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“वेदों में एक ईश्वर के अनेक व असंख्य सार्थक नामों का विधान”

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17 Jan 19
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“वेदों में एक ईश्वर के अनेक व असंख्य सार्थक नामों का विधान”

संसार में अनेक मत-मतान्तर हैं जो ईश्वर को मानते हैं और उन मतों में ईश्वर के भिन्न-भिन्न अनेक नाम भी हैं। अंग्र्रेजी में देखें तो ईश्वर के दो-तीन नाम ही प्रायः उपलब्ध होते हैं। अंग्रेजी में ईश्वर को गाड या आलमाइटी कहा जाता है। इसी प्रकार इस्लाम मत में ईश्वर को अल्लाह व खुदा नाम से जाना व बताया जाता है। यही नाम सामान्य लोगों में प्रचलित हैं। इसके अतिरिक्त कुछ और नाम भी हो सकते हैं। वैदिक धर्म ऐसा धर्म हैं जहां ईश्वर के प्रायः सभी गुणों के अनुरूप एक-एक नाम है। ईश्वर के अतिरिक्त कुछ मुख्य प्रचलित नामों में सच्चिदानन्दस्वरूप, ओ३म्, अग्नि, विश्व, हिरण्यमगर्भ, वायु, तैजस आदि अनेक नाम हैं। ऋषि दयानन्द जी ने सत्यार्थप्रकाश में ईश्वर के एक सौ से कुछ अधिक नामों का सप्रमाण उल्लेख कर बताया है कि इन नामों का आधार क्या है? हम अग्नि का उदाहरण लेते हैं। ईश्वर का अग्नि नाम इसलिए है कि वह ज्ञानस्वरूप, सर्वज्ञ होने सहित जानने, प्राप्त होने और पूजा करने योग्य है। इससे परमेश्वर का नाम ‘अग्नि’ हुआ है। इसी प्रकार ऋषि दयानन्द ने ईश्वर के अन्य नामों का कारण व उनका आधार भी सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ में वर्णित किया है। सत्यार्थप्रकाश में एक सौ नामों का उल्लेख करने के बाद ऋषि दयानन्द ने लिखा है कि ये सौ नाम परमेश्वर के लिखे हैं परन्तु इन से भिन्न परमात्मा के असंख्य नाम हैं क्योंकि जैसे परमेश्वर के अनन्त गुण, कर्म, स्वभाव हैं, वैसे उस के अनन्त नाम भी हैं। उनमें से प्रत्येक गुण, कर्म और स्वभाव का एक-एक नाम है। इस से सत्यार्थप्रकाश में लिखे ईश्वर के एक सौ नाम ईश्वरों के नामों के समुद्र के सामने बिन्दुवत् हैं। ऋषि दयानन्द ने यह भी लिखा है कि वेदादि शास्त्रों में परमात्मा के असंख्य गुण, कर्म, स्वभाव व्याख्यात किये हैं। उनके पढ़ने पढ़ाने से बोध हो सकता है और अन्य पदार्थों का ज्ञान भी उन्हीं को पूरा-पूरा हो सकता है जो वेदादि-शास्त्रों को पढ़ते हैं। हमारी दृष्टि में वैदिक मत व आर्यसमाज को मानने वाले लोग अन्य मतों के आचार्यों व अनुयायियों की तुलना में सौभाग्यशाली हैं कि उन्हें यह ज्ञान है कि ईश्वर के अनन्त गुण, कर्म व स्वभाव होने से उसके नाम भी अनन्त हैं। अन्य मतों के लोग तो ईश्वर वा सृष्टिकर्ता के दो, चार या दस नामों को जानकर ही सन्तोष कर लेते हैं। वह यह नहीं जान सकते कि ईश्वर में अन्य गुण कौन कौन से है? इस दृष्टि से उन मतों की भाषा भी सीमित ज्ञान कराने वाली है। वेदों व संस्कृत की तरह उन मतों व उनकी भाषाओं में ईश्वर आदि एक नाम के लिये एक सौ से अधिक पर्यायवाची शब्द होने की बात की तो कल्पना भी नहीं की जा सकती। यह ज्ञान महाभारत युद्ध के बाद ऋषि दयानन्द की कृपा