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विज्ञान उपयोगी है तो धर्म उपादेय

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13 Dec 17
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विज्ञान उपयोगी है तो धर्म उपादेय उदयपुर । प्रकृताचार्य चर्याचक्रवर्ती अध्यात्मयोगी चतुर्थ पट्टाधीश विशाल संघ नायक आचार्यश्री सुनीलसागरजीमहाराज प्रात: विहार कर अशोक नगर स्थित विज्ञान समिति में पधारे। प्रात:कालीन धर्मसभा विज्ञान समिति में हुई। विज्ञान समिति में धर्मसभा को सम्बोधित करते हुए आचार्यश्री सुनीलसागरजी महाराज ने कहा कि इंसान वो नहीं, हालात बदल दे जिसे। इंसान वो है, जो हालात बदल देता है। आवश्यकता आविष्कार की जननी है। इंसान जब किसी हालात में फँसा व जैसी ज़रूरत महसूस हुई तब उसने वैसी खोज की। एक समय था जब लोग नहीं जानते थे कि क्या खाना, क्या बोलना, क्या उपयोगी है तो क्या अनुपयोगी है। उस समय प्रथम तीर्थंकर आदिनाथ का जन्म हुआ, उन्होंने सबको जीने का तरीक़ा समझाया। सबसे पहले वैज्ञानिक कहे तो आदिनाथ स्वामी हुए जिन्हें आज लोग अलग अलग नाम से जानते है। महावीर स्वामी सुपर सायंटिस्ट, जिनके शासन काल में हम जी रहे है आज जितना एवं जो भी विज्ञान बता रहा है वह महावीर प्रभु ने वर्षों पहले ही बता दिया था। सूक्ष्मता की बात करने वाला विज्ञान अणु के संशोधन में लगा है। प्रभु ने एक निगोद शरीर में अनंत जीव राशि के बारे में बता दिया। धर्म पूरा सत्य का दर्शन कराता है, वह असीम है।
आचार्यश्री ने कहा कि विज्ञान सीमित एवं अधूरा है। धर्म में कोई कमी नहीं है, उसके सिद्धांत कभी बदलते नहीं है। विज्ञान के सिद्धान्त बदलते रहते है। धर्म की अपनी विशेषता है, विज्ञान की अपनी है पर वास्तव में देखा जाए तो विज्ञान उपयोगी है और धर्म उपादेय है। विज्ञान सुविधा के साधन उपलब्ध कर देता है, धर्म मेरा निजी स्वभाव है जो परमानंद का अनुभव कराता है। धर्म अपने आप में परिपूर्ण है। छोटी सी मार्मिक पुस्तक जैनाचार विज्ञान लिखी है जिसमें हमारी संस्कृति, हमारी मान्यता एवं क्रियाएँ जो महावीर स्वामी ने बताई है वह कैसे वैज्ञानिक है उसका प्ररूपण किया है।
महावीर ने कहा जीओ और जीने दो। सारा विज्ञान इसमें समाहित हो गया। आविष्कार मात्र को विज्ञान न माने, जीव को भी जीव मानना ज़रूरी है। किसी जीव पर शस्त्र चलाना ऐसा विज्ञान क्या काम का? अणुबोंब आविष्कार पर ख़ुशियाँ मनाई गई, वह मौत का सामान था, हत्याकांड हुए, युद्ध हुए तो मातम मनाया जाता है। माइक से बोल रहे है वह विज्ञान से, घड़ी चल रही है, कैमरा रेकोर्ड कर रहा है, आज जहाँ जो चाहे यह प्रवचन सुन रहा है, यह सब विज्ञान की देन है। धर्म के बिना विज्ञान विनाश का कारण बन सकता है। वास्तविक विकास तो धर्ममय विज्ञान से ही हो सकता है। महावीर ने उसे वीतराग विज्ञान कहा है। तीन भुवन में सार है वीतराग विज्ञान जो आत्मा की अनंत शक्ति प्रगट होने के बाद प्रगट हुआ है। विज्ञान आत्मा जैसा कोई अस्तित्व आसानी से स्वीकार नहीं करता। पर वह एकदम अस्वीकार भी नहीं कर सकता। चींटी, पेड़, हवा, पशु सबमे चैतन्य आत्मा है, योनि व कर्म अलग अलग है। यह दृष्टि धर्म देता है।
