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धर्म विध्वंस नहीं सृनज सिखाता है: आर्यिका सुधर्ममति जी

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13 Oct 18
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धर्म विध्वंस नहीं सृनज सिखाता है: आर्यिका सुधर्ममति जी उदयपुर । हुमड़ भवन में आयोजित धर्मसभा में आर्यिका सुधर्ममति माताजी ने विधान के पश्चात आयोजित धर्म सभा में कहा कि धर्म का मूल अहिंसा है और उसका अन्तिम Èल मोक्ष है। धर्म विध्वंस नहीं, सृजन एवं निर्वाह के लिए कल सिखाता है। जगत के लोग विज्ञान को पूजते हैं किन्तुजैन शासन वितरता विज्ञान को मानता है। धर्म पाला नहीं जाता बल्कि धर्म हमारा पालन करता है। महावीर स्वामी का एक ही सन्देश है जीयो और जीनेदो। धर्म हवा- पानी, सूर्य, आकाश की भांति है जिस पर प्रत्येक जीव का अध्ािकार है। राजा हो या रंक प्रत्येक व्यक्ति धर्म का चौकीदार होता है। धर्म भेष में नहीं स्वभाव में होता है। भेष बदलने से धर्म नहीं होता है। अपने स्वरूप और स्वभाव को पालने से धर्म होता है। इंसान और पशु में यही तो अन्तर है। इन्सान धर्म को स्वीकार करने से इन्सान कहलाता है और जो धर्म से रहित है वह पशु है। धर्म क्रिया काण्ड में नहीं है धर्म तो शांति और सरलता मे ंहै। धम्र की खोज मन्दिरों और शास्त्रों में नहीं बल्कि अपनी आत्मा में करें क्योंकि धर्म बाहर नहीं अपने अन्दर बसता है।
मंजू गदावत ने बतायाकि प्रात: पूजा, अभिषेक, शांति धारा एवं विधान पूजन हुआ। सुमतिलाल दुदावत ने बताया कि प्रात: 108 सौधर्म इन्द्रों के द्वारा चमत्कारिक सहस्रनाम विधान हुआ। शाम को आचार्यश्री की मंगल आरती के बाद रात्रि 8 बजे से भव्य गरबा हुआ जैन जागृति महिला मंच की मंजू गदावत, लीला कुरडिय़ा, विद्या जावरिया की देखरेख में जैन समाज के श्रावक- श्राविकाओं ने उत्साह एवं उमंग के साथ भाग लिया।

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