिसका जन्म होता है उसकी मृत्यु निश्चित होती है तथा जिसकी मृत्यु होती है उसका जन्म होना भी ध्रुव, अटल व निश्चित है। यदि आत्मा का जन्म नहीं होगा तो आत्मा कहां रहेगा और क्या करेगा? उसने जो शुभ व अशुभ कर्म किये हैं, उसका फल बिना जन्म लिये उसे कैसे प्राप्त होगा? यदि परमात्मा जीवात्मा को जन्म नहीं देंगे तो बिना कर्मों का फल दिये उसे न्यायकारी कैसे माना जा सकता है? इन सब कारणों से जीवात्मा का मनुष्य आदि के रूप में जन्म व पुनर्जन्म का सिद्धान्त युक्ति एवं तर्क संगत होने सहित प्रामाणित भी है।

 

                हमें पुनर्जन्म पर विचार करते हुए यह भी जानना चाहिये कि प्रकृति सत्व, रज व तम गुणों की साम्यावस्था को कहते हैं। इसी से परमात्मा इस सृष्टि की रचना करते हैं। हमारी यह सृष्टि अनेक कणों, परमाणुओं आदि से मिलकर बनती है। इसके विपरीत आत्मा व परमात्मा परमाणुओं के संघटक नहीं हैं। यह दोनों सत्तायें अखण्ड व एकरस हैं। इनमें कण व परमाणु नहीं है। प्रकृति की भांति इसमें विकार नहीं होता। इस कारण इनके स्वरूप, गुण, कर्म व स्वभाव सदा एक समान रहते हैं। अनादि काल से ईश्वर के विद्यमान होने और उसमें सृष्टि बनाने का ज्ञान व सामथ्र्य होने पर भी यह स्वीकार नहीं किया जा सकता कि इस सृष्टि से पूर्व सृष्टि नहीं थी तथा इस सृष्टि से पूर्व जीवों का जन्म नहीं हुआ था व होता था। इस सृष्टि को बने हुए 1.96 अरब वर्ष हो चुके हैं। इसमें जीवात्माओं के मनुष्य आदि अनेक प्राणी योनियों में निरन्तर जन्म व मरण हो रहे हैं। इससे भी पुनर्जन्म का होना सिद्ध होता है। जब नई आत्मा बन ही नहीं सकती तो जो भी प्राणी जन्म लेता है उसे उस प्राणी का पुनर्जन्म स्वीकार करना ही तर्कसंगत सिद्धान्त है। अतः ईश्वर, जीव व प्रकृति के अविनाशी होने से भी आत्मा का निरन्तर जन्म व मरण का सिद्धान्त स्पष्ट व विदित होता है।

 

                मनुष्य की सन्तानें जन्म लेती हैं तो रोती है। रोना भी एक क्रिया है। ऐसा इसलिये होता है कि नये जन्में शिशु में पूर्वजन्म के रोने के संस्कार व ज्ञान होते हैं। इसी कारण अर्थात् पूर्व अनुभवों से वह रोता है। नये शिशु को अपनी माता का स्तनपान करना आता है। यह भी उसके पूर्वजन्म के संस्कार के कारण से ही होता है। एक ही परिवार में जन्में व एक समान परिवेश में पलने वाले बच्चों के ज्ञान के स्तर, आकृति, गुणों व स्वभावों में अन्तर होता है। इसका कारण भी पूर्व जन्म के कर्म तथा परमात्मा की न्याय व्यवस्था ही विदित होती है। मनुष्य को अपने पूर्वजन्म की स्मृति नहीं रहती, इस कारण से बहुत से लोग पुनर्जन्म को स्वीकार नहीं करते। इसका उत्तर यह है कि मनुष्य का भूलने का स्वभाव होता है। हमनें कल दिन में क्या क्या खाया, किन किन से कब कब मिले, कल, परसो व उससे कुछ दिन पूर्व कौन से वस्त्र पहने थे?, किस किस समय पर हमने क्या क्या कार्य किये तथा उससे पूर्व व बचपन की भी अनेक बातों को हम भूल चुके हैं। हम जो बोलते हैं उसे दो मिनट बाद भी यथावत् उसी शब्दक्रम से दोहरा नहीं सकते। हम जिस स्कूल में पढ़े थे उस कक्षा के सभी व अधिकांश बच्चों के नाम भी हमें आज याद नहीं हैं। जब इसी जन्म की अधिकांश बातें हमें याद नहीं हैं तो पूर्वजन्म की स्मृति न होने के कारण पूर्वजन्म का निषेध करना उचित नहीं है। पूर्वजन्म का स्मरण न होना भी जीवात्मा की उन्नति में सहायक है। यदि हमें पता चल जाये कि हम पिछले जन्म में धनवान थे इस जन्म में निर्धन है, पूर्वजन्म में हम पशु थे इस जन्म में मनुष्य बने हैं, तो इस ज्ञान व पूर्वजन्मों के बुरे कर्मों को जानकर हम दुःखी व स्वमेव लज्जित भी हो सकते हैं।

 

                अतः पूर्वजन्म की स्मृति का न होना ईश्वर का एक वरदान है। मनुष्य का पूर्वजन्म था और वर्तमान जन्म भी आत्मा का पुनर्जन्म ही है। इसी प्रकार भविष्य में प्रलय अवस्था व मोक्ष प्राप्ति तक हमारे पुनर्जन्म होते रहेंगे। यह वैदिक सत्य सिद्धान्त है। हमें वैदिक विद्वानों के पुनर्जन्म विषयक प्रमाणों व युक्तियों को देखना चाहिये। ऋषि दयानन्द का दिनाक 17 जुलाई, 1875 को पूना में जन्म व पुनर्जन्म पर दिया व्याख्यान भी पढ़ना चाहिये। इससे हमारी सभी भ्रान्तियां दूर हो जायेंगी। यह सिद्ध है कि पुनर्जन्म सत्य सिद्धान्त है। इसे सबको मानना चाहिये। ओ३म् शम्।

-मनमोहन कुमार आर्य

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