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‘सभी देशवासियों के सम्मानीय महात्मा ज्योतिबा फूले’

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27 Apr 17
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-मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।महात्मा ज्योतिबा फुले (1827-1890) भारत के उन चुनें हुए महात्माओं व महापुरुषों में से हैं जिन्होंने दलित स्त्रियों की शिक्षा सहित समाज सुधार का प्रभावी कार्य किया जब कि देश के विभिन्न मत-मतान्तरों के विद्वानों को भी अपने कर्तव्य का बोध नहीं था। उन्होंने दलित कन्याओं के लिए भारत में सन् 1851 में सब पहले पाठशाला खोली थी जिसकी बाद में तीन शाखायें हो गई थीं। उनका एक अप्रतिम कार्य 24 सितम्बर, सन् 1872 को ‘‘सत्य शोधक समाज” की स्थापना था। आपने अनेक ग्रन्थों का प्रणयन भी किया है जिसका वर्णन हम आगे करेंगे। अंग्रेजों की सरकार द्वारा स्थापित स्कूलों में उनकी शिक्षा-दीक्षा हुई थी। हमें लगता है कि इसी कारण वह अंग्रेजी की पुस्तकों के सम्पर्क में आये थे और उन्होंने देश विदेश में मनुष्य समाज व वहां की नारियों की स्वतन्त्रता व उनके अधिकारों के बारे में भी पढ़ा होगा जो उनके जीवन के प्रमुख कार्यो, पाठशाला की स्थापना व संचालन, सत्य शोधक समाज की स्थापना व ग्रन्थ लेखन, का आधार बना। इन नूतन कार्यों को सबसे पहले करके वह भारत के महापुरुषों में अग्रणीय स्थान पर विराजमान है। महात्मा ज्योतिबा फूले जी को संस्कृत अध्ययन करने का अवसर नहीं मिला। यदि उन्होंने संस्कृत अध्ययन सहित वेद व वैदिक साहित्य का यथार्थ ज्ञान प्राप्त किया होता जैसा कि ऋषि दयानन्द व उनके अनुयायियों ने किया, तो इससे देश का कहीं अधिक उपकार हो सकता था। उन्होंने जो भी व जितना कुछ किया वह स्तुत्य, प्रशंसनीय एवं सराहनीय है। अप्रैल महीने में उनका जन्म होने से उनकी स्मृति में यह लेख लिख रहे हैं। हम समझते हैं कि महात्मा ज्योतिबा फूले जी ने दलित स्त्रियों की शिक्षा और सत्य शोधक समाज की स्थापना जिन उद्देश्यों से की थी, वह उद्देश्य आज भी अधूरे हैं। समाज व देश को उन पर ध्यान देना चाहिये। उनका स्वप्न तो तभी साकार हुआ कहा जा सकता है कि जब सभी दलित स्त्रियां सुशिक्षित हो जायें और समाज में असत्य व अविद्या पूर्णतः तिरोहित हो जायें। यह उद्देश्य व स्वप्न कभी पूरा होगा भी या नहीं, कहा नहीं जा सकता। यह असम्भव नहीं तो महाकठिन अवश्य है। यह भी बता दें कि आर्यसमाज के संस्थापक ऋषि दयानन्द सरस्वती (1825-1883) व उनके अनुयायियों ने भी सभी नारियों की शिक्षा एवं देश व विश्व में सत्य की स्थापना व असत्य के पराभव के लिए महान कार्य किये। उनका लिखा सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ इन दोनों विषयों की पूर्ति को अपने अन्दर समेटे हुए इनका रोडमैप भी कहा जा सकता है।
महात्मा ज्योतिराव गोविन्दराव फुले एक क्रान्तिकारी कार्यकर्ता, चिन्तक, दार्शनिक, समाज सुधारक एवं लेखक थे। उनका जन्म 11 अप्रैल, 1827 को महाराष्ट्र के सतारा जिले के एक माली परिवार में हुआ था। परिवार मालायें बेचने और बागवानी का काम करता था इसलिये इन्हें उपनाम ‘फुले’ के नाम से भी पुकारा जाता है। मात्र 9 वर्ष की छोटी आयु में आपकी माता चिमना बाई जी का देहान्त हो गया था। आपसे बड़ा आपका एक भाई भी था। पिता गोविन्दराव फुले व्यापारी थे और अपने व्यवसाय के कामों के कारण प्रायः बाहर रहा करते थे। आपकी प्राइमरी की शिक्षा गांव में ही हुई। इसके बाद देश में जन्मना जातिवाद की रूढ़ियों के कारण आपको अध्ययन में बाधा उत्पन्न हो गई। ईसाई मत के फादर लिजिट को जब इसका ज्ञान हुआ तो उन्होंने इनके पिता से कहकर उनकी भावी शिक्षा वा अध्ययन का प्रबन्ध करा दिया। आप अपनी कक्षा में प्रायः प्रथम आते थे। जब आपकी आयु मात्र तेरह वर्ष थी, उन्हीं दिनों सावित्री देवी जी (1840-1890) से आपका विवाह हुआ जो उन दिनों मात्र 9 वर्ष की थीं। यह बाल विवाह था जिसके विरुद्ध महर्षि दयानन्द ने सन् 1863 के बाद अपनी आवाज बुलन्द की थी और सत्यार्थप्रकाश आदि ग्रन्थों में भी इसके हानिकारक परिणामों की चर्चा की है। सन् 1847 में फूले जी की शिक्षा पूर्ण हुई। तभी आपने संकल्प किया कि आप वंचित वर्ग की कन्याओं की शिक्षा का प्रबन्ध करेंगे। इस काम को अंजाम देने के लिए आपने दलित कन्याओं को अपने घर पर ही पढ़ाना आरम्भ कर दिया। सन् 1851 में आपने पहला बालिका स्कूल खोला। आपने अपनी अशिक्षित पत्नी माता सावित्री देवी जी को भी स्वयं पढ़ाया। उसके बाद आपने उन्हें मिशनरीज स्कूल में अध्यापिका का प्रशिक्षण दिलाया। हमारा अनुमान है कि आप देश की प्रथम प्रशिक्षित अध्यापिका बनीं। आपका सबसे बड़ा योगदान शिक्षा के क्षेत्र में दलित कन्याओं के अध्ययन हेतु पाठशाला खोलना था जिसकी उन्नति होते होते इनकी संख्या तीन पाठशालाओं तक पहुंच गई थी। आपके जीवन में यह भी जानकारी मिलती है कि आपके विरोधियों ने आपकी हत्या का प्रयास कराया था परन्तु हत्यारे आपसे प्रभावित होकर आपके शिष्य बन गये थे।

