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कथामृतपान के लिए उमड़ा जनसैलाब

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10 Dec 17
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कोटा(डॉ प्रभात कुमार सिंघल)श्रीमद् भागवत ज्ञान यज्ञ महोत्सव एवं गौरक्षा सम्मेलन में शनिवार को सनातनधर्मियों का सैलाब 50 हजार का आंकड़ा पार गया, जिसे देखकर सरस्वती पुत्र गौसेवक संत श्री कमलकिशोर जी नागर की आंखें छलक उठीं। पांडाल का विहंगम दृश्य देखकर संतश्री ने तत्क्षण मुख्य यजमान भाया से कहा कि तू धन्य है, जिसके मनोरथ से कथा का आयोजन हो सका। यह सब ईश्वर का कृपा आर्शीवाद है। वह जिसके हाथों से भोग चाहता है, असल में माध्यम वही बनता है। तुम परमात्मा की कृपा से ही कथा के माध्यम बने हो। आगे की कथा के लिए भी मैं तुम्हें ही नियुक्त करता हूॅ। इस पांडाल में उपस्थित सनातनधर्मियों के मनोभाव में कथामृत का रसायन कायम रखने के लिए तुम चाहो, तो अगली कथा यहा कराओ या फिर आश्रम पर प्रस्तावित कथा में इन धमप्रेमियों को लेकर आओ।
गुरूवर ने आज फिर गाय, कन्या एवं पौथी से प्रसंग प्रारंभ करते हुए दोहराया कि प्रमोद भाया दम्पत्ति की तरह सभी सम्पन्न व्यक्तियों को गाय, कन्या एवं पौथी यानि कथा की ओर ध्यान लगाना चाहिये। यदि आपका मन, आसन साधना, उपासना माला एवं दीपक नहीं बढ़ता है, तो समझो आपका ईष्ट कमजोर हो रहा है, जैसे दीपक को जलाये रखकर हम उसे बढ़ते हुए देखना चाहते है। ठीक उसी प्रकार ईष्ट को प्रबल करने के लिए परमात्मा के साथ गोपी-भाव में जुड़ जाने की आवश्यकता है। यह गोपी-भाव भक्ति से उत्पन्न होता है। भक्ति को पाने के लिए श्रद्धा को बढ़ाना होता है और श्रद्धा का जन्म तब होगा, जब संदेह खत्म होगा। तुम अगर कथामृतपान के लिए इस पांडाल में बैठकर भी व्यासपीठ से नहीं जुड पा रहे हो, तो समझो की अभी तुम्हारे मनोभाव में ‘संदेह’ बना हुआ है। जब तक संदेह बना रहेगा, तब तक तुम कथा का रसास्वादन नहीं कर सकते।
संतश्री ने कहा कि शब्द का आदर करना सीखो। शब्द को समझो और शब्द की गहराई को नापो। शब्द ब्रम्ह्र अर्थात ईश्वर है। इसका मिथ्या भाषण, कथन, लेखन आदि से अनादर मत करो। उन्होंने आगे कहा कि हम कहते हंै, कि पुत्र अच्छा नही है। इसका मतलब यह है, कि आपका पुण्य अच्छा नही था। यदि पुण्य अच्छा होता, तो आपका पुत्र अच्छा होता। गुरूजी ने ‘आप’ और ‘तू’ की बड़ी सटीक व्याख्या की, जिसे कहते हुए उनका अन्तःकरण भावविभोर हो उठा। उनकी आंखांे से अश्रुधारा बह निकली। पांडाल में उपस्थित धर्मप्रेमियों की आंखे भी छलक गयीं। उन्होंने कहा कि ‘आप’ शब्द के संबोधन में ह्रदय का भाव वैसा नहीं जुडता, जैसा ‘तू’ शब्द के साथ संबोधन में जुड जाता है, लेकिन विडंबना देखिये, कि हम ‘आप’ शब्द के साथ संबोधन पाकर स्वयं को धन्य समझने लगते हंै, जबकि उसमें काफी कुछ छूट गया होता है। ‘तू’ के संबोधन को दो ही सुनते है। एक तो हमारी ‘मां’ दूसरा ‘परमात्मा’।
संतश्री ने कहा कि हमें भक्ति को बढ़ाने की आवश्यकता है, ताकि देह में गोपी-भाव उत्पन्न हो सके। गोपी-भाव उत्पन्न हो जाने पर ही हमारा दीपक अग्नि में परिवर्तित हो सकेगा। इस अवस्था में विरह उत्पन्न होगा, जो ईश्वर के प्रति हमारे अन्तःकरण में निश्चल प्रेम को बढ़ाता है। उन्होंने कहा कि ईश्वर अच्छा धन व अच्छा तन होन पर ही भोग स्वीकार करता है, नहीं तो हमने असंख्य-असंख्य सम्पन्न व्यक्तियों को मंदिर की पेढ़ी से लौटते हुए देखा है। गुरूजी ने आगे कहा कि कथामृत का पान करते हुए मनोभाव में उत्पन्न हो रहे दोषों को जला देने का प्रयास करो, जिस प्रकार एक समय अवस्था में स्त्री की देह से मासिक धर्म चला जाता है। उसी प्रकार हमारे मनोभाव से दोषों को मासिक धर्म की तरह निकल चले जाना चाहिये, तभी हम भक्ति एवं श्रद्धा की ओर बढ़ सकेंगे।
गुरूवर ने कहा कि जैनियों में जो-जो अब तक तीर्थंकर बने है, वे दरिद्र कभी नहीं थे। जन्म के साथ उनके जीवन के प्रारंभ में सभी प्रकार का सुख-वैभव था, लेकिन उन्होंने महलों में बैठ जाने एवं वैभवपूर्ण जीवन बिताने के बजाय दिगम्बर साधु बनकर जीवन बिताने का संकल्प किया, जिसके परिणाम में ये सब तीर्थंकर बन गये। इसलिए गोपी-भाव में देह को रखो और रहने दो, तभी हम ईश्वर के नजदीक पहुंच सकेंगे। उन्होंने यह भी बताया कि देह और दुख हमेशा एक साथ चलते, लेकिन यदि पुरूषार्थ अच्छा है और उसका गोपी-भाव में साथ मिल जाये, तो ईश्वर को पा लेना आसान बन जाता है।


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