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कौन हूं मैं?

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23 Oct 17
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कौन हूं मैं? बहुत दिनों से एक ही बात सोच रही हूं , कौन हूं मैं? हो सकता है आपको मेरा सवाल अजीब लग रहा हो। आज तक मैं भी यह समझ नहीं पाई हूं कि आखिर मेरा वजूद क्या है? ऐसे समाज में जहां आज भी औरतें बस घर बसाने के लिए पढ़ती हों वहां मन में ऐसे सवाल ना उठें तो और क्या हो।
अब आप कहेंगे कि नारी मुक्ति की बातें बस किताबों में होती हैं‌। औरतों का असली काम बस घर संभालना है‌। औरतें चाहे कितना भी पढ़ लें , काम उनका घर बसाना ही है।
ऐसी सोच शायद मेरी भी थी तब तक जब तक मैंने बहुत गहराई से इस बारे में सोचा नहीं था‌।
क्या किसी भी लड़की को हम इसलिए पढ़ाते हैं कि वो बस परिवार संभालेगी? खुद लड़कियों को भी यह भरोसा नहीं होता कि वो अकेले कुछ भी कर सकती हैं।
अगर कोई लड़का छेड़े तो लड़की का घर से निकलना बंद हो जाता है।
बलात्कार करने वाला कभी ग़लत नहीं होता, दोष तो सिर्फ लड़की का है जो आधी रात को घर से निकली ही क्यों?
हमारे समाज में लड़की का वजूद ही एक प्रश्न चिन्ह है। मुझे तो लगता है बहुत सी लड़कियां गलती से ही जन्म लेती हैं। यदि उनके माता पिता को पता हो कि वो लड़की है तो उनको जन्म देने से ही इनकार कर दें।
अब आप कहेंगे कि मैं गलत कह रही हूं।
क्या फर्क पड़ता है मैं सही भी हूं या गलत भी हूं। फर्क सिर्फ इतना है कि लड़कियों को बोझ समझ कर ही पैदा कर पाला पोसा जाता है जैसे वो सिर्फ और सिर्फ दूसरों के परिवार को आगे बढ़ाने में सहयोग करने के लिए ही पैदा हुई हों।
ऐसे वातावरण में लड़कियों को पाला-पोसा जाता है कि उनकी सोच ही सीमित हो जाती है। उन्हें बस साड़ी ज़ेवर पहन कर शादी करना और उसके बाद घर गृहस्थी बसाकर अपने पति के साथ स्कूटर पर थैले टांगकर सब्जी लेने जाना ही अच्छा लगता है।
मैंने शायद ही कुछ लड़कियां ऐसी देखी हैं जिन्हें बचपन से ही जुनून होता है कि वे कुछ करें , आगे बढ़े और अपने माता पिता की सेवा करें जैसे कि अमूमन भारतीय परिवारों में लड़के किया करते हैं।
काश यह सोच कभी बदल जाती।
मैंने भी बहुत मुश्किल से अपनी यह सोच बदली है और आज मैं जहां भी हूं जो भी कर रही हूं मुझे कम से कम यह ज़रुर लगता है कि मैं इतनी काबिल तो हूं कि अपने परिवार को खुद चला सकती हूं। एक ऐसा समाज जहां औरतें ही औरतों को नीचा दिखाती हैं और अक्सर यह कहते हुए मिल जाती हैं कि आदमी कैसा भी हो, चाहे वह शराबी हो या गलत भी कर रहा हो तो भी वह दरवाजे पर बैठा हुआ हो तो लोगों की हिम्मत नहीं पड़ती कि वे लोग आपको कुछ कह सकें।
मुझे ऐसे सोच पर ही हंसी आती है। पहले बहुत गुस्सा आता था पर अब हंसी आती है।