समाज सुधार के क्षेत्र में भी आपका महत्वपूर्ण योगदान है। आपने विधवा विवाह की वकालत की थी और धार्मिक अन्धविश्वासों का विरोध किया था। महात्मा ज्योतिबा फूले ने 24 सितम्बर, 1872 को ‘सत्य शोधक समाज’ की स्थापना की थी। हमें यह नाम बहुत प्रभावित करता है। ऐसा प्रतीत होता है कि महात्मा फूले इसके द्वारा समाज का शोधन कर देश को सत्य मान्यताओं और सिद्धान्तों पर आरूढ़ करना चाहते थे। इस समाज को स्थापित करने का महात्मा जी का मूल उद्देश्य दलितों पर अत्याचारों का उन्मूलन करना था। आपने विधवाओं व महिलाओं का शोषण दूर कर समानता का अधिकार उन्हें दिलाया। आपने किसानों व श्रमिकों की हालात सुधारने के अनेक प्रयास किये। आप अपने समस्त कार्यों से महाराष्ट्र में प्रसिद्ध हो गये और समाज सुधारकों में आपकी गणना की जाने लगी। आपने अनेक पुस्तकों का प्रणयन किया। आपकी कुछ पुस्तकें हैं- तृतीय रत्न, छत्रपति शिवाजी, ब्राह्मणों का चातुर्य, किसान का कोड़ा, अछूतों की कैफीयत, गुलाम-गिरी, संसार, सार्वजनिक सत्यधर्म आदि। आप निःसन्तान रहे। आपने एक विधवा के बच्चे यशवन्त को गोद लिया था। यह बालक बाद में डाक्टर बना। इसने महात्मा फूले के कार्यों को विस्तार दिया। जुलाई, 1888 में महात्मा फुले जी को पक्षाघात हो गया था। आपने 18 नवम्बर, 1890 को अपने कुछ मित्रों को वार्तालाप के लिये बुलाया था। उनसे वार्तालाप किया। दाके कुछ देर बाद आपकी मृत्यु हो गई थी।

