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स्वयं की शक्ति को जानने और शक्ति की उपासना के नौ दिन

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21 Sep 17
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स्वयं की शक्ति को जानने और शक्ति की उपासना के नौ दिन
डॉ. प्रदीप कुमावतज्यादातर लोग नवरात्री के बारे में विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से जानकारी ले लेते है लेकिन फिर भी नवरात्री के बारे में ऐसी जानकारीयाँ है जिनका उल्लेख सामान्यतः पत्र-पत्रिकाओं में नहीं मिलता। शक्ति उपासना के नौ दिन ही क्यों महत्वपूर्ण है इसके बारे में मैं आपको आगे जानकारी दूँगा उससे पूर्व हम आदि सत युग में चलते है जहाँ दक्ष प्रजापति की पुत्री जिसे हम शक्ति के नाम से जानते है मूलतः वह दक्ष प्रजापति की पुत्री शक्ति ही है बाद में अपभ्रंश होकर सती के नौ रूप में जानी गयी। यह पार्वती माता भी है, जो पर्वतों के राजा हिमालय की पुत्री है, इसलिये इनका दूसरा नाम पार्वती भी है। साम्बसदा शिव जिनका विवाह दो बार हुआ पहला विवाह उमा यानि शक्ति से हुआ बाद में दूसरे जन्म में यहीं शक्ति पार्वती के रूप में हिमालय की पुत्री के रूप में जन्मी। दोनों एक ही हैं, समय चक्र में नाम भिन्नता है। इन्हीं माँ पार्वती के नौ रूप गुणों और विशेषताओं के आधार पर अलग-अलग नामों से जानी जाती है। ये नौ दिन सर्वाधिक अनुकूलताओं से भरे दिन हैं जहाँ सहज रूप से माँ की आशीष आराधना से हमें इन नौ दिनों में प्राप्त हो जाती है जो वर्षपर्यन्त ऊर्जा के रूप में साथ चलती है।
जब शक्ति की उपासना की जाती है तो आन्तरिक बल की आवश्यकता होती है और वह प्रदान करने वाली नव दुर्गा है और नवरात्री विशेष अवसर।
एक बार दक्ष प्रजापति ने यज्ञ किया और इस यज्ञ में अपने दामाद भोलेनाथ, भगवान शंकर को आमंत्रित नहीं किया। उनको आमंत्रण न देने की पीछे भी एक घटना है। दक्ष प्रजापति जो साक्षात ब्रह्मा के पुत्र है जिन पर सारी प्रजा की जिम्मेदारी है एक दिन उनकी सभा में आमन्त्रित लोग दक्ष के दरबार आगमन पर खडे हुये किन्तु भगवान शंकर, जो उनके दामाद है वो खडे नहीं हुये तो दक्ष उनसे नाराज हो गये। तब भोलेनाथ ने कहा मैं इस स्थूल शरीर से मैं खडा नहीं हुआ मेरे मन में आफ प्रति आदर भाव था। आदर भाव मन से होना चाहिये। शरीर का क्या है, खडा हो न हो। पर दक्ष प्रजापति ने इस बात का बुरा माना और उसी का बदला लेने के लिये इतने बडे यज्ञ में भगवान शंकर को निमन्त्रण नहीं भेजा। उनके लिये किसी आसन की भी व्यवस्था नहीं की गई थी गई थी। जब सारे देवी-देवता वहाँ पहुँचने लगे तब सती को इस बात का अफसोस होता है कि मेरे पिता के यहाँ यज्ञ है और मेरे को निमंत्रण भी नहीं। अपने पिता के घर बिना निमन्त्रण जाया जा सकता है, ये सोच वो वहाँ जाने को तत्पर होती है। शिव जी के मना करने के बाद भी वह नहीं रूकती है।
वह दक्ष के यज्ञ मंडप में जा पहुँचती है। स्वयं की उपेक्षा एवम् अपने पति का अपमान देखकर माँ सती अपने आप को अग्नि के हवाले कर देती है। उनके साथ श्रृंगी-भ्रृंगी गण आये थे वो तुरन्त पहुँच जाते है लेकिन वे सती माँ को बचा नहीं सके तो तुरन्त जाकर शिवजी को सूचना देते है और तब साक्षात् काल शिव वहाँ आते है और राजा दक्ष का सिर धड से अलग करते देते है, और माँ सती के शव को उठाकर भगवान विकराल रूप धारण कर पूरे ब्रह्माण्ड का चक्कर लगाने लगते है तो पूरे संसार में हाहाकर मच जाता है।