आचार्यश्री ने कहा कि विज्ञान ने सभ्यता सिखाई, धर्म ने संस्कृति सिखाई। पढ़े लिखे नौजवान भी बड़ों का अपमान कर देते है, अपना दायित्व नहीं निभाते। यह तुलना करने बैठे है वैसा नहीं है, पर समझना है कि धर्म के साथ विज्ञान हो तो जीवन में संतुलन आता है। बारूद से शांति नहीं होगी, जब होगी वह अहिंसा व प्रेम से होगी। जैन सूत्र है परस्परोग्रहो जीवानाम। विश्व संरक्षण, विश्व शांति के लिए सबसे महत्वपूर्ण सूत्र, बहुत बड़ा संदेश है। वनस्पति में जीव है अनेक
दार्शनिक ने माना है, वैज्ञानिक जगदीश चन्द्र बॉस ने प्रमाण सहित बताया है हमारे जैसे पेड़ भी प्रेम विकसित होते है व ज़हर से मर जाते है। अग्नि भी जीव है। पशु-पक्षी तो है ही, महावीर प्रभु इन सबको पर्याय कहते है। विज्ञान भी स्वीकार करता है, हमारे ही अच्छे बुरे भाव पुण्य व पाप कर्म रूप परिणमन करते है। जैसे रूप रचना से सूक्ष्म परमाणु पानी बनते है। वैसे ही कुछ सूक्ष्म परमाणु पुण्य कर्म बनते है, कुछ पाप कर्म बनते है। कर्म सिद्धांत की बात करे तो जैसे कैमरा है वह हमने पकड़ नहीं रखा, पर वह हमारे फ़ोटो, आवाज़ सब पकड़ रहा है। आगे जब चाहे उसे देख सकते है वैसे ही मन के विचार काय कीक्रिया से कर्म परमाणु को पकड़ता है, भविष्य में फल देता है। चिप का वजऩ वही है जो पहले था, अब उसमें हज़ारों फ़ोटो है, जो जितना सूक्ष्म है उतनी अधिक कपैसिटी होती है। बड़ी सी.डी. मी 2-3 घंटे की फि़ल्म आती है, आज 36, 46 में दुनिया समा जाती है। ध्यान रहे 3 जी के साथ श्रीजी को भी याद रखो। अंत समय, दु:ख के समय श्रीजी ही काम आते है। धर्म विज्ञान को मार्गदर्शन देता है। मोबाइल से ऐसा चिपकता है कि वह भी संवेदन शून्य हो जाता है, आसपास क्या हो रहा है, पता ही नहीं चलता। रोबोट में जो भावना भर दो, वह ऐसा काम करेगा, हँसेगा, रोएगा, मारेगा पर उस पर संतुलन न कर पाए तो तुम्हारा ही दुश्मन बन जाएगा। उसमें भावना नहीं है, वह स्वयं जानता नहीं, देखता नहीं। हम जानते है, ज्ञानी है, संवेदनशील है, इंसान जैसा कार्य करे। आत्मा को अपनी परीपूर्णता को प्राप्त कराए वह धर्म। विज्ञान जो देखता है उसहि प्रमाण मानता है। आत्मा अमूर्तिक है, इतनी सूक्ष्म है, इतनी शक्तिशाली है, पकड़ में नहीं आती है।
मानव मशीन बनाए, स्वयं मशीन न बन जाए। मशीन हो ठीक बात, मानव मशीन न बन जाए वरना देश को ख़तरा है। विज्ञान मानव को बंदर का विकास मानता है, चार पैर से धीरे धीरे दो पैर, दो हाथ वाला हुआ अब वापिस मानव का हास हुआ जो बाइकि व कम्प्यूटर पर बैठा हुआ वापिस झुकता जा रहा है, पतन की ओर बढ़ रहा है। इसीलिए तत्व ज्ञान, आत्मा व पुद्गल का भेदविज्ञान सारभूत विज्ञान है। वैज्ञानिक सोच ज़रूरी है, संसाधन होना ठीक है, पर परीपूर्णता के लिए धर्म की छत्र छाया होना ज़रूरी है। अंतिम सास तक काम करते रहना चाहिए, थोड़ा समय आत्मचिंतन के लिए देना चाहिए। बिजली आदि संसाधन के पराधीन नहीं होना कि उसके बिना प्राण ही चले जाए प्राकृतिक, सांस्कृतिक, अहिंसक वैज्ञानिक जीवनशैली हो, मंगलमय जीवन हो, समाज का मंगल हो।
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