से देशवासियों को हुआ है। उन्होंने इसमें अपने पराये का पक्षपात न कर सत्यार्थप्रकाश और वेदभाष्य सब मनुष्यों के लिये किया है। जो चाहे इन ग्रन्थों का अध्ययन कर ईश्वर के अधिकाधिक गुण, कर्म व स्वभाव तथा उनके अनुरूप नामों को जान सकते हैं। हम ईश्वर के विषय में जितना अधिक जानेंगे उतना अधिक हमारी आत्मा उन्नति को प्राप्त होगी। ज्ञान व तदनुरूप कर्म ही मनुष्य व उसकी आत्मा की उन्नति के कारण व आधार हैं।

महाभारतकाल के बाद मध्यकाल आया। मध्यकाल में देश में अविद्यान्धकार फैल गया। लोग ईश्वर व देवताओं के नामों को सुनकर व पढ़कर भ्रमित होने लगे। उन्होंने समझा कि वैदिक साहित्य में जिन 33 देवताओं का उल्लेख मिलता हैं वह व अन्य देवताओं के कल्पित नाम भी ईश्वर व उसके समान पृथक दैविक शक्तियां हैं। भ्रम यहां तक फैला कि 33 करोड़ देवी-देवताओं की कल्पना कर ली गई। यह मान्यता अज्ञानता से युक्त होने के कारण तत्कालीन अशिक्षित व अल्प शिक्षित लोगों का भ्रम ही था। ऋषि दयानन्द जी ने यह भी बताया कि जड़ व चेतन देवता पदार्थों में दिव्य गुणों के निहित होने के कारण कहलाते हैं। वायु, अग्नि, जल आदि जड़ पदार्थ हैं और इनमें जो दिव्य गुण विद्यमान है उस कारण से इन्हें देवता कहा व माना जाता है। यदि शास्त्रों में देवता विषयक प्रसंग भौतिक पदार्थ का हो तो इन्हें ईश्वर व चेतन देव नहीं माना जा सकता। यदि प्रसंग आध्यात्मिक या आत्मा व परमात्मा का हो तो वायु, अग्नि, जल, आकाश आदि देवताओं को एक ही ईश्वर के भिन्न-भिन्न गुणों के कारण उन-उन नामों से भी जाना जाता है। गंगा एक प्राचीन नदी है जिसके जल से देश के सहस्रों, लाखों व करोड़ो लोगों को जल व अन्न आदि प्राप्त होते हैं। नदी के जल से विद्युत का उत्पादन भी होता है और साथ ही गंगा की धाराओं से पनचक्की आदि भी चलाई जा सकती है। नदियों के जल में मछली आदि जीव-जन्तु भी अपना जन्म व जीवन पाते हैं। गंगा व गंगा नदी नाम की ईश्वर से पृथक कोई चेतन दैविक सत्ता नहीं है जबकि अनेक लोग गंगा को पृथक देवता व ईश्वरीय शक्ति के समान मानते हैं। वह गंगा में स्नान आदि करके इससे मन्नते मांगते हैं। यदि गंगा वस्तुतः चेतन होती तो प्रार्थना करना उचित हो सकता था परन्तु गंगा नदी ईश्वर से भिन्न जड़ पदार्थ होने से इससे मांगी गई मन्नते पूरी होना सम्भव नहीं है। इस व ऐसे भ्रमों का निवारण ऋषि दयानन्द ने अपने वेदों के ज्ञान के आधार पर किया है। आश्चर्य यह है कि पढ़े लिखे लोगों में सत्य को जानने की जिज्ञासा नहीं है। जिन लोगों को गंगा की स्तुति व प्रार्थना आदि से आर्थिक लाभ होता है उनसे भी सत्य को जानने व मानने की अपेक्षा नहीं की जा सकती। देश के लोग धर्म विषयक अविद्या से गहनता से ग्रस्त है। उन्हें सत्य व असत्य, चेतन व अचेतन, ईश्वर व जड़ पदार्थ एवं अन्य अनेक विषयों का किंचित ज्ञान नहीं है। यदि होना मान भी लें तो वह किन्हीं उद्देश्यों से इसके विपरीत आचरण करते हुए देखे जाते हैं। इस कारण से सभी मत-मतान्तरों का अविद्या विषयक कार्य चल रहा व उन्नति-समृद्धि को प्राप्त हो रहा है। जो ऐसा करते हैं वह आज करोड़ों की सम्पत्ति के स्वामी है। कुछ गुरु सुगर के रोगियों को खीर व समोसे खाने की सलाह देते हैं वह भी अकूत धन के स्वामी बन गये हैं जब कि उनमें वेद व उपनिषद, दर्शन व मनुस्मृति, ब्राह्मण व आरण्यक ग्रन्थों का स्वाल्प ज्ञान भी नहीं है।