तब सभी देवता भगवान विष्णु के पास जाकर निवेदन करते है कि भगवान भोलेनाथ के इस विकराल ताण्डव रूप को आप ही रोक सकते है। भगवान विष्णु अपना सुदर्शन चक्र चलाते है और सुदर्शन से माँ सती के शव के एक-एक अंग कटकर जमीन पर गिरते है जहाँ-जहाँ उनके शरीर के अंग और आभूषण गिरे है वो स्थान ५१ शक्तिपीठों के रूप में जाने गये और आज भी चेतना अवस्था में है उनका ज्वलन्त उदाहरण माँ कामख्या देवी है जहाँ आज भी ऋतु चक्र के अनुसार तीन दिन मन्दिर बंद रहता है और वहाँ रक्तस्त्राव आज भी होता है जहाँ माँ की योनि गिरी थी।
माँ का पहला शक्तिपीठ ’हिंगलाज‘ माँ आज भी पाकिस्तान के बिलोचिस्तान में जहाँ मुसलमान भी ’नानी पीर‘ के रूप में पूजते हैं। मुख्य पीठों के अलावा जहाँ आभूषण एवम् वस्त्र गिरे वो उपशक्ति पीठों के रूप में जाने गये। उसी प्रकार यह घटना माँ के उन स्वरूपों को भी दिखाती है लेकिन मूल रूप से माँ शब्द अपने आप में दुर्गा के लिये पर्याप्त शब्द है।
नवरात्री के पहले दिन शेल पुत्री की पूजा होती है। माँ दुर्गा का प्रथम रूप पर्वत राज हिमालय के यहाँ जन्म होने के कारण शेल यानि-यानि शिलाखंड इसलिये शेल पुत्री की पूजा की जाती है। इसकी पूजा से हम धन-धान्य से परिपूर्ण रहते है। हम प्रथम दिन माँ दुर्गा को शेलजा के रूप में पूजा करते है।
दूसरा दिन ब्रह्वमचारीनी का है। यानि जो व्यक्ति ब्रह्वम की चर्या में लीन हो। त्याग, सदाचर, तपस्या, वैराग्य जिसके मन में भावना हो वो व्यक्ति माँ का आशीर्वाद पा सकता है। विद्यार्थीयों को विशेष रूप से माँ ब्रह्वचारिनी की पूजा करनी चाहिये।
माँ दुर्गा का तीसरा रूप है जिसका नाम है चन्द्रघण्टा। इसकी आराधना तृतीया को की जाती है। इसकी उपसान से जैसे एक मन्दिर में एक घण्टा बजाने के बाद हमारे सारे विचारों की तंद्रा टूट जाती है वैसे ही इसी प्रकार हमारे पापों का क्षय यहाँ हो जाता है, वीरता के गुण में वृद्धि होती है, स्वर में दिव्य वृद्वि होती है, हमारा आकर्षण बढता है। यही चन्द्रघण्टा की आराधना का फल है। १२ हाथों में शस्त्र धारण करने वाली चन्द्रघण्टा शक्ति और शौर्य प्रदान करने वाली है।
चौथा दिन कुशमाण्डा देवी का है। इस देवी की आराधना चतुर्थी के दिन की जाती है। इनकी उपासना से नव निधि और सिद्धि की प्राप्ति की जा सकती है। रोग, शोक का नाश होता है और आयु, यश और बल में वृद्धि होती है।
पांचवा दिन स्कंद माता का है। इनकी आराधना से मोक्ष की प्राप्ति होती है। मोक्ष का द्वार खोलने वाली जब हम दूसरों के कंधो पर बैठ कर जाते है यानि मोक्ष के द्वार की ओर बढते है यह स्कंद माता हमारे उस स्वर्ग की ओर वह स्कंद प्रदान करने वाली है जो इस जन्म में हमारी सारी इच्छा को पूरी करती है। अंततः संसार से मुक्ति का मार्ग प्रशस्त करती है। यही कारण है कईं लोग पंचमी से विशेष पूजा प्रारमभ करते हैं। तान्त्रोक्त साधना का शुभारम्भ भी उसी दिन से करते हैं।