अकेली औरत को अगर कोई आदमी छेड़ता है तो यह हिम्मत किसी में नहीं होती कि वह उस आदमी को समझाएं कि तुम औरतों को क्यों छेड़ रहे हो बल्कि वह औरत को ही समझाते नजर आते हैं कि तुम अकेली हो इसलिए तुम्हें छेड़ा जा रहा है ।
यह सोच बहुत ही पिछड़ी हुई मानसिकता को दर्शाती है। ऐसा कोई भी काम नहीं है जो औरतें ना कर सकती हों। सुनीता विलियम्स स्पेस में जाकर पूरी दुनिया का नाम रोशन कर रही है पर ऐसी कितनी औरतें हैं जो ऐसा करना चाहते हुए भी नहीं कर पातीं क्योंकि उनके परिवारों की सोच उन्हें घर गृहस्थी और चूल्हे - चौके से आगे बढ़ने ही नहीं देती। आश्चर्य तब होता है जब ऐसे कई आदमी जिनकी पत्नियां झाड़ू पोछा और बर्तन ही करती रह जाती हैं, की सोच अपनी बेटियों को चांद तक पहुंचाने की होती है। क्या उनकी बीवियां उनके लिए कोई मायने नहीं रखतीं? क्या उनके पैदा किए हुए बच्चे आज के जमाने के हैं इसलिए वो कुछ भी कर सकते हैं और उनकी पत्नियों को यह अधिकार नहीं है कि वे आगे बढ़ कर कुछ कर सकें।
मैंने ऐसे बहुत से घर देखे हैं जहां आज भी बीवियां कमाने जाती है और कंधे से कंधा मिलाकर घर गृहस्थी में सहयोग कर रही हैं पर उनके पति आज भी घर आकर एक गिलास पानी तक नहीं उठाते हैं। ऐसी सोच हमारे समाज को किस दिशा में ले जा रही है।
मैं यहां उन पुरूषों की बात नहीं कर रही हूं जो खुद घरेलू हिंसा के शिकार हैं। मैं उन महिलाओं की बात कर रही हूं जो वाकई दबी कुचली है और जिन्हें आगे कुछ भी करने का मौका सिर्फ इसलिए नहीं मिलता क्योंकि वे औरतें हैं।
जिस समाज में औरत एक फ्रिज या मोबाइल तक अपनी मर्जी से ना खरीद सकें और कमाते हुए भी उसे इन बातों के लिए पुरुषों से परमिशन लेनी पड़े तो उस समाज की सोच कैसी होगी यह आसानी से पता लगाया जा सकता है।
मेरा सवाल अब भी यही है मैं कौन हूं? हर वक्त मुझ पर उंगली क्यों उठाई जाती है? क्या मैं खुद को संभाल लेने के काबिल नहीं हूं ? क्या घर गृहस्थी चलाना सिर्फ पुरुषों को आता है और औरतों का काम बस बर्तन मांजना है? अगर मैं नौकरी करके अपने परिवार का पालन पोषण कर सकती हूं तो यकीनन मैं अपने सारे निर्णय खुद ले सकती हूं और मुझ में वो क्षमता है कि मैं अपने परिवार को सही दिशा में ले जा सकूं। किसी पुरुष का मेरी जिंदगी में होना ना होना मायने नहीं रखता अगर मेरी सोच बड़ी है और मैं काबिल हूं।
यह सिर्फ एक डर है जो औरतों को आगे बढ़ने से रोकता है और घरेलू हिंसा का शिकार बनाता आ रहा है।