उदयपुर । महाराणा प्रताप कृषि एवं प्रोद्यौगिकी विश्वविद्यालय, उदयपुर के संघटक अनुसंधान निदेशालय में ’’किसान खेत पर अधिकतम लाभ के लिए जैविक प्रबन्धन रणनीतियाँ’’ पर एक दिवसीय किसान प्रशिक्षण कार्यक्रम का दिनांक १६ जुलाई २०१८ को सुबह ११.०० बजे आयोजन किया गया, जिसमें उदयपुर जिले की झाडोल तहसील के ४ गाँवों (बांतीवाडा, डाबला, बिरोठी एवं जुडली) के ९० किसान तथा कृशि वैज्ञानिकों ने भाग लिया।
कार्यक्रम के मुख्य अतिथि डॉ. पी. एस. राठौड, कुलपति, श्री कर्ण नरेन्द्र कृशि एवं प्रौद्योगिकी विष्वविद्यालय, जोबनेर तथा कार्यक्रम की अध्यक्षता प्रो. उमा शंकर शर्मा, माननीय कुलपति, म.प्र.कृ.एवं प्रौ.वि.वि. उदयपुर ने की।
डॉ. पी. एस. राठौड, कुलपति, श्री कर्ण नरेन्द्र कृशि एवं प्रौद्योगिकी विष्वविद्यालय, जोबनेर ने कहा कि उर्वरक एवं पेस्टीसाइड के संतुलित उपयोग न करने के कारण मृदा एवं मानव स्वास्थ्य पर विपरीत प्रभाव पडा है। डॉ. राठौड ने बताया कि जमीन एवं जल दोनों स्वस्थ कृशि के लिए आवष्यक है, लेकिन आज कई क्षैत्रों में मृदा एवं जल के खराब हो जाने के कारण खाद्यान्न उत्पादकता पर विपरीत प्रभाव पडने लगा है। उन्होनें कहा कि रासायनिक खेती में रसायनों के उपयोग के बावजूद खरपतवार, रोग एवं कीटों की मात्रा बढ रही है और इसका कारण है कि किसानों ने खेती के सिद्धान्तों को छोड दिया है। अतः पुनः किसानों द्वारा खेती के सिद्धान्त अपनाने के लिए जैविक खेती आवष्यक है। उन्होन बताया कि मथानिया (जोधपुर) में एकल फसल चक्र अपनाने के कारण मिर्च का क्षैत्रफल एवं उत्पादन कम हो गया है। उन्होनें कहा कि फसल चक्र, मिश्रित खेती, पादप अर्क, स्थानीय फसल उत्पादों का खाद में उपयोग, जैव उर्वरक, बायोपेस्टीसाइड तरका उर्वरक, नीम उत्पाद, गौमूत्र उत्पाद आदि अपनाकर खेती में लागत कम कर सकते हैं। उन्होनें कहा कि बिना मृदा एवं पषु स्वास्थ्य के बिना मानव स्वास्थ्य ठीक नहीं रखा जा सकता है। अतः जैविक खेती के सिद्धान्तों को खेती में अपनाकर खाद्य एवं पोशण सुरक्षा को बनाये रखा जा सकता है।
प्रो. उमा शंकर शर्मा, कुलपति, म.प्र.कृ.एवं प्रौ.वि.वि. उदयपुर ने किसानों को सम्बोधित करते हुए बताया कि कृशि में सफलता के उत्पादन के साथ-साथ मार्केट के बारे में सजगता अति आवष्यक हैं। किसानों को पुराने खेती के ज्ञान को विज्ञान की नई तकनीकों के साथ मिलकर संस्थागत मार्केटिंग की पहल करनी होगी तभी २५ से ५० प्रतिषत अधिक प्रिमियम मूल्य किसानों को कृशि उत्पाद का प्राप्त होगा। इनके लिए किसानों को स्वयं सहायता समूह तथा किसान उत्पादक समूह के माध्यम से राश्ट्रीय मार्केट से जुडना होगा। इसके लिए नये ज्ञान एवं तकनीकी को बराबर अपनाना होगा। उन्होनें बताया कि जयसमन्द की मछली, कानोड के टमाटर, झाडोल की सफेद मूसली, गोगुन्दा की हल्दी आदि की मेवाड में अच्छी पहचान है। जैविक क्षैत्र में किसान की साख महत्वपूर्ण होती है। अतः जैविक नियमों की किसानों की जानकारी अति आवष्यक है। किसानों को खेत व मिट्टी की बीमारी तथा अन्य चीजों की जानकारी होनी चाहिए। किसान हिन्दुस्तान का ह्वद्य है। आज जैविक खेती खत्म हो चुकी है।