छठा दिन माँ कात्यानी का है। इसकी आराधना से एक अद्भूत शक्ति का संचार होता है। माँ कात्यानी दुश्मनों का संहार करने में सक्षम बनाती है। इसका ध्यान गोधुलिक वेला में करना चाहिये। हथियारों की भी पूजा इस दिन की जाती है।
सातवां दिन काल रात्री का है। तांत्रिक लोग इस दिन विशेष तांत्रिक साधना करते है वहीं सामान्य जन अपने पापों की मुक्ति व दुश्मनों के नाश के लिये इस काल रात्रि पर पूजा करते है इससे दुश्मनों का नाश होता है।
आठवां दिन माँ गोरी का है। यह अष्ठमी पूजा का विधान है। इसकी पूजा सारा विश्व करता है। माँ गोरी सारे पापों का क्षय करती है, हमारे घरों में अन्न, धन, धान्य सब कुछ प्रदान करने वाली यह माँ गोरी है और यहीं शत्रुओं का शमन भी करती है और अनन्त शक्तियों को स्थाई करने और वैभव प्राप्त करने अष्टमी के अनुष्ठान विशेष उपयोगी है।
नवा दिन माँ सिद्धि दात्री की आराधना की जाती है। इसमें अणिमा, लगिमा, प्राप्ति, महिमा, सर्व कामना, अमृत सभी कामना इसके माध्यम से प्राप्त होती है। नवरात्री योगियों के लिये अपने सभी चक्रों को जाग्रत करने के लिये सर्वाधिक उपयोगी अवसर माने गये हैं। योग साधना के लिये भी नौ दिन विराट तपस्या के होते हैं।
नवरात्री के इन विशेष पर्वों पर एक महत्त्वपूर्ण बात यह कि यहाँ पर शारदीय नवरात्री पर ही माँ की शक्ति की पूजा की जाती है। जबकि वासंतिक नवरात्री पर सात्विक पूजा की जाती है। इसके अलवा दो गुप्त नवरात्रियाँ भी आती है। शारदीय नवरात्री पर शक्ति की पूजा की जाती है क्योंकि शरद ऋतु में ही शत्रुओं पर प्रहार किये जाते थे, शरद ऋतु में ही युद्व किये जाते थे इसलिये शक्ति की उपासना का यह महान् पर्व है जिनको अपनी शक्तियों का संचय करना है, अपनी शक्तियों को भी पहचाने का भी एक अवसर आता है। शक्ति केवल तलवार में नहीं है। शक्ति आफ कर्म में भी है। आप जब अपने ऊपर संयम करते है जब संयम से आप सारी बातों को नियंत्रित कर लेते है तब भी आपको अपनी शक्ति का आभास होता है।
मूलतः सरस्वती, लक्ष्मी और दुर्गा तीनों ही आद्य शक्तियाँ हैं और तीनों का मिला रूप ही नवदुर्गा है, किन्तु लक्ष्मी की पूजा कार्तिक अमावस्या और सरस्वती का पूजन बसन्त पंचमी पर विशेष पर्व में होता है। किन्तु शत्रुओं के शमन का पर्व नवरात्र है। रात्री में आसुरी शक्तियाँ तीव्र होती हैं। उन पर नियन्त्रण भी नवरात्री का मूल है। यानि स्वयं की सार्थक सकारात्मक शक्तियों को पहचान स्व की आसुरी प्रवृत्तियों को त्याग कर संयम पर बढना भी नवरात्री का परिणाम है।
मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम ने शत्रुओं पर विजय तभी पाई जब स्वयं संयमित रह कर नौ दिन आद्य शक्ति की उपासना की, तब रावण जैसे असुरों को मारा जा सका।
आओ अपनी शक्तियों को जानें, आसुरी प्रवृत्तियों का त्याग कर सृजन शक्तियों का विकास कर ’नवरात्री‘ में ऊर्जा से भर जायें।
आईये इस नवरात्री पर अपनी शक्ति की उपासना कर सके। अपनी शक्ति का उपयोग सृजन में कर सके। विध्ंवस न करके दुष्टों का नाश कर सके और उन्नति के शिखर पर अपन पताका फहरा सके जैसे भारत वर्ष उन्मुख है और पुनः विश्व गुरू की ओर बढ रहा है।
माँ के ये सभी स्वरूप हमें आशीर्वाद प्रदान करें।
जय भारत, जय माँ, जय-जय माँ.......



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