ईश्वर के नामों के सत्य अर्थ को न जानने से ही अनेक देवताओं की कल्पित मूर्तियां बनाकर उनकी पूजा अर्चना देश मे ंआरम्भ होकर प्रचलित है। इसके कुछ ऐतिहासिक कारण भी हैं। यदि मनुष्यों व धार्मिक विद्वानों को जड़ चेतन और ईश्वर व जीव के अस्तित्व का वैदिक सिद्धान्त ज्ञात होता तो हमारे देश में भिन्न-भिन्न मत-मतान्तरों की उत्पत्ति कदापि न होती। आज भी यदि लोग ज्ञान प्राप्ति में रूचि लें और स्वार्थ से ऊपर उठ जायें तो आज भी हम मिथ्या पूजा का संशोधन किया जा सकता है जैसा कि आर्यसमाज ने किया है। यह कार्य धर्म व मतों के आचार्यों के द्वारा ही हो सकता है जो इसे शायद कभी स्वीकार नहीं करेंगे। इसी कारण ऋषि दयानन्द ने 16 नवम्बर, सन् 1869 ईस्वी को मूर्तिपूजा वेद विहित हैं, इस को सिद्ध करने के लिये सनातनी कहलाने वाले व पौराणिक मतों के आचार्यों से काशी के आनन्द बाग में लगभग पचास हजार लोगों की उपस्थिति में शास्त्रार्थ किया था। इस शास्त्रार्थ में मूर्तिपूजा वेद विहित वा वेदानुकूल सिद्ध नहीं की जा सकी थी। आज भी मूर्तिपूजा का वेद, उपनिषद व दर्शनों के आधार पर कोई समुचित प्रमाण उपलब्ध नहीं है। अतः धार्मिक जगत में आचार्यों द्वारा सत्य को स्वीकार न करने के कारण मनुष्यों के लोक व परलोक के सुखों की हानि हो रही है जिसका कोई समाधान नहीं है। अवैदिक मान्यताओं के प्रचलन व व्यवहार से देश व समाज भी कमजोर हो रहा है और अब तो धर्म व संस्कृति के अस्तित्व को ही खतरा उत्पन्न हो गया है। ऐसी स्थिति होने पर भी समाज को कमजोर करने वाले कारणों व साधनों का निवारण नहीं किया जा रहा है।

  एक सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकार, सर्वशक्तिमान, सर्वज्ञ, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, सर्वेश्वर, अजन्मा, अनादि व अनन्त गुणों वाले ईश्वर को जानकर उसकी स्तुति, प्रार्थना, उपासना, ध्यान, वेदाध्ययन, स्वाध्याय, ईश्वर के मुख्य व निज नाम ओ३म् का जप तथा गायत्री जप सहित दैनिक अग्निहोत्र यज्ञ व वृहद यज्ञों को करने से मनुष्य के दुःखों की निवृत्ति होने सहित सुखों की प्राप्ति होती है। धनाभाव दूर होता है, संस्कारित व सदाचारी सन्तानों की प्राप्ति होती है, परिवार के सभी लोग निरोग व बलशाली होने के साथ दीर्घायु होते हैं। समाज में सौमनस्य का वातारण बनता है। धार्मिक मनुष्य निर्बल व सामान्य लोगों का शोषण व उनके प्रति अन्याय व अत्याचार नहीं करते। सभी दान व सेवा की भावना से युक्त होते हैं। यदि सब लोग आर्यमाज के सदस्य बन जायें तो वहां प्रत्येक रविवार को सत्संग होता है। वेदों के विद्वान वहां उपदेश करते हैं। देश व समाज की रक्षा सहित देश व समाज को आगत खतरों से सावधान करने के साथ उसके उपाय सुझाते हैं। देश में जो भ्रष्टाचार आदि की प्रवृत्ति है, उस पर भी वेदों