अनुसंधान निदेषक डॉ. अभय कुमार महता ने बताया कि आज किसान मवेषी नहीं रखते है। इसका कारण है कि विज्ञानी खेती बढने से मषीनों द्वारा कार्य करने लगे हैं। लेकिन बिना पषुधन के मृदा का स्वास्थ्य कैसे ठीक रखेंगे यह एक प्रष्नचिन्ह है। अगर मृदा स्वास्थ्य कार्ड की सिफारिषों के अनुसार किसान खेती करता है तो १० से २० प्रतिषत की उपज में इजाफा तथा लागत में कमी की जा सकती है। इस सन्देष को अधिक से अधिक किसानों तक पहुंचाना चाहिए। मृदा ठीक होगी तो वनों की संख्या बढेगी जिसमें वर्शा अच्छी होगी और पानी की कमी नहीं रहेगी। अतः मिट्टी का मानव जीवन एवं वर्शा से घनिश्ट सम्बन्ध है।
कार्यक्रम आयोजन सचिव एवं क्षैत्रीय अनुसंधान निदेषक डॉ. एस. के. षर्मा ने बताया कि इस कार्यक्रम में जैविक कृशि समूह निर्माण करना, तरल जैविक खाद तथा पौध अर्क आधारित रोग एवं कीट प्रबन्धन तथा जैविक फार्म प्रबन्धन द्वारा लागत कम करने के बारे में बताया गया।
जैविक खेती के महत्वपूर्ण बिन्दु
जैविक खेती हमारे लिए नया षब्द या विधि नहीं है। षुभ लाभ की खेती हमारे देष में प्रचलित है।
भारत के किसानों ने विष्व को जैविक खेती के ज्ञान से अवगत कराया लेकिन आज विष्व के सबसे अधिक विकसित १० देष जैविक खेती को अपनाने के और तेजी से आगे बढ रहे है।
विष्व में १७९ देषों में जैविक खेती की जा रही है जिसमें भारत का स्थान १३वां है।
भारत में २९ राज्यों में जैविक खेती की जा रही है लेकिन सबसे बडा राज्य होने के बावजूद राजस्थान का स्थान जैविक क्षेत्रफल में तीसरा तथा उत्पादन में पांचवा है।
विष्व में सबसे ज्यादा जैविक किसान भारत में है लेकिन क्षेत्रफल की दृश्टि से हमारा देष १०वें स्थान पर है।
विष्व में जैविक कृशि की षुरूआत १९४० के दषक से मानी जाती है लेकिन आधुनिक जैविक कृशि की षुरूआत १९८० के दषक से मानी जाती है। वर्श २०१५ से जैविक खेती को नवाचार जैविक खेती के रूप में विकसित किया जा रहा है।
विष्व में सन् १९७२ से जैविक कृशि के नियमन के कार्य षुरू किए गये। भारत में जैविक कृशि नीति २००५ में घोशित की गई जबकि राजस्थान में जैविक कृशि नीति की घोशणा वर्श २०१७ में की गई।
वर्तमान में जैविक बाजार ५००० रू. करोड का है जो वर्श २०२५ तक उच्च तकनीकी परिवर्तन/मांग के आधार पर ४५००० करोड का अनुमानित है।
भारत सरकार के अनुसार देष के षुद्ध कृशित क्षेत्र का १० प्रतिषत क्षेत्र जैविक कृशि में लाया जा सकता है।
बढती खाद्य मिलावटे, केरल में एण्डोसल्फान पेस्टीसाइड की दुर्घटना, पंजाब की कैंसर ट्रेन तथा पेस्टीसाइड के असंतुलित उपयोग, पर्यावरण प्रदूशण मृदा स्वास्थ्य का बिगडता स्वरूप आदि घटनाओं से जैविक खाद्य पदार्थो की मांग १०-२० प्रतिषत बढ रही है।
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