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प्रभु भक्ति से बुरे कर्मों का नाश होता है: आचार्यश्री

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18 Nov 17
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प्रभु भक्ति से बुरे कर्मों का नाश होता है: आचार्यश्री प्राकृताचार्य आचार्यश्री सुनील सागरजी महाराज की श्रुतसन्निधि में सुनीलसागर जी महाराज चातुर्मास समिति, जैन विद्या एवं प्राकृतिक विभाग, मोहनलाल सुखाडिय़ा विवि उदयपुर एवं भारतीय प्राकृति स्कॉलर्स सोसायटी उदयपुर के संयुक्त तत्वावधान में आयोजित अखिल भारतीय प्राकृत संगोष्ठी का शुुभारम्भ आचार्यश्री सुनीलसागरजी महाराज के सानिध्य में शुक्रवार को हुमड़ भवन में हुआ। संगोष्ठी में देश के विभिन्न प्रान्तों से आये 40 विद्वानों ने शिरकत की।
अध्यक्ष शांतिलाल वेलावत ने बताया कि संगोष्ठी का शुुभारम्भ दीप प्रज्वलन एवं मंगलाचरण के साथ हुआ। संगोष्ठी का प्रथम सत्र प्रात: 8 बजे से प्रात: 10 बजे तक चला। इस सत्र के अध्यक्ष प्रो. प्रेमसुमन जैन पूर्व अधिष्ठाता, कला महाविद्यालय, मोहनलाल सुखाडिय़ा विवि उदयपुर, मुख्य अतिथि डॉ. श्रेयांस कुमार जैन अध्यक्ष अखिल भारतीय दिगम्बर जैन शास्त्री परिषद, सारस्वत अतिथि प्रो. अशोक कुमार जैन- वाराणसी थे। संगोष्ठी में स्वागत उद्बोधन प्रो. जिनेन्द्र कुमार जैन ने दिया। आभार डॉ. राजेश कुमार जैन ने ज्ञापित किया। संगोष्ठी संयोजक डॉ. ज्योति बाबू जैन थे।
महामंत्री सुरेश पद्मावत ने बताया कि दोपहर 2 बजे से 5 बजे तक द्वितीय सत्र चला। सत्र के प्रारम्भ में आचार्यश्री सुनीलसागरजी महाराज ने आशीर्वचन प्रदान किये। द्वितीय सत्र के अध्यक्ष डॉ. देव कोठारी उदयपुर, संयोजक डॉ. राजेश कुमार जैन थे। इसमें कुल 10 प़त्रों का वाचन किया गया जिनमें मुख्य वक्ताओं के रूप में डॉ. सनत कुमार जैन, आशीष कुमार जैन- वाराणसी, पारसमल अग्रवाल- उदयपुर, डॉ महेन्द्र कुमार जैन मनुज इन्दौर, प्रो अशोक कुमार जैन- वाराणसी, डॉ. महावीर पी शास्त्री-सोलापुर, डॉ. सुमत कुमार जैन- जयपुर, डॉ. योगेश कुमार जैन लाडनू, एडवोकेट अनूपचन्द जैन फिरोजाबाद तथा बाड़मेर से डॉ. मधु जैन ने पत्रवाचन किया।
सायं 6 बजे बाद संगोष्ठी का तृतीय सत्र प्रारम्भ हुआ। इस सत्र में आचार्यश्री सुनील सागरज महाराज ने आशीवर्चन प्रदान किये। सत्र की अध्यक्षता डॉ. अनूप जैन इन्दोर ने की। संगोष्ठी संयोजक डॉ. योगेश कुमार जैन लाडनू थे। इस सत्र में भी दस वक्ताओं ने अपने पत्रवाचन किये। पत्रवाचकों में मुख्य रूप से मुनिश्री संबुद्ध सागर महाराज, डॉ. आशीष कुमार जैन शाहगढ, डॉ. राजेश कुमार जैन उदयपुर, डॉ. सरोज जैन उदयपुर, श्रवण कुमार जैन, सागर, डॉ. कल्पना जैन दिल्ली, श्रीमती सुरेखा एस. नरदे, सांगली, डॉ. निर्मला जैन, उदयपुर एवं डॉ. रेखा जैन उदयपुर ने पत्रवाचन किया।
प्रचार मंत्री पारस चित्तौड़ा ने बताया कि संगोष्ठी में कुल पत्र वाचन हुए। बाहर से आये सभी प्राकृत विद्वानों ने बारी- बारी से अपने व्याख्यान दिये। सभी ने एक मत से प्रकृत भाषा को बढ़ावा देने की बात कही। वक्ताओं ने कहा कि प्राकृत भाषा अपने आप में एक समृद्ध भाषा है, यह सिर्फ भाषा ही नहीं बल्कि यह एक संस्कृति है। इसे आमजन में फिर से लोकप्रिय बनाने, इसके बारे में जागरूकता पैदा करने तथा इसकी शिक्षा देने के लिए समय- समय पर ऐसी संगोष्ठियों और शिविरों के आयोजन करने की बात कही। संगोष्ठी के दूसरे दिन कार्यक्रम की मुख्य अतिथि राजस्थान की उच्च शिक्षा मंत्री श्रीमती किरण माहेश्वरी होंगी।