औरतों को हमेशा से ही अपनी सुरक्षा का डर लगता है। उन्हें लगता है कि वो कुछ भी करने के काबिल नहीं है यदि उन्होंने ऐसे पुरुष को छोड़ दिया तो उनका घर कौन चलाएगा? मैंने कई ऐसी भी औरतें देखी हैं जो पैसे ना कमाने की वजह से हर तरह का अपमान बर्दाश्त करती हैं उनको अपनी क्षमता पर कभी भरोसा ही नहीं होता कि वो नरक की जिंदगी से आगे निकल कर भी कुछ कर सकती हैं। इसमें जहां आधा कसूर पुरुषों की मानसिकता का है वहीं पूरा कसूर औरतों का है जो अपने बच्चों को इसी संस्कारों के साथ बड़ा करती हैं कि औरतें मार पिटाई और जूते की नोक पर रखे जाने की हकदार हैं। अपने लिए इन औरतों को कभी खड़ा होना आता ही नहीं है। यदि वे किसी ऐसी औरत को देखती हैं जो स्वतंत्र हो और अपनी इच्छा से जी रही हों तो उन्हें उस पर उंगली उठाने का मौका मिल जाता है और अपनी भड़ास वे उन औरतों पर निकालती हैं जो अपने निर्णय लेने में खुद सक्षम हैं।
कुल मिलाकर मैंने यह देखा है कि हमारे समाज में अकेली औरतों को उपेक्षा की नजरों से ही नहीं देखा जाता बल्कि उनकी काबिलियत पर भी शक किया जाता है। यदि कोई तलाकशुदा या विधवा महिला हो तो उसका जीना समाज दुश्वार करता है और उसे आगे बढ़ाने के लिए कोई खड़ा नहीं होता। उसके चरित्र पर उंगली उठाना, उसका नाम किसी से भी जोड़ देना, उसके हंस के बात कर लेने पर आपत्ति जताना, यह सब छोटी सोच को दर्शाता है।
मुझे यह समझ नहीं आता कि किसी शराबी व्यक्ति या जो हर समय मार पिटाई करता हो, उसके साथ जिंदगी बिताने में आखिर औरत की कौन सी सुरक्षा है ? औरत आखिर इतनी नाकाबिल क्यों है कि वो ऐसी बिना आत्म सम्मान की जिंदगी जीती ही जाती है।
यहां उन घरों की बात नहीं हो रही है जहां पुरुष और स्त्री मिल जुलकर प्यार मोहब्बत से अपने घर गृहस्थी चलाते हैं। यहां सिर्फ उन औरतों की बात हो रही है जिनको उनके परिवार में सम्मान नहीं मिलता या सिर्फ औरत होने की वजह से उन्हें नीचा दिखाया जाता है। ना सिर्फ पुरुष वरन औरतें ही उन्हें यह समझाती हुई नजर आती हैं कि जैसी भी जिंदगी हो अपने पति के साथ जीते रहो।
शायद ही किसी औरत ने कभी किसी औरत को यह संबल दिया हो कि तुम घरेलू हिंसा की शिकार हो तो उठो और अपने पैरों पर खड़ी हो।
पुरुष मार पिटाई करना अपना जन्मसिद्ध अधिकार समझते हैं और एक - आध थप्पड़ चला देने को भी अपना प्यार ही समझते हैं। जबकि हाथ उठाना किसी भी सूरत में वाजिब नहीं कहा जा सकता है।
मुझे लगता है कि अब वह वक्त है कि औरतों को अपने लिए सोचना स्वयं शुरू कर देना चाहिए‌। यदि कोई औरत वाकई घरेलू हिंसा की शिकार है तो उसे अपने पैरों पर खड़ा होने की कोशिश कर ऐसी नरक की जिंदगी से निकलने की कोशिश करनी चाहिए । क्योंकि कोई भी औरत इतनी नाकाबिल नहीं हो सकती कि वो दो वक्त की रोटी कमाकर खा नहीं सकती।
मुझे तो बहुत देर बाद अपने वजूद का एहसास हुआ है, उम्मीद करती हूं कि यह लेख पढ़ने के बाद शायद कुछ और औरतों को भी हिम्मत आए और वह आगे बढ़कर अपना भविष्य खुद तय कर सकें।
मेरे साथ आप भी यह तय करें कि कौन हूं मैं और मेरा वजूद आखिर है क्या?
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