की विचारधारा को अपनाने से रोक लगती है। ऐसे लोगों का सामाजिक बहिष्कार किया जा सकता है। धर्मान्तरण आदि का समाधान भी वेदों व आर्यसमाज के मार्ग पर चलने से होता है। यदि आर्यसमाज के अनुसार सभी हिन्दू मतावलम्बी चलने लगें तो किसी का साहस व बल नहीं कि एक भी वैदिक आर्य हिन्दू का धर्मान्तरण कर सके। हम मत-मतान्तरों व अनेक गुरुओं के कारण आपस में विभाजित हैं जिसका अनुचित लाभ विधर्मी लोग उठा रहे हैं और देश, समाज, वैदिक धर्म व संस्कृति को निरन्तर क्षति पहुंचा रहे हैं, आर्यसमाज के साथ जुड़ने पर यह सब दोष व हानियां दूर हो सकती हैं। अतः सभी मनुष्यों व आचार्यों को ईश्वर व जड़ देवता में भेद करना होगा। जड़ से प्रार्थना करने से कोई लाभ नहीं है। प्रार्थना करनी है वैदिक विधि से सर्वव्यापक, चेतन व आनन्दस्वरूप, सर्वज्ञ व सर्वव्यापक ईश्वर से ही करनी चाहिये जो कि हमारी सभी प्रार्थनाओं को पूरा करने में सक्षम है। सभी मतों के आचार्य इस पर विचार करें यह विनम्र प्रार्थना है।

  ईश्वर एक हैं तथा उसमें असंख्य वा अनन्त गुणों के होने के कारण उसके अनन्त नाम हैं। एक सच्चिदानन्दस्वरूप ईश्वर ही उपासनीय व ध्यान व भक्ति करने योग्य है। जड़ पूजा, अयोग्य गुरुओं की पूजा, व्यक्तिपूजा, मिथ्यापूजा, ऊंच-नीच तथा जन्मना जाति के भेदभाव से हमें कोई लाभ होने वाला नहीं है। हम इससे पाप के भागी बनते हैं। इससे हमारा देश व समाज कमजोर होता है, देश अतीत में लगभग 1200 वर्षों तक पराधीन रहा है व फिर ऐसा हो सकता है। अतः हम अपनी कमजोरियों को दूर करें, ईश्वर के सत्यस्वरूप को जानें व समझे और अपना सुधार करें, यही इस लेख को लिखने का तात्पर्य है। ओ३म् शम्।

संसार में अनेक मत-मतान्तर हैं जो ईश्वर को मानते हैं और उन मतों में ईश्वर के भिन्न-भिन्न अनेक नाम भी हैं। अंग्र्रेजी में देखें तो ईश्वर के दो-तीन नाम ही प्रायः उपलब्ध होते हैं। अंग्रेजी में ईश्वर को गाड या आलमाइटी कहा जाता है। इसी प्रकार इस्लाम मत में ईश्वर को अल्लाह व खुदा नाम से जाना व बताया जाता है। यही नाम सामान्य लोगों में प्रचलित हैं। इसके अतिरिक्त कुछ और नाम भी हो सकते हैं। वैदिक धर्म ऐसा धर्म हैं जहां ईश्वर के प्रायः सभी गुणों के अनुरूप एक-एक नाम है। ईश्वर के अतिरिक्त कुछ मुख्य प्रचलित नामों में सच्चिदानन्दस्वरूप, ओ३म्, अग्नि, विश्व, हिरण्यमगर्भ, वायु, तैजस आदि अनेक नाम हैं। ऋषि दयानन्द जी ने सत्यार्थप्रकाश में ईश्वर के एक सौ से कुछ अधिक नामों का सप्रमाण उल्लेख कर बताया है कि इन नामों का आधार क्या है? हम अग्नि का उदाहरण लेते हैं। ईश्वर का अग्नि नाम इसलिए है कि वह ज्ञानस्वरूप, सर्वज्ञ होने सहित जानने, प्राप्त होने और पूजा करने योग्य है। इससे परमेश्वर का नाम ‘अग्नि’ हुआ है। इसी प्रकार ऋषि दयानन्द ने ईश्वर के अन्य नामों का कारण व उनका आधार भी सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ में वर्णित किया है। सत्यार्थप्रकाश में एक सौ नामों का उल्लेख करने के बाद ऋषि दयानन्द ने लिखा है कि ये सौ नाम परमेश्वर के लिखे हैं परन्तु इन से भिन्न परमात्मा