डोल यात्रा में शामिल हुए समाजजन: गुरूवार रात्रि को आर्यिक अमूर्तमति माताजी के समाधिमरण के बाद शुक्रवार प्रात: 7 बजे सम्भवनाथ धर्मशाला से आर्यिकाजी की डोल यात्रा अशोक नगर श्मशान घाट के लिए प्रारम्भ हुई जिसमें सकल दिगम्बर जैन समाज के सैंकड़ों जन शामिल हुए। अशोक नगर श्मशान घाट पर आर्यिकाजी का विधिविधान के साथ अन्तिम संस्कार सम्पन्न हुआ।
विनयांजलि सभा: आर्यिक अमूर्तमति माताजी के अन्तिम संस्कार के बाद सभी समाजजन हुमड़ भवन पहुंचे जहां पर आचार्यश्री सुनीलसागरजी ससंघ के सानिध्य में विनयांजलि सभा हुई। विनयांजलि सभा में महिला- पुरूषों एवं बुजुर्गों सहित सैंकड़ों समाज जन सम्मिलित हुए। विनयांजलि सभा में आचार्यश्री ने सभी समाजजनों ने माताजी के लिए कीर्तन करवाया।
प्रभु भक्ति से बुरे कर्मों का नाश होता है: आचार्यश्री सुनील सागरजी
इस अवसर पर आचार्यश्री सुनीलसागरजी महाराज ने कहा कि परमात्मा को भक्तिभाव से याद करने से कर्मों का नाश होता है। जीवन में घर बदलने से, मकान बदलने से या नौकरी धन्धा बदलने से जीवन नहीं बदलता है, असल में जीवन अगर बदलता है तो धर्म- ध्यान और प्रभु की भक्ति करने से। ध्यान के लिए कोई खास थोड़ी करना पड़ता है। एक शुद्ध जगह पर आसन लगा लो, दोनों हाथ बांध कर आंखें बन्दर करके सिर्फ प्रभु का ध्यान करो और कुछ भी मत सोचो। सारे बुरे विचार और विकार मन से निकाल दो और सिर्फ प्रभु का स्मरण करो। उसका फल निश्चित ही मिल जाएगा।
आचार्यश्री ने कहा कि आचार्यश्री ने कहा कि जहां श्रद्धा है, विश्वास है वहां ज्ञान है। अगर आपको ज्ञानार्जन कना है, सम्यगदृष्टि सम्यगज्ञान प्राप्त करना है तो श्रद्धा और विश्वास तो करना ही पड़ेगा। श्रद्धा से ही आत्मबोध और आत्मज्ञान की प्राप्ति होती है। जीवन तो हर किसी को मिला है। लेकिन उनमें से सार्थक कितनों का है यह विचारणीय प्रश्न है। त्यागी और तपस्वी अपने जीवन के साथ मरण को भी सुधारने के प्रयास में लगे रहते हैं। उनमें आत्मबोध और आत्मज्ञान होता है तभी तो वो सांसारिक मोहमाया से दूर होकर अपना त्यागी जीकर सिर्फ परमात्मा की आराधना में लगे रहते हैं। समाधिमरण होना यानि कई- कई मरण से छुटकारा पाना है। जिनका समाधिमरण होता है वह सौभाज्यशाली होते हैं। वह होश में मरते हैं। अस्पतालों में या घरों में बिस्तर पर दवाईयां लेते- लेते तो हर कोई मरता है और वो जब तक जीता है दवाईयों के सहारे ही जीता है। लेकिन त्यागी दवाईयों के नहीं प्रभु के सहारे जीते हैं और जब मरण को प्राप्त होते हैं तब भी बिस्तर पर नहीं वह प्रभु स्मरण करते- करते ही मरण को प्राप्त होते हैं। इसलिए जीवन के साथ मरण को भी सुधारना है तो प्रभु भक्ति करो, प्रभु स्मरण करो इससे बुरे कर्मों का नाश तो होता ही है साथ में जन्म के साथ मरण भी सुधर जाता है।
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