उदयपुर, प्रवचन तो सब बहुत देते है, कि क्रोध, मान आदि नहीं करना चाहिए तो उनके जीवन में से क्रोध, मान, लोभ आदि जाते क्यों नहीं है। आचार्यश्री ने कहा कि उसका स्वरूप क्या है? विकारों का बोझ नहीं मनुष्य को आत्मा के विवेक का बोध पाना है। पूर्व के बंधे कर्मों से ही जीवन चलता रहेगा और वर्तमान पुरुषार्थ कुछ काम नहीं करेगा ऐसा सोचने वाला कभी अपने आत्म स्वभाव का बोध नहीं पा सकता। आत्मा के स्वरूप को ग्रहण करने के लिए प्रज्ञा की आवश्यकता होती है। होश में जीने वाला ही वास्तविकता तक पहुँच पाता है। जैसे धान और भूसे को अपनी ज्ञान प्रज्ञा के माध्यम से अलग अलग नहीं किया तो रोटी में मिट्टी आएगी, ही वैसे ही आत्मा व कर्म कषाय को अलग जानना चाहिये। आत्मा और देह दोनों अलग अलग हैं। दोनों को अलग समझो ताकि आत्मा स्वाद लेने में मिट्टी रूपी विकार न आ पाए। भेद ज्ञान के पुरुषार्थ से ही जीवन सुखमय बनेगा। उक्त विचार आचार्य सुनील सागर महाराज ने हुमड भवन में आयोजित प्रातःकालीन धर्मसभा में व्यक्त किये।
आचार्यश्री ने अनित्य, अशरण आदि द्वादश अनुप्रेक्षा को समझाते हुए कहते है कि यह शरीर अशुचिमय है। आचार्यों ने बारह अनुप्रेक्षाओ को वैराग्य की जननी कहा है। तो सहज प्रश्न होता है कि फिर यह शरीर से घृणा करना सिखाना कितना उचित है? तो कहते है बारह भावना विरक्ति के बोध के साथ वास्तविकता से परिचित कराती है। प्रारंभिक 6 भावना विरक्ति प्रशक है और बाद की 6 भावना उदबोधन प्रशक है। नफरत से नहीं, आत्मबोध से वैराग्य ही सार्थक है। महावीर का शासन अहिंसा की बात सिखाता है। वस्तु, शरीर तो नश्वर है ही तो उनका लोभ करना व्यर्थ है। पाप से घृणा करने को कहा है, पापी से नहीं। जो हमारे लिए सहकारी नहीं उसका सहारा क्यों लेना? यह शरीर ऐसा ही मल, रक्त, रुधिर, माँस आदि से भरा है, इसके सदुपयोग से धर्म-ध्यान कर सद्गति पाना ही बुद्धिमानी है। देह को भोग में लाएँगे तो संकट का काम करेगी और योग साधना में लायेंगे तो संकट-मोचन का काम करेगी। जैसे तुमडी खा लो तो मर जायेंगे और उसे सुखा दिया जाए तो तर जायेंगे, वैसे ही शरीर को भी भोग में लायेंगे तो मर जायेंगे और तपस्या करके सुखा लिया जाए तो समाधि सुमरण करके एक दिन भाव से तर जायेंगे। अपने आचार-विचार, व्यापार में ऐसी प्रवक्तिया हो कि जीवन में क्लेश नहीं शांति और आनंद बढे।
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