के असंख्य नाम हैं क्योंकि जैसे परमेश्वर के अनन्त गुण, कर्म, स्वभाव हैं, वैसे उस के अनन्त नाम भी हैं। उनमें से प्रत्येक गुण, कर्म और स्वभाव का एक-एक नाम है। इस से सत्यार्थप्रकाश में लिखे ईश्वर के एक सौ नाम ईश्वरों के नामों के समुद्र के सामने बिन्दुवत् हैं। ऋषि दयानन्द ने यह भी लिखा है कि वेदादि शास्त्रों में परमात्मा के असंख्य गुण, कर्म, स्वभाव व्याख्यात किये हैं। उनके पढ़ने पढ़ाने से बोध हो सकता है और अन्य पदार्थों का ज्ञान भी उन्हीं को पूरा-पूरा हो सकता है जो वेदादि-शास्त्रों को पढ़ते हैं। हमारी दृष्टि में वैदिक मत व आर्यसमाज को मानने वाले लोग अन्य मतों के आचार्यों व अनुयायियों की तुलना में सौभाग्यशाली हैं कि उन्हें यह ज्ञान है कि ईश्वर के अनन्त गुण, कर्म व स्वभाव होने से उसके नाम भी अनन्त हैं। अन्य मतों के लोग तो ईश्वर वा सृष्टिकर्ता के दो, चार या दस नामों को जानकर ही सन्तोष कर लेते हैं। वह यह नहीं जान सकते कि ईश्वर में अन्य गुण कौन कौन से है? इस दृष्टि से उन मतों की भाषा भी सीमित ज्ञान कराने वाली है। वेदों व संस्कृत की तरह उन मतों व उनकी भाषाओं में ईश्वर आदि एक नाम के लिये एक सौ से अधिक पर्यायवाची शब्द होने की बात की तो कल्पना भी नहीं की जा सकती। यह ज्ञान महाभारत युद्ध के बाद ऋषि दयानन्द की कृपा से देशवासियों को हुआ है। उन्होंने इसमें अपने पराये का पक्षपात न कर सत्यार्थप्रकाश और वेदभाष्य सब मनुष्यों के लिये किया है। जो चाहे इन ग्रन्थों का अध्ययन कर ईश्वर के अधिकाधिक गुण, कर्म व स्वभाव तथा उनके अनुरूप नामों को जान सकते हैं। हम ईश्वर के विषय में जितना अधिक जानेंगे उतना अधिक हमारी आत्मा उन्नति को प्राप्त होगी। ज्ञान व तदनुरूप कर्म ही मनुष्य व उसकी आत्मा की उन्नति के कारण व आधार हैं।

  महाभारतकाल के बाद मध्यकाल आया। मध्यकाल में देश में अविद्यान्धकार फैल गया। लोग ईश्वर व देवताओं के नामों को सुनकर व पढ़कर भ्रमित होने लगे। उन्होंने समझा कि वैदिक साहित्य में जिन 33 देवताओं का उल्लेख मिलता हैं वह व अन्य देवताओं के कल्पित नाम भी ईश्वर व उसके समान पृथक दैविक शक्तियां हैं। भ्रम यहां तक फैला कि 33 करोड़ देवी-देवताओं की कल्पना कर ली गई। यह मान्यता अज्ञानता से युक्त होने के कारण तत्कालीन अशिक्षित व अल्प शिक्षित लोगों का भ्रम ही था। ऋषि दयानन्द जी ने यह भी बताया कि जड़ व चेतन देवता पदार्थों में दिव्य गुणों के निहित होने के कारण कहलाते हैं। वायु, अग्नि, जल आदि जड़ पदार्थ हैं और इनमें जो दिव्य गुण विद्यमान है उस कारण से इन्हें देवता कहा व माना जाता है। यदि शास्त्रों में देवता विषयक प्रसंग भौतिक पदार्थ का हो तो इन्हें ईश्वर व चेतन देव नहीं माना जा सकता। यदि प्रसंग आध्यात्मिक या आत्मा व परमात्मा का हो तो वायु, अग्नि, जल, आकाश आदि देवताओं को एक ही ईश्वर के भिन्न-भिन्न गुणों के कारण उन-उन नामों से भी जाना जाता है। गंगा एक प्राचीन नदी है जिसके जल से देश के सहस्रों, लाखों व करोड़ो लोगों को जल व अन्न आदि प्राप्त होते हैं। नदी के जल से विद्युत का उत्पादन