यह भी बता दें वेदों के अद्वितीय विद्वान और समाज सुधारक महर्षि दयानन्द सरस्वती जुलाई, 1875 में पूना गये थे और वहां आपने 15 व्याख्यान दिये थे जो आज भी लेखबद्ध होकर सुरक्षित हैं। महात्मा ज्योतिबा फूले महर्षि दयानन्द के व्याख्यान सुनने आते थे। दोनों परस्पर प्रेमभाव व मित्रता के संबंधो में बन्ध गये थे। पूना में महर्षि दयानन्द को उनके शिष्य व समाज सुधारक महादेव गोविन्द रानाडे ने आमंत्रित किया था। ऋषि दयानन्द का वहां सार्वजनिक अभिनन्दन भी किया गया था। इस हेतु पूना नगर में एक शोभा यात्रा निकाली गई थी। ऋषि दयानन्द, महादेव गोविन्द रानाडे, महात्मा फुले आदि महापुरुष शोभायात्रा में अग्रिम पंक्ति में चल रहे थे। महात्मा फुले इस शोभा यात्रा में अपने दल बल सहित सम्मिलित हुए थे। महात्मा फुले ने ऋषि दयानन्द को अपनी शूद्रातिशूद कन्याओं की पाठशाला में व्याख्यान के लिए आमन्त्रित भी किया था। ऋषि दयानन्द आमंत्रण पाकर एक दिन बालिकाओं के स्कूल पहुंचे और वहां उन्हें धर्मोपदेश दिया। हमारा अनुमान है कि ऋषि दयानन्द ने अपने उपदेश में जन्मना जाति का खण्डन किया होगा। स्त्रियों सहित सभी मनुष्यों को शिक्षा का, विद्या सहित वेद पढ़ने का अधिकार है, इसकी चर्चा भी की होगी। इतिहास की कुछ प्रसिद्ध देवियों के पवित्र चरित्रों से बालिकाओं को परिचित कराया होगा और वेद की ऋषिकाओं की चर्चा भी की होगी। उन्होंने सभी बलिकाओं को अध्ययन जारी रखते हुए विद्या प्राप्त कर देश व समाज से अविद्या दूर करने का आह्वान् भी किया हो सकता है। ऐसी अनेकानेक बातें ऋषि दयानन्द ने कही हो सकती हैं। ऋषि दयानन्द का व्यक्तित्व महान व आकर्षक था। उनकी वर्णन शैली भी अद्भुद प्रभावशाली थी। सन् 1875 में ऋषि दयानन्द अच्छी हिन्दी बोल लेते थे। यह उपदेश हिन्दी में ही हुआ होगा जिसे सभी बालिकाओं, माता सावित्री देवी सहित सभी अध्यापिकाओं और सत्य शोधक समाज व स्कूल के सभी अधिकारियों ने ध्यान से सुना होगा। ऋषि दयानन्द और ज्योतिबा फूले जी का यह मिलन हमें ऐतिहासिक महत्व का लगता है। ऋषि दयानन्द का ज्योतिबा फूले जी की शूद्रातिशूद्रों की पाठशाला में उपदेश देने का कार्य हमें इतिहास में स्वर्णाक्षरों में लिखे जाने योग्य प्रतीत होता है। किसी ब्राह्मण कुल में उत्पन्न किसी व्यक्ति से यह उम्मीद उन दिनों नहीं की जा सकती थी। ऋषि दयानन्द जी का जीवन अति व्यस्त जीवन था। स्थान स्थान पर जाना, वहां प्रवचन व उपदेश सहित लोगों का शंका समाधान, वार्तालाप व शास्त्रार्थ करना तथा वेद भाष्य सहित अनेक ग्रन्थों का निर्माण आदि अनेक कार्य वह उन दिनों करते थे। यदि उनके पास अधिक समय होता तो यह दोनों महापुरुष दलित समाज के लिए मिलकर और अधिक कार्य कर सकते थे। जितना कार्य हुआ वह प्रशंसनीय है। हम दोनों महापुरुाषों को नमन करते हैं।

आज ज्योतिबा फूले भौतिक रूप में संसार में नहीं है। उन्होंने जो कार्य किया उसके कारण वह अमर हैं। समाज के लिए उनके द्वारा किया गया योगदान हमेशा स्मरण किया जायेगा। आज दलित समाज सहित सभी देशवासियों पर उनके स्वप्नों को पूरा करने का दायित्व है। उनके नाम पर केवल राजनीति करना और उनके कार्यों को आगे न बढ़ाना उचित नहीं होगा। उनके अनुयायियों को उनके कार्यों को तन, मन व धन से पूरा करने का संकल्प लेना चाहिये। इति ओ३म् शम्।

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