भी होता है और साथ ही गंगा की धाराओं से पनचक्की आदि भी चलाई जा सकती है। नदियों के जल में मछली आदि जीव-जन्तु भी अपना जन्म व जीवन पाते हैं। गंगा व गंगा नदी नाम की ईश्वर से पृथक कोई चेतन दैविक सत्ता नहीं है जबकि अनेक लोग गंगा को पृथक देवता व ईश्वरीय शक्ति के समान मानते हैं। वह गंगा में स्नान आदि करके इससे मन्नते मांगते हैं। यदि गंगा वस्तुतः चेतन होती तो प्रार्थना करना उचित हो सकता था परन्तु गंगा नदी ईश्वर से भिन्न जड़ पदार्थ होने से इससे मांगी गई मन्नते पूरी होना सम्भव नहीं है। इस व ऐसे भ्रमों का निवारण ऋषि दयानन्द ने अपने वेदों के ज्ञान के आधार पर किया है। आश्चर्य यह है कि पढ़े लिखे लोगों में सत्य को जानने की जिज्ञासा नहीं है। जिन लोगों को गंगा की स्तुति व प्रार्थना आदि से आर्थिक लाभ होता है उनसे भी सत्य को जानने व मानने की अपेक्षा नहीं की जा सकती। देश के लोग धर्म विषयक अविद्या से गहनता से ग्रस्त है। उन्हें सत्य व असत्य, चेतन व अचेतन, ईश्वर व जड़ पदार्थ एवं अन्य अनेक विषयों का किंचित ज्ञान नहीं है। यदि होना मान भी लें तो वह किन्हीं उद्देश्यों से इसके विपरीत आचरण करते हुए देखे जाते हैं। इस कारण से सभी मत-मतान्तरों का अविद्या विषयक कार्य चल रहा व उन्नति-समृद्धि को प्राप्त हो रहा है। जो ऐसा करते हैं वह आज करोड़ों की सम्पत्ति के स्वामी है। कुछ गुरु सुगर के रोगियों को खीर व समोसे खाने की सलाह देते हैं वह भी अकूत धन के स्वामी बन गये हैं जब कि उनमें वेद व उपनिषद, दर्शन व मनुस्मृति, ब्राह्मण व आरण्यक ग्रन्थों का स्वाल्प ज्ञान भी नहीं है।

   ईश्वर के नामों के सत्य अर्थ को न जानने से ही अनेक देवताओं की कल्पित मूर्तियां बनाकर उनकी पूजा अर्चना देश मे ंआरम्भ होकर प्रचलित है। इसके कुछ ऐतिहासिक कारण भी हैं। यदि मनुष्यों व धार्मिक विद्वानों को जड़ चेतन और ईश्वर व जीव के अस्तित्व का वैदिक सिद्धान्त ज्ञात होता तो हमारे देश में भिन्न-भिन्न मत-मतान्तरों की उत्पत्ति कदापि न होती। आज भी यदि लोग ज्ञान प्राप्ति में रूचि लें और स्वार्थ से ऊपर उठ जायें तो आज भी हम मिथ्या पूजा का संशोधन किया जा सकता है जैसा कि आर्यसमाज ने किया है। यह कार्य धर्म व मतों के आचार्यों के द्वारा ही हो सकता है जो इसे शायद कभी स्वीकार नहीं करेंगे। इसी कारण ऋषि दयानन्द ने 16 नवम्बर, सन् 1869 ईस्वी को मूर्तिपूजा वेद विहित हैं, इस को सिद्ध करने के लिये सनातनी कहलाने वाले व पौराणिक मतों के आचार्यों से काशी के आनन्द बाग में लगभग पचास हजार लोगों की उपस्थिति में शास्त्रार्थ किया था। इस शास्त्रार्थ में मूर्तिपूजा वेद विहित वा वेदानुकूल सिद्ध नहीं की जा सकी थी। आज भी मूर्तिपूजा का वेद, उपनिषद व दर्शनों के आधार पर कोई समुचित प्रमाण उपलब्ध नहीं है। अतः धार्मिक जगत में आचार्यों द्वारा सत्य को स्वीकार न करने के कारण मनुष्यों के लोक व परलोक के सुखों की हानि हो रही है जिसका कोई समाधान नहीं है। अवैदिक मान्यताओं के प्रचलन व व्यवहार से देश व समाज भी कमजोर हो रहा है और अब तो धर्म व संस्कृति के अस्तित्व को ही खतरा उत्पन्न हो गया है। ऐसी स्थिति होने पर भी समाज को कमजोर करने वाले कारणों व साधनों का निवारण नहीं किया जा रहा है।

एक सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकार, सर्वशक्तिमान, सर्वज्ञ, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, सर्वेश्वर, अजन्मा, अनादि व अनन्त गुणों वाले ईश्वर को जानकर उसकी स्तुति, प्रार्थना, उपासना, ध्यान, वेदाध्ययन, स्वाध्याय, ईश्वर के मुख्य व निज नाम ओ३म् का जप तथा गायत्री जप सहित दैनिक अग्निहोत्र यज्ञ व वृहद यज्ञों को करने से मनुष्य के दुःखों की निवृत्ति होने सहित सुखों की प्राप्ति होती है। धनाभाव दूर होता है, संस्कारित व सदाचारी सन्तानों की प्राप्ति होती है, परिवार के सभी लोग निरोग व बलशाली होने के साथ दीर्घायु होते हैं। समाज में सौमनस्य का वातारण बनता है। धार्मिक मनुष्य निर्बल व सामान्य लोगों का शोषण व उनके प्रति अन्याय व अत्याचार नहीं करते। सभी दान व सेवा की भावना से युक्त होते हैं। यदि सब लोग आर्यमाज के सदस्य बन जायें तो वहां प्रत्येक रविवार को सत्संग होता है। वेदों के विद्वान वहां उपदेश करते हैं। देश व समाज की रक्षा सहित देश व समाज को आगत खतरों से सावधान करने के साथ उसके उपाय सुझाते हैं। देश में जो भ्रष्टाचार आदि की प्रवृत्ति है, उस पर भी वेदों की विचारधारा को अपनाने से रोक लगती है। ऐसे लोगों का सामाजिक बहिष्कार किया जा सकता है। धर्मान्तरण आदि का समाधान भी वेदों व आर्यसमाज के मार्ग पर चलने से होता है। यदि आर्यसमाज के अनुसार सभी हिन्दू मतावलम्बी चलने लगें तो किसी का साहस व बल नहीं कि एक भी वैदिक आर्य हिन्दू का धर्मान्तरण कर सके। हम मत-मतान्तरों व अनेक गुरुओं के कारण आपस में विभाजित हैं जिसका अनुचित लाभ विधर्मी लोग उठा रहे हैं और देश, समाज, वैदिक धर्म व संस्कृति को निरन्तर क्षति पहुंचा रहे हैं, आर्यसमाज के साथ जुड़ने पर यह सब दोष व हानियां दूर हो सकती हैं। अतः सभी मनुष्यों व आचार्यों को ईश्वर व जड़ देवता में भेद करना होगा। जड़ से प्रार्थना करने से कोई लाभ नहीं है। प्रार्थना करनी है वैदिक विधि से सर्वव्यापक, चेतन व आनन्दस्वरूप, सर्वज्ञ व सर्वव्यापक ईश्वर से ही करनी चाहिये जो कि हमारी सभी प्रार्थनाओं को पूरा करने में सक्षम है। सभी मतों के आचार्य इस पर विचार करें यह विनम्र प्रार्थना है।

ईश्वर एक हैं तथा उसमें असंख्य वा अनन्त गुणों के होने के कारण उसके अनन्त नाम हैं। एक सच्चिदानन्दस्वरूप ईश्वर ही उपासनीय व ध्यान व भक्ति करने योग्य है। जड़ पूजा, अयोग्य गुरुओं की पूजा, व्यक्तिपूजा, मिथ्यापूजा, ऊंच-नीच तथा जन्मना जाति के भेदभाव से हमें कोई लाभ होने वाला नहीं है। हम इससे पाप के भागी बनते हैं। इससे हमारा देश व समाज कमजोर होता है, देश अतीत में लगभग 1200 वर्षों तक पराधीन रहा है व फिर ऐसा हो सकता है। अतः हम अपनी कमजोरियों को दूर करें, ईश्वर के सत्यस्वरूप को जानें व समझे और अपना सुधार करें, यही इस लेख को लिखने का तात्पर्य है। ओ३